February 23, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 25 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ पच्चीसवाँ अध्याय महर्षि और्व द्वारा दुर्वासा को शाप, दुर्वासा का अम्बरीष के यहाँ द्वादशी के दिन पारणा के समय पहुँचकर भोजन माँगना, वसिष्ठजी की आज्ञा से अम्बरीष का पारणा की पूर्ति के लिये भगवान् का चरणोदक पीना, दुर्वासा का राजा को मारने के लिये कृत्या-पुरुष उत्पन्न करना, सुदर्शनचक्र का कृत्या को मारकर मुनि का पीछा करना, मुनि का कहीं भी आश्रय न पाकर वैकुण्ठ में जाना, वहाँ से भगवान् की आज्ञा के अनुसार अम्बरीष के घर आकर भोजन करना तथा आशीर्वाद देकर अपने आश्रम को जाना नारदजी के पूछने पर भगवान् श्रीनारायण ने कहा — मुने ! महर्षि और्व सरस्वती नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे; उन्हें ध्यान से अपनी पुत्री के मरण का वृत्तान्त ज्ञात हो गया। तब वे शोकाकुल होकर दुर्वासा के पास आये । दुर्वासा ने श्वशुर को प्रणाम करके सब बातें बतायीं और उस घटित घटना के लिये महान् दुःख प्रकट किया । मुनिवर और्व ने दुर्वासा को उलाहना दिया और कहा — तुमने बहुत थोड़े अपराध पर उसको भारी दण्ड दे दिया । यदि उसे भस्म न करके त्याग ही दिया होता तो वह मेरे ही पास रह जाती।’ फिर रोष से भरकर शाप दे दिया कि ‘तुम्हारा पराभव होगा ।’ इतना कहकर मुनि और्व लौट गये। यह कथा सुनकर नारदजी ने दुर्वासा के पराभव का इतिहास पूछा । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नारद बोले — भगवन् ! दुर्वासा साक्षात् भगवान् शंकर के अंश हैं तथा तेज में भी उन्हीं के समान हैं। फिर कौन ऐसा महातेजस्वी पुरुष था, जिसने उनका भी पराभव कर दिया ? भगवान् श्रीनारायण ने कहा — मुने! सूर्यवंश में अम्बरीष नाम से प्रसिद्ध एक राजाधिराज (सम्राट्) हो गये हैं। उनका मन सदा श्रीकृष्ण के चरणकमलों के चिन्तन में ही लगा रहता था । राज्य में, रानियों में, पुत्रों में, प्रजाओं में तथा पुण्य कर्मों द्वारा अर्जित की हुई सम्पत्तियों में भी उनका चित्त क्षणभर के लिये भी नहीं लगता था । वे धर्मात्मा नरेश दिन-रात सोते-जागते हर समय प्रसन्नतापूर्वक श्रीहरि का ध्यान किया करते थे । राजा अम्बरीष बड़े भारी जितेन्द्रिय, शान्तस्वरूप तथा विष्णुसम्बन्धी व्रतों के पालन में तत्पर रहते थे । वे एकादशी का व्रत रखते और श्रीकृष्ण की आराधना में संलग्न रहते थे। उनके सारे कर्म श्रीकृष्ण को समर्पित थे और वे उनमें कभी लिप्त नहीं होते थे । भगवान् का सोलह अरों से युक्त और अत्यन्त तीक्ष्ण जो सुदर्शन नामक चक्र है, वह करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान तथा श्रीहरि के ही तुल्य तेजस्वी है। ब्रह्मा आदि भी उसकी स्तुति करते हैं । वह अस्त्र देवताओं और असुरों से भी पूजित है । भगवान् ने अपने उस चक्र को राजा की निरन्तर रक्षा के लिये उनके पास ही रख दिया था । एक समय की बात है । राजा अम्बरीष एकादशी व्रत का अनुष्ठान करके द्वादशी के दिन समयानुसार विधिपूर्वक स्नान और पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन करा स्वयं भी भोजन के लिये बैठे। इसी समय तपस्वी ब्राह्मण दुर्वासा भूख से व्याकुल हो वहाँ राजा के समक्ष आ गये। उन्होंने दण्ड और छत्र ले रखा था, उनके शरीर पर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहे थे । ललाट में उज्ज्वल तिलक चमक रहा था। सिर पर जटाएँ थीं और शरीर अत्यन्त कृश हो रहा था । वे त्रस्त – से जान पड़ते थे। उनके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे। मुनीन्द्र पर दृष्टि पड़ते ही राजा ने उठकर उन्हें प्रणाम किया और प्रसन्नतापूर्वक पैर धोने के लिये जल प्रस्तुत करके बैठने को स्वर्ण का सिंहासन दिया । विप्रवर दुर्वासा उन्हें आशीर्वाद देकर उस सुखद आसन पर बैठे। तब राजा ने भयभीत होकर उनसे पूछा — ‘मुने! मेरे लिये आपकी क्या आज्ञा है ? यह मुझे बताइये ।’ राजा की बात सुनकर मुनिवर दुर्वासा ने कहा — ‘नृपश्रेष्ठ ! मैं भूख से पीड़ित होकर यहाँ आया हूँ । अतः मुझे भोजन कराओ; परंतु मैं अघमर्षण – मन्त्र अघमर्षण मंत्र है – द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नातो मलादिव । पूतम्पवित्रेणेवाज्यमापः शुन्धन्तु मैनसः ॥ यजुर्वेद अध्याय – 20 के अन्तर्गत आता है।का जप करके शीघ्र ही आ रहा हूँ, क्षणभर प्रतीक्षा करो।’ ऐसा कहकर मुनि चले गये । ब्राह्मण दुर्वासा के चले जाने पर राजर्षि अम्बरीष को बड़ी भारी चिन्ता हुई । द्वादशी तिथि प्रायः बीत चली है; यह देख वे डर गये। इसी समय गुरु वसिष्ठ वहाँ आ गये। तब प्रसन्नतापूर्वक उन्हें नमस्कार करके राजा ने सारी बातें उन्हें बतायीं और पूछा – ‘गुरुदेव ! मुनिवर दुर्वासा अभी तक आ नहीं रहे हैं और पारणा के लिये विहित द्वादशी तिथि बीती जा रही है। ऐसे संकट के समय मुझे क्या करना चाहिये ? इस पर भलीभाँति विचार करके मुझे शीघ्र बताइये कि क्या करना शुभ है और क्या अशुभ ?” वसिष्ठजी ने कहा — द्वादशी को बिताकर त्रयोदशी में पारण करना पाप है और अतिथि से पहले भोजन कर लेना भी पाप है। ऐसी दशा में तुम भोजन न करके भगवान् का चरणोदक ले लो। इससे पारणा भी हो जायगी और अतिथि की अवहेलना भी नहीं होगी । महामुने ! ऐसा कहकर ब्रह्मपुत्र वसिष्ठजी चुप हो गये । राजा ने श्रीकृष्ण-चरणारविन्दों का चिन्तन करते हुए थोड़ा-सा चरणोदक पी लिया । ब्रह्मन् ! इतने में ही मुनीश्वर दुर्वासा आ पहुँचे । वे सर्वज्ञ तो थे ही, अपना अपमान समझकर कुपित हो उठे। उन्होंने राजा के सामने ही अपनी एक जटा तोड़ डाली। उस जटा से शीघ्र ही एक पुरुष प्रकट हुआ, जो अग्निशिखा के समान तेजस्वी था। उसके हाथ में तलवार थी। वह महाभयंकर पुरुष महाराज अम्बरीष को मार डालने के लिये उद्यत हो गया। यह देख करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान श्रीहरि के सुदर्शनचक्र ने उस कृत्या-पुरुष को काट डाला। अब वह बाबा दुर्वासा को भी काटने के लिये उद्यत हुआ । यह देख विप्रवर दुर्वासा भय से व्याकुल हो भाग चले। उन्होंने अपने पीछे-पीछे प्रज्वलित अग्निशिखा के समान तेजस्वी चक्र को आते देखा। वे अत्यन्त व्याकुल हो सारे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाते- लगाते थक गये, खिन्न हो गये और ब्रह्माजी को सम्पूर्ण जगत् का रक्षक मान उनकी शरण में गये । ‘बचाइये-बचाइये’–पुकारते हुए उन्होंने ब्रह्माजी की सभा में प्रवेश किया । ब्रह्माजी ने उठकर विप्रवर दुर्वासा का कुशल-मङ्गल पूछा। तब उन्होंने आदि से ही सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कह सुनाया । सुनकर ब्रह्माजी ने लम्बी साँस ली और भय से व्याकुल होकर कहा । ब्रह्माजी ने कहा — बेटा ! तुम किसके बल पर श्रीहरि के दास को शाप देने गये थे ? जिसके रक्षक भगवान् हैं, उसको तीनों लोकों में कौन मार सकता है ? भक्तवत्सल श्रीहरि ने छोटे-बड़े सभी भक्तों की रक्षा के लिये सुदर्शनचक्र को सदा नियुक्त कर रखा है। जो मूढ़ श्रीविष्णु के लिये प्राणों के समान प्रिय वैष्णव भक्त से द्वेष रखता है, उसका संहार भगवान् विष्णु स्वयं करते हैं। वे श्रीहरि संहारकर्ता का भी संहार करने में समर्थ हैं। अतः बेटा ! तुम शीघ्र किसी दूसरे स्थान में जाओ । अब यहाँ तुम्हारी रक्षा नहीं हो सकती। यदि नहीं हटे तो सुदर्शनचक्र मेरे साथ ही तुम्हारा वध कर डालेगा । ब्रह्माजी की बात सुनकर ब्राह्मणदेवता दुर्वासा वहाँ से भयभीत होकर भागे । अब वे डरकर कैलास पर्वत पर भगवान् शंकर की शरण में गये और बोले – ‘ कृपानिधान! हमारी रक्षा कीजिये।’ भगवान् शिव सर्वज्ञ हैं। उन्होंने ब्राह्मण दुर्वासा का कुशल-समाचार तक नहीं पूछा। जो क्षणभ रमें जगत् का संहार करने में समर्थ तथा दीन-दु:खियों के स्वामी हैं, वे महादेवजी मुनि से बोले । शंकरजी ने कहा — द्विजश्रेष्ठ ! सुस्थिर होकर मेरी बात सुनो। मुने! तुम महर्षि अत्रि के पुत्र तथा जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी के पौत्र हो । वेदों के विद्वान् तथा सर्वज्ञ हो, परंतु तुम्हारा कर्म मूर्खो के समान है। वेदों, पुराणों और इतिहासों में सर्वत्र जिन सर्वेश्वर का निरूपण हुआ है; उन्हीं को तुम मूढ़ मनुष्य की भाँति नहीं जानते हो। जिनके भ्रूभङ्ग की लीला-मात्र से मैं, ब्रह्मा, रुद्र, आदित्य, वसु, धर्म, इन्द्र, सम्पूर्ण देवता, मुनीन्द्र और मनु उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं; उन्हीं श्रीहरि के प्राणों से भी बढ़कर प्रिय भक्त को तुम किसकी शक्ति से मारने चले थे ? उनका चक्र उन्हीं के तुल्य तेजस्वी है । उसे रोकना सर्वथा कठिन है । उस चक्र को यद्यपि उन्होंने भक्तों की रक्षा में लगा रखा है, तथापि उन्हें उस पर पूरा भरोसा नहीं होता। इसलिये वे स्वयं उनकी रक्षा करने के लिये जाते हैं । उनके मुँह से अपने गुणों और नामों का श्रवण करके उन्हें बड़ा आनन्द मिलता है । इसलिये भगवान् भक्त के साथ सदा छाया की तरह घूमते रहते हैं । अतः ब्राह्मणदेव ! गोविन्द का भजन करो। उनके चरणकमलों का चिन्तन करो। श्रीहरि के स्मरणमात्र से भी सारी आपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। अब शीघ्र ही वैकुण्ठधाम में जाओ। उस धाम के अधिपति श्रीहरि ही तुम्हारे शरणदाता हैं। वे प्रभु दया के सागर हैं; अतः तुम्हें अवश्य ही अभयदान देंगे । ये बातें हो ही रही थीं कि सारा कैलास चक्र के तेज से व्याप्त हो उठा, जैसे समस्त भूमण्डल सूर्य की किरणों से उद्दीप्त हो उठा हो । उस समय सम्पूर्ण कैलासवासी उस चक्र की विकराल ज्वाला से संतप्त हो ‘ त्राहि-त्राहि’ पुकारते हुए भगवान् शंकर की शरण में गये । उस दुःसह चक्र को देख पार्वतीसहित करुणानिधान भगवान् शंकर ने ब्राह्मण को प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देते हुए कहा – ‘यदि तेज सत्य है और चिरकाल से संचित तप सत्य है तो अपराध करके भयभीत हुआ यह ब्राह्मण संताप से मुक्त हो जाय । ‘ पार्वती बोलीं — यह ब्राह्मण मेरे स्वामी के पुण्यकर्मों के अवसर पर शरण में आया है; अतः मेरे आशीर्वाद से इसका महान् भय दूर हो जाय और यह शीघ्र ही संताप से छूट जाय । कृपापूर्वक ऐसा कहकर पार्वती और शिव चुप हो गये । मुनि ने उन्हें प्रणाम करके देवेश्वर वैकुण्ठनाथ की शरण ली। मन के समान तीव्र गति से चलने वाले मुनीश्वर दुर्वासा वैकुण्ठ-भवन में जाकर सुदर्शन को अपने पीछे-पीछे आते देख श्रीहरि के अन्तः पुर में घुस गये। वहाँ ब्राह्मण ने श्रीनारायणदेव के दर्शन किये। वे रत्नमय सिंहासन पर विराजमान थे। उनके हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पाते थे । उन परम प्रभु ने पीताम्बर धारण कर रखा था। उनके चार भुजाएँ थीं । अङ्गकान्ति श्याम थी । वे शान्त स्वरूप लक्ष्मी-कान्त अपने दिव्य सौन्दर्य से मन को मोह लेते थे । रत्नमय अलंकारों की शोभा उन्हें और भी श्री- सम्पन्न बना रही थी । गले में रत्नमयी माला से वे विभूषित थे। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द हास्य की छटा छा रही थी। वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये कातर दिखायी देते थे । उत्तम रत्नों के सार-तत्त्व से निर्मित मुकुट धारण करके उनका मस्तक अनुपम ज्योति से जगमगा रहा था । श्रेष्ठ पार्षदगण हाथों में श्वेत चँवर लिये प्रभु की सेवा कर रहे थे । कमला उनके चरणकमलों की सेवामें लगी थीं । सरस्वती सामने खड़ी हो स्तुति करती थीं। सुनन्द, नन्द, कुमुद और प्रचण्ड आदि पार्षद उन्हें घेरकर खड़े थे। ऐसे प्रभु को देख दुर्वासा ने दण्ड की भाँति पृथ्वी पर पड़कर प्रणाम किया और सामवेदवर्णित स्तुति के द्वारा उन परमेश्वर का स्तवन किया । ॥ दुर्वासा कृतं सामवेदोक्त जगन्मङ्गल नामक श्रीकृष्णस्तोत्रं ॥ ॥ दुर्वासा उवाच ॥ त्राहि मां कमलाकान्त त्राहि मां करुणानिधे । दीनबन्धोऽतिदीनेश करुणासागर प्रभो ॥ ९४ ॥ वेदवेदाङ्गसंस्रष्टुर्विधातुश्च स्वयं विधे । मृत्योर्मृत्युः कालकाल त्राहि मां संकटार्णवे ॥ ९५ ॥ संहारकर्तुः संहारः सर्वेशः सर्वकारणः । महाविष्णुतरोर्बीजं रक्ष मां भवसागरे ॥ ९६ ॥ शरणागतशोकार्तभयत्राणपरायण । भगवन्नव मां भीतं नारायण नमोऽस्तु ते ॥ ९७ ॥ वेदेष्वाद्यं च यद्वस्तु वेदाः स्तोतुं न च क्षमाः । सरस्वती जडीभूता किं स्तुवन्ति विपश्चितः ॥ ९७ ॥ शेषः सहस्रवक्त्रेण यं स्तोतुं जडतां व्रजेत् । पञ्चवक्त्रो जडीभूतो जडीभूतश्चतुर्मुखः ॥ ९९ ॥ श्रुतयः स्मृतिकर्तारो वाणी चेत्स्तोतुमक्षमा । कोऽहं विप्रश्च वेदज्ञः शिष्यः किं स्तौमि मानद ॥ १०० ॥ मनूनां च महेन्द्राणामष्टाविंशतिमे गते । दिवानिशं यस्य विधेरष्टोत्तरशतायुषः ॥ १०१ ॥ तस्य पातो भवेद्यस्य चक्षुरुन्मीलनेन च । तमनिर्वचनीयं च किं स्तौमि पाहि मां प्रभो ॥ १०२ ॥ इत्येवं स्तवनं कृत्वा पपात चरणाम्बुजे । नयनाम्बुजनीरेण सिषेच भयविह्वलः ॥ १०३ ॥ दुर्वाससा कृतं स्तोत्रं हरेश्च परमात्मनः । पुण्यदं सामवेदोक्तं जगन्मङ्गलनामकम् ॥ १०४ ॥ यः पठेत्संकटग्रस्तो भक्तियुक्तश्च संयतः । नारायणस्तं कृपया शीघ्रमागत्य रक्षति ॥ १०५ ॥ राजद्वारे श्मशाने च कारागारे भयाकुले । शत्रुग्रस्ते दस्युभीतौ हिंस्रजन्तुसमन्विते ॥ १०६॥ वेष्टिते राजसैन्येन मग्ने पोते महार्णवे । स्तोत्रस्मरणमात्रेण मुच्यते नात्र संशयः ॥ १०७ ॥ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते दुर्वासा कृतं श्रीकृष्णस्तोत्रं समाप्तम् ॥ दुर्वासा बोले — कमलाकान्त ! मेरी रक्षा कीजिये । करुणानिधे ! मुझे बचाइये। प्रभो! आप दीनों के बन्धु और अत्यन्त दुःखियों के स्वामी हैं । दया के सागर हैं । वेद-वेदाङ्गों के स्रष्टा विधाता के भी विधाता हैं । मृत्यु की भी मृत्यु और काल के भी काल हैं। मैं संकट समुद्र में पड़ा हूँ। मेरी रक्षा कीजिये । आप संहारकर्ता के भी संहारक, सर्वेश्वर और सर्वकारण हैं। महाविष्णुरूपी वृक्ष के बीज हैं। प्रभो! इस भवसागर से मेरी रक्षा कीजिये । शरणागत एवं शोकाकुल जनों का भय दूर करके उनकी रक्षा में लगे रहने वाले भगवन्! मुझ भयभीत का उद्धार कीजिये । नारायण ! आपको नमस्कार है। वेदों में जिन्हें आदिसत्ता कहा गया है, वेद भी जिनकी स्तुति नहीं कर सकते और सरस्वती भी जिनके स्तवन में जडवत् हो जाती हैं; उन्हीं प्रभु की दूसरे विद्वान् क्या स्तुति कर सकते हैं ? शेष सहस्र मुखों से जिनकी स्तुति करने में जडभाव को प्राप्त होते हैं, पञ्चमुख महादेव और चतुर्मुख ब्रह्मा भी जडीभूत हो जाते हैं, श्रुतियाँ, स्मृतिकार और वाणी भी जिनकी स्तुति में अपने को असमर्थ पाती हैं; उन्हीं का स्तवन मुझ जैसा ब्राह्मण कैसे कर सकता है ? मानद ! मैं वेदों का ज्ञाता क्या हूँ, वेदवेत्ता विद्वानों का शिष्य हूँ । मुझमें आपकी स्तुति करने की क्या योग्यता है ? अट्ठाईसवें मनु और महेन्द्र के समाप्त हो जाने पर जिनका एक दिन- रात का समय पूरा होता है, वे विधाता अपने वर्ष से एक सौ आठ वर्ष तक जीवित रहते हैं । परंतु जब उनका भी पतन होता है, तब आपके नेत्रों की एक पलक गिरती है; ऐसे अनिर्वचनीय परमेश्वर की मैं क्या स्तुति कर सकूँगा ? प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये। इस प्रकार स्तुति करके भय से विह्वल हुए दुर्वासा श्रीहरि के चरणकमलों में गिर पड़े और अपने अश्रुजल से उन्हें सींचने लगे । दुर्वासा द्वारा किये गये परमात्मा श्रीहरि के इस सामवेदोक्त जगन्मङ्गल नामक पुण्यदायक स्तोत्र का जो संकट में पड़ा हुआ मनुष्य भक्तिभाव से पाठ करता है, नारायणदेव कृपया शीघ्र आकर उसकी रक्षा करते हैं । भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! मुनि द्वारा की हुई स्तुति सुनकर भक्तवत्सल भगवान् वैकुण्ठनाथ हँसकर अमृत की वर्षा – सी करती हुई मधुर वाणी में बोले । श्रीभगवान् ने कहा — मुने! उठो, उठो । मेरे वर से तुम्हारा कल्याण होगा; परंतु मेरा नित्य सत्य एवं सुखदायक वचन सुनो। ब्राह्मणदेव ! वेदों, पुराणों और इतिहासों में वैष्णवों की जो महिमा गायी गयी है, उसे सबने और सर्वत्र सुना है । मैं वैष्णवों के प्राण हूँ और वैष्णव मेरे प्राण हैं । जो मूढ़ उन्हीं से द्वेष करता है, वह मेरे प्राणों का हिंसक है। जो अपने पुत्रों, पौत्रों और पत्नियों तथा राज्य और लक्ष्मी को भी त्यागकर सदा मेरा ही ध्यान करते हैं, उनसे बढ़कर मेरा प्रिय और कौन हो सकता है ? भक्त से बढ़कर न मेरे प्राण हैं, न लक्ष्मी हैं, न शिव हैं, न सरस्वती हैं, न ब्रह्मा हैं, न पार्वती हैं और न गणेश ही हैं । ब्राह्मण, वेद और वेदमाता सरस्वती भी मेरी दृष्टि में भक्तों से बढ़कर नहीं हैं। इस प्रकार मैंने सब सच्ची बात कही है। यह वास्तविक सार तत्त्व है। मैंने भक्तों की प्रशंसा के लिये कोई बात बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कही है। वे वास्तव में मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। जो मेरे प्राणाधिक प्रिय भक्तों से द्वेष करते हैं, उनको मैं शीघ्र ही दण्ड देता हूँ और परलोक में भी चिरकाल तक उन्हें नरक-यातना भोगनी पड़ती है। मैं सबकी उत्पत्ति का कारण तथा सबका ईश्वर और परिपालक हूँ । सर्वव्यापी एवं स्वतन्त्र हूँ, तथापि दिन-रात भक्तों के अधीन रहता हूँ । गोलोक में मेरा द्विभुज रूप है और वैकुण्ठ में चतुर्भुज। यह रूपमात्र ही उन-उन लोकों में रहता है; किंतु मेरे प्राण तो सदा भक्तों के समीप ही रहते हैं । भक्त का दिया हुआ अन्न साधारण हो तो भी मेरे लिये सादर भक्षण करने योग्य है; परंतु अभक्त का दिया हुआ अमृत के समान मधुर द्रव्य भी मेरे लिये अभक्ष्य है । ब्रह्मन्! राजाओं में श्रेष्ठ अम्बरीष निरीह हैं – सब प्रकार की इच्छाएँ छोड़ चुके हैं । कभी किसी की हिंसा नहीं करते हैं । स्वभाव से दयालु हैं और समस्त प्राणियों के हित में लगे रहते हैं। ऐसे महात्मा पुरुष का वध तुम क्यों करना चाहते हो ? जो संत महापुरुष सदा समस्त प्राणियों पर दया करते हैं; उनसे द्वेष रखने वाले मूढजनों का वध मैं स्वयं करता हूँ। जो भक्तों का हिंसक है, शत्रु है, उसकी रक्षा करने में मैं असमर्थ हूँ। अतः तुम अम्बरीष के घर जाओ। वे ही तुम्हारी रक्षा कर सकते हैं। भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! भगवान् श्रीहरि का वह वचन सुनकर ब्राह्मण दुर्वासा भय से व्याकुल हो गये । उनके मन में बड़ा खेद हुआ और वे श्रीकृष्णचरणारविन्दों का चिन्तन करते हुए वहीं खड़े रहे। इसी समय वहाँ ब्रह्मा, शिव, पार्वती, धर्म, इन्द्र, रुद्र, दिक्पाल, ग्रह, मुनिगण, अत्रि, लक्ष्मी, सरस्वती, पार्षद तथा नर्तकगण आये और सबने दुर्वासा के अपराध को क्षमा करके उनकी रक्षा करने के लिये भगवान् विष्णु से करुण – प्रार्थना की। [ तब ] श्रीभगवान् बोले — आप सब लोग मेरा नीतियुक्त और सुखदायक वचन सुनें। मैं आपकी आज्ञा से ब्राह्मण की रक्षा अवश्य करूँगा; किंतु ये मुनि वैकुण्ठलोक से पुनः राजा अम्बरीष के घर जायँ और उनकी प्रसन्नता के लिये वहीं पारणा करें। ये ब्रह्मर्षि अम्बरीष के अतिथि होकर भी बिना किसी अपराध के उन्हें शाप देने को उद्यत हो गये। इसलिये अपने रक्षणीय राजा की रक्षा के लिये सुदर्शन-चक्र इन ब्राह्मणदेवता को ही मार डालने के लिये उद्यत हो गया । इन्हें भयभीत होकर भागते हुए आज पूरा एक वर्ष हो गया । तभी से इनके लिये शोकग्रस्त हुए महाराज अम्बरीष अपनी पत्नी सहित उपवास कर रहे हैं। भक्त उपवास करने के कारण मैं भी उपवास करता हूँ । जैसे माता दूध-पीते बच्चे को उपवास करते देख स्वयं भी भोजन नहीं करती, वही दशा मेरी है । मेरे आशीर्वाद से मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा शीघ्र ही संतापमुक्त हो जायँगे। मार्ग में मेरा चक्र इनकी हिंसा नहीं करेगा। इनके भोजन करने से मेरा भक्त भोजन करेगा और तभी मैं भी आज निश्चिन्त होकर सुख से भोजन करूँगा; यह निश्चित बात है । भक्त द्वारा प्रीतिपूर्वक जो वस्तु मुझे दी जाती है, उसे मैं अमृत के समान मधुर मानकर ग्रहण करता हूँ । लक्ष्मी हाथ से परोसे गये पदार्थ को भी भक्त दिये बिना मैं नहीं खा सकता। जिस पदार्थ को भक्त ने नहीं दिया, वह मुझे तृप्ति नहीं दे सकता । वत्स ! महाप्राज्ञ मुनीन्द्र ! तुम राजा अम्बरीष के घर जाओ तथा ये सब देवता, देवियाँ और मुनि अपने-अपने घर को पधारें । ऐसा कहकर श्रीहरि तुरंत ही अपने अन्तः-पुर में चले गये तथा अन्य सब लोग उन जगदीश्वर को प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक अपने- अपने स्थान को लौट गये। मन के समान तीव्र गति से चलनेवाले ब्राह्मण दुर्वासा राजा अम्बरीष के घर को गये। साथ ही करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान सुदर्शनचक्र भी गया। एक वर्ष तक उपवास करने के बाद राजा के कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे। वे सिंहासन पर बैठे हुए थे । उसी समय उन्होंने मुनिवर दुर्वासा को सामने देखा। देखते ही वे बड़े वेग से उठे और तत्काल उनके चरणों में प्रणाम करके सादर भोजन के लिये ले गये । राजा ने मुनि को स्वादिष्ट अन्न भोजन कराकर फिर स्वयं भी अन्न ग्रहण किया । भोजन करके संतुष्ट हुए द्विजश्रेष्ठ दुर्वासा ने उन्हें उत्तम आशीर्वाद दिया। बारंबार उनकी प्रशंसा की। तदनन्तर उन्होंने शीघ्र ही अपने आश्रम को प्रस्थान किया। मार्ग में वे विप्रवर आश्चर्यचकित हो मन-ही-मन कहने लगे- ‘अहो ! वैष्णवों का माहात्म्य दुर्लभ है।’ (अध्याय २५) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे मुनिमो क्षणप्रस्तावो नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ तुलनीय – 1. श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय ४ अम्बरीष-दुर्वासोपाख्यानम् 2. ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 50 Content is available only for registered users. 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