ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 19
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
उन्नीसवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण का कालियदह में प्रवेश, नागराज का उन पर आक्रमण, श्रीकृष्ण द्वारा उसका दमन, नागपत्नी सुरसा द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति, श्रीकृष्ण की उस पर कृपा, सुरसा का गोलोक-गमन, छायामयी सुरसा की सृष्टि, कालिय को वरदान, कालिय द्वारा भगवान् की स्तुति, उस स्तुति की महिमा, नाग का रमणक द्वीप को प्रस्थान, कालिय का यमुना-जल में निवास का कारण, गरुड का भय, सौभरि के शाप से कालियदह तक जाने में गरुड की असमर्थता, श्रीकृष्ण के कालियदह में प्रवेश करने से ग्वालबालों तथा नन्द आदि की व्याकुलता, बलराम का समझाना, श्रीकृष्ण के निकल आने से सबको प्रसन्नता, दावानल से व्रजवासियों की रक्षा तथा नन्दभवन में उत्सव

भगवान् नारायण कहते हैं नारद! एक दिन बलदेव को साथ लिये बिना ही श्रीकृष्ण अन्यान्य ग्वालबालों के साथ यमुना के उस तट पर चले गये, जहाँ कालिय-नाग का निवासस्थान था । स्वेच्छामय शरीर धारण करने वाले भगवान् नन्दनन्दन यमुना-तटवर्ती वन में पके हुए फलों को खाकर जब प्यास लगती, तब वहाँ का निर्मल जल पी लेते थे। उन्होंने गोप-शिशुओं के साथ कुछ काल तक गौएँ चरायीं । तत्पश्चात् उन्हें तो एक जगह विश्राम के लिये खड़ी कर दिया और स्वयं साथियों के साथ खेल-कूद में लग गये; खेल में इनका मन लग गया । ग्वालबाल भी बड़े हर्ष के साथ उसमें भाग लेने लगे।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

उधर गौएँ नयी-नयी घास चरती हुई आगे बढ़ गयीं और यमुना का विषमिश्रित जल पीने लगीं। मुने! दारुण काल की चेष्टा से वह विषाक्त जल पीकर कालकूट की ज्वालाओं से संतप्त हो उन गौओं ने तत्काल प्राण त्याग दिये। झुंड-की-झुंड गौओं को मरी हुई देख गोपबालक चिन्ता से व्याकुल और भयभीत हो उठे। उनके मुख पर विषाद छा गया और उन सबने आकर मधुसूदन श्रीकृष्ण से यह बात कही । सारा रहस्य जानकर जगन्नाथ श्रीहरि ने उन सब गौओं को जीवित कर दिया। वे गौएँ तत्काल उठकर खड़ी हो गयीं और श्रीहरि का मुँह देखने लगीं।

इधर श्रीकृष्ण यमुनातटवर्ती जल के निकट उत्पन्न हुए कदम्ब पर चढ़कर उस सर्प के भवन में बहुत-से नागों के बीच कूद पड़े। उनके जल में पड़ते ही उस कुण्ड का पानी सौ हाथ ऊपर उठ गया। नारद ! यह देख ग्वालबालों को पहले तो हर्ष हुआ, फिर वे बड़े दुःख का अनुभव करने लगे । कालिय-सर्प मनुष्य की आकृति में आये हुए श्रीहरि को देखकर क्रोध से विह्वल हो उठा और तुरंत ही उन्हें निगल गया। जैसे किसी मनुष्य ने जल्दबाजी में तपे हुए लोहे को थाम लिया हो, वैसे ही ब्रह्मतेज से उसका कण्ठ और पेट जलने लगा। वह नाग उद्विग्न हो गया और ‘हाय ! हाय! मेरे प्राण निकले जा रहे हैं’- यों कहकर उसने पुनः उन्हें उगल दिया । श्रीकृष्ण के वज्रोपम अङ्गों को चबाने से उसके सारे दाँत टूट गये और मुँह लहूलुहान हो गया। भगवान् उस समय रक्तरञ्जित मुखवाले कालिय नाग के मस्तक पर चढ़ गये। विश्वम्भर के भार से आक्रान्त हो कालिय नाग प्राण त्याग देने को उद्यत हो गया। मुने! उसने रक्त वमन किया और मूर्च्छित होकर वह गिर पड़ा। उसे मूर्च्छित देख सब नाग प्रेम से विह्वल हो रोने लगे। कोई भाग गये और कोई डरके मारे बिल में घुस गये। अपने प्रियतम को मरणोन्मुख हुआ देख नागपत्नी सती सुरसा दूसरी नागिनियों के साथ श्रीहरि के सामने आयी और पति-प्रेम से रोने लगी। उसने दोनों हाथ जोड़कर शीघ्र ही भय से श्रीहरि को प्रणाम किया और उनके दोनों चरणारविन्द पकड़कर व्याकुल हो उनसे कहा ।

॥ नागपत्नीकृत-कृष्ण-स्तुति ॥

॥ सुरसोवाच ॥
हे जगत्कान्त मे कान्तं देहि मानं च मानद ।
पतिः प्राणाधिकः स्त्रीणां नास्ति बन्धुश्च तत्परः ॥ १७ ॥
सकलभुवननाथ प्राणनाथं मदीयं न कुरु वधमनन्त प्रेमसिन्धो सुबन्धो ।
अखिलभुवनबन्धो राधिकाप्रेमसिन्धो पतिमिह कुरु दानं मे विधातुर्विधातः ॥ १८ ॥
त्रिनयनविधिशेषाः षण्मुखश्चास्यसंघैः स्तवनविषयजाड्यात्स्तोतुमीशा न वाणी ।
खलु निखिलवेदाःस्तोतुमन्येऽपि देवाः स्तवनविषयशक्ताः सन्ति सन्तस्तवैव ॥ १९ ॥
कुमतिरहमधिज्ञा योषितां क्वाधमा वा क्व भुवनगतिरीशश्चक्षुषोऽगोचराऽपि ।
विधिहरिहरशेषैः स्तूयमानश्च यस्त्वमतनुमनुजमीशं स्तोतुमिच्छामि तं त्वाम् ॥ २० ॥
स्तवनविषयभीता पार्वती कस्य पद्मा श्रुतिगणजनयित्री स्तोतुमीशा न यं त्वाम् ।
कलिकलुषनिमग्ना वेदवेदाङ्गशास्त्र श्रवणविषयमूढा स्तोतुमिच्छामि किं त्वाम् ॥ २१ ॥
शयानो रत्नपर्यङ्के रत्नभूषणभूषितः ।
रत्नभूषणभूषाङ्गो राधावक्षसि संस्थितः ॥ २२ ॥
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गः स्मेराननसरोरुहः ।
प्रोद्यत्प्रेमरसाम्भोधौ निमग्नः सततं सुखात् ॥ २३ ॥
मल्लिकामालतीमालाजालैः शोभितशेखरः ।
पारिजातप्रसूनानां गन्धामोदितमानसः ॥ २४ ॥
पुंस्कोकिलकलध्वानैर्भ्रमरध्वनिसंयुतैः ।
कुसुमेषु विकारेण पुलकाङ्कितविग्रहः ॥ २५ ॥
प्रियाप्रदत्तताम्बूलं भुक्तवान्यः सदा मुदा ।
वेदा अशक्ता यं स्तोतुं जडीभूता विचक्षणाः ॥ २६ ॥
तमनिर्वचनीयं च किं स्तौमि नागवल्लभा ।
वन्देऽहं त्वत्पदाम्भोजं ब्रह्मेशशेषसेवितम् ॥ २७ ॥
लक्ष्मीसरस्वतीदुर्गा जाह्नवी वेदमातृभिः ।
सेवितं सिद्धसंघैश्च मुनीन्द्रैर्मनुभिः सदा ॥ २८ ॥
निष्कारणायाखिलकारणाय सर्वेश्वरायापि परात्पराय ।
स्वयंप्रकाशाय परावराय परावराणामधिपाय ते नमः ॥ २९ ॥
हे कृष्ण हे कृष्ण सुरासुरेश ब्रह्मेश शेषेश प्रजापतीश ।
मुनीश मन्वीश चराचरेश सिद्धीश सिद्धेश गणेश पाहि ॥ ३० ॥
धर्मेश धर्मीश शुभाशुभेश वेदेश वेदेष्वनिरूपितश्च ।
सर्वेश सर्वात्मक सर्वबन्धो जीवीश जीवेश्वर पाहि मत्प्रभुम् ॥ ३१ ॥
इत्येवं स्तवनं कृत्वा भक्तिनम्रात्मकन्धरा ।
विधृत्य चरणाम्भोजं तस्थौ नागेशवल्लभा ॥ ३२ ॥
नागपत्नीकृतं स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।
सर्वपापात्प्रमुक्तस्तु यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ॥ ३३ ॥
इह लोके हरेर्भक्तिमन्ते दास्यं लभेद्ध्रुवम् ।
लभते पार्षदो भूत्वा सालोक्यादिचतुष्टयम् ॥ ३४ ॥

सुरसा बोली — हे जगदीश्वर ! आप मुझे मेरे स्वामी को लौटा दीजिये। दूसरों को मान देने वाले प्रभो ! मुझे भी मान दीजिये । स्त्रियों को पति प्राणों से भी बढ़कर प्रिय होता है। उनके लिये पति से बढ़कर दूसरा कोई बन्धु नहीं है। नाथ आप देवेश्वरों के भी स्वामी, अनन्त प्रेम के सागर, उत्तम बन्धु, सम्पूर्ण भुवनों के बान्धव तथा श्रीराधिकाजी के लिये प्रेम के समुद्र हैं । अतः मेरे प्राणनाथ का वध न कीजिये । आप विधाता के भी विधाता हैं । इसलिये यहाँ मुझे पतिदान दीजिये । त्रिनेत्रधारी महादेव के पाँच मुख हैं; ब्रह्माजी के चार और शेषनाग के सहस्र मुख हैं; कार्तिकेय के भी छः मुख हैं; परंतु ये लोग भी अपने मुख-समूह द्वारा आपकी स्तुति करने में जडवत् हो जाते हैं । साक्षात् सरस्वती भी आपका स्तवन करने में समर्थ नहीं हैं। सम्पूर्ण वेद, अन्यान्य देवता तथा संत-महात्मा भी आपकी स्तुति के विषय में शक्ति-हीनता का ही परिचय देते हैं ।

कहाँ तो मैं कुबुद्धि, अज्ञ एवं नारियों में अधम सर्पिणी और कहाँ सम्पूर्ण भुवनों के परम आश्रय तथा किसी के भी दृष्टिपथ में न आने वाले आप परमेश्वर ! जिनकी स्तुति ब्रह्मा, विष्णु और शेषनाग करते हैं, उन मानव-वेषधारी आप नराकार परमेश्वर की स्तुति मैं करना चाहती हूँ, यह कैसी विडम्बना है ? पार्वती, लक्ष्मी तथा वेदजननी सावित्री जिनके स्तवन से डरती हैं और स्तुति करने में समर्थ नहीं हो पातीं; उन्हीं आप परमेश्वर का स्तवन कलिकलुष में निमग्न तथा वेद-वेदाङ्ग एवं शास्त्रों के श्रवण में मूढ़ स्त्री मैं क्यों करना चाहती हूँ, यह समझ में नहीं आता। आप रत्नमय पर्यङ्क पर रत्ननिर्मित भूषणों से भूषित हो शयन करते हैं। रत्नालंकारों से अलंकृत अङ्गवाली राधिका के वक्षःस्थल पर विराजमान होते हैं। आपके सम्पूर्ण अङ्ग चन्दन से चर्चित रहते हैं, मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैली होती है। आप उमड़ते हुए प्रेमरस के महासागर में सदा सुख से निमग्न रहते हैं । आपका मस्तक मल्लिका और मालती की मालाओं से सुशोभित होता है। आपका मानस नित्य निरन्तर पारिजात पुष्पों की सुगन्ध से आमोदित रहा करता है। कोकिल के कलरव तथा भ्रमरों के गुञ्जारव से उद्दीपित प्रेम के कारण आपके अङ्ग उठी हुई पुलकावलियों से अलंकृत रहते हैं। जो सदा प्रियतमा के दिये हुए ताम्बूल का सानन्द चर्वण करते हैं; वेद भी जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं तथा बड़े-बड़े विद्वान् भी जिनके स्तवन में जडवत् हो जाते हैं; उन्हीं अनिर्वचनीय परमेश्वर का स्तवन मुझ जैसी नागिन क्या कर सकती है ? मैं तो आपके उन चरणकमलों की वन्दना करती हूँ, जिनका सेवन ब्रह्मा, शिव और शेष करते हैं तथा जिनकी सेवा सदा लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, गङ्गा, वेदमाता सावित्री, सिद्धों के समुदाय, मुनीन्द्र और मनु करते हैं। आप स्वयं कारणरहित हैं, किंतु सबके कारण आप ही हैं । सर्वेश्वर होते हुए भी परात्पर हैं स्वयंप्रकाश, कार्य-कारणस्वरूप तथा उन कार्य-कारणों के भी अधिपति हैं । आपको मेरा नमस्कार है । हे श्रीकृष्ण ! हे सच्चिदानन्दघन ! हे सुरासुरेश्वर ! आप ब्रह्मा, शिव, शेषनाग, प्रजापति, मुनि, मनु, चराचर प्राणी, अणिमा आदि सिद्धि, सिद्ध तथा के भी स्वामी हैं। मेरे पति की रक्षा कीजिये, आप धर्म और धर्मी के तथा शुभ और अशुभ के भी स्वामी हैं । सम्पूर्ण वेदों के स्वामी होते हुए भी उन वेदों में आपका अच्छी तरह निरूपण नहीं हो सका है। सर्वेश्वर ! आप सर्वस्वरूप तथा सबके बन्धु हैं। जीवधारियों तथा जीवों के भी स्वामी हैं । अतः मेरे पति की रक्षा कीजिये ।

इस प्रकार स्तुति करके नागराजवल्लभा सुरसा भक्तिभाव से मस्तक झुका श्रीकृष्ण के चरणकमलों को पकड़कर बैठ गयी। नागपत्नी  द्वारा किये गये इस स्तोत्रका जो त्रिकाल संध्या के समय पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो अन्ततोगत्वा श्रीहरि के धाम में चला जाता है । उसे इहलोक में श्रीहरि की भक्ति प्राप्त होती है और अन्त में वह निश्चय ही श्रीकृष्णका दास्य- सुख पा जाता है। वह श्रीहरि का पार्षद हो सालोक्य आदि चतुर्विध मुक्तियों को करतलगत कर लेता है।

नारदजी ने पूछा — नागपत्नी की बात सुनकर हर्ष से उत्फुल्ल नेत्रों वाले सर्वनन्दन भगवान् गोविन्द ने स्वयं उससे क्या कहा ? महाभाग ! यह अत्यन्त अद्भुत रहस्य मुझसे बताइये ।

भगवान् नारायण ने कहा — मुने! नागपत्नी  भय से व्याकुल हो हाथ जोड़कर भगवान् ‌के चरणों में पड़ी थी। उसकी उपर्युक्त बातें सुनकर श्रीकृष्ण ने उससे इस प्रकार कहा-

श्रीकृष्ण बोले नागेश्वरि ! उठो, उठो । भय छोड़ो और वर माँगो । मातः ! मेरे वर के प्रभाव से अजर-अमर हुए अपने पति को ग्रहण करो और यमुना का ह्रद छोड़कर अपने घर को चली जाओ । वत्से ! अपने पति और परिवार के साथ अभीष्ट स्थान को पधारो । नागेशि! आज से तुम मेरी कन्या हुई और तुम्हारे प्राणों से भी अधिक प्रियतम यह नागराज मेरे जामाता हुए; इसमें संशय नहीं है। शुभे ! मेरे चरणकमलों के चिह्न से युक्त होने के कारण तुम्हारे पति को अब गरुड कष्ट नहीं देंगे, अपितु भक्तिभाव से स्तुति करके मेरे चरणचिह्न को प्रणाम करेंगे। अब तुम गरुड का भय छोड़ो और शीघ्र रमणक द्वीप को चली जाओ। बेटी ! इस ह्रद से निकलो और इच्छानुसार वर माँगो ।

श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर सुरसा के नेत्र और मुख हर्ष से खिल उठे। उसकी आँखों में आँसू भर आये तथा उसने भक्ति भाव से मस्तक झुकाकर कहा ।

सुरसा बोली — वरदाता परमेश्वर ! पिताजी! यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो अपने चरणकमलों की सुदृढ़ एवं अविचल भक्ति प्रदान कीजिये । मेरा मन भ्रमर की भाँति सदा आपके चरणारविन्द पर ही मँडराता रहे। मुझे आपके स्मरण की कभी विस्मृति न हो, मेरा कान्त विषयक सौभाग्य सदा बना रहे और ये मेरे प्राणवल्लभ ज्ञानियों में श्रेष्ठ हो जायँ । प्रभो! यही मेरी प्रार्थना है; इसे पूर्ण कीजिये ।

ऐसा कहकर नागपत्नी श्रीहरि के सामने नत खड़ी हो गयी। उसने शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा को लज्जित करने वाले श्रीहरि के मुखचन्द्र का दर्शन किये। उस सती ने अपने दोनों नेत्रों से निमेषरहित होकर गोविन्द के मुख की सौन्दर्य-माधुरी का पान किया। उसके सारे अङ्ग पुलकित हो उठे। वह आनन्द के आँसुओं में डूब गयी । श्रीहरि को सुन्दर बालक के रूप में देखकर वह उनके प्रति पुत्रोचित स्नेह करने लगी और भक्ति के उद्रेक से आप्लावित हो पुनः इस प्रकार बोली- ‘ गोविन्द ! मैं रमणक-द्वीप में नहीं जाऊँगी । वहाँ मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। यह सर्प वहाँ जाकर संसार चलावे, मुझे तो आप अपनी किङ्करी बना लीजिये ! हे श्रीकृष्ण ! मेरे मन में सालोक्य आदि चार प्रकार की मुक्ति के लिये भी इच्छा नहीं है; क्योंकि वह मुक्ति आपके चरणारविन्दों की सेवा की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। जो भारतवर्ष में दुर्लभ जन्म पाकर आपसे आपकी चरणसेवा के अतिरिक्त दूसरे वर की इच्छा करता है, वह स्वयं ठगा गया ।

विना त्वत्पादसेवां च यो वाञ्छति वरान्तरम् ।
भारते दुर्लभं जन्म लब्ध्वाऽसौ वञ्चितः स्वयम् ॥ ५२ ॥

नागपत्नी की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण के मुखारविन्दपर मुस्कराहट फैल गयी। उनका मन प्रसन्न हो गया और उन श्रीमान् माधव ने ‘एवमस्तु’ कहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। इसी बीच में उत्तम रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित दिव्य विमान वहाँ तत्काल उतर आया। मुने! वह अपने तेज से उद्दीप्त हो रहा था। उस पर अनेक श्रेष्ठ पार्षद बैठे थे तथा उसे दिव्य वस्त्रों एवं मालाओं से सजाया गया था । उसमें सौ पहिये लगे थे। वह वायु के समान वेगशाली तथा मन की गति से चलनेवाला था। देखने में बड़ा ही मनोहर था । श्यामसुन्दर के श्याम कान्ति वाले सेवक तुरंत ही उस रथ से उतरे और श्रीकृष्ण को प्रणाम करके सुरसा को साथ ले उत्तम गोलोकधाम को चले गये ।

तत्पश्चात् श्रीहरि ने अपने तेज से छायारूपिणी सुरसा की सृष्टि करके उसे सर्प को दे दिया । कालियनाग यह सब कुछ न जान सका; क्योंकि वह वैष्णवी माया से विमोहित था । सर्प के मस्तक से उतरकर करुणानिधान श्रीकृष्ण ने कृपापूर्वक शीघ्र ही कालिय के सिर पर अपना हाथ रखा। हाथ रखते ही उसके शरीर में चेतना लौट आयी और उसने श्रीहरि को अपने सामने देखा तथा इस बात की ओर भी लक्ष्य किया कि सती सुरसा दोनों हाथ जोड़े खड़ी है और उसके नेत्रों से आँसू बह रहे हैं। यह देख उसने भी गोविन्द को प्रणाम किया और तत्काल प्रेम से विह्वल होकर वह रोने लगा। कृपानिधान भगवान्न ने देखा नागराज रो रहा है और सुरसा भक्ति के उद्रेक से पुलकित हो नेत्रों से आँसू बहा रही है; किंतु कुछ बोल नहीं रही है। तब वे दयानिधि स्वयं बोले; क्योंकि योग्य और अयोग्य प्राणी पर भी ईश्वर की कृपा सदा समान रूप से ही रहती है।

श्रीकृष्ण ने कहा — कालिय ! तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, उसके अनुसार वर माँगो । वत्स ! तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो । भय छोड़ो और सुख से रहो । जो मेरा अत्यन्त भक्त हो और मेरे अंश से उत्पन्न हुआ हो, उस पर मैं विशेष अनुग्रह करता हूँ। उसके अभिमान को मिटाने के लिये उसका किञ्चित् दमन करके मैं पुनः उस पर कृपा करता हूँ। जो लोग तुम्हारे वंश में उत्पन्न हुए सर्पों का विनाश करेंगे, उनको महान् पाप लगेगा और वे दुःखों के भागी होंगे। परंतु जो लोग तुम्हारे कुल में उत्पन्न हुए सर्पों को देखकर उनके मस्तक पर उभरे हुए मेरे सुन्दर चरणचिह्नों को भक्तिभाव से प्रणाम करेंगे, वे समस्त पातकों से मुक्त हो जायँगे। तुम शीघ्र रमणक द्वीप को जाओ और गरुड़ का भय छोड़ दो। तुम्हारे मस्तक पर मेरे चरणचिह्न को देखकर गरुड़ भक्तिभाव से तुम्हें नमस्कार करेंगे। तुमको और तुम्हारे वंशजों को गरुड़ से कभी भय नहीं होगा। आजसे मेरा वर पाकर अपनी जाति के सर्पों में तुम सर्वश्रेष्ठ हो जाओ । वत्स ! तुमको और कौन-सा उत्तम वर अभीष्ट है ? उसे इस समय माँगो । मैं तुम्हारा दुःख दूर करने वाला हूँ; अतः भय छोड़कर मुझसे मन की बात कहो ।

श्रीकृष्ण की बात सुनकर कालियनाग, जो भय से काँप रहा था, दोनों हाथ जोड़कर उनसे बोला ।

॥ कालिय उवाच ॥
वरेऽन्यस्मिन्मम विभो वाञ्छा नास्ति वरप्रद ।
भक्तिं स्मृतिं त्वत्पदाब्जे देहि जन्मनि जन्मनि ॥ ७४ ॥
जन्म ब्रह्मकुले वाऽपि तिर्यग्योनिषु वा समम् ।
तद्भवेत्सफलं यत्र स्मृतिस्त्वच्चरणाम्बुजे ॥ ७५ ॥
तन्निष्फलः स्वर्गवासो नास्ति चेत्त्वत्पदस्मृतिः ।
त्वत्पादध्यानयुक्तस्य यत्तत्स्थानं च तत्परम् ॥ ७६ ॥
क्षणं वा कोटिकल्पं वा पुरुषायुः क्षयोऽस्तु वा ।
यदि त्वत्सेवया याति सफलो निष्कलोऽथवा ॥ ७७ ॥
तेषां चायुर्व्ययो नास्ति ये त्वत्पादाब्जसेवकाः ॥
न सन्ति जन्ममरणरोगशोकार्तिभीतयः ॥ ७८ ॥
इन्द्रत्वे वाऽमरत्वे वा ब्रह्मत्वे चातिदुर्लभे ।
वाञ्छा नास्त्येव भक्तानां त्वत्पादसेवनं विना ॥ ७९ ॥
सुजीर्णपटखण्डस्य समं नूतनमेव च ।
पश्यन्ति भक्ताः किं चान्यत्सालोक्यादिचतुष्टयम् ॥ ८० ॥

कालिय ने कहा  वरदायक प्रभो ! दूसरे किसी वर के लिये मेरी इच्छा नहीं है। प्रत्येक जन्म में मेरी आपके चरणकमलों में भक्ति बनी रहे और मैं सदा आपके उन चरणारविन्दों का चिन्तन करता रहूँ; यही वर मुझे दीजिये । जन्म ब्राह्मण के कुल में हो या पशु-पक्षियों की योनियों में, सब समान है। वही जन्म सफल है, जिसमें आपके चरणकमलों की स्मृति बनी रहे। यदि आपके चरणों का स्मरण न हो तो देवता होकर स्वर्ग में रहना भी निष्फल है। जो आपके चरणों के चिन्तन में तत्पर है, उसे जो भी स्थान प्राप्त हो, वही सबसे उत्तम है। उस पुरुष की आयु एक क्षण की हो या करोड़ों कल्पों की अथवा उसकी आयु तत्काल ही क्षीण होने वाली क्यों न हो; यदि वह आपकी आराधना में बीत रही है तो सफल है, अन्यथा उसका कोई फल नहीं है- वह व्यर्थ है। जो आपके चरणारविन्दों के सेवक हैं, उनकी आयु व्यर्थ नहीं जाती, सार्थक होती है। उन्हें जन्म-मरण, रोग-शोक और पीड़ा का कुछ भी भय नहीं रहता- वे इनकी कुछ भी परवाह नहीं करते। भक्तों के मन में आपके चरणों की सेवा को छोड़कर इन्द्रपद, अमरत्व अथवा परम दुर्लभ ब्रह्मपद को भी पाने की इच्छा नहीं होती। आपके भक्तजन सालोक्य आदि चार प्रकार की मुक्तियों को अत्यन्त फटे पुराने वस्त्र के चिथड़े के समान तुच्छ देखते हैं ।

ब्रह्मन् ! मैंने भगवान् अनन्तके मुखसे ज्यों ही आपके मन्त्र का उपदेश प्राप्त किया, त्यों ही आपकी भावना करते-करते आपके अनुग्रह से मैं आपके समान वर्णवाला हो गया। मैं अपक्व भक्त था अर्थात् मेरी भक्ति परिपक्व नहीं हुई थी । यह जानकर ही स्वयं सुदृढ़ भक्ति धारण करने वाले गरुड़ ने मुझे देश से दूर कर दिया और धिक्कारा था । परंतु वरदेश्वर ! अब आपने मुझे अविचल भक्ति दे दी है। गरुड़ भी भक्त हैं, मैं भी भक्त हो गया हूँ; अतः अब वे मेरा त्याग नहीं कर सकते हैं। आपके चरणारविन्दोंके चिह्न से अलंकृत मेरे श्रीयुत मस्तक को देखकर गरुड़ मुझे सदोष होने पर भी गुणवान् मानेंगे; अतः इस समय मेरा त्याग नहीं कर सकेंगे। अब तो वे यह मानकर कि  नागेन्द्रगण हमारे आराध्य हैं, मुझे कष्ट नहीं देंगे। परमेश्वर ! अब मैं उनका वध्य नहीं रहा । उन गुरुदेव अनन्तके सिवा मुझे कहीं किसीसे भी भय नहीं है। देवेन्द्रगण, देवता, मुनि, मनु और मानव- जिन्हें स्वप्न में तथा ध्यान में भी नहीं देख पाते हैं—वे ही परमात्मा इस समय मेरे नेत्रों के विषय हो रहे हैं। प्रभो! आप तो भक्तों के अनुरोध से साकार रूप में प्रकट हुए हैं; अन्यथा आपको शरीर की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? सगुण-साकार तथा निर्गुण-निराकार भी आप ही हैं। आप स्वेच्छामय, सबके आवासस्थान तथा समस्त चराचर जगत् के सनातन बीज हैं। सबके ईश्वर, साक्षी, आत्मा और सर्वरूपधारी हैं । ब्रह्मा, शिव, शेष, धर्म और इन्द्र आदि देवता तथा वेदों और वेदाङ्गों के पारङ्गत विद्वान् भी जिन परमेश्वर की स्तुति करने में जडवत् हो जाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापी प्रभु का स्तवन क्या एक सर्प कर सकेगा ? हे नाथ ! हे करुणासिन्धो! हे दीनबन्धो ! आप मुझ अधम को क्षमा कीजिये । श्रीकृष्ण ! मैंने अपने खल स्वभाव और अज्ञान के कारण आपको चबा डालने का प्रयत्न किया; परंतु आप तो आकाश की भाँति सर्वत्र व्यापक तथा अमूर्त हैं; अतः किसी भी अस्त्र के लक्ष्य नहीं हैं। न तो आपका अन्त देखा जा सकता है और न लाँघा ही जा सकता है। न तो कोई आपका स्पर्श कर सकता है और न आपपर आवरण ही डाल सकता है। आप स्वयं प्रकाशरूप हैं ।

ऐसा कहकर नागराज कालिय भगवान् ‌के चरणकमलों में गिर पड़ा। भगवान् उस पर संतुष्ट हो गये। उन्होंने ‘एवमस्तु’ कहकर उसे सम्पूर्ण अभीष्ट वर दे दिया।

नागराजकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
तद्वंश्यानां च तस्यैव नागेभ्यो न भयं भवेत् ॥ ९३ ॥
स नागशय्यां कृत्वैव स्वप्तुं शक्तः सदा भुवि ।
विषपीयूषयोर्भेदो नास्त्येव तस्य भक्षणे ॥ ९४ ॥
नागग्रस्ते नागघाते प्राणान्ते विषभोजनात् ।
स्तोत्रस्मरणमात्रेण सुस्थो भवति मानवः ॥ ९५ ॥
भूर्जे कृत्वा स्तोत्रमिदं कण्ठे वा दक्षिणे करे ।
बिभर्ति यो भक्तियुक्तो नागेभ्योऽपि न तद्भयम् ॥ ९६ ॥
यत्र गेहे स्तोत्रमिदं नागस्तत्र न तिष्ठति ।
विषाग्निवज्रभीतिश्च न भवेत्तत्र निश्चितम् ॥ ९७ ॥
इह लोके हरेर्भक्तिं स्मृतिं च सततं लभेत् ।
अन्ते च स्वकुलं पूत्वा दास्यं च लभते ध्रुवम् ॥ ९८ ॥

जो नागराज द्वारा किये गये स्तोत्र का प्रातः काल उठकर पाठ करता है, उसे तथा उसके वंशजों को कभी नागोंसे भय नहीं होता । वह भूतल पर नागों की शय्या बनाकर सदा उस पर शयन कर सकता है। उसके भोजन में विष और अमृत का भेद नहीं रह जाता। जिसको नाग ने ग्रस लिया हो, काट खाया हो अथवा विषैला भोजन करने से जिसके प्राणान्त की सम्भावना हो गयी हो, वह मनुष्य भी इस स्तोत्र को सुनने मात्र से स्वस्थ हो जाता है । जो इस स्तोत्र को भोजपत्र पर लिखकर भक्तिभाव से युक्त हो कण्ठ में या दाहिने हाथ में धारण करता है, उसे भी नागों से भय नहीं होता । जिस घर में यह स्तोत्र पढ़ा जाता है, वहाँ कोई नाग नहीं ठहरता । निश्चय ही उस घर में विष, अग्नि तथा वज्र का भय नहीं प्राप्त होता । इहलोक में श्रीहरि की भक्ति और स्मृति उसे सदा सुलभ होती है तथा अन्त में अपने कुल को पवित्र करके निश्चय ही वह श्रीकृष्ण का दास्यभाव प्राप्त कर लेता है।

भगवान् नारायण कहते हैं नारद! नागराज को अभीष्ट वर देकर जगदीश्वर श्रीहरि ने पुनः उससे मधुर वचन कहे, जो परिणाम में सुख देनेवाले थे।

श्रीकृष्ण बोले — नागराज ! तुम यमुना-जल के मार्ग से ही परिवारसहित रमणक-द्वीप में चले जाओ। वह स्थान इन्द्रनगर के समान श्रेष्ठ एवं सुन्दर है।

श्रीहरि की यह आज्ञा सुनकर नाग प्रेमविह्वल होकर रोने लगा और बोला- ‘नाथ ! मैं आपके चरणकमलों का कब दर्शन करूँगा ?’ वह महेश्वर श्रीकृष्ण को सैकड़ों बार प्रणाम करके स्त्री और परिवार के साथ जल के ही मार्ग से चला गया। जाते समय नागराज भगवद्-विरह से व्याकुल हो रहा था। उसके चले जाने के बाद यमुना के उस कुण्ड का जल अमृत के समान हो गया। इससे समस्त जन्तुओं को बड़ी प्रसन्नता हुई ।

नारद! रमणक में पहुँचकर कालिय ने इन्द्रनगर के समान सुन्दर भवन देखा। कृपासिन्धु श्रीकृष्ण की आज्ञा से साक्षात् विश्वकर्मा ने उसका निर्माण किया था । वहाँ नागराज कालिय अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ श्रीहरि के चिन्तन में तत्पर हो भय छोड़कर बड़े हर्ष के साथ रहने लगा। इस प्रकार श्रीहरि का सारा अद्भुत, सुखदायक, मोक्षप्रद तथा सारभूत चरित्र मैंने कह सुनाया। अब और क्या सुनना चाहते हो ?

सूतजी कहते हैं — महर्षि नारायण का उपर्युक्त वचन सुनकर नारदजी हर्षविभोर हो गये । उन्होंने समस्त संदेहों का निवारण करने वाले उन महर्षि से अपना संदेह इस प्रकार पूछा ।

नारदजी बोले — जगद्गुरो ! अपने पहले के उत्तम भवन को छोड़कर कालिय यमुनातट को क्यों चला गया था? इसका रहस्य मुझे बताइये ।

भगवान् श्रीनारायण ने कहा – नारद! सुनो । मैं उस प्राचीन इतिहास का वर्णन कर रहा हूँ, जिसे मैंने सूर्यग्रहण के समय मलयाचल पर सुप्रभा नदीके पश्चिम किनारे श्रीकृष्ण – कथा के प्रसङ्ग में पिता धर्म के मुख से सुना था । पुलह ने धर्म से अपना संदेह पूछा था, तब कृपानिधान धर्म ने मुनियों की सभा में इस आश्चर्यमय आख्यान को सुनाया था। नारद! वहीं मैंने इसे सुना था, अतः कहता हूँ, सुनो।

भगवान् शेष की आज्ञा से नागगण प्रतिवर्ष कार्तिक की पूर्णिमा को भय के कारण गरुड़देव की पूजा करते हैं । पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और विविध उपहार-सामग्री अर्पित करके प्रसन्नतापूर्वक उनकी आराधना करते हैं। महातीर्थ पुष्कर में भक्तिपूर्वक भलीभाँति स्नान करके कालिय ने अहंकारवश उक्त तिथि को गरुड़ की पूजा नहीं की। नागों द्वारा जो पूजा की सामग्री एकत्र की गयी थी, उसे कालियनाग बलपूर्वक खाने को उद्यत हो गया। तब सभी नाग उस मदमत्त कालिय को रोकने तथा उसे नीति की बात बताने लगे। जब किसी तरह भी वे कालिय को रोकने में समर्थ न हो सके, तब सहसा वहाँ पक्षिराज गरुड़ प्रकट हो गये। मुने! गरुड़ को आया देख नागगण कालिय के प्राणों की रक्षा करने के लिये जब तक सूर्योदय नहीं हुआ, तब तक पूरी शक्ति लगाकर उनके साथ युद्ध करते रहे । अन्त में पक्षिराज के तेज से उद्विग्न हो वे सब-के-सब भाग खड़े हुए और सबके अभयदाता भगवान् अनन्त की शरण में गये। नागों को भागते देख करुणानिधान कालिय वहाँ निःशङ्कभाव से खड़ा रहा। उसने गरुड़ की ओर देखा और श्रीहरि के चरणारविन्दों का चिन्तन करके गरुड़ के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। एक मुहूर्त तक उन दोनों में अत्यन्त भयानक युद्ध हुआ । अन्त में गरुड़ के तेज से नागराज कालिय को पराजित होना पड़ा। फिर तो वह भागा और यमुनाजी के उसी कुण्ड में चला गया, जहाँ सौभरि के शाप से पक्षिराज गरुड़ नहीं जा सकते थे। गरुड़ के भय से नाग वहीं रहने लगा। पीछे से उसके परिवार के लोग भी वहीं चले गये ।

नारदजी ने पूछा — भगवन्! गरुड़ को सौभरि का शाप कैसे प्राप्त हुआ ? परमेश्व रके वाहन होकर भी गरुड़ उस ह्रद में क्यों नहीं जा सकते थे ?

भगवान् श्रीनारायण बोले उस कुण्ड में सौभरि मुनि एक सहस्र दिव्य वर्षों तक तपस्या करके महासिद्ध हो श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करते थे । उन ध्यानपरायण मुनि के समीप पक्षिराज गरुड़ यमुनाजी के जल में तथा किनारे भी अपने गणों के साथ प्रसन्नतापूर्वक निःशङ्क विचरा करते थे। वे अपनी उत्कृष्ट इच्छा से प्रेरित हो बहुधा पूँछ (अथवा पंख) ऊपर को उठाकर मुनि के अगल-बगल में उनकी सानन्द परिक्रमा करते हुए जाते-आते थे। एक दिन उन्होंने परिवारसहित विशालकाय मीन को देखा। देखते-ही-देखते गरुड़ ने मुनीन्द्र के निकट से ही उस मीन को चोंच से पकड़ लिया। मछली को मुँह में दबाये जाते हुए गरुड़ को मुनि ने रोषभरी दृष्टि से देखा । मुनि की उस दृष्टि से गरुड़ काँप उठे और वह महामत्स्य उनकी चोंच से छूटकर पानी में गिर पड़ा। गरुड़ के डर से वह मीन मुनि के पास ठहर गया- उनके शरणागत हो गया। जब गरुड़ पुनः उसे लेने को उद्यत हुए, तब मुनीन्द्र ने उनसे कहा ।

सौभरि बोले — पक्षिराज ! मेरे पास से दूर हटो, दूर हटो। मेरे सामने से इस विशाल जीव को पकड़ लेने की तुममें क्या योग्यता है ? तुम अपने को श्रीकृष्ण का वाहन समझकर बहुत बड़ा मानते हो । श्रीकृष्ण तुम्हारे जैसे करोड़ों वाहन रच लेने की शक्ति रखते हैं। मैं अपनी भौंहें टेढ़ी करने मात्र से तुम्हें शीघ्र और अनायास ही भस्म कर सकता हूँ। तुम परमेश्वर के वाहन हो तो क्या हुआ ? हम लोग तुम्हारे दास नहीं हैं । पक्षिराज ! यदि आज से कभी भी मेरे इस कुण्ड में आओगे तो मेरे शाप से तत्काल भस्म हो जाओगे। यह ध्रुव सत्य है।

मुनीन्द्र की बात सुनकर पक्षिराज विचलित हो गये। वे श्रीकृष्ण के चरणों का स्मरण करते-करते उन्हें प्रणाम करके चल दिये। विप्रवर नारद! तब से अब तक सदा ही उस कुण्ड का नाम सुनने मात्र से पक्षिराज को कँपकँपी आ जाती है । यह इतिहास, जो धर्म के मुख से सुना गया था, तुमसे कहा गया । अब जिसका प्रकरण चल रहा है, श्रीहरि के उस श्रवणसुखद, रहस्ययुक्त तथा मङ्गलमय लीलाचरित्र को सुनो।

श्रीकृष्ण बहुत देर तक यमुना-जल से ऊपर नहीं उठे। यह जानकर ग्वालबाल दुःखी हो गये। वे मोहवश यमुना के तट पर रोने लगे। कुछ बालक शोक से व्याकुल हो अपनी छाती पीटने लगे। कोई श्रीहरि के बिना पृथ्वी पर पछाड़ खाकर गिरे और मूर्च्छित हो गये। कितने ही बालक श्रीकृष्ण-विरह से व्यथित हो कालियदह में प्रवेश करने को उद्यत हो गये और कुछ ग्वालबाल उनको उसमें जाने से रोकने लगे। कोई-कोई विलाप करके प्राण त्याग देने को उद्यत हो गये और उनमें जो समझदार थे, ऐसे कुछ बालक उन मरणोन्मुख बालकों की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करने लगे। कोई ‘हाय-हाय’ कहकर रोने-बिलखने लगे। कोई ‘कृष्ण-कृष्ण’ की रट लगाने लगे और कोई इस समाचार को बताने के लिये नन्दरायजी के समीप दौड़े गये। कुछ बालक वहाँ शोक, भय और मोह से आतुर हो परस्पर मिलकर यों कहने लगे – ‘हम क्या करें ? हमारे श्रीहरि कहाँ चले गये ? हे नन्दनन्दन! हे प्राणों से भी बढ़कर प्रियतम श्रीकृष्ण ! हे बन्धो ! हमें दर्शन दो। हमारे प्राण निकले जा रहे हैं।’

इसी बीच में कुछ बालक नन्दरायजी के निकट जा पहुँचे। वे अत्यन्त चञ्चल थे और शोक से व्याकुल होकर रो रहे थे। उन्होंने शीघ्र ही यशोदा को, उनके पास बैठे हुए बलराम को तथा अन्यान्य गोपों और लाल कमल के समान नेत्रों वाली गोपाङ्गनाओं को यह समाचार बताया । यह समाचार सुनकर वे सब-के-सब शोक से व्याकुल हो दौड़ते हुए यमुनातट पर जा पहुँचे और बालकों के साथ रोने लगे। सारे व्रजवासी एकत्र हो रोते-रोते शोक से मूर्च्छित हो गये। माता यशोदा कालियदह में प्रवेश करने लगीं। यह देख कुछ लोगों ने उन्हें रोका । गोप और गोपियाँ शोक से अपने ही अङ्गों को पीटने लगीं। कुछ लोग विलाप करने लगे और कितने ही व्रजवासी अपनी सुध-बुध खो बैठे। राधा भी यमुनाजी के उस कुण्ड में घुसने लगीं। यह देख कुछ स्त्रियों ने दौड़कर उन्हें रोका। वे शोक से मूर्च्छित हो गयीं और उस नदी के तट पर मरी हुई के समान पड़ गयीं । नन्दरायजी अत्यन्त विलाप करके बार- बार मूर्च्छित होने लगे । वे चेत होने पर पुनः रोते तथा रो-रोकर फिर मूर्च्छित हो जाते थे । उस समय ज्ञानियों में श्रेष्ठ बलरामजी ने अत्यन्त विलाप करते हुए नन्द को, शोक से कातर हुई यशोदा को, गोपों और गोपाङ्गनाओं को, अत्यन्त मूर्च्छित राधिका को, रोते हुए समस्त बालकों को तथा शोकग्रस्त हुई सम्पूर्ण गोप-बालिकाओं को धीरज बँधाते हुए समझाना आरम्भ किया ।

श्रीबलदेव बोले — हे गोपो ! गोपियो ! और बालको ! सब लोग मेरी बात सुनो। हे नन्दबाबा ! ज्ञानिशिरोमणि गर्गजी की बातों को याद करो । जो जगत् का भार उठाने वाले शेष के भी आधारभूत हैं, संहारकारी शंकर के भी संहारक हैं तथा विधाता के भी विधाता हैं; उनकी इस भूतल पर किससे पराजय हो सकती है ? श्रीकृष्ण अणु से भी अणु तथा परम महान् हैं । वे स्थूल से भी स्थूल तथा परात्पर हैं। उनकी सत्ता सदा और सर्वत्र विद्यमान है; तथापि वे किसी के दृष्टिपथ में नहीं आते। वे ही योगियों के भी सम्यक् योग हैं। श्रुतियों ने स्पष्ट कहा है कि सम्पूर्ण दिशाएँ कभी एकत्र नहीं हो सकतीं, आकाश को कोई छू नहीं सकता तथा सर्वेश्वर को कोई बाधा नहीं पहुँचा सकता। श्रीकृष्ण सबके आत्मा हैं । आत्मा किसी की दृष्टि में नहीं आता। उसे अस्त्रों का निशाना नहीं बनाया जा सकता। वह न तो वध के योग्य है और न दृश्य ही है । उसे आग नहीं जला सकती और न उसकी हिंसा ही की जा सकती है। अध्यात्म-तत्त्व के विज्ञाता विद्वानों ने आत्मा को ऐसा ही जाना और माना है। इन श्रीकृष्ण का विग्रह भक्तों के ध्यान के लिये ही है । ये ज्योतिःस्वरूप और सर्वव्यापी हैं। इन परमात्मा का आदि, मध्य और अन्त नहीं है। जब सारा ब्रह्माण्ड एकार्णव के जल में मग्न हो जाता है तब ये श्रीकृष्ण जल में शयन करते हैं। उस समय इनकी नाभि से जो कमल पैदा होता है, उसी से ब्रह्माजी का प्राकट्य होता है । जिन्हें एकार्णव के जल में भी भय नहीं है, उन्हीं परमेश्वर के लिये इस कालियदह में विपत्ति की सम्भावना कितना महान् अज्ञान है ? पिताजी ! यदि एक मच्छर सारे ब्रह्माण्ड को निगल जाने में समर्थ हो जाय तो भी उन ब्रह्माण्ड-नायक को वह सर्प अपना ग्रास नहीं बना सकता। यह मैंने परम उत्तम सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान की बात कही है। यह गूढ़ ज्ञान योगियों के लिये सार वस्तु है । इससे समस्त संशयों का उच्छेद हो जाता है ।

बलदेवजी की बात सुनकर और गर्गजी के वचनों को याद करके नन्दजी ने शोक त्याग दिया। व्रजवासियों और व्रजाङ्गनाओं का भी शोक जाता रहा। सबने बलदेवजी के इस प्रबोधन को मान लिया; परंतु यशोदा और राधिका को इससे संतोष न हुआ । प्रियजन के विरह के विषय में मन किसी प्रकार के प्रबोध को नहीं ग्रहण करता- जब तक प्रियजन का मिलन न हो जाय, तब तक केवल समझाने-बुझाने से मन को शान्ति नहीं मिल सकती ।

मुने! इसी समय व्रजवासियों और व्रजाङ्गनाओं ने श्रीकृष्ण को जल से ऊपर को उछलते देखा । इससे उनके हर्ष की सीमा न रही। उनका शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति परम मनोहर मुख और उनकी मन्द मन्द मुस्कराहट मन को बरबस अपनी ओर खींचे लेती थी । पानी से निकलने पर भी वस्त्र भीगे नहीं थे। शरीर भी आर्द्र नहीं था । भाल-देश में चन्दन और नेत्रों में अञ्जन का शृङ्गार भी लुप्त नहीं हुआ था। समस्त आभूषणों से अलंकृत, सिर पर मोरपंख का मुकुट धारण किये और अधरों से मुरली लगाये अच्युत श्रीकृष्ण ब्रह्मतेज से प्रकाशित हो रहे थे । यशोदा अपने लाला को देखते ही छाती से लगाकर मुस्करा उठीं और उनके मुखारविन्द को चूमने लगीं। उस समय उनके नेत्र और मुख प्रसन्नता से खिल उठे थे। नन्द, बलराम तथा रोहिणीजी ने बारी-बारी से श्यामसुन्दर को हर्षपूर्वक हृदय से लगाया । सब लोग एकटक हो गोविन्द के श्रीमुख का दर्शन करने लगे। प्रेम से अंधे हुए सम्पूर्ण ग्वालबालों ने श्रीहरि का आलिङ्गन किया। गोपाङ्गनाएँ नेत्र-चकोरों द्वारा उनके मुखचन्द्र की मधुर सुधा का पान करने लगीं ।

इतने में ही वहाँ सहसा वन के भीतरी भाग को दावानल ने आवेष्टित कर लिया। उन सबके साथ गौओं का समुदाय भी उस दावाग्नि से घिर गया । वन के भीतर चारों ओर पर्वतों के समान आग की ऊँची-ऊँची लपटें उठने लगीं। यह देख सबने अपना नाश निकट ही समझा । उस संकट से सब भयभीत हो उठे। उस समय सारे व्रजवासी, गोपीजन और ग्वालबाल संत्रस्त हो भक्ति से सिर झुका दोनों हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे ।

॥ बाल कृत कृष्ण स्तोत्रम् ॥

॥ बाला ऊचुः ॥
यथा संरक्षितं ब्रह्मन्सर्वापत्स्वेव नः कुलम् ।
तथा रक्षां कुरु पुनर्दावाग्नेर्मधुसूदन ॥ १७२ ॥
त्वमिष्टदेवताऽस्माकं त्वमेव कुलदेवता ।
स्रष्टा पाता च संहर्ता जगतां च जगत्पते ॥ १७३ ॥
वह्निर्वा वरुणो वाऽपि चन्द्रो वा सूर्य एव च ।
यमः कुबेरः पवन ईशानाद्याश्च देवताः ॥ १७४ ॥
ब्रह्मेशशेषधर्मेन्द्रा मुनीन्द्रा मनवः स्मृताः ।
मानवाश्च तथा दैत्या यक्षराक्षसकिंनराः ॥ १७५ ॥
ये ये चराचराश्चैव सर्वे तव विभूतयः ।
आविर्भावस्तिरोभावः सर्वेषां च तथेच्छया ॥ १७६ ॥
अभयं देहि गोविंद वह्निसंहरणं कुरु ॥
वयं त्वां शरणं यामो रक्ष नः शरणागतान् ॥ १७७ ॥

इत्येवमुक्त्वा ते सर्वे तस्थुर्ध्यात्वा पदाम्बुजम् ।
दूरीभूतस्तु दावाग्निः श्रीकृष्णामृतदृष्टितः ॥ १७८ ॥
दूरीभूते च दावाग्नौ ननृतुस्ते मुदाऽन्विताः ।
सर्वापदः प्रणश्यन्ति हरिस्मरणमात्रतः ॥ १७९ ॥
इदं स्तोत्रं महापुण्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
वह्नितो न भवेत्तस्य भयं जन्मनि जन्मनि ॥ १८० ॥
शत्रुग्रस्ते च दावाग्नौ विपत्तौ प्राणसङ्कटे ।
स्तोत्रमेतत्पठित्वा तु मुच्यते नात्र संशयः ॥ १८१ ॥
शत्रुसैन्यं क्षयं याति सर्वत्र विजयी भवेत् ।
इह लोके हरेर्भक्तिमन्ते दास्यं लभेद्ध्रुवम् ॥ १८२ ॥

ग्वालबाल बोले — ब्रह्मन् ! मधुसूदन ! आपने सब आपत्तियोंमें जैसे हमारे कुलकी रक्षा की है, उसी प्रकार फिर इस दावानलसे हमें बचाइये । जगत्पते ! आप ही हमारे इष्टदेवता हैं और आप ही कुलदेवता । संसार की सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले भी आप ही हैं। अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, सूर्य, यम, कुबेर, वायु, ईशानादि देवता, ब्रह्मा, शिव, शेष, धर्म, इन्द्र, मुनीन्द्र, मनु, मानव, दैत्य, यक्ष, राक्षस, किन्नर तथा अन्य जो-जो चराचर प्राणी हैं, वे सब-के-सब आपकी ही विभूतियाँ हैं। उन सबके आविर्भाव और लय आपकी इच्छा से ही होते हैं । गोविन्द ! हमें अभय दीजिये और इस अग्नि का संहार कीजिये । हम आपकी शरण में आये हैं । आप हम शरणागतों को बचाइये ।

यों कहकर वे सब लोग श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का चिन्तन करते हुए खड़े हो गये । श्रीकृष्ण की अमृतमयी दृष्टि पड़ते ही दावानल दूर हो गया। फिर तो वे ग्वाल-बाल मोद-मग्न होकर नाचने लगे। क्यों न हो, श्रीहरि के स्मरण-मात्र से सब विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। जो प्रातः काल उठकर इस परम पुण्यमय स्तोत्र का पाठ करता है, उसे जन्म-जन्म में कभी अग्नि से भय नहीं होता । शत्रुओं से घिर जाने पर, दावानल में आ जाने पर, भारी विपत्ति में पड़ने पर तथा प्राण-संकट के समय इस स्तोत्र का पाठ करके मनुष्य सब दुःखों से छुटकारा पा जाता है। इसमें संशय नहीं है । शत्रुओं की सेना क्षीण हो जाती है और वह मनुष्य युद्ध में सर्वत्र विजयी होता है। वह इहलोक में श्रीहरि की भक्ति और अन्त में उनके दास्य-सुख को अवश्य पा लेता है ।

भगवान् श्रीनारायण कहते हैं — नारद! सुनो। दावानल से उनका उद्धार करके श्रीहरि उन सबके साथ अपने कुबेरभवनोपम गये। गृह में वहाँ नन्द ने आनन्दपूर्वक ब्राह्मणों को प्रचुर धन का दान किया और ज्ञातिवर्ग के लोगों तथा भाई-बन्धुओं को भोजन कराया। नाना प्रकार का मङ्गलकृत्य तथा श्रीहरिनाम – कीर्तन कराया। ब्राह्मणों द्वारा प्रसन्नतापूर्वक वेदपाठ करवाया। इस प्रकार वृन्दावन के घर-घर में वे सब गोप श्रीकृष्णचरणारविन्दों के चिन्तन में चित्त को एकाग्र करके आनन्दपूर्वक रहने लगे। श्रीहरि का यह सारा मङ्गलमय चरित्र कहा गया, जो कलिकल्मषरूपी काष्ठ को दग्ध करने के लिये अग्नि के समान है।              (अध्याय १९)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्म खण्डे नारायणनारदसंवादे कालीयदमनदावाग्निमोक्षणं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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