February 22, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 17 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सत्रहवाँ अध्याय विश्वकर्मा का आगमन, उनके द्वारा पाँच योजन विस्तृत नूतन नगर का निर्माण, वृषभानु गोप के लिये पृथक् भवन, कलावती और वृषभानु के पूर्वजन्म का चरित्र, राजा सुचन्द्र की तपस्या, ब्रह्मा द्वारा वरदान, भनन्दन के यहाँ कलावती का जन्म और वृषभानु के साथ उसका विवाह, विश्वकर्मा द्वारा नन्द-भवन का, वृन्दावन के भीतर रासमण्डल का तथा मधुवन के पास रत्नमण्डप का निर्माण, ‘वृन्दावन’ नाम का कारण, राजा केदार का इतिहास, तुलसी से वृन्दावन नाम का सम्बन्ध तथा राधा के सोलह नामों में ‘वृन्दा’ नाम, राधा नाम की व्याख्या, नींद टूटने पर नूतन नगर देख व्रजवासियों का आश्चर्य तथा उन सबका उन भवनों में प्रवेश भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! रात में वृन्दावन के भीतर सब व्रजवासी और नन्दरायजी सो गये । निद्रा के स्वामी श्रीकृष्ण भी माता यशोदा के वक्षःस्थल पर प्रगाढ़ निद्रा के वशीभूत हो गये। रमणीय शय्याओं पर सोयी हुई गोपियाँ भी निद्रित हो गयीं। कोई शिशुओं को गोद में लेकर, कोई सखियों के साथ सटकर, कोई छकड़ों पर और कोई रथों पर ही स्थित होकर निद्रा से अचेत हो गयीं । पूर्णचन्द्रमा की चाँदनी फैल जाने से जब वृन्दावन स्वर्ग से भी अधिक मनोहर प्रतीत होने लगा, नाना प्रकार के कुसुमों का स्पर्श करके बहने वाली मन्द मन्द वायु से सारा वन-प्रान्त सुवासित हो उठा तथा समस्त प्राणी निश्चेष्ट होकर सो गये, तब रात्रिकालिक पञ्चम मुहूर्त के बीत जाने पर शिल्पियों के गुरु के भी गुरु भगवान् विश्वकर्मा वहाँ आये। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय उन्होंने दिव्य एवं महीन वस्त्र पहन रखा था। उनके गले में मनोहर रत्न-माला शोभा दे रही थी। वे अनुपम रत्ननिर्मित अलंकारों से अलंकृत थे । उनके कानों में कान्तिमान् मकराकृत कुण्डल झलमला रहे थे । वे ज्ञान और अवस्था में वृद्ध होने पर भी किशोर की भाँति दर्शनीय थे । अत्यन्त सुन्दर, तेजस्वी तथा कामदेव के समान कान्तिमान् थे । उनके साथ विशिष्ट शिल्पकला में निपुण तीन करोड़ शिल्पी थे । उन सबके हाथों में मणिरत्न, हेमरत्न तथा लोहनिर्मित अस्त्र थे । कुबेर-वन के किङ्कर यक्षसमुदाय भी वहाँ आ पहुँचे। वे स्फटिकमणि तथा रत्नमय अलंकारों से विभूषित थे । किन्हीं-कन्हीं के कंधे बहुत बड़े थे । किन्हीं के हाथों में पद्मरागमणि के ढेर थे तो किन्हीं के हाथों में इन्द्रनीलमणि के। कुछ यक्षों ने अपने हाथों में स्यमन्तकमणि ले रखी थी और कुछ यक्षों ने चन्द्रकान्तमणि । अन्य बहुत-से यक्षों के हाथों में सूर्यकान्तमणि और प्रभाकरमणि के ढेर प्रकाशित हो रहे थे। किन्हीं के हाथों में फरसे थे तो किन्हीं के लोहसार। कोई-कोई गन्धसार तथा श्रेष्ठ मणि लेकर आये थे । किन्हीं के हाथ में चँवर थे और कुछ लोग दर्पण, स्वर्णपात्र और स्वर्ण कलश आदि के बोझ लेकर आये थे । विश्वकर्मा ने वह अत्यन्त मनोहर सामग्री देखकर सुन्दर नेत्रों वाले श्रीकृष्ण का ध्यान करके वहाँ नगर-निर्माण का कार्य आरम्भ किया। भारतवर्ष का वह श्रेष्ठ और सुन्दर नगर पाँच योजन विस्तृत था । तीर्थों का सारभूत वह पुण्यक्षेत्र श्रीहरि को अत्यन्त प्रिय है । जो वहाँ मुमुक्षु होकर निवास करते हैं, उन्हें वह परम निर्वाण की प्राप्ति कराने वाला है। गोलोक में पहुँचने के लिये तो वह सोपानरूप । सबको मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान करनेवाला है । वहाँ चार-चार कमरे वाले चार करोड़ भवन बनाये गये थे, जिससे वह नगर अत्यन्त मनोरम प्रतीत होता था । श्रेष्ठ प्रस्तरों से निर्मित वह विशाल नगर किवाड़ों, खम्भों और सोपानों से सुशोभित था । चित्रमयी पुत्तलिकाओं, पुष्पों और कलशों से वहाँ के भवनों के शिखर-भाग अत्यन्त प्रकाशमान जान पड़ते थे। पर्वतीय प्रस्तर-खण्डों से निर्मित वेदिकाएँ और प्राङ्गण उस नगर के भवनों की शोभा बढ़ा रहे थे । प्रस्तर-खण्डों के परकोटों से सारा नगर घिरा हुआ था । विश्वकर्मा ने खेल – खेल में ही सारे नगर की रचना कर डाली । प्रत्येक गृह में यथायोग्य बड़े-छोटे दो दरवाजे थे । हर्ष और उत्साह से भरे हुए देवशिल्पी ने स्फटिक जैसी मणियों से उस नगर के भवनों का निर्माण किया था। गन्धसार-निर्मित सोपानों, शंकु – रचित खम्भों, लोहसार की बनी हुई किवाड़ों, चाँदी के समुज्ज्वल कलशों तथा वज्रसारनिर्मित प्राकारों से उस नगरकी अपूर्व शोभा हो रही थी । उसमें गोपों के लिये यथास्थान और यथायोग्य निवास-स्थान बनाकर विश्वकर्मा ने वृषभानु गोप के लिये पुनः रमणीय भवन का निर्माण आरम्भ किया। उसके चारों ओर परकोटे और खाइयाँ बनी थीं। चारों दिशाओं में चार दरवाजे थे । चार-चार कमरों से युक्त बीस भव्य भवन बनाये गये थे। उस सम्पूर्ण भवन का निर्माण महामूल्य मणियों से किया गया था । रत्नसार-रचित सुरम्य तूलिकाओं, सुवर्णाकार मणियों द्वारा निर्मित अत्यन्त सुन्दर सोपानों, लोहसार की बनी हुई किवाड़ों तथा कृत्रिम चित्रों से वृषभानु-भवन की बड़ी शोभा हो रही थी । वहाँ का प्रत्येक सुरम्य मन्दिर सोने के कलशों से देदीप्यमान था । उस आश्रम के एक अत्यन्त मनोहर निर्जन प्रदेश में, जो मनोहर चम्पा-वृक्षों के उद्यान के भीतर था, पति सहित कलावती के उपभोग के लिये विश्वकर्मा ने कौतूहलवश एक ऐसी अट्टालिका बनायी थी, जिसका निर्माण विशिष्ट श्रेणी की श्रेष्ठ मणियों द्वारा हुआ था। उसमें इन्द्रनीलमणि के बने हुए नौ सोपान थे । गन्धसारनिर्मित खम्भों और कपाटों से वह अत्यन्त ऊँचा मनोरम भवन सब ओर से विलक्षण था । नारदजी ने पूछा — भगवन्! मनोहर रूपवाली कलावती कौन थी और किसकी पत्नी थी, जिसके लिये देवशिल्पी ने यत्नपूर्वक सुरम्य गृह का निर्माण किया ? भगवान् नारायण ने कहा — सुन्दरी कलावती कमला के अंश से प्रकट हुई पितरों की मानसी कन्या है और वृषभानु की पतिव्रता पत्नी है। उसी की पुत्री राधा हुईं जो श्रीकृष्ण को प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। वे श्रीकृष्ण के आधे अंश से प्रकट हुई हैं; इसलिये उन्हीं के समान तेजस्विनी हैं। उनके चरणकमलों की रज के स्पर्श से वसुन्धरा पवित्र हो गयी है। सभी संत-महात्मा सदा ही श्रीराधाके प्रति अविचल भक्तिकी कामना करते हैं। नारदजी ने पूछा — मुने! व्रज में रहने वाले एक मानव ने कैसे, किस पुण्य से और किस प्रकार पितरों की परम दुर्लभ मानसी कन्या को पत्नीरूप में प्राप्त किया ? व्रजके महान् अधिपति वृषभानु पूर्वजन्म में कौन थे किसके पुत्र थे और किस तपस्या से राधा उनकी कन्या हुईं? सूतजी कहते हैं — नारदजी की यह बात सुनकर ज्ञानिशिरोमणि महर्षि नारायण हँसे और प्रसन्नतापूर्वक उस प्राचीन इतिहास को बताने लगे । भगवान् नारायण बोले — नारद! पूर्वकाल में पितरों के मानस से तीन कन्याएँ प्रकट हुईं- ये तीनों ही कलावती, रत्नमाला और मेनका । अत्यन्त दुर्लभ थीं। इनमें से रत्नमाला ने कामनापूर्वक राजा जनक को पतिरूप में वरण किया और मेनका ने सती श्रीहरि के अंशभूत गिरिराज हिमालय को अपना पति बनाया। रत्नमाला की पुत्री अयोनिजा सत्यपरायणा सीता हुईं, जो साक्षात् लक्ष्मी तथा श्रीराम की पत्नी थीं। मेनका की पुत्री पार्वती हुईं, जो पूर्वजन्म में सती नाम से प्रसिद्ध थीं। वे भी अयोनिजा ही कही गयी हैं। पार्वती श्रीहरि की सनातनी माया हैं । उन्होंने तपस्या से नारायण-स्वरूप महादेवजी को पतिरूप में प्राप्त किया है। कलावती ने मनुवंशी राजा सुचन्द्र का वरण किया। वे राजा साक्षात् श्रीहरि के अंश थे। उन्होंने कलावती को पाकर अपने को गुणवानों में श्रेष्ठ और अत्यन्त सुन्दर माना। वे उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए मन-ही-मन कहते थे — ‘ इसका रूप अद्भुत है । वेष भी आश्चर्यजनक है और इसकी नयी अवस्था कैसी विलक्षण है। सुकोमल अङ्ग, शरत्काल के चन्द्रमा से भी बढ़कर परम सुन्दर मुख तथा गज और खंजन के भी गर्व का गंजन करने वाली दुर्लभ गति – सभी अद्भुत हैं।’ इस अपनी परम सुन्दरी पत्नी कलावती के साथ विभिन्न रमणीय स्थानों में रहकर सुदीर्घकाल तक विहार करने के पश्चात् राजा भोगों से विरक्त हो गये और कलावती को साथ लेकर विन्ध्यपर्वत की तीर्थभूमि में तपस्या के लिये चले गये । भारत में अत्यन्त प्रशंसा के योग्य वह उत्तम स्थान पुलहाश्रम के नाम से प्रसिद्ध है । वहाँ राजा ने मोक्ष की इच्छा मन में लेकर सहस्र दिव्य वर्षों तक तप किया। उनके मन में कोई लौकिक कामना नहीं थी । वे आहार छोड़ देने के कारण कृशोदर हो गये । श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करते-करते मुनिश्रेष्ठ सुचन्द्र को मूर्च्छा आ गयी। उनके शरीर पर जो बाँबी छा गयी थी, उसे उनकी साध्वी पत्नी ने दूर किया । पति को निश्चेष्ट, प्राणशून्य, मांस और रक्त से रहित तथा अस्थि- चर्मावशिष्टमात्र देख उस निर्जन वन में कलावती शोकातुर हो उच्च स्वर से रोने लगी । मूर्च्छित पति को वक्षःस्थल से लगाकर वह महादीना पतिव्रता ‘हे नाथ! हा नाथ ! ‘ का उच्चारण करती हुई विलाप करने लगी। राजा आहार छोड़ देने के कारण सूख गये हैं; उनके शरीर की नस – नाड़ियाँ दिखायी देती हैं – यह देख और कलावती का विलाप सुनकर कृपानिधान कमलजन्मा जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी कृपापूर्वक वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने तुरंत ही राजा के शरीर को अपनी गोद में लेकर कमण्डलु के जल से सींचा। फिर ब्रह्मज्ञ ब्रह्मा ने ब्रह्मज्ञान के द्वारा उसमें जीव का संचार किया । इससे चेतना को प्राप्त हो नृपवर सुचन्द्र ने अपने सामने प्रजापति को देखकर प्रणाम किया । प्रजापति ने काम के समान कान्तिमान् नरेश से संतुष्ट होकर कहा — ‘ राजन् ! तुम इच्छानुसार वर माँगो ।’ विधाता की यह बात सुनकर श्रीमान् सुचन्द्र के मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैल गयी । वे प्रसन्नवदन हो बोले — ‘ दयानिधे ! यदि आप वर देने को उद्यत हैं तो कृपापूर्वक मुझे मनोवाञ्छित निर्वाण प्रदान करें।’ इस वरदान के मिल जाने पर मेरी क्या दशा होगी, इसका मन-ही-मन अनुमान करके कलावती के कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये । वह सती संत्रस्त हो वर देने को उद्यत हुए विधाता से बोली । कलावती ने कहा — कमलोद्भव ब्रह्मन् ! यदि आप महाराज को मुक्ति दे रहे हैं तो मुझ अबला की क्या गति होगी, यह आप ही बताइये ? चतुरानन! कान्त के बिना कान्ता की क्या शोभा है ? व्रतं पतिव्रतायाश्च पतिरेव श्रुतौ श्रुतम् ॥ ६८ ॥ गुरुश्चाभीष्टदेवश्च तपोधर्ममयः पतिः । सर्वेषां च प्रियतरो न बन्धुः स्वामिनः परः ॥ ६९ ॥ सर्वधर्मात्परा ब्रह्मन्पतिसेवा सुदुर्लभा । श्रुति में सुना गया है कि पतिव्रता नारी के लिये पति ही व्रत है, पति ही गुरु, इष्टदेव, तपस्या और धर्म है। ब्रह्मन् ! सभी स्त्रियों के लिये पति से बढ़कर परम प्रिय बन्धु कोई नहीं है । पतिसेवा परम दुर्लभ है । वह सब धर्मों से बढ़कर है । पतिसेवा से दूर रहने वाली स्त्री का सारा शुभ कर्म निष्फल होता है । व्रत, दान, तप, पूजन, जप, होम, सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान, पृथ्वी की परिक्रमा, समस्त यज्ञों की दीक्षा, बड़े-बड़े दान, सब वेदों का पाठ, सब प्रकार की तपस्या, वेदज्ञ ब्राह्मणों को भोजन-दान तथा देवाराधन – ये सब मिलकर पति-सेवा की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं । जो स्त्रियाँ पति की सेवा नहीं करतीं और पति से कटुवचन बोलती हैं, वे चन्द्रमा और सूर्य की सत्तापर्यन्त कालसूत्र नरक में गिरकर यातना भोगती हैं। वहाँ सर्पों के बराबर बड़े-बड़े कीड़े दिन-रात उन्हें डँसते रहते हैं और सदा विपरीत एवं भयंकर शब्द किया करते हैं । उस नरक में स्त्रियों को मल, मूत्र तथा कफ का भोजन करना पड़ता है। यमराज के दूत उनके मुख में जलती लुआठी डालते हैं। नरक का भोग पूरा करके वे नारियाँ कृमियोनि में जन्म लेती हैं और सौ जन्मों तक रक्त, मांस तथा विष्ठा खाती हैं । वेदवाक्यों में यह निश्चित सिद्धान्त बताया गया है। मैं अबला हूँ । विद्वानों के मुख से सुनकर उपर्युक्त बातों को कुछ-कुछ जानती हूँ। आप तो वेदों का भी प्राकट्य करनेवाले हैं। प्रभु हैं। विद्वानों, योगियों, ज्ञानियों तथा गुरु के भी गुरु हैं। अच्युत ! आप सर्वज्ञ हैं। मैं आपको क्या समझा सकूँगी ? ये मेरे पति मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। यदि इन्हें मुक्ति प्राप्त हो गयी तो मेरा रक्षक कौन होगा? मेरे धन और यौवन की रक्षा कौन करेगा? कुमारावस्था में नारी की रक्षा पिता करता है । फिर वह कन्या का सुपात्र को दान देकर कृतकृत्य हो जाता है। तब से पति ही नारी की रक्षा करता है । पति के अभाव में उसका पुत्र रक्षक होता है । इस प्रकार तीन अवस्थाओं में नारी के तीन रक्षक माने गये हैं। जो स्त्रियाँ स्वतन्त्र हैं, वे नष्ट मानी गयी हैं। उनका सभी धर्मों से बहिष्कार किया गया है । वे नीच कुलमें उत्पन्न, कुलटा और दुष्टहृदया कही गयी हैं । ब्रह्मन् ! उनके सौ जन्मों का पुण्य नष्ट हो जाता है। पतिव्रता का अपने पति के प्रति सर्वदा समान स्नेह होता है। दूध पीते बच्चे पर माताओं का अधिक स्नेह देखा जाता है, परंतु वह पतिव्रता के पतिविषयक स्नेह की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है । पति से बढ़कर कोई बन्धु, प्रिय देवता तथा गुरु नहीं है। स्त्री के लिये पति से बढ़कर धर्म, धन, प्राण तथा दूसरा कोई पुरुष नहीं है । जैसे वैष्णवों का मन श्रीकृष्णचरणारविन्द में ही निमग्न रहता है, उसी प्रकार साध्वी स्त्रियों का चित्त अपने प्रियतम पति में ही संलग्न रहता है। ब्रह्मन् ! पति के बिना पतिव्रता स्त्री एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती । पति के बिना साध्वी स्त्रियों के लिये मरण ही जीवन है और जीवन मृत्यु से भी अधिक कष्ट देने वाला है। ब्रह्मन् ! यदि मेरे बिना ही आप इन्हें मुक्त कर देंगे तो प्रभो ! मैं आपको शाप देकर स्त्री-हत्या का दारुण पाप प्रदान करूँगी। कलावती की बात सुनकर विधाता विस्मित हो मन-ही-मन भय मानते हुए अमृत के समान मधुर एवं हितकर वचन बोले । ब्रह्माजी ने कहा — बेटी! मैं तुम्हारे स्वामी को तुम्हारे बिना ही मुक्ति नहीं दूँगा । पतिव्रते ! तुम अपने पति के साथ कुछ वर्षों तक स्वर्ग में रहकर सुख भोगो । फिर तुम दोनों का भारतवर्ष में जन्म होगा । वहाँ जब साक्षात् सती राधिका तुम्हारी पुत्री होंगी तब तुम दोनों जीवन्मुक्त हो जाओगे और श्रीराधा के साथ ही गोलोक में पधारोगे । नृपश्रेष्ठ ! तुम कुछ काल तक अपनी स्त्री के साथ स्वर्गीय सुख का उपभोग करो । यह स्त्री साध्वी एवं सत्त्वगुण से युक्त है। तुम मुझे शाप न देना; क्योंकि श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में चित्त लगाये रखने वाले जीवन्मुक्त संत समदर्शी होते हैं । उनके मन में श्रीहरि के दुर्लभ दास्यभाव को पाने की इच्छा रहती है । वे निर्वाण नहीं चाहते । ऐसा कहकर उन दोनों को वर दे विधाता उनके सामने खड़े रहे। वे दोनों उन्हें प्रणाम करके स्वर्ग की ओर चल दिये। फिर ब्रह्माजी भी अपने धाम को चले गये । तदनन्तर वे दोनों दम्पति समयानुसार स्वर्गीय भोगों का उपभोग करके भारतवर्ष में आये, जो परम पुण्यदायक तथा दिव्य स्थान है ब्रह्मा आदि देवता भी वहाँ जन्म लेने की इच्छा करते हैं । सुचन्द्र ने गोकुल में जन्म लिया और वहाँ उनका नाम वृषभानु हुआ। वे सुरभानु के वीर्य और पद्मावती के गर्भ से उत्पन्न हुए । उन्हें पूर्वजन्म की बातों का स्मरण था । वे श्रीहरि के अंश थे और जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा बढ़ते हैं, उसी प्रकार व्रजधाम में प्रतिदिन बढ़ने लगे। धीरे-धीरे वे व्रज के अधिपति हुए । उन्हें सर्वज्ञ और महायोगी माना गया है। उनका चित्त सदा श्रीहरि के चरणारविन्दों के चिन्तन में ही लगा रहता था । वे उदार, रूपवान्, गुणवान् और श्रेष्ठ बुद्धिवाले थे । कलावती कान्यकुब्ज देश में उत्पन्न हुई। वह भी अयोनिजा, पूर्व-जन्म की बातों को याद रखने वाली महासाध्वी, सुन्दरी एवं कमला की कला थी । कान्यकुब्ज देश में महापराक्रमी नृपश्रेष्ठ भनन्दन राज्य करते थे। उन्होंने यज्ञ के अन्त में यज्ञकुण्ड से प्रकट हुई दूध पीती नंगी बालिका के रूप में उसे पाया था। वह सुन्दरी बालिका उस कुण्ड से हँसती हुई निकली थी । उसकी अङ्ग -कान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान थी। वह तेज से उद्भासित हो रही थी । राजेन्द्र भनन्दन ने उसे गोद में लेकर अपनी प्यारी रानी मालावती को प्रसन्नतापूर्वक दे दिया । मालावती के हर्ष की सीमा न रही। वह उस बालिका को अपना स्तन पिलाकर पालने लगी। उसके अन्नप्राशन और नामकरण के दिन शुभ बेला में जब राजा सत्पुरुषों के बीच बैठे हुए थे, आकाशवाणी हुई — ‘नरेश्वर ! इस कन्या का नाम कलावती रखो।’ यह सुनकर राजा ने वही नाम रख दिया। उन्होंने ब्राह्मणों, याचकों और वन्दीजनों को प्रचुर धन दान किया। सबको भोजन कराया और बड़ा भारी उत्सव मनाया। समयानुसार उस रूपवती कन्या ने युवावस्थामें प्रवेश किया। सोलह वर्ष की अवस्था में वह अत्यन्त सुन्दरी दिखायी देने लगी। वह राजकन्या मुनियों के मन को भी मोह लेने में समर्थ थी । मनोहर चम्पा के समान उसकी अङ्गकान्ति थी तथा मुख शरत्काल के पूर्णचन्द्र की भाँति परम मनोहर था । एक दिन गजराज की-सी मन्दगति से चलने वाली राजकुमारी राजमार्ग से कहीं जा रही थी । नन्दजी ने उसे मार्ग में देखा । देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने उस मार्ग से आने-जानेवाले लोगों से आदरपूर्वक पूछा — ‘यह किसकी कन्या जा रही थी।’ लोगों ने बताया — ‘यह महाराज भनन्दन की कन्या है। इसका नाम कलावती है। यह धन्या बाला लक्ष्मीजी के अंश से राजमन्दिर में प्रकट हुई है और कौतुकवश खेलने के लिये अपनी सहेली के घर जा रही है। व्रजराज! आप व्रज को पधारिये ।’ ऐसा उत्तर देकर लोग चले गये। नन्द के मन में बड़ा हर्ष हुआ। वे राजभवन को गये। रथ से उतरकर उन्होंने तत्काल ही राजसभा में प्रवेश किया। राजा उठकर खड़े हो गये। उन्होंने नन्दरायजी से बातचीत की और उन्हें बैठने के लिये सोने का सिंहासन दिया। उन दोनों में परस्पर बहुत प्रेमालाप हुआ । फिर नन्द ने विनीत होकर राजा से सम्बन्ध की बात चलायी। नन्दजी ने कहा — राजेन्द्र ! सुनिये। मैं एक शुभ एवं विशेष बात कह रहा हूँ। आप इस समय अपनी कन्या का सम्बन्ध एक विशिष्ट पुरुष के साथ स्थापित कीजिये । व्रज में सुरभानु के पुत्र श्रीमान् वृषभानु निवास करते हैं, जो व्रज के राजा हैं। वे भगवान् नारायण के अंश से उत्पन्न हुए हैं और उत्तम गुणों के भण्डार, सुन्दर, सुविद्वान्, सुस्थिर यौवन से युक्त, योगी, पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करने वाले और नवयुवक हैं। आपकी कन्या भी यज्ञकुण्ड से उत्पन्न हुई है; अतः अयोनिजा है । त्रिभुवनमोहिनी कन्या कलावती भगवती कमला की अंश है और स्वभावतः शान्त जान पड़ती है। वृषभानु आपकी पुत्री के योग्य हैं तथा आपकी पुत्री भी उन्हीं के योग्य है। मुने! राजसभा में ऐसा कहकर नन्दजी चुप हो गये। तब नृपश्रेष्ठ भनन्दन ने विनय से नम्र हो उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया । भनन्दन बोले — व्रजेश्वर ! सम्बन्ध तो विधाता वश की बात है । वह मेरे द्वारा साध्य नहीं है । ब्रह्माजी ही सम्बन्ध करनेवाले हैं। मैं तो केवल जन्मदाता हूँ। कौन किसकी पत्नी या कन्या है तथा कौन किसका साधन-सम्पन्न पति है ? इसे विधाता के सिवा और कौन जानता है ? कर्मों के अनुरूप फल देने वाले विधाता ही सबके कारण हैं । किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं होता, उसका फल मिलकर ही रहेगा – ऐसा श्रुति में सुना गया है। अन्यथा असमर्थ पुरुष के उद्यम की भाँति सारा कर्म निष्फल हो जाता है। यदि विधाता ने मेरी पुत्री को ही वृषभानु की पत्नी होने की बात लिखी है तो वह पहले से ही उनकी पत्नी है । मैं फिर कौन हूँ, जो उसमें बाधा डाल सकूँ तथा दूसरा भी कौन उस सम्बन्ध का निवारण कर सकता है ? नारद! यों कहकर राजेन्द्र भनन्दन ने विनय से सिर झुकाकर नन्दरायजी को आदरपूर्वक मिष्टान्न भोजन कराया। तत्पश्चात् राजा की अनुमति ले व्रजराज व्रज को लौट गये। जाकर उन्होंने सुरभानु की सभा में सब बातें बतायीं। सुरभानु ने भी यत्नपूर्वक नन्द और गर्गजी के सहयोग से सादर इस सम्बन्ध को जोड़ा। विवाहकाल में महाराज भनन्दन ने गजरत्न, अश्वरत्न, अन्यान्य रत्न तथा मणियों के आभूषण आदि बहुत दहेज दिये । वृषभानु कलावती को पाकर बड़ी प्रसन्नता के साथ निर्जन एवं रमणीय स्थान में उसके साथ विहार करने लगे। कलावती एक पल का भी विरह होने पर स्वामी के बिना व्याकुल हो उठती थी और वृषभानु भी एक क्षण के लिये भी कलावती के दूर होने पर उसके बिना विकल हो जाते थे। वह राजकन्या पूर्वजन्म की बातों को याद रखने वाली देवी थी । माया से मनुष्य रूप में प्रकट हुई थी । वृषभानु भी श्रीहरि के अंश और जातिस्मर थे तथा कलावती को पाकर बड़े प्रसन्न थे । उन दोनों का प्रेम प्रतिदिन नया-नया होकर बढ़ने लगा । लीलावश पूर्वकाल में सुदामा के शाप और श्रीकृष्ण की आज्ञा से श्रीकृष्णप्राणाधिका सती राधिका उन दोनों की अयोनिजा पुत्री हुईं। उसके दर्शनमात्र से वे दोनों दम्पति भवबन्धन से मुक्त हो गये । नारद! इस प्रकार इतिहास कहा गया । अब जिसका प्रकरण चल रहा है, वह प्रसङ्ग सुनो। उक्त इतिहास पापरूपी ईंधन को जलाने के लिये प्रज्वलित अग्नि की शिखा के समान है। शिल्पिशिरोमणि विश्वकर्मा वृषभानु के आश्रम पर जाकर वहाँ से अपने सेवकगणों के साथ दूसरे स्थान पर गये । वे तत्त्वज्ञ थे। उन्होंने मन-ही-मन एक कोस लंबे-चौड़े एक मनोहर स्थान का विचार करके वहाँ महात्मा नन्द के लिये आश्रम बनाना आरम्भ किया । बुद्धि से अनुमान करके उनके लिये सबसे विलक्षण भवन बनाया। वह श्रेष्ठ भवन चार गहरी खाइयों से घिरा हुआ था, शत्रुओं के लिये उन्हें लाँघना बहुत कठिन था । उन चारों खाइयों में प्रस्तर जुड़े हुए थे । उन खाइयों के दोनों तटों पर फूलों के उद्यान थे, जिनके कारण वे पुष्पों से सजी हुई-सी जान पड़ती थीं और सुन्दर एवं मनोहर चम्पा के वृक्ष तटों पर खिले हुए थे। उन्हें छूकर बहनेवाली सुगन्धित वायु उन परिखाओं को सब ओर से सुवासित कर रही थी । तटवर्ती आम, सुपारी, कटहल, नारियल, अनार, श्रीफल (बेल), भृङ्ग (इलायची), नीबू, नारंगी, ऊँचे आम्रातक (आमड़ा), जामुन, केले, केवड़े और कदम्बसमूह आदि फूले-फले वृक्षों से उन खाइयों की सब ओर से शोभा हो रही थी । वे सारी परिखाएँ सदा वृक्षों से ढकी होने के कारण जल-क्रीड़ा के योग्य थीं। अतएव सबको प्रिय थीं। परिखाओं के एकान्त स्थान में जाने के लिये विश्वकर्मा ने उत्तम मार्ग बनाया, जो स्वजनों के लिये सुगम और शत्रुवर्ग के लिये दुर्गम था। थोड़े-थोड़े जल से ढके हुए मणिमय खम्भों द्वारा संकेत से उस मार्ग पर खम्भों की सीमा बनायी गयी थी। वह मार्ग न तो अधिक संकीर्ण था और न अधिक विस्तृत ही था । परिखा के ऊपरी भाग में देवशिल्पी ने मनोहर परकोटा बनाया था, जिसकी ऊँचाई बहुत अधिक थी । वह सौ धनुष बराबर ऊँचा था । उसमें लगा हुआ एक-एक पत्थर पचीस-पचीस हाथ लंबा था । सिन्दूरी रंग की मणियों से निर्मित वह प्राकार बड़ा ही सुन्दर दिखायी देता था । उसमें बाहर से दो और भीतर से सात दरवाजे थे। दरवाजे मणिसारनिर्मित किवाड़ों से बंद रहते थे। वह नन्दभवन इन्द्रनीलमणि के चित्रित कलशों द्वारा विशेष शोभा पा रहा था । मणिसाररचित कपाट भी उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । स्वर्णसारनिर्मित कलशों से उसका शिखरभाग बहुत ही उद्दीप्त जान पड़ता था । नन्दभवन का निर्माण करके विश्वकर्मा नगर में घूमने लगे । उन्होंने नाना प्रकार के मनोहर राजमार्ग बनाये । रक्तभानुमणि की बनी हुई वेदियों तथा सुन्दर पत्तनों से वे मार्ग सुशोभित होते थे । उन्हें आर-पार दोनों ओर से बाँधकर पक्का बनाया गया था, जिससे वे बड़े मनोहर लगते थे। राजमार्ग के दोनों ओर मणिमय मण्डप बने हुए थे, जो वैश्यों के वाणिज्य-व्यवसाय के उपयोग में आने योग्य थे । वे मण्डप दायें-बायें सब ओर से प्रकाशित हो उन राजमार्गों को भी प्रकाश पहुँचाते थे । तदनन्तर वृन्दावन में जाकर विश्वकर्मा ने सुन्दर, गोलाकार और मणिमय परकोटों से युक्त रासमण्डल का निर्माण किया, जो सब ओर से एक-एक योजन विस्तृत था । उसमें स्थान-स्थान पर मणिमय वेदिकाएँ बनी हुई थीं। मणिसाररचित नौ करोड़ मण्डप उस रासमण्डल की शोभा बढ़ाते थे । वे शृङ्गार के योग्य, चित्रों से सुसज्जित और शय्याओं से सम्पन्न थे। नाना जाति के फूलों की सुगन्ध लेकर बहती हुई वायु उन मण्डपों को सुवासित करती थी । उनमें रत्नमय प्रदीप जलते थे। सुवर्णमय कलश उनकी उज्ज्वलता बढ़ा रहे थे । पुष्पों से भरे हुए उद्यानों तथा सरोवरों से सुशोभित रासस्थल का निर्माण करके विश्वकर्मा दूसरे स्थान को गये। वे उस रमणीय वृन्दावन को देखकर बहुत संतुष्ट हुए । वन के भीतर जगह-जगह एकान्त स्थान में मन-बुद्धि से विचार और निश्चय करके उन्होंने वहाँ तीस रमणीय एवं विलक्षण वनों का निर्माण किया। वे केवल श्रीराधा- माधव की ही क्रीड़ा के लिये बनाये गये थे । तदनन्तर मधुवन के निकट अत्यन्त मनोहर निर्जन स्थान में वटवृक्ष के मूलभाग के निकट सरोवर के पश्चिम किनारे केतकी वन के बीच और चम्पा के उद्यान के पूर्व विश्वकर्मा ने राधा-माधव की क्रीड़ा के लिये पुनः एक रत्नमय मण्डप का निर्माण किया, जो चार वेदिकाओं से घिरा हुआ और अत्यन्त सुन्दर था। रत्नसाररचित सौ तूलिकाएँ उसकी शोभा बढ़ाती थीं। अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित तथा नाना प्रकार के चित्रों से चित्रित नौ जोड़े कपाटों और नौ मनोहर द्वारों से उस रत्नमण्डप की बड़ी – शोभा हो रही थी। उस मण्डप की दीवारों के दोनों – बगल में और ऊपर भी श्रेष्ठ रत्नों द्वारा रचित कृत्रिम चित्रमय कलश उसकी श्रीवृद्वि कर रहे थे। उन कलशों की तीन कोटियाँ थीं। उक्त रत्नमण्डप में महामूल्यवान् श्रेष्ठ मणिरत्नों द्वारा निर्मित नौ सोपान शोभा दे रहे थे। उत्तम रत्नों के सारभाग से बने हुए कलशों से मण्डप का शिखर-भाग जगमगा रहा था। पताका, तोरण तथा श्वेत चामर उस भवन को शोभा बढ़ा रहे थे। उसमें सब ओर अमूल्य रत्नमय दर्पण लगे थे, जिनके कारण सबको अपने सामने की ओर से ही वह मण्डप दीप्तिमान् दिखायी देता था । वह सौ धनुष ऊपर तक अग्नि-शिखा के समान प्रकाशपुञ्ज फैला रहा था । उसका विस्तार सौ हाथ का था । वह रत्नमण्डप गोलाकार बना था । उसके भीतर रत्ननिर्मित शय्याएँ बिछी थीं, जिनसे उस उत्तम भवन के भीतरी भाग की बड़ी शोभा हो रही थी। उक्त शय्याओं पर अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र बिछे थे। मालाओं के समूह से सुसज्जित होकर वे विचित्र शोभा धारण करते थे। पारिजात के फूलों की मालाओं के बने हुए तकिये उनपर यथास्थान रखे गये थे । चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से वह सारा भवन सुवासित हो रहा था। उसमें मालती और चम्पा के फूलों की मालाएँ रखी थीं । नूतन शृङ्गार के योग्य तथा पारस्परिक प्रेम की वृद्धि करने वाले कपूर युक्त ताम्बूल के बीड़े उत्तम रत्नमय पात्रों में सजाकर रखे गये थे। उस भवन में रत्नों की बनी हुई बहुत-सी चौकियाँ थीं, जिनमें हीरे जड़े थे और मोतियों की झालरें लटक रही थीं । रत्नसारजटित कितने ही घट यथास्थान रखे हुए थे। रत्नमय चित्रों से चित्रित अनेक रत्नसिंहासन उस मण्डपकी शोभा बढ़ाते थे, जिनमें जड़ी हुई चन्द्रकान्त मणियाँ पिघलकर जल की बूँदों से उस भवन को सींच रही थीं। शीतल एवं सुवासित जल तथा भोग्य वस्तुओं से युक्त उस रमणीय मिलन-मन्दिर ( रत्नमण्डप) – का निर्माण करके विश्वकर्मा फिर नगर में गये। जिनके लिये जो भवन बने थे, उन पर उनके नाम उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक लिखे। इस कार्य में उनके शिष्य तथा यक्षगण उनकी सहायता करते थे। मुने! निद्रा स्वामी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण उस समय निद्रा वशीभूत थे । उनको नमस्कार करके विश्वकर्मा अपने घर को चले गये। परमेश्वर श्रीकृष्ण की इच्छा से ही भूतल पर ऐसा आश्चर्यमय नगर निर्मित हुआ । इस प्रकार मैंने श्रीहरि का सारा मङ्गलमय चरित्र कह सुनाया, जो सुखद और पापहारी है। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? नारदजी ने पूछा — भगवन् ! भारतवर्ष में इस कानन का नाम ‘वृन्दावन’ क्यों हुआ ? इसकी व्युत्पत्ति अथवा संज्ञा क्या है ? आप उत्तम तत्त्वज्ञ हैं, अतः इस तत्त्व को बताइये । सूतजी कहते हैं — नारदजी का प्रश्न सुनकर नारायण ऋषि ने सानन्द हँसकर सारा ही पुरातन तत्त्व कहना आरम्भ किया । भगवान् नारायण बोले — नारद! पहले सत्ययुग की बात है । राजा केदार सातों द्वीपों के अधिपति थे। ब्रह्मन्! वे सदा सत्य धर्म में तत्पर रहते थे और अपनी स्त्रियों तथा पुत्र-पौत्रवर्ग के साथ सानन्द जीवन बिताते थे। उन धार्मिक नरेश ने समस्त प्रजाओं का पुत्रों की भाँति पालन किया । सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके भी राजा केदार ने इन्द्रपद पाने की इच्छा नहीं की। वे नाना प्रकार के पुण्यकर्म करके भी स्वयं उनका फल नहीं चाहते थे । उनका सारा नित्य-नैमित्तिक कर्म श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये ही होता था । केदार के समान राजाधिराज न तो कोई पहले हुआ है और न पुनः होगा ही। उन्होंने अपनी त्रिभुवन-मोहिनी पत्नी तथा राज्य की रक्षा का भार पुत्रों पर रखकर जैगीषव्य मुनि के उपदेश से तपस्या के लिये वन को प्रस्थान किया । वे श्रीहरि के अनन्य भक्त थे और निरन्तर उन्हीं का चिन्तन करते थे। मुने! भगवान् का सुदर्शन-चक्र राजा की रक्षा के लिये सदा उन्हीं के पास रहता था। वे मुनिश्रेष्ठ नरेश चिरकाल तक तपस्या करके अन्त में गोलोक को चले गये । उनके नाम से केदारतीर्थ प्रसिद्ध हुआ । अवश्य ही आज भी वहाँ मरे हुए प्राणी को तत्काल मुक्तिलाभ होता है । उनकी कन्या का नाम वृन्दा था, जो लक्ष्मी की अंश थी। उसने योगशास्त्र में निपुण होने के कारण किसी को अपना पुरुष नहीं बनाया । दुर्वासा ने उसे परम दुर्लभ श्रीहरि का मन्त्र दिया । वह घर छोड़कर तपस्या के लिये वन में चली गयी। उसने साठ हजार वर्षों तक निर्जन वन में तपस्या की । तब उसके सामने भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए। उन्होंने प्रसन्नमुख से कहा – ‘ देवि! तुम कोई वर माँगो ।’ वह सुन्दर विग्रह वाले शान्तस्वरूप राधिका-कान्त को देखकर सहसा बोल उठी- ‘तुम मेरे पति हो जाओ।’ उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। वह कौतूहलवश श्रीकृष्ण के साथ गोलोक में गयी और वहाँ राधा के समान श्रेष्ठ सौभाग्यशालिनी गोपी हुई । वृन्दा ने जहाँ तप किया था, उस स्थान का नाम ‘वृन्दावन’ हुआ अथवा वृन्दा ने जहाँ क्रीड़ा की थी, इसलिये वह स्थान ‘वृन्दावन’ कहलाया । वत्स ! अब दूसरा पुण्यदायक इतिहास सुनो — जिससे इस कानन का नाम ‘वृन्दावन’ पड़ा। वह प्रसङ्ग मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यान दो । राजा कुशध्वज के दो कन्याएँ थीं। दोनों ही धर्मशास्त्र के ज्ञान में निपुण थीं। उनके नाम थे- तुलसी और वेदवती । संसार चलाने का जो कार्य है, उससे उन दोनों बहिनों को वैराग्य था। उनमें से वेदवती ने तपस्या करके परम पुरुष नारायण को प्राप्त किया। वह जनककन्या सीता के नाम से सर्वत्र विख्यात है । तुलसी ने तपस्या करके श्रीहरि को पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा की, किंतु दैववश दुर्वासा के शाप से उसने शङ्खचूड़ को प्राप्त किया। फिर परम मनोहर कमलाकान्त भगवान् नारायण उसे प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त हुए। भगवान् श्रीहरि के शाप से देवेश्वरी तुलसी वृक्षरूप में प्रकट हुई और तुलसी के शाप से श्रीहरि शालग्रामशिला हो गये। उस शिला के वक्ष:- स्थल पर उस अवस्था में भी सुन्दरी तुलसी निरन्तर स्थित रहने लगी। मुने! तुलसी का सारा चरित्र तुमसे विस्तारपूर्वक कहा जा चुका है, तथापि यहाँ प्रसङ्गवश पुनः उसकी कुछ चर्चा की गयी। तपोधन ! उस तुलसी की तपस्या का एक यह भी स्थान है; इसलिये इसे मनीषी पुरुष ‘वृन्दावन’ कहते हैं। (तुलसी और वृन्दा समानार्थक शब्द है) अथवा मैं तुमसे दूसरा उत्कृष्ट हेतु बता रहा हूँ, जिससे भारतवर्ष का यह पुण्यक्षेत्र वृन्दावन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राधा के सोलह नामों में एक वृन्दा नाम भी है, जो श्रुति में सुना गया है। उन वृन्दा नामधारिणी राधा का यह रमणीय क्रीडा-वन है; इसलिये इसे ‘वृन्दावन’ कहा गया है। पूर्वकाल में श्रीकृष्ण ने श्रीराधा की प्रीति के लिये गोलोक में वृन्दावन का निर्माण किया था। फिर भूतल पर उनकी क्रीडा के लिये प्रकट हुआ वह वन उस प्राचीन नाम से ही ‘वृन्दावन’ कहलाने लगा। नारदजी ने पूछा — जगदुरो ! श्रीराधिका के सोलह नाम कौन-कौन से हैं? मुझ शिष्य से उन्हें बताइये; उन्हें सुनने के लिये मेरे मन में उत्कण्ठा है। मैंने सामवेद में वर्णित श्रीराधा के सहस्र नाम सुने हैं; तथापि इस समय आपके मुख से उनके सोलह नामों को सुनना चाहता हूँ । विभो ! वे सोलह नाम उन सहस्र नामों के ही अन्तर्गत हैं या उनसे भिन्न हैं ? अहो ! उन भक्तवाञ्छित पुण्यस्वरूप नामों का मुझसे वर्णन कीजिये। साथ ही उन सबकी व्युत्पत्ति भी बताइये । जगत् के आदिकारण ! जगन्माता श्रीराधा के उन सर्व-दुर्लभ पावन नामों को मैं सुनना चाहता हूँ । ॥ राधा षोडशनाम स्तोत्रम् ॥ ॥ श्रीनारायण उवाच ॥ राधा रासेश्वरी रासवासिनी रसिकेश्वरी । कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रिया कृष्णस्वरूपिणी ॥ २२३ ॥ कृष्णवामांगसंभूता परमानन्दरूपिणी । कृष्णा वृन्दावनी वृन्दा वृन्दावनविनोदिनी ॥ २२४ ॥ चन्द्रावती चन्द्रकान्ता शतचन्द्रनिभानना । नामान्येतानि साराणि तेषामभ्यन्तराणि च ॥ २२५ ॥ राधेत्येवं च संसिद्धा राकारो दानवाचकः । स्वयं निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता ॥ २२६ ॥ रा च रासे च भवनाद्धा एव धारणावहो । हरेरालिङ्गनादारात्तेन राधा प्रकीर्तिता ॥ २२७ ॥ रासेश्वरस्य पत्नीयं तेन रासेश्वरी स्मृता । रासे च वासो यस्याश्च तेन सा रासवासिनी ॥ २२८ ॥ सर्वासां रसिकानां च देवीनामीश्वरी परा । प्रवदन्ति पुरा सन्तस्तेन तां रसिकेश्वरीम् ॥ २२९ ॥ प्राणाधिका प्रेयसी सा कृष्णस्य परमात्मनः । कृष्णप्राणाधिका सा च कृष्णेन परिकीर्तिता ॥ २३० ॥ कृष्णस्यातिप्रिया कान्ता कृष्णो वाऽस्याः प्रियः सदा । सर्वैर्देवगणैरुक्ता तेन कृष्णप्रिया स्मृता ॥ २३१ ॥ कृष्णरूपं सन्निधातुं या शक्ता चावलीलया । सर्वांशैः कृष्णसदृशी तेन कृष्णस्वरूपिणी ॥ २३२ ॥ वामाङ्गार्धेन कृष्णस्य या संभूता परा सती । कृष्णवामाङ्गसंभूता तेन कृष्णेन कीर्तिता ॥ २३३ ॥ परमानन्दराशिश्च स्वयं मूर्तिमती सती । श्रुतिभिः कीर्तिता तेन परमानन्दरूपिणी ॥ २३४ ॥ कृषिर्मोक्षार्थवचनो न एवोत्कृष्टवाचकः । आकारो दातृवचनस्तेन कृष्णा प्रकीर्तिता ॥ २३५ ॥ अस्ति वृन्दावनं यस्यास्तेन वृन्दावनी स्मृता । वृन्दावनस्याधिदेवी तेन वाऽथ प्रकीर्तिता ॥ २३६ ॥ संघः सखीनां वृन्दः स्यादकारोऽप्यस्तिवाचकः । सखिवृन्दोऽस्ति यस्याश्च सा वृन्दा परिकीर्तिता ॥ २३७ ॥ वृन्दावने विनोदश्च सोऽस्या ह्यस्ति च तत्र वै । वेदा वदन्ति तां तेन वृन्दावनविनोदिनीम् ॥ २३८ ॥ नखचन्द्रावलीवक्रचन्द्रोऽस्ति यत्र संततम् । तेन चन्द्रावली सा च कृष्णेन परिकीर्तिता ॥ २३९ ॥ चन्द्रतुल्या कान्तिरस्ति सदा यस्या दिवानिशम् । सा चन्द्रकान्ता हर्षेण हरिणा परिकीर्तिता ॥ २४० ॥ शरच्चन्द्रप्रभा यस्याश्चाननेऽस्ति दिवानिशम् । मुनिना कीर्तिता तेन शरच्चन्द्रप्रभानना ॥ २४१ ॥ इदं षोडशनामोक्तमर्थव्याख्यानसंयुतम् । नारायणेन यद्दत्तं ब्रह्मणे नाभिपङ्कजे ॥ २४२ ॥ ब्रह्मणा च पुरा दत्तं धर्माय जनकाय मे । धर्मेण कृपया दत्तं मह्यमादित्यपर्वणि ॥ २४३ ॥ पुष्करे च महातीर्थे पुण्याहे देवसंसदि । राधाप्रभावप्रस्तावे सुप्रसन्नेन चेतसा ॥ २४४ ॥ इदं स्तोत्रं महापुण्यं तुभ्यं दत्तं मया मुने । निन्दकायावैष्णवाय न दातव्यं महामुने ॥ २४५ ॥ यावज्जीवमिदं स्तोत्रं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः । राधामाधवयोः पादपद्मे भक्तिर्भवेदिह ॥ २४६ ॥ अन्ते लभेत्तयोर्दास्यं शश्वत्सहचरो भवेत् । अणिमादिकसिद्धिं च संप्राप्य नित्यविग्रहम् ॥ २४७ ॥ व्रतदानोपवासैश्च सर्वैर्नियमपूर्वकैः । चतुर्णां चैव वेदानां पाठैः सर्वार्थसंयुतैः ॥ २४८ ॥ सर्वेषां यज्ञतीर्थानां करणैर्विधिबोधितैः । प्रदक्षिणेन भूमेश्च कृत्स्नाया एव सप्तधा ॥ २४९ ॥ शरणागतरक्षायामज्ञानां ज्ञानदानतः । देवानां वैष्णवानां च दर्शनेनापि यत्फलम् ॥ २५० ॥ तदेव स्तोत्रपाठस्य कलां नार्हति षोडशीम् । स्तोत्रस्यास्य प्रभावेण जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥ २५१ ॥ श्रीनारायण ने कहा — राधा, रासेश्वरी, रासवासिनी, रसिकेश्वरी, कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रिया, कृष्णस्वरूपिणी, कृष्णवामाङ्गसम्भूता, परमानन्दरूपिणी, कृष्णा, वृन्दावनी, वृन्दा, वृन्दावनविनोदिनी, चन्द्रावली, चन्द्रकान्ता और शरच्चन्द्रप्रभानना — ये सारभूत सोलह नाम उन सहस्र नामों के ही अन्तर्गत हैं। राधा शब्द में ‘धा’ का अर्थ है संसिद्धि (निर्वाण ) तथा ‘रा’ दानवाचक है । जो स्वयं निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करने वाली हैं; वे ‘राधा’ कही गयी हैं । रासेश्वर की ये पत्नी हैं; इसलिये इनका नाम ‘रासेश्वरी’ है। उनका रासमण्डल में निवास है; इससे वे ‘रासवासिनी’ कहलाती हैं । वे समस्त रसिक देवियों की परमेश्वरी हैं; अतः पुरातन संत-महात्मा उन्हें ‘रसिकेश्वरी’ कहते हैं । परमात्मा श्रीकृष्ण के लिये वे प्राणों से भी अधिक प्रियतमा हैं; अतः साक्षात् श्रीकृष्ण ने ही उन्हें ‘कृष्णप्राणाधिका’ नाम दिया है। वे श्रीकृष्ण की अत्यन्त प्रिया कान्ता हैं अथवा श्रीकृष्ण ही सदा उन्हें प्रिय हैं; इसलिये समस्त देवताओं ने उन्हें ‘कृष्णप्रिया’ कहा है । वे श्रीकृष्णरूप को लीलापूर्वक निकट लाने में समर्थ हैं तथा सभी अंशों में श्रीकृष्ण के सदृश हैं; अतः ‘कृष्णस्वरूपिणी’ कही गयी हैं । परम सती श्रीराधा श्रीकृष्ण के आधे वामाङ्गभाग से प्रकट हुई हैं; अतः श्रीकृष्ण ने स्वयं ही उन्हें ‘कृष्णवामाङ्गसम्भूता’ कहा है। सती श्रीराधा स्वयं परमानन्द की मूर्तिमती राशि हैं; अतः श्रुतियों ने उन्हें ‘परमानन्दरूपिणी’ की संज्ञा दी है। ‘कृष्’ शब्द मोक्ष का वाचक है, ‘ण’ उत्कृष्टता का बोधक है और ‘आकार’ दाता के अर्थ में आता है। वे उत्कृष्ट मोक्ष की दात्री हैं; इसलिये ‘कृष्णा’ कही गयी हैं। वृन्दावन उन्हीं का है; इसलिये वे ‘वृन्दावनी’ कही गयी हैं अथवा वृन्दावन की अधिदेवी होने के कारण उन्हें यह नाम प्राप्त हुआ है। सखियों के समुदाय को ‘वृन्द’ कहते हैं और ‘अकार’ सत्ता का वाचक है । उनके समूह-की-समूह सखियाँ हैं; इसलिये वे ‘वृन्दा’ कही गयी हैं। उन्हें सदा वृन्दावन में विनोद प्राप्त होता है; अतः वेद उनको ‘वृन्दावनविनोदिनी’ कहते हैं । वे सदा मुखचन्द्र तथा नखचन्द्र की अवली (पंक्ति) – से युक्त हैं; इस कारण श्रीकृष्ण ने उन्हें ‘चन्द्रावली’ नाम दिया है। उनकी कान्ति दिन-रात सदा ही चन्द्रमा के तुल्य बनी रहती है; अतः श्रीहरि हर्षोल्लास के कारण उन्हें ‘चन्द्रकान्ता’ कहते हैं । उनके मुख पर दिन-रात शरत्काल के चन्द्रमाकी-सी प्रभा फैली रहती है; इसलिये मुनिमण्डली ने उन्हें ‘शरच्चन्द्रप्रभानना’ कहा है। यह अर्थ और व्याख्याओं सहित षोडश- नामावली कही गयी; जिसे नारायण ने अपने नाभिकमल पर विराजमान ब्रह्मा को दिया था । फिर ब्रह्माजी ने पूर्वकाल में मेरे पिता धर्मदेव को इन नामावली का उपदेश दिया और श्रीधर्मदेव ने महातीर्थ पुष्कर में सूर्य ग्रहण के पुण्य पर्वपर देवसभा के बीच मुझे कृपापूर्वक इन सोलह नामों का उपदेश दिया था । श्रीराधा के प्रभाव की प्रस्तावना होने पर बड़े प्रसन्नचित्त से उन्होंने इन नामों की व्याख्या की थी। मुने! यह राधा का परम पुण्यमय स्तोत्र है, जिसे मैंने तुमको दिया । महामुने ! जो वैष्णव न हो तथा वैष्णवों का निन्दक हो, उसे इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो मनुष्य जीवनभर तीनों संध्याओं के समय इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसकी यहाँ राधा- माधव के चरणकमलों में भक्ति होती है । अन्त में वह उन दोनों का दास्यभाव प्राप्त कर लेता है और दिव्य शरीर एवं अणिमा आदि सिद्धि को पाकर सदा उन प्रिया-प्रियतम के साथ विचरता है । नियमपूर्वक किये गये सम्पूर्ण व्रत, दान और उपवास से, चारों वेदों के अर्थसहित पाठ से, समस्त यज्ञों और तीर्थों के विधिबोधित अनुष्ठान तथा सेवन से, सम्पूर्ण भूमि की सात बार की गयी परिक्रमा से, शरणागत की रक्षा से, अज्ञानी को ज्ञान देने से तथा देवताओं और वैष्णवों का दर्शन करने से भी जो फल प्राप्त होता है, वह इस स्तोत्रपाठ की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं है । इस स्तोत्र के प्रभाव से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है । नारदजी ने कहा — प्रभो ! यह सर्वदुर्लभ परम आश्चर्यमय स्तोत्र मुझे प्राप्त हुआ । देवी श्रीराधा का ‘संसार-विजय’ नामक कवच भी उपलब्ध हुआ । सुयज्ञ ने जिसका प्रयोग किया था, वह दुर्लभ स्तोत्र भी मुझे सुलभ हो गया । भगवान् श्रीकृष्ण की विचित्र कथा सुनकर आपके चरणकमलों के प्रसाद से मैंने बहुत कुछ पा लिया। अब मैं जिस रहस्य को सुनना चाहता हूँ, उसका वर्णन कीजिये । मुने! वृन्दावन में प्रातः काल उस अद्भुत नगर को देखकर गोपों ने क्या कहा ? भगवान् श्रीनारायण बोले — नारद! जब वहाँ रात बीत गयी, विश्वकर्मा चले गये और अरुणोदय की बेला आयी, तब सब लोग जाग उठे । उठते ही सबसे विलक्षण उस नगर को देख व्रजवासी आपस में कहने लगे- ‘यह क्या आश्चर्य है ? यह क्या आश्चर्य है ?’ किन्हीं गोपों ने कुछ अन्य गोपों से पूछा—’यह कैसे सम्भव हुआ ? न जाने भूतल पर किस रूप से कौन प्रकट हो सकता है ?’ परंतु नन्दरायजी गर्ग के वाक्यों का स्मरण करके मन-ही-मन सब कुछ जान गये । उन्होंने भीतर-ही-भीतर विचार किया — ‘यह समस्त चराचर जगत् श्रीहरि की इच्छा से ही उत्पन्न हुआ है। जिनके भ्रूभङ्ग की लीलामात्र से ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सारा जगत् आविर्भूत और तिरोभूत होता रहता है, उनके लिये क्या और कैसे असाध्य है ? अहो ! जिनके रोमकूपोंमें ही सारे ब्रह्माण्ड स्थित हैं, उन परमेश्वर महाविष्णु श्रीहरि के लिये क्या असाध्य हो सकता है ? ब्रह्मा, शेषनाग, शिव और धर्म जिनके चरणारविन्दों का दर्शन करते रहते हैं, उन माया – मानव-रूपधारी परमेश्वर के लिये कौन – सा ऐसा कार्य है, जो असाध्य हो ?’ नन्दजी ने उस नगर में घूम-घूमकर, एक-एक घर को देख-देखकर और वहाँ लिखे हुए नामों को पढ़कर सबके लिये घरों का वितरण किया। नन्द और वृषभानु ने शुभ मुहूर्त देखकर प्रवेशकालिक मङ्गलकृत्य का सम्पादन करके अपने सेवकगणों के साथ अपने-अपने आश्रम में प्रवेश किया। वृन्दावन में रहकर उन सबके मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। उन सब गोपों ने बड़े आनन्दके साथ अपने-अपने उत्तम आश्रम में पदार्पण किया। अपने-अपने मनोहर स्थान पर सब गोपों को बड़ा आनन्द मिला । वहाँ के बालक और बालिकाएँ हर्षपूर्वक खेलने-कूदने लगीं । श्रीकृष्ण और बलदेव भी कौतूहलवश गोपशिशुओं के साथ वहाँ प्रत्येक मनोहर स्थान पर बालोचित क्रीड़ा करने लगे । नारद! इस प्रकार मैंने नगर-निर्माण का सारा वृत्तान्त कह सुनाया । वन में गोपबालाओं के लिये जो रासमण्डल बना था, उसकी भी बात बतायी। (अध्याय १७) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे नारायणनारदसंवादे श्रीवृन्दावननगरवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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