February 23, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 24 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ चौबीसवाँ अध्याय दुर्वासा का और्वकन्या कन्दली से विवाह, उसकी कटूक्तियों से कुपित हो मुनि का उसे भस्म कर देना, फिर शोक से देह त्याग के लिये उद्यत मुनि को विप्ररूपधारी श्रीहरि का समझाना, उन्हें एकानंशा को पत्नी बनाने के लिये कहना, कन्दली का भविष्य बताना और मुनि को ज्ञान देकर अन्तर्धान होना तथा मुनि की तपस्या में प्रवृत्ति भगवान् श्रीनारायण कहते हैं — मुने ! दुर्वासा मुनि का गूढ़ वृत्तान्त सुनो। सबसे अद्भुत बात यह है कि उन ऊर्ध्वरेता मुनीश्वर को भी स्त्री का संयोग प्राप्त हुआ । यह कैसे ? सो बता रहा हूँ। साहसिक तथा तिलोत्तमा का शृङ्गार (मिलन-प्रसंग) देखकर उन जितेन्द्रिय मुनि के मन में भी कामभाव का संचार हो गया । असत्-पुरुषों का सङ्ग प्राप्त होने से उनका सांसर्गिक दोष अपने में आ जाता है। इसी समय उस मार्ग से मुनिवर और्व अपनी पुत्री के साथ आ पहुँचे। उनकी पुत्री पति का वरण करना चाहती थी । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पूर्वकाल में तपः परायण ब्रह्माजी के ऊरु से उन ऊर्ध्वरेता योगीन्द्र का जन्म हुआ था, इसलिये वे ‘और्व’ कहलाये । उनके जानु से एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसका नाम ‘कन्दली’ था। वह दुर्वासा को ही अपना पति बनाना चाहती थी, दूसरा कोई पुरुष उसके मन को नहीं भाता था । पुत्री सहित मुनिवर और्व दुर्वासामुनि के आगे आकर खड़े हो गये। वे बड़े प्रसन्न थे और अपने तेज से प्रज्वलित अग्निशिखा के समान उद्भासित होते थे । मुनिवर और्व को सामने आया देख मुनीश्वर दुर्वासा भी बड़े वेग से उठे और सानन्द उनके प्रति नतमस्तक हो गये । प्रसन्नता से भरे हुए और्व ने दुर्वासा को हृदय से लगा लिया और उनसे अपनी कन्या का मनोरथ प्रकट किया। और्व बोले — मुने ! यह मेरी मनोहरा कन्या ‘कन्दली’ नाम से विख्यात है । अब यह सयानी हो गयी है और संदेशवाहकों के मुख से आपकी प्रशंसा सुनकर केवल आपका ही ‘पति’ – रूप से चिन्तन करने लगी है । यह कन्या अयोनिजा है और अपने सौन्दर्य से तीनों लोकों का मन मोह लेने में समर्थ है। वैसे तो यह समस्त गुणों की खान है; किंतु इसमें एक दोष भी है। दोष यह है कि कन्दली अत्यन्त कलहकारिणी है । यह क्रोधपूर्वक कटु भाषण करती है; परंतु अनेक गुणों से युक्त वस्तु को केवल एक ही दोष के कारण त्यागना नहीं चाहिये । और्व का वचन सुनकर दुर्वासा को हर्ष और शोक दोनों प्राप्त हुए। उसके गुणों से हर्ष हुआ और दोष से दुःख । उन्होंने गुण तथा रूप से सम्पन्न मुनि-कन्या को सामने देखा और व्यथित-हृदय से मुनिवर और्व को इस प्रकार उत्तर दिया । दुर्वासा ने कहा — नारी का रूप त्रिभुवन में मुक्तिमार्ग का निरोधक, तपस्या में व्यवधान डालने वाला तथा सदा ही मोह का कारण होता है। वह संसाररूपी कारागार में बड़ी भारी बेड़ी है, जिसका भार वहन करना अत्यन्त दुष्कर है। शंकर आदि महापुरुष भी ज्ञानमय खड्ग से उस बेड़ी को काट नहीं सकते । नारी सदा साथ देने वाली छाया से भी अधिक सहगामिनी है । वह कर्मभोग, इन्द्रिय, इन्द्रियाधार, विद्या और बुद्धि से भी अधिक बाँधने वाली है । छाया शरीर के रहने तक ही साथ देती है; भोग तभी तक साथ रहते हैं जबतक उनकी समाप्ति न हो जाय; देह और इन्द्रियाँ जीवनपर्यन्त ही साथ रहती हैं; विद्या जब तक उसका अनुशीलन होता है तभीत क साथ देती है; यही दशा बुद्धि की भी है; परंतु सुन्दरी स्त्री जन्म-जन्म में मनुष्य को बन्धन में डाले रहती है । सुन्दरी स्त्री वाला पुरुष जब तक जीता है, तब तक अपने जन्म-मरणरूपी बन्धन का निवारण नहीं कर सकता। जब तक जीवधारी का जन्म होता है, तब तक उसे भोग सुखदायक जान पड़ते हैं । परंतु मुनीन्द्र! सबसे अधिक सुखदायिनी है श्रीहरि के चरणकमलों की सेवा। मैं यहाँ श्रीकृष्ण – चरणारविन्दों के चिन्तन में लगा था, परंतु मेरे इस शुभ अनुष्ठान में भारी विघ्न उपस्थित हो गया । न जाने पूर्वजन्म के किस कर्म-दोष से यह विघ्न आया है। किंतु मुने ! मैं आपकी कन्या के सौ कटु वचनों को अवश्य क्षमा करूँगा। इससे अधिक होने पर उसका फल उसे दूँगा । स्त्री के कटु वचनों को सुनते रहना— यह पुरुष के लिये सबसे बड़ी निन्दा की बात है । जिसे स्त्री ने जीत लिया हो, वह तीनों लोकों के सत्पुरुषों में अत्यन्त निन्दित है। मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके इस समय आपकी पुत्री को ग्रहण करूँगा । ऐसा कहकर दुर्वासा चुप हो गये । और्वमुनि ने वेदोक्त-विधि से अपनी पुत्री उनको ब्याह दी । दुर्वासा ने ‘स्वस्ति’ कहकर कन्या का पाणिग्रहण किया । और्व मुनि ने उन्हें दहेज दिया और अपनी कन्या उन्हें सौंपकर वे मोहवश रोने लगे । संतान के वियोग से होने वाला शोक आत्माराम मुनि को भी नहीं छोड़ता । और्व बोले — बेटी ! सुनो। मैं तुम्हें नीति का परम दुर्लभ सार-तत्त्व बता रहा हूँ। वह हितकारक, सत्य, वेदप्रतिपादित तथा परिणाम में सुखद है। नारी के लिये अपना पति ही इहलोक और परलोक में सबसे बड़ा बन्धु है । कुलवधुओं के लिये पति से बढ़कर दूसरा कोई प्रियतम नहीं है । पति ही उनका महान् गुरु है । देवपूजा, व्रत, दान, । तप, उपवास, जप, सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान, समस्त यज्ञों की दीक्षा, पृथ्वी की परिक्रमा तथा ब्राह्मणों और अतिथियों का सेवन – ये सब पति-सेवा की सोलहवीं कला के समान भी नहीं हैं। पतिव्रता को इन सबसे क्या प्रयोजन है ? समस्त शास्त्रों में पतिसेवा को परम धर्म कहा गया है। अपनी बुद्धि से पति को सदा नारायण से भी अधिक समझकर तुम उनके चरणकमलों की प्रतिदिन सेवा करना । परिहास, क्रोध, भ्रम अथवा अवहेलना से भी अपने स्वामी मुनि के लिये उनके सामने या परोक्ष में भी कभी कटु वचन न बोलना । भारतवर्ष की भूमि पर जो स्त्रियाँ स्वेच्छानुसार कटु वचन बोलती अथवा दुराचार में प्रवृत्त होती हैं, उनकी शुद्धि के लिये श्रुति में कोई प्रायश्चित्त नहीं है। उन्हें सौ कल्पों तक नरक में रहना पड़ता है। जो स्त्री समस्त धर्मों से सम्पन्न होने पर भी पति के प्रति कटु वचन बोलती है, उसका सौ जन्मों का किया हुआ पुण्य निश्चय ही नष्ट हो जाता है । इस प्रकार अपनी कन्या को देकर और उसे समझा-बुझाकर मुनिवर और्व चले गये तथा स्वात्माराम मुनि दुर्वासा स्त्री के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने आश्रम में रहने लगे। चतुर पुरुष का चतुरा स्त्री के साथ योग्य समागम हुआ। मुनीश्वर दुर्वासा तपस्या छोड़कर घर-गृहस्थी में आसक्त हो गये । कन्दली स्वामी के साथ प्रतिदिन कलह करती थी और मुनीन्द्र दुर्वासा नीतियुक्त वचन कहकर अपनी पत्नी को समझाते थे; परंतु उनकी बात को वह कुछ नहीं समझती थी । वह सदा कलह में ही रुचि रखती थी । पिता के दिये हुए ज्ञान से भी वह शान्त नहीं हुई। समझाने से भी उसने अपनी आदत नहीं छोड़ी । स्वभाव को लाँघना बहुत कठिन होता है। वह बिना कारण ही पति को प्रतिदिन जली-कटी सुनाती थी। जिनके डर से सारा जगत् काँपता था, वे ही मुनि उस कन्दली के कोप से थर-थर काँपते थे और उसकी की हुई कटूक्ति को चुपचाप सह लेते थे। दयानिधान मुनि मोहवश उसे तत्काल समझाने लगते थे । कुछ ही काल में उसकी सौ कटूक्तियाँ पूरी हो गयीं तो भी मुनि ने कृपापूर्वक उसकी सौ से भी अधिक कटूक्तियों को क्षमा किया। पत्नी की जली-कटी बातों से मुनि का हृदय दग्ध होता रहता था । दिये हुए वचन के अनुसार उस कटूक्तिकारिणी स्त्री के अपराध पूरे हो गये । दुर्वासामुनि यद्यपि स्वात्माराम और दयालु थे तथापि क्रोध को नहीं छोड़ सके थे । उन्होंने मोहवश पत्नी को शाप दे दिया — ‘अरी तू राख का ढेर बन जा ।’ मुनि के संकेत मात्र से वह जलकर भस्म हो गयी। जो ऐसी उच्छृङ्खला स्त्रियाँ हैं, उनका तीनों लोकों में कल्याण नहीं होता । शरीर के भस्म हो जाने पर आत्मा का प्रतिबिम्बरूप जीव आकाश में स्थित हो पति से विनयपूर्वक बोला । जीव ने कहा — हे नाथ! आप अपनी ज्ञान-दृष्टि से सदा सब कुछ देखते हैं । सर्वज्ञ होने के कारण आपको सब कुछ का ज्ञान है। फिर मैं आपको क्या समझाऊँ ! उत्तम वचन, कटु वचन, क्रोध, संताप, लोभ, मोह, काम, क्षुधा, पिपासा, स्थूलता, कृशता, नाश, दृश्य, अदृश्य तथा उत्पन्न होना – ये सब शरीर के धर्म हैं। न तो जीव के धर्म हैं और न आत्मा के ही। सत्त्व, रज और तम – इन तीन गुणों से शरीर बना है । वह भी नाना प्रकार का है । सुनिये, मैं आपको बताती हूँ। किसी शरीर में सत्त्वगुण की अधिकता होती है, किसी में रजोगुण की और किसी में तमोगुण की। ! कहीं भी सम गुणों वाला शरीर नहीं है। जब सत्त्वगुण का उद्रेक होता है तब मोक्ष की इच्छा जाग्रत् होती है, रजोगुण की वृद्धि से कर्म करने की इच्छा प्रबल होती है और तमोगुण से जीव – हिंसा, क्रोध एवं अहंकार आदि दोष प्रकट होते हैं । क्रोध से निश्चय ही कटु वचन बोला जाता है। कटु वचन से शत्रुता होती है और शत्रुता से मनुष्य में तत्काल अप्रियता आ जाती है। अन्यथा इस भूतल पर कौन किसका शत्रु है ? कौन प्रिय है और कौन अप्रिय ? कौन मित्र है और कौन वैरी? सर्वत्र शत्रु और मित्र की भावना में इन्द्रियाँ ही बीज हैं। स्त्रियों के लिये पति प्राणों से भी अधिक प्रिय है और पति के लिये स्त्री प्राणों से भी बढ़कर प्यारी है। फिर भी दुर्वचन के कारण एक क्षण में हम दोनों के बीच तत्काल शत्रुता पैदा हो गयी । प्रभो ! जो बीत गया सो गया। यह सब काम – दोष से हुआ था। अब आप मेरा सारा अपराध क्षमा कर दें और बतावें इस समय मुझे क्या करना चाहिये । मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ ? कहाँ मेरा जन्म होगा? मैं तीनों लोकों में आपके सिवा किसी की भार्या नहीं होऊँगी । यों कहकर कन्दली का जीवात्मा मौन हो गया। इधर शोक से अचेत हो दुर्वासामुनि मूर्च्छित हो गये । वे स्वात्माराम और महाज्ञानी होकर भी अपनी चेतना खो बैठे। चतुर पुरुषों के लिये नारी का वियोग सब शोकों से बढ़कर होता है। एक ही क्षण में उन्हें चेत हुआ और वे अपने प्राण त्याग देने को उद्यत हो गये। उन्होंने वहीं योगासन लगाकर वायुधारणा आरम्भ की। इतने ही में एक ब्राह्मण-बालक वहाँ आ पहुँचा। उसके हाथ में दण्ड और चक्र था । उसने लाल वस्त्र धारण किया था और ललाट में उत्तम चन्दन लगा रखा था। उसकी अङ्गकान्ति श्याम थी । वह ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान था। उसकी अवस्था बहुत छोटी थी; परंतु वह शान्त, ज्ञानवान् तथा वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ जान पड़ता था । उसे देख दुर्वासा ने वेगपूर्वक प्रणाम किया, वहीं बैठाया और भक्तिभाव से उसका पूजन किया । ब्राह्मण वटुक ने मुनि को शुभाशीर्वाद दे वार्तालाप आरम्भ किया । उसके दर्शन और आशीर्वाद से मुनि का सारा दुःख दूर हो गया। वह नीतिविशारद वाणी में बोला । विचक्षण बालक क्षणभर चुप रहकर अमृतमयी शिशु ने कहा — सर्वज्ञ विप्र ! आप गुरुमन्त्र के प्रसाद से सब कुछ जानते हैं; फिर भी शोक से कातर हो रहे हैं; अतः मैं पूछता हूँ, इसका यथार्थ रहस्य क्या है ? ब्राह्मणों का धर्म तप है। तपस्या से तीनों लोकों को वश में किया जा सकता है। मुने ! इस समय अपने धर्म – तपस्या को छोड़कर आप क्या करने जा रहे हो ? त्रिभुवन में कौन किसकी पत्नी है और कौन किसका पति ? भगवान् श्रीहरि मूर्खो को बहलाने के लिये माया से इन सम्बन्धों की सृष्टि करते हैं । यह कन्दली आपकी मिथ्या पत्नी थी; इसीलिये अभी क्षणभर में चली गयी। जो सत्य है, वह कभी तिरोहित नहीं होता । मिथ्या वही है, जिसकी चिरकाल तक स्थिति न रहे । वसुदेव-पुत्री एकानंशा, जो श्रीकृष्ण की बहिन है, पार्वती के अंश से उत्पन्न हुई है। वह सुशीला और चिरजीविनी है। वह सुन्दरी प्रत्येक कल्प में आपकी पत्नी होगी; अतः आप कुछ दिनों तक प्रसन्नतापूर्वक तपस्या में मन लगाइये । कन्दली इस भूतल पर ‘कन्दली’ जाति होगी। वह कल्पान्तर में शुभदा, फलदायिनी, कमनीया, एक संतान देनेवाली, परम दुर्लभा तथा शान्तरूपा स्त्री होकर आपकी पत्नी होगी। जो अत्यन्त उच्छृङ्खल हो, उसका दमन करना उचित ही है; ऐसा श्रुतिमें सुना गया है ( अतः उसके भस्म होने से आपको शोक नहीं करना चाहिये) । यों कहकर ब्राह्मणरूपधारी श्रीहरि ब्रह्मर्षि दुर्वासा को ज्ञान दे शीघ्र ही वहाँ से अन्तर्धान हो गये। तब मुनि ने सारा भ्रम छोड़कर तपस्या में मन लगाया। कन्दली इस धरातल पर कन्दली जाति हो गयी । मुने! दैत्य साहसिक तालवन में जाकर गदहा हो गया और तिलोत्तमा यथासमय बाणासुर की पुत्री हुई। फिर श्रीहरि के चक्र से मारा जाकर अपने प्राणों का परित्याग करके दैत्यराज साहसिक ने गोविन्द के उस परम अभीष्ट चरणारविन्द को प्राप्त कर लिया जो मुनि के लिये भी परम दुर्लभ है । तिलोत्तमा भी बाण-पुत्री उषा के रूप में जन्म ले श्रीकृष्ण-पौत्र अनिरुद्ध के आलिङ्गन से सफल-मनोरथ होकर समयानुसार पुनः अपने निवासस्थान- स्वर्गलोक को चली गयी। इस प्रकार श्रीकृष्ण के इस उत्तम लीलोपाख्यान को पिता से सुनकर मैंने तुमसे कहा है । यह पद-पद में सुन्दर है । अब और क्या सुनना चाहते हो ? (अध्याय २४) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे तालफलभक्षणप्रसङ्गे बलिपुत्रमोक्षोनाम चतुर्विशोऽध्यायः ॥ २४ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe