February 24, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 27 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सत्ताईसवाँ अध्याय गोप-किशोरियों द्वारा गौरी व्रत का पालन, दुर्गा स्तोत्र और उसकी महिमा, समाप्ति के दिन गोपियों को नग्न स्नान करती जान श्रीकृष्ण द्वारा उनके वस्त्र आदि का अपहरण,श्रीराधा की प्रार्थना से भगवान् का सब वस्तुएँ लौटा देना, व्रत का विधान, दुर्गा का ध्यान, गौरी व्रत की कथा, लक्ष्मीस्वरूपा वेदवती का सीता होकर इस व्रत के प्रभाव से श्रीराम को पतिरूप में पाना, सीता द्वारा की हुई पार्वती की स्तुति, श्रीराधा आदि के द्वारा व्रतान्त में दान, देवी का उन सबको दर्शन देकर राधा को स्वरूप की स्मृति कराना, उन्हें अभीष्ट वर देना तथा श्रीकृष्ण का राधा आदि को पुनः दर्शन- सम्बन्धी मनोवाञ्छित वर देना भगवान् श्रीनारायण कहते हैं — नारद! सुनो। अब मैं पुनः श्रीकृष्ण-लीला का वर्णन करता हूँ । यह वह लीला है, जिसमें गोपियों के चीर का अपहरण हुआ और उन्हें मनोवाञ्छित वरदान दिया गया। हेमन्त के प्रथम मास – मार्गशीर्ष में गोपाङ्गनाएँ प्रेम के वशीभूत हो प्रतिदिन केवल एक बार हविष्यान्न ग्रहण करके पूर्णतः संयमशील हो पूरे महीने भर भक्तिभाव से व्रत करती रहीं । वे नहाकर यमुना के तट पर पार्वती की बालुकामयी मूर्ति बना उसमें देवी का आवाहन करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक नित्यप्रति पूजा किया करती थीं । मुने! गोपियाँ चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, कुंकुम, नाना प्रकार के मनोहर पुष्प, भाँति-भाँति के पुष्पहार, धूप, दीप, नैवेद्य, वस्त्र, अनेकानेक फल, मणि, मोती और मूँगे चढ़ाकर तथा अनेक प्रकार के बाजे बजाकर प्रतिदिन देवी की पूजा सम्पन्न करती थीं। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय हे देवि जगतां मातः सृष्टिस्थित्यन्तकारिणि । नन्दगोपसुतं कान्तमस्मभ्यं देहि सुव्रते ॥ उत्तम व्रत का पालन करनेवाली हे देवि ! हे जगदम्ब ! तुम्हीं जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली हो; तुम हमें नन्दगोप – नन्दन श्यामसुन्दर को ही प्राणवल्लभ पति के रूप में प्रदान करो ।’ इस मन्त्र से देवेश्वरी दुर्गा की मूर्ति बनाकर संकल्प करके मूलमन्त्र से उनका पूजन करे । सामवेदोक्त मूलमन्त्र बीजमन्त्रसहित इस प्रकार है- ॐ श्रीदुर्गायै सर्वविघ्नविनाशिन्यै नमः । इसी मन्त्र से सब गोपकुमारियाँ भक्तिभाव और प्रसन्नता के साथ देवी को फूल, माला, नैवेद्य, धूप, दीप और वस्त्र चढ़ाती थीं । मूँगे की माला से भक्तिपूर्वक इस मन्त्र का एक सहस्र जप और स्तुति करके वे धरती पर माथा टेककर देवी को प्रणाम करती थीं। उस समय कहतीं कि सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये सर्वकामप्रदे शिवे । देहि मे वाञ्छितं देवि नमस्ते शंकरप्रिये ॥ ११ ॥ ‘समस्त मङ्गलों का भी मङ्गल करने वाली और सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली शंकरप्रिये देवि शिवे ! तुम्हें नमस्कार है । तुम मुझे मनोवाञ्छित वस्तु दो ।’ यों कह नमस्कार करके दक्षिणा दे सारे नैवेद्य ब्राह्मणों को अर्पित करके वे घर को चली जाती थीं । भगवान् श्रीनारायण कहते हैं — मुने ! अब तुम देवी का वह स्तवराज सुनो, जिससे सब गोपकिशोरियाँ भक्तिपूर्वक पार्वतीजी का स्तवन करती थीं, जो सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देने वाली हैं। जब सारा जगत् घोर एकार्णव में डूब गया था; चन्द्रमा और सूर्य की भी सत्ता नहीं रह गयी थी; कज्जल के समान जलराशि ने समस्त चराचर विश्व को आत्मसात् कर लिया था; उस पुरातन काल में जलशायी श्रीहरि ने ब्रह्माजी को इस स्तोत्र का उपदेश दिया । उपदेश देकर उन जगदीश्व रने योगनिद्रा का आश्रय लिया । तदनन्तर उनके नाभिकमल में विराजमान ब्रह्माजी जब मधु और कैटभ से पीड़ित हुए, तब उन्होंने इसी स्तोत्र से मूलप्रकृति ईश्वरी का स्तवन किया । ‘ॐ नमो जय दुर्गायै’ ॥ ब्रह्मोवाच ॥ दुर्गे शिवेऽभये माये नारायणि सनातनि । जये मे मङ्गलं देहि नमस्ते सर्वमङ्गले ॥ १७ ॥ दैत्यनाशार्थवचनो दकारः परिकीर्तितः । उकारो विघ्ननाशार्थं वाचको वेदसंमतः ॥ १८ ॥ रेफो रोगघ्नवचनो गश्च पापघ्नवाचकः । भयशत्रुघ्नवचनश्चाकारः परिकीर्तितः ॥ १९ ॥ स्मृत्युक्ति स्मरणाद्यस्या एते नश्यन्ति निश्चितम् । अतो दुर्गा हरेः शक्तिर्हरिणा परिकीर्तिता ॥ २० ॥ विपत्तिवाचको दुर्गश्चाकारो नाशवाचकः । दुर्गं नश्यति या नित्यं सा दुर्गा परिकीर्तिता ॥ २१ ॥ दुर्गो दैत्येन्द्रवचनोऽप्याकारो नाशवाचकः । तं ननाश पुरा तेन बुधैर्दुर्गा प्रकीर्तिता ॥ २२ ॥ शश्च कल्याणवचन इकारोत्कृष्टवाचकः । समूहवाचकश्चैव वाकारो दातृवाचकः ॥ २३ ॥ श्रेयःसङ्घोत्कृष्टदात्री शिवा तेन प्रकीर्तिता । शिवराशिर्मूर्त्तिमती शिवा तेन प्रकीर्तिता ॥ २४ ॥ शिवो हि मोक्षवचनश्चाकारो दातृवाचकः । स्वयं निर्वाणदात्री या सा शिवा परिकीर्तिता ॥ २५ ॥ अभयो भयनाशोक्तश्चाकारो दातृवाचकः । प्रददात्यभयं सद्यः साऽभया परिकीर्तिता ॥ २६ ॥ राज्यश्रीवचनो माश्च याश्च प्रापणवाचकः । तां प्रापयति या सद्यः सा माया परिकीर्तिता ॥ २७ ॥ माश्च मोक्षार्थवचनो याश्च प्रापणवाचकः । तं प्रापयति या नित्यं सा माया परिकीर्तिता ॥ २८ ॥ नारायणार्धाङ्गभूता तेन तुल्या च तेजसा । सदा तस्य शरीरस्था तेन नारायणी स्मृता ॥ २९ ॥ निर्गुणस्य च नित्यस्य वाचकश्च सनातनः । सदा नित्या निर्गुणा या कीर्तिता सा सनातनी ॥ ३० ॥ जयः कल्याणवचनो याकारो दातृवाचकः । जयं ददाति या नित्यं सा जया परिकीर्तिता ॥ ३१ ॥ सर्व मङ्गलशब्दश्च संपूणैश्वर्यवाचकः । आकारो दातृवचनस्तद्दात्री सर्वमङ्गला ॥ ३२ ॥ ब्रह्मा बोले — दुर्गे ! शिवे! अभये! माये ! नारायणि ! सनातनि ! जये ! मुझे मङ्गल प्रदान करो। सर्वमङ्गले! तुम्हें मेरा नमस्कार है। दुर्गा का ‘दकार’ दैत्यनाशरूपी अर्थ का वाचक कहा गया है । ‘उकार’ विघ्ननाश रूपी अर्थ का बोधक है। उसका यह अर्थ वेदसम्मत है । ‘रेफ’ रोगनाशक अर्थ को प्रकट करता है। ‘गकार’ पापनाशक अर्थ का वाचक है। और ‘आकार’ भय तथा शत्रुओं के नाश का प्रतिपादक कहा गया है। जिनके चिन्तन, स्मरण और कीर्तन से ये दैत्य आदि निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं; वे भगवती दुर्गा श्रीहरि की शक्ति कही गयी हैं । यह बात किसी और ने नहीं, साक्षात् श्रीहरि ने ही कही है । ‘दुर्ग’ शब्द विपत्ति का वाचक है और ‘आकार’ नाश का। जो दुर्ग अर्थात् विपत्ति का नाश करने वाली हैं; वे देवी ही सदा ‘दुर्गा’ कही गयी हैं । ‘दुर्ग’ शब्द दैत्यराज दुर्गमासुर का वाचक है और ‘आकार’ नाश अर्थ का बोधक है । पूर्वकाल में देवी ने उस दुर्गमासुर का नाश किया था; इसलिये विद्वानों ने उनका नाम ‘दुर्गा’ रखा। शिवा शब्द का ‘शकार’ कल्याण अर्थ का, ‘इकार’ उत्कृष्ट एवं समूह अर्थ का तथा ‘वाकार’ दाता अर्थ का वाचक है। वे देवी कल्याणसमूह तथा उत्कृष्ट वस्तु को देनेवाली हैं; इसलिये ‘शिवा’ कही गयी हैं । वे शिव अर्थात् कल्याण की मूर्तिमती राशि हैं; इसलिये भी उन्हें ‘शिवा’ कहा गया है । ‘शिव’ शब्द मोक्ष का बोधक है तथा ‘आकार’ दाता का । वे देवी स्वयं ही मोक्ष देने वाली हैं; इसलिये ‘शिवा’ कही गयी 1 ‘अभय’ का अर्थ है भयनाश और ‘आकार’ का अर्थ है दाता । वे तत्काल अभय-दान करती हैं; इसलिये ‘अभया’ कहलाती हैं । ‘मा’ का अर्थ है राजलक्ष्मी और ‘या’ का अर्थ है प्राप्ति कराने वाला । जो शीघ्र ही राजलक्ष्मी की प्राप्ति कराती हैं; उन्हें ‘माया’ कहा गया है । ‘मा’ मोक्ष अर्थ का और ‘या’ प्राप्ति अर्थ का वाचक है। जो सदा मोक्ष की प्राप्ति कराती हैं, उनका नाम ‘माया’ है। वे देवी भगवान् नारायण का आधा अङ्ग हैं। उन्हीं के समान तेजस्विनी हैं और उनके शरीर के भीतर निवास करती हैं; इसलिये उन्हें ‘नारायणी’ कहते हैं । ‘सनातन’ शब्द नित्य और निर्गुण का वाचक है । जो देवी सदा निर्गुणा और नित्या हैं; उन्हें ‘सनातनी’ कहा गया है। ‘जय’ शब्द कल्याण का वाचक है और ‘आकार’ दाता का । जो देवी सदा जय देती हैं, उनका नाम ‘जया’ है। ‘सर्वमङ्गल’ शब्द सम्पूर्ण ऐश्वर्य का बोधक है और ‘आकार’ का अर्थ है देने वाला। ये देवी सम्पूर्ण ऐश्वर्य को देनेवाली हैं; इसलिये ‘सर्वमङ्गला’ कही गयी हैं । ये देवी के आठ नाम सारभूत हैं और यह स्तोत्र उन नामों के अर्थ से युक्त है। भगवान् नारायण ने नाभिकमल पर बैठे हुए ब्रह्मा को इसका उपदेश दिया था । उपदेश देकर वे जगदीश्वर योगनिद्रा का आश्रय ले सो गये । तदनन्तर जब मधु और कैटभ नामक दैत्य ब्रह्माजी को मारने के लिये उद्यत हुए तब ब्रह्माजी ने इस स्तोत्र के द्वारा दुर्गाजी का स्तवन एवं नमन किया। उनके द्वारा स्तुति की जाने पर साक्षात् दुर्गा ने उन्हें ‘सर्वरक्षण’ नामक दिव्य श्रीकृष्ण-कवच का उपदेश दिया। कवच देकर महामाया अदृश्य हो गयीं। उस स्तोत्र के ही प्रभाव से विधाता को दिव्य कवच की प्राप्ति हुई । उस श्रेष्ठ कवच को पाकर निश्चय ही वे निर्भय हो गये । फिर ब्रह्मा ने महेश्वर को उस समय स्तोत्र और कवच का उपदेश दिया, जब कि त्रिपुरासुर के साथ युद्ध करते समय रथसहित भगवान् शंकर नीचे गिर गये थे । उस कवच के द्वारा आत्मरक्षा करके उन्होंने निद्रा की स्तुति की। फिर योगनिद्रा के अनुग्रह और स्तोत्र के प्रभाव से वहाँ शीघ्र ही वृषभरूपधारी भगवान् जनार्दन आये। उनके साथ शक्तिस्वरूपा दुर्गा भी थीं। वे भगवान् शंकर को विजय देने के लिये आये थे । उन्होंने रथ सहित शंकर को मस्तक पर बिठाकर अभय दान दिया और उन्हें आकाश में बहुत ऊँचाई तक पहुँचा दिया । फिर जया ने शिव को विजय दी। उस समय ब्रह्मास्त्र हाथ में ले योगनिद्रा सहित श्रीहरि का स्मरण करते हुए भगवान् शंकर ने स्तोत्र और कवच पाकर त्रिपुरासुर का वध किया था। इसी स्तोत्र से दुर्गा का स्तवन करके गोपकुमारियों ने श्रीहरि को प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त कर लिया । इस स्तोत्र का ऐसा ही प्रभाव है । गोपकन्याओं द्वारा किया गया ‘सर्वमङ्गल’ नामक स्तोत्र शीघ्र ही समस्त विघ्नों का विनाश करनेवाला और मनोवाञ्छित वस्तु को देनेवाला है । शैव, वैष्णव अथवा शाक्त कोई भी क्यों न हो, जो मानव तीनों संध्याओं के समय प्रतिदिन भक्तिभाव से इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह संकट से मुक्त हो जाता है । स्तोत्र के स्मरणमात्र से मनुष्य तत्काल ही संकटमुक्त एवं निर्भय हो जाता है। साथ ही सम्पूर्ण उत्तम ऐश्वर्य एवं मनोवाञ्छित वस्तु को शीघ्र प्राप्त कर लेता है । पार्वती की कृपा से इहलोक में श्रीहरि की सुदृढ़ भक्ति और निरन्तर स्मृति पाता है एवं अन्त में भगवान् के दास्यसुख को उपलब्ध करता है । इस स्तवराज के द्वारा व्रजाङ्गनाओं ने एक मास तक प्रतिदिन बड़ी भक्ति के साथ ईश्वरी का स्तवन एवं नमन किया। जब मास पूरा हुआ तो व्रत की समाप्ति के दिन वे गोपियाँ अपने वस्त्रों को तट पर रखकर यमुनाजी में स्नान के लिये उतरीं । नारद! रत्नों के मोल पर मिलने वाले नाना प्रकार के द्रव्य, लाल, पीले, सफेद और मिश्रित रंग वाले मनोहर वस्त्र यमुनाजी के तट पर छा रहे थे। उनकी गणना नहीं की जा सकती थी । उन सबके द्वारा यमुनाजी के उस तट की बड़ी शोभा हो रही थी । चन्दन, अगुरु और कस्तूरी की वायु से सारा – प्रान्त सुरभित था । भाँति-भाँति के नैवेद्य, देश – काल के अनुसार प्राप्त होने वाले फल, धूप, दीप, सिन्दूर और कुंकुम यमुना के उस तट को सुशोभित कर रहे थे । जल में उतरने पर गोपियाँ कौतूहलवश क्रीडा के लिये उन्मुख हुईं। उनका मन श्रीकृष्ण को समर्पित था । वे अपने नग्न शरीर से जल-क्रीड़ा में आसक्त हो गयीं । श्रीकृष्ण ने तट पर रखे हुए भाँति-भाँति के द्रव्यों और वस्त्रों को देखा। देखकर वे ग्वाल-बालों के साथ वहाँ गये और सारे वस्त्र लेकर वहाँ रखी हुई खाद्य वस्तुओं को सखाओं के साथ खाने लगे। फिर कुछ वस्त्र लेकर बड़े हर्ष के साथ उनका गट्ठर बाँधा और कदम्ब की ऊँची डाल पर चढ़कर गोविन्द ने गोपिकाओं से इस प्रकार कहा । श्रीकृष्ण बोले — गोपियो ! तुम सब-की- सब इस व्रतकर्म में असफल हो गयीं। पहले मेरी बात सुनकर विधि-विधान का पालन करो। उसके बाद इच्छानुसार जलक्रीड़ा करना । जो मास व्रत करने के योग्य है; जिसमें मङ्गलकर्म के अनुष्ठान का संकल्प किया गया है; उसी मास में तुम लोग जल के भीतर घुसकर नंगी नहा रही हो; ऐसा क्यों किया? इस कर्म के द्वारा तुम अपने व्रत को अङ्गहीन करके उसमें हानि पहुँचा रही हो । तुम्हारे पहनने के वस्त्र, पुष्पहार तथा व्रत के योग्य वस्तुएँ, जो यहाँ रखी गयी थीं, किसने चुरा लीं ? जो स्त्री व्रतकाल में नंगी स्नान करती है, उसके ऊपर स्वयं वरुणदेव रुष्ट हो जाते हैं। जान पड़ता है, वरुण के अनुचर तुम्हारे वस्त्र उठा ले गये। अब तुम नंगी होकर घर को कैसे जाओगी ? तुम्हारे इस व्रत का क्या होगा ? व्रत के द्वारा जिस देवी की आराधना की जा रही थी, वह कैसी है ? तुम्हारी वस्तुओं की रक्षा क्यों नहीं कर रही है ? श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर व्रजाङ्गनाओं को बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने देखा, यमुनाजी के तट पर न तो हमारे वस्त्र हैं और न वस्तुएँ ही। वे जल में नंगी खड़ी हो विषाद करने लगीं। जोर-जोर से रोने लगीं और बोलीं- ‘यहाँ रखे हुए हमारे वस्त्र कहाँ गये और पूजा की वस्तुएँ भी कहाँ हैं ? इस प्रकार विषाद करके वे सब गोपकन्याएँ दोनों हाथ जोड़ भक्ति और विनय के साथ हाथ जोड़कर वहीं श्यामसुन्दर से बोलीं । ‘ गोपिकाओं ने कहा — गोविन्द ! तुम्हीं हम दासियों के श्रेष्ठ स्वामी हो; अतः हमारे पहनने योग्य वस्त्रों को तुम अपनी ही वस्तु समझो। उन्हें लेने या स्पर्श करने का तुम्हें पूरा अधिकार है; परंतु व्रत के उपयोग में आने वाली जो दूसरी वस्तुएँ हैं, वे इस समय आराध्य देवता की सम्पत्ति हैं; उन्हें दिये बिना उन वस्तुओं को ले लेना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है। हमारी साड़ियाँ दे दो; उन्हें पहनकर हम व्रत की पूर्ति करेंगी। श्यामसुन्दर ! इस समय उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं को ही अपना आहार बनाओ । [ यह सुनकर ] श्रीकृष्ण ने कहा — तुम लोग आकर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ । यह सुनकर श्रीराधा के अङ्गों में रोमाञ्च हो आया । वे श्रीहरि के निकट वस्त्र लेने के लिये नहीं गयीं। उन्होंने जल में योगासन लगाकर श्रीहरि के उन चरणकमलों का चिन्तन किया, जो ब्रह्मा, शिव, अनन्त ( शेषनाग ) तथा धर्म के भी वन्दनीय एवं मनोवाञ्छित वस्तु देने वाले हैं। उन चरणकमलों का चिन्तन करते-करते उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू उमड़ आये और वे भावातिरेक से उन गुणातीत प्राणेश्वर की स्तुति करने लगीं । ॥ राधाकृतं श्रीकृष्ण स्तोत्रम् ॥ ॥ राधिकोवाच ॥ गोलोकनाथ गोपीश मदीश प्राणवल्लभ । हे दीनबन्धो दीनेश सर्वेश्वर नमोऽस्तु ते ॥ १०० ॥ गोपेश गोसमूहेश यशोदानन्दवर्धन । नन्दात्मज सदानन्द नित्यानन्द नमोऽस्तु ते ॥ १०१ ॥ शतमन्योर्मन्युभग्न ब्रह्मदर्पविनाशक । कालीयदमन प्राणनाथ कृष्ण नमोऽस्तु ते ॥ १०२ ॥ शिवानन्तेश ब्रह्मेश ब्राह्मणेश परात्पर । ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मज्ञ ब्रह्मबीज नमोऽस्तु ते ॥ १०३ ॥ चराचरतरोर्बीज गुणातीत गुणात्मक । गुणबीज गुणाधार गुणेश्वर नमोऽस्तु ते ॥ १०४ ॥ अणिमादिकसिद्धीश सिद्धेः सिद्धिस्वरूपक । तपस्तपस्विंस्तपसा बीजरूप नमोऽस्तु ते ॥ १०५ ॥ यदनिर्वचनीयं च वस्तु निर्वचनीयकम् । तत्स्वरूप तयोर्बीजं सर्वबीज नमोऽस्तु ते ॥ १०६ ॥ अहं सरस्वती लक्ष्मीर्दुर्गा गङ्गा श्रुतिप्रसूः । यस्य पादार्चनान्नित्यं पूज्या तस्मै नमोनमः ॥ १०७ ॥ स्पर्शने यस्य भृत्यानां ध्यानेन च दिवानिशम् । पवित्राणि च तीर्थानि तस्मै भगवते नमः ॥ १०८ ॥ इत्येवमुक्त्वा सा देवी जले संन्यस्य विग्रहम् । मनः प्राणांश्च श्रीकृष्णे तस्थौ स्थाणुसमा सती ॥ १०९ ॥ राधाकृतं हरेः स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः । हरिभक्तिं च दास्यं च लभेद्राधागतिं ध्रुवम् ॥ ११० ॥ विपत्तौ यः पठेद्भक्त्या सद्यः संपत्तिमाप्नुयात् । चिरकालगतं द्रव्यं हृतं नष्टं च लभ्यते ॥ १११ ॥ वस्तुवृद्धिर्भवेत्तस्य प्रसन्नं मानसं परम् । चिन्ताग्रस्तः पठेद्भक्त्या परां निर्वृतिमाप्नुयात् ॥ ११२ ॥ पतिभेदे पुत्रभेदे मित्रभेदे च संकटे । मासं भक्त्या यदि पठेत्सद्यः संदर्शनं लभेत् ॥ ११३ ॥ भक्त्या कुमारी स्तोत्रं च शृणुयाद्वत्सरं यदि । श्रीकृष्णसदृशं कान्तं गुणवन्तं लभेद्ध्रुवम् ॥ ११४ ॥ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते श्रीकृष्णजन्मखण्डे राधाकृतं श्रीकृष्ण स्तोत्रम् ॥ राधिका बोलीं — गोलोकनाथ ! गोपीश्वर ! मेरे स्वामिन्! प्राणवल्लभ ! दीनबन्धो ! दीनेश्वर सर्वेश्वर! आपको नमस्कार है। गोपेश्वर ! गोसमुदाय के ईश्वर ! यशोदानन्दवर्धन ! नन्दात्मज ! सदानन्द ! नित्यानन्द! आपको नमस्कार है । इन्द्र के क्रोध को भङ्ग (व्यर्थ) करने वाले गोविन्द ! आपने ब्रह्माजी के दर्प का भी दलन किया है। कालियदमन ! प्राणनाथ ! श्रीकृष्ण ! आपको नमस्कार है । शिव और अनन्त के भी ईश्वर ! ब्रह्मा और ब्राह्मणों के ईश्वर ! परात्पर ! ब्रह्मस्वरूप ! ब्रह्मज्ञ ! ब्रह्मबीज ! आपको नमस्कार है। चराचर जगत् रूपी वृक्ष के बीज ! गुणातीत! गुणस्वरूप ! गुणबीज ! गुणाधार ! गुणेश्वर ! आपको नमस्कार है। प्रभो ! आप अणिमा आदि सिद्धियों के स्वामी हैं । सिद्धि की भी सिद्धिरूप हैं । तपस्विन्! आप ही तप हैं और आप ही तपस्या के बीज; आपको नमस्कार है। जो अनिर्वचनीय अथवा निर्वचनीय वस्तु है, वह सब आपका ही स्वरूप है । आप ही उन दोनों के बीज हैं। सर्वबीजरूप प्रभो ! आपको नमस्कार है । मैं, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, गङ्गा और वेदमाता सावित्री – ये सब देवियाँ जिनके चरणारविन्दों की अर्चना से नित्य पूजनीया हुई हैं; उन आप परमेश्वर को बारंबार नमस्कार है । जिनके सेवकों के स्पर्श और निरन्तर ध्यान से तीर्थ पवित्र होते हैं; उन भगवान् को मेरा नमस्कार है । यों कहकर सती देवी राधिका अपने शरीर को जल में और मन-प्राणों को श्रीकृष्ण में स्थापित करके ठूंठे काठ के समान अविचल-भाव से स्थित हो गयीं। श्रीराधा द्वारा किये गये श्रीहरि के इस स्तोत्र का जो मनुष्य तीनों संध्याओं के समय पाठ करता है, वह श्रीहरि की भक्ति और दास्यभाव प्राप्त कर लेता है तथा उसे निश्चय ही श्रीराधा की गति सुलभ होती है। जो विपत्ति में भक्तिभाव से इसका पाठ करता है, उसे शीघ्र ही सम्पत्ति प्राप्त होती है और चिरकाल का खोया हुआ नष्ट द्रव्य भी उपलब्ध हो जाता है । यदि कुमारी कन्या भक्तिभा वसे एक वर्ष तक प्रतिदिन इस स्तोत्र को सुने तो निश्चय ही उसे श्रीकृष्ण के समान कमनीय कान्तिवाला गुणवान् पति प्राप्त होता है । जल में स्थित हुई राधिका ने श्रीकृष्णके चरणारविन्दों का ध्यान एवं स्तुति करने के पश्चात् जब आँखें खोलकर देखा तो उन्हें सारा जगत् श्रीकृष्णमय दिखायी दिया। मुने! तदनन्तर उन्होंने यमुनातट को वस्त्रों और द्रव्यों से सम्पन्न देखा । देखकर राधा ने इसे तन्द्रा अथवा स्वप्न का विकार माना । जिस स्थान पर और जिस आधार में जो द्रव्य पहले रखा गया था, वस्त्रोंसहित वह सब द्रव्य गोपकन्याओं को उसी रूप में प्राप्त हुआ। फिर तो वे सब-की-सब देवियाँ जल से निकलकर व्रत पूर्ण करके मनोवाञ्छित वर पाकर अपने-अपने घरको चली गयीं । नारदजी ने पूछा — प्रभो ! उस व्रत का क्या विधान है ? क्या नाम है और क्या फल है ? उसमें कौन-कौन-सी वस्तुएँ और कितनी दक्षिणा देनी चाहिये । व्रत के अन्त में कौन-सा मनोहर रहस्य प्रकट हुआ ? महाभाग ! इस नारायण-कथा को विस्तारपूर्वक कहिये । भगवान् नारायण बोले — वत्स ! उस व्रत का सारा विधान मुझसे सुनो। उसका नाम गौरी-व्रत है । मार्गशीर्ष मास में सबसे पहले स्त्रियों ने इसे किया था। यह पुरुषों को भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाला तथा श्रीकृष्ण की भक्ति प्रदान करनेवाला है। भिन्न-भिन्न देशों में इसकी प्रसिद्धि है । यह व्रत पूर्व-परम्परा से पालित होने वाला माना गया है । पति की कामना रखने वाली स्त्रियों को उनकी इच्छा अनुसार फल देने वाला है। इससे प्रियतम पति-निमित्तक फल की प्राप्ति होती है। कुमारी कन्या को चाहिये कि वह पहले दिन उपवास करके अपने वस्त्र को धो डाले और संयमपूर्वक रहे। फिर मार्गशीर्ष मास की संक्रान्ति के दिन प्रातःकाल श्रद्धापूर्वक नदी के तट पर जाकर स्नान करके वह दो धुले हुए वस्त्र ( साड़ी और चोली ) धारण करे। तत्पश्चात् कलश में गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और दुर्गा (पार्वती) – इन छः देवताओं का आवाहन करके नाना द्रव्यों द्वारा उनका पूजन करे। इन सबका पञ्चोपचार पूजन करके वह व्रत आरम्भ करे। कलश के सामने नीचे भूमि पर एक सुविस्तृत वेदी बनावे। वह वेदी चौकोर होनी चाहिये । चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से उस वेदी का संस्कार करे ( इन द्रव्यों से चौक पूरकर उसे सजा दे ) । इसके बाद बालू की दशभुजा दुर्गामूर्ति बनावे । देवी के ललाट में सिन्दूर लगावे और नीचे के अङ्गों में चन्दन एवं कपूर अर्पित करे । तदनन्तर ध्यानपूर्वक देवी का आवाहन करे । उस समय हाथ जोड़कर निम्नाङ्कित मन्त्र का पाठ करे। उसके बाद पूजा आरम्भ करनी चाहिये । हे गौरि शङ्करार्धाङ्गि यथा त्वं शङ्करप्रिया । तथा मां कुरु कल्याणि कान्तकान्तां सुदुर्लभाम् ॥ ‘भगवान् शंकरकी अर्धाङ्गिनी कल्याणमयी गौरीदेवि ! जैसे तुम शंकरजी को बहुत ही प्रिय हो, उसी प्रकार मुझे भी अपने प्रियतम पति की परम दुर्लभा प्राणवल्लभा बना दो ।’ इस मन्त्र को पढ़कर देवी जगदम्बा का ध्यान करे । उनका गूढ़ ध्यान सामवेद में वर्णित है, जो सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाला है । नारद! वह ध्यान मुनीन्द्रों के लिये भी दुर्लभ है, तथापि मैं तुम्हें बता रहा हूँ । इसके अनुसार सिद्ध पुरुष दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का ध्यान करते हैं। दुर्गा का ध्यान शिवां शिवप्रियां शैवां शिववक्षःस्थलस्थिताम् । ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सुप्रतिष्ठां सुलोचनाम् ॥ १३३ ॥ नवयौवनसंपन्नां रत्नाभरणभूषिताम् । रत्नकङ्कणकेयूररत्ननूपुरभूषिताम् ॥ १३४ ॥ रत्नकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजिताम् । मालती माल्यसंसक्तकबरभ्रमरान्विताम् ॥ १३५ ॥ सिन्दूरतिलकं चारुकस्तूरीबिन्दुना सह । वह्निशुद्धांशुकां रत्नकिरीटां सुमनोहराम् ॥ १३६ ॥ मणीन्द्रसारसंसक्तरत्नमालासमुज्ज्वलाम् । पारिजातप्रसूनानां मालाजालानुलम्बिताम् ॥ १३७ ॥ सुपीनकठिनश्रोणीं बिभ्रतीं च स्तनानताम् । नवयौवनभारौघादीषन्नम्रां मनोहराम् ॥ १३८ ॥ ब्रह्मादिभिः स्तूयमानां सूर्यकोटिसमप्रभाम् । पक्वबिम्बाधरोष्ठीं च चारुचम्पकसन्निभाम् ॥ १३९ ॥ मुक्तापङ्क्तिविनिन्द्यैकदन्तराजिविराजिताम् । मुक्तिकामप्रदां देवीं शरच्चन्द्रमुखीं भजे ॥ १४० ॥ भगवती दुर्गा शिवा (कल्याणस्वरूपा), शिवप्रिया, शैवी (शिव से प्रगाढ़ सम्बन्ध रखने वाली) तथा शिव के वक्ष:स्थल पर विराजमान होने वाली हैं । उनके प्रसन्न मुख पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैली रहती है। उनकी बड़ी प्रतिष्ठा है । उनके नेत्र मनोहर हैं । वे नित्य नूतन यौवन से सम्पन्न हैं और रत्नमय आभूषण धारण करती हैं। उनकी भुजाएँ रत्नमय केयूर तथा कङ्कणों से और दोनों चरण रत्ननिर्मित नूपुरों से विभूषित हैं । रत्नों के बने हुए दो कुण्डल उनके दोनों कपोलों की शोभा बढ़ाते हैं। उनकी वेणी में मालती की माला लगी हुई है, जिस पर भ्रमर मँडराते रहते हैं । भालदेश में कस्तूरी की बेंदी के साथ सिन्दूर का सुन्दर तिलक शोभा पाता है। उनके दिव्य वस्त्र अग्नि की ज्वाला से शुद्ध किये गये हैं । वे मस्तक पर रत्नमय मुकुट धारण करती हैं। उनकी आकृति बड़ी मनोहर है। श्रेष्ठ मणियों के सारतत्त्व से जटित रत्नमयी माला उनके कण्ठ एवं वक्षःस्थल को उद्भासित किये रहती है। पारिजात के फूलों की मालाएँ गले से लेकर घुटनों तक लटकी रहती हैं। उनकी कटि का निम्नभाग अत्यन्त स्थूल और कठोर है। वे स्तनों और नूतन यौवन के भार से कुछ-कुछ झुकी-सी रहती हैं। उनकी झाँकी मन को मोह लेनेवाली है । ब्रह्मा आदि देवता निरन्तर उनकी स्तुति करते हैं । उनके श्रीअङ्गों की प्रभा करोड़ों सूर्यों को लज्जित करती है। नीचे-ऊपर के ओठ पके बिम्बफल के सदृश लाल हैं। अङ्गकान्ति सुन्दर चम्पा के समान है। मोती की लड़ियों को भी लजाने वाली दन्तावली उनके मुख की शोभा बढ़ाती है। वे मोक्ष और मनोवाञ्छित कामनाओं को देनेवाली हैं। शरत्काल के पूर्ण चन्द्र को भी तिरस्कृत करनेवाली चन्द्रमुखी देवी पार्वती का मैं भजन करता हूँ । इस प्रकार ध्यान करके मस्तक पर फूल रखकर व्रती पुरुष प्रसन्नतापूर्वक हाथ में पुष्प ले पुनः भक्तिभाव से ध्यान करके पूजन आरम्भ करे । पूर्वोक्त मन्त्र से ही प्रतिदिन हर्षपूर्वक षोडशोपचार चढ़ावे । फिर व्रती भक्ति और प्रसन्नता के साथ पूर्वकथित स्तोत्र द्वारा ही देवी की स्तुति करके उन्हें प्रणाम करे। प्रणाम के पश्चात् भक्तिभाव से मन को एकाग्र करके गौरी व्रत की कथा सुने । नारदजी ने पूछा — भगवन्! आपने व्रत के विधान, फल और गौरी के अद्भुत स्तोत्रका वर्णन कर दिया। अब मैं गौरी व्रत की शुभ कथा सुनना चाहता हूँ। पहले किसने इस व्रत को किया था ? और किसने भूतल पर इसे प्रकाशित किया था ? इन सब बातों को आप विस्तारपूर्वक बताइये; क्योंकि आप संदे हका निवारण करनेवाले हैं। भगवान् श्रीनारायण ने कहा — नारद! कुशध्वज की पुत्री सती वेदवती ने महान् तीर्थ पुष्कर में पहले-पहल इस व्रत का अनुष्ठान किया था। व्रत की समाप्ति के दिन कोटि सूर्यों के समान प्रकाशमान भगवती जगदम्बा ने उसे साक्षात् दर्शन दिया । देवी के साथ लाख योगिनियाँ भी थीं। वे परमेश्वरी सुवर्ण-निर्मित रथ पर बैठी थीं और उनके प्रसन्न-मुख पर मुस्कराहट फैल रही थी। उन्होंने संयमशीला वेदवती से कहा । पार्वती बोलीं — वेदवती ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम इच्छानुसार वर माँगो । तुम्हारे इस व्रत से मैं संतुष्ट हूँ; अत: तुम्हें मनोवाञ्छित वर दूँगी । नारद! पार्वती की बात सुनकर साध्वी वेदवती ने उन प्रसन्न-हृदया देवी की ओर देखा और दोनों हाथ जोड़ उन्हें प्रणाम करके वह बोली । वेदवती ने कहा — देवि! मैंने नारायण को मन से चाहा है; अतः वे ही मेरे प्राणवल्लभ पति हों – यह वर मुझे दीजिये। दूसरे किसी वर को लेने की मुझे इच्छा नहीं है । आप उनके चरणों में सुदृढ़ भक्ति प्रदान कीजिये । वेदवती की बात सुनकर जगदम्बा पार्वती हँस पड़ीं और तुरंत रथ से उतरकर उस हरिवल्लभा से बोलीं । पार्वती ने कहा — जगदम्ब ! मैंने सब जान लिया। तुम साक्षात् सती लक्ष्मी हो और भारतवर्ष को अपनी पदधूलि से पवित्र करने के लिये यहाँ आयी हो । साध्वि ! परमेश्वरि ! तुम्हारी चरणरज से यह पृथ्वी तथा यहाँ के सम्पूर्ण तीर्थ तत्काल पवित्र हो गये हैं । तपस्विनि ! तुम्हारा यह व्रत लोक-शिक्षा के लिये है । तुम तपस्या करो। देवि! तुम साक्षात् नारायण की वल्लभा हो और जन्म-जन्म में उनकी प्रिया रहोगी। भविष्य में भूतल का भार उतारने के लिये तथा यहाँ के दस्युभूत राक्षसों का नाश करने के लिये पूर्ण परमात्मा विष्णु दशरथनन्दन श्रीराम के रूप में वसुधा पर पधारेंगे। उनके दो भक्त जय और विजय ब्राह्मणों के शाप के कारण वैकुण्ठधाम से नीचे गिर गये हैं । उनका उद्धार करने के लिये त्रेतायुग में अयोध्यापुरी के भीतर श्रीहरि का आविर्भाव होगा। तुम भी शिशुरूप धारण करके मिथिला को जाओ। वहाँ राजा जनक अयोनिजा कन्या के रूप में तुम्हें पाकर यत्नपूर्वक तुम्हारा लालन- पालन करेंगे। वहाँ तुम्हारा नाम सीता होगा । श्रीराम भी मिथिला में जाकर तुम्हारे साथ विवाह करेंगे। तुम प्रत्येक कल्प में नारायण की ही प्राणवल्लभा होओगी। यों कह पार्वती वेदवती को हृदय से लगाकर अपने निवास-स्थान को लौट गयीं। साध्वी वेदवती मिथिला में जाकर माया से हल द्वारा भूमि पर की गयी रेखा (हराई)-में सुखपूर्वक स्थित हो गयीं । उस समय राजा जनक ने देखा, एक नग्न बालिका आँख बंद किये भूमि पर पड़ी है। उसकी अङ्गकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान उद्दीप्त है तथा वह तेजस्विनी बालिका रो रही है । उसे देखते ही राजा ने उठाकर गोद में चिपका लिया । जब वे घर को लौटने लगे, उस समय वहीं उनके प्रति आकाशवाणी हुई- ‘ राजन् ! यह अयोनिजा कन्या साक्षात् लक्ष्मी है; इसे ग्रहण करो । स्वयं भगवान् नारायण तुम्हारे दामाद होंगे।’ यह आकाशवाणी सुन कन्या को गोद में लिये राजर्षि जनक घर को गये और प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने लालन-पालन के लिये उसे अपनी प्यारी रानी के हाथ में दे दिया। युवती होने पर सती सीता ने इस व्रत के प्रभाव से त्रिलोकीनाथ विष्णु के अवताररूप दशरथनन्दन श्रीराम को प्रियतम पति के रूप में प्राप्त कर लिया । महर्षि वसिष्ठ ने इस व्रत को पृथ्वी पर प्रकाशित किया तथा श्रीराधा ने इस व्रत का अनुष्ठान करके श्रीकृष्ण को प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त किया। अन्यान्य गोपकुमारियों ने इस व्रत के प्रभाव से उनको पाया । नारद! इस प्रकार मैंने गौरी व्रत की कथा कही । जो कुमारी भारतवर्ष में इस व्रत का पालन करती है, उसे श्रीकृष्ण-तुल्य पति की प्राप्ति होती है, इसमें संशय नहीं है । भगवान् नारायण कहते हैं — इस प्रकार उन गोपकुमारियों ने एक मास तक व्रत किया। वे पूर्वोक्त स्तोत्र से प्रतिदिन देवी की स्तुति करती थीं । समाप्ति के दिन व्रत पूर्ण करके गोपियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने काण्व – शाखा में वर्णित उस स्तोत्र द्वारा परमेश्वरी पार्वती का स्तवन किया, जिसके द्वारा स्तुति करके सत्यपरायणा सीता ने शीघ्र ही कमल नयन श्रीराम को प्रियतम पति के रूप में प्राप्त किया था । वह स्तोत्र यह है । ॥ सीताकृतं पार्वतीस्तोत्रम् ॥ ॥ जानक्युवाच ॥ शक्तिस्वरूपे सर्वेषां सर्वाधारे गुणाश्रये । सदा शंकरयुक्ते च पतिं देहि नमोऽस्तु ते ॥ १७३ ॥ सृष्टिस्थित्यंतरूपेण सृष्टिस्थित्यन्तरूपिणी । सृष्टिस्थित्यन्तबीजानां बीजरूपे नमोऽस्तु ते ॥ १७४ ॥ हे गौरि पतिमर्मज्ञे पतिव्रतपरायणे । पतिव्रते पतिरते पतिं देहि नमोस्तु ते ॥ १७५ ॥ सर्वमंगलमाङ्गल्ये सर्वमंगलसंयुते । सर्वमंगलबीजे च नमस्ते सर्वमंगले ॥ १७६ ॥ सर्वप्रिये सर्वबीजे सर्वाशुभविनाशिनि । सर्वेशे सर्वजनके नमस्ते शंकरप्रिये ॥ १७७ ॥ परमात्मस्वरूपे च नित्यरूपे सनातनि । साकारे च निराकारे सर्वरूपे नमोऽस्तु ते ॥ १७८ ॥ क्षुत्तृष्णेच्छा दया श्रद्धा निद्रा तन्द्रा स्मृतिः क्षमा । एतास्तव कलाः सर्वा नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १७९ ॥ लज्जा मेधा तुष्टिपुष्टी शान्तिसंपत्तिवृद्धयः । एतास्तव कलाः सर्वाः सर्वरूपे नमोऽस्तु ते ॥ १८० । दृष्टादृष्टस्वरूपे च तयोर्बीजफलप्रदे । सर्वानिर्वचनीये च महामाये नमोऽस्तु ते ॥ १८१ ॥ शिवे शंकरसौभाग्ययुक्ते सौभाग्यदायिनि । हरिं कान्तं च सौभाग्यं देहि देवि नमोऽस्तु ते ॥ १८२ ॥ स्तोत्रेणानेन याः स्तुत्वा समाप्तिदिवसे शिवाम् । नमन्ति परया भक्त्या ता लभन्ते हरिं पतिम् ॥ १८३ ॥ इह कान्तसुखं भुक्त्वा पतिं प्राप्य परात्परम् । दिव्यं स्यन्दनमारुह्य यात्यन्ते कृष्णसन्निधिम् ॥ १८४ ॥ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते सीताकृतं पार्वतीस्तोत्रम् ॥ जानकी बोलीं — सबकी शक्तिस्वरूपे ! शिवे ! आप सम्पूर्ण जगत् की आधारभूता हैं । समस्त सद्गुणों की निधि हैं तथा सदा भगवान् शंकर के संयोग-सुख का अनुभव करने वाली हैं; आपको नमस्कार है । आप मुझे सर्वश्रेष्ठ पति दीजिये । सृष्टि, पालन और संहार आपका रूप है । आप सृष्टि, पालन और संहाररूपिणी हैं। सृष्टि, पालन और संहार के जो बीज हैं, उनकी भी बीजरूपिणी हैं; आपको नमस्कार है । पति के मर्म को जानने वाली पतिव्रतपरायणे गौरि ! पतिव्रते ! पत्यनुरागिणि ! मुझे पति दीजिये; आपको नमस्कार है । आप समस्त मङ्गलों के लिये भी मङ्गलकारिणी हैं । सम्पूर्ण मङ्गलों से सम्पन्न हैं, सब प्रकार के मङ्गलों की बीजरूपा हैं; सर्वमङ्गले! आपको नमस्कार है । आप सबको प्रिय हैं, सबकी बीजरूपिणी हैं, समस्त अशुभों का विनाश करने वाली हैं, सबकी ईश्वरी तथा सर्वजननी हैं; शंकरप्रिये ! आपको नमस्कार है। परमात्मस्वरूपे ! नित्यरूपिणि! सनातनि ! आप साकार और निराकार भी हैं; सर्वरूपे ! आपको नमस्कार है। क्षुधा, तृष्णा, इच्छा, दया, श्रद्धा, निद्रा, तन्द्रा, स्मृति और क्षमा- ये सब आपकी कलाएँ हैं; नारायणि ! आपको नमस्कार है । लज्जा, मेधा, तुष्टि, पुष्टि, शान्ति, सम्पत्ति और वृद्धि-ये सब भी आपकी ही कलाएँ हैं; सर्वरूपिणि! आपको नमस्कार है । दृष्ट और अदृष्ट दोनों आपके ही स्वरूप हैं, आप उन्हें बीज और फल दोनों प्रदान करती हैं, कोई भी आपका निर्वचन (निरूपण) नहीं कर सकता है, महामाये ! आपको नमस्कार है । शिवे ! आप शंकरसम्बन्धी सौभाग्य से सम्पन्न हैं तथा सबको सौभाग्य देनेवाली हैं। देवि! श्रीहरि ही मेरे प्राणवल्लभ और सौभाग्य हैं; उन्हें मुझे दीजिये आपको नमस्कार है । जो स्त्रियाँ व्रत की समाप्ति के दिन इस स्तोत्र से शिवादेवी की स्तुति करके बड़ी भक्ति से उन्हें मस्तक झुकाती हैं; वे साक्षात् श्रीहरि को पतिरूप में प्राप्त करती हैं । इस लोक में परात्पर परमेश्वर को पतिरूप में पाकर कान्त – सुख का उपभोग करके अन्त में दिव्य विमान पर आरूढ़ हो भगवान् श्रीकृष्ण के समीप चली जाती हैं । समाप्ति के दिन गोपियोंसहित श्रीराधा ने देवी की वन्दना और स्तुति करके गौरी व्रत को पूर्ण किया । एक ब्राह्मण को प्रसन्नतापूर्वक एक सहस्र गौएँ तथा सौ सुवर्ण-मुद्राएँ दक्षिणा के रूप में देकर वे घर जाने को उद्यत हुईं। उन्होंने आदरपूर्वक एक हजार ब्राह्मणों को भोजन कराया, बाजे बजवाये और भिखमंगों को धन बाँटा । इसी समय दुर्गतिनाशिनी दुर्गा वहाँ आकाश से प्रकट हुईं, जो ब्रह्मतेज से प्रकाशित हो रही थीं। उनके प्रसन्न मुखपर मन्द हास्य की प्रभा फैल रही थी । वे सौ योगिनियों के साथ थीं। सिंह से जुते हुए रथ पर बैठी तथा रत्नमय अलंकारों से विभूषित थीं । उनके दस भुजाएँ थीं । उन्होंने रत्नसारमय उपकरणों से युक्त सुवर्णनिर्मित दिव्य रथ से उतरकर तुरंत ही श्रीराधा को हृदय से लगा लिया। देवी दुर्गा को देखकर अन्य गोपकुमारियों ने भी प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम किया। दुर्गा ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा – ‘तुम सबका मनोरथ सिद्ध होगा।’ इस प्रकार गोपिकाओं को वर दे उनसे सादर सम्भाषण कर देवी ने मुस्कराते हुए मुखारविन्द से राधिका को सम्बोधित करके कहा । पार्वती बोलीं — राधे ! तुम सर्वेश्वर श्रीकृष्ण को प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हो । जगदम्बिके ! तुम्हारा यह व्रत लोकशिक्षा के लिये है। तुम माया से मानवरूप में प्रकट हुई हो । सुन्दरि ! क्या तुम गोलोकनाथ, गोलोक, श्रीशैल, विरजा के तट-प्रान्त, श्रीरासमण्डल तथा दिव्य मनोहर वृन्दावन को कुछ याद करती हो ? क्या तुम्हें प्रेमशास्त्र के विद्वान् तथा रति-चोर श्यामसुन्दर के उस चरित्र का किञ्चित् भी स्मरण होता है, जो नारियों के चित्त को बरबस अपनी ओर खींच लेता है ? तुम श्रीकृष्ण के अर्धाङ्ग से प्रकट हुई हो; अतः उन्हीं के समान तेजस्विनी हो । समस्त देवाङ्गनाएँ तुम्हारी अंशकला से प्रकट हुई हैं; फिर तुम मानवी कैसे हो ? तुम श्रीहरि के लिये प्राणस्वरूपा हो और स्वयं श्रीहरि तुम्हारे प्राण हैं । वेद में तुम दोनों का भेद नहीं बताया गया है; फिर तुम मानवी कैसे हो ? पूर्वकाल में ब्रह्माजी साठ हजार वर्षों तक तप करके भी तुम्हारे चरणकमलों का दर्शन न पा सके; फिर तुम मानुषी कैसे हो ? तुम तो साक्षात् देवी हो । श्रीकृष्ण की आज्ञा से गोपी का रूप धारण करके पृथ्वी पर पधारी हो; शान्ते! तुम मानवी स्त्री कैसे हो ? मनुवंश में उत्पन्न नृपश्रेष्ठ सुयज्ञ तुम्हारी ही कृपा से गोलोक में गये थे; फिर तुम मानुषी कैसे हो ? तुम्हारे मन्त्र और कवच के प्रभावसे ही भृगुवंशी परशुरामजी ने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय – नरेशों से शून्य कर दिया था । ऐसी दशा में तुम्हें मानवी स्त्री कैसे कहा जा सकता है? परशुरामजी ने भगवान् शंकर से तुम्हारे मन्त्र को प्राप्त कर पुष्करतीर्थ में उसे सिद्ध किया और उसी के प्रभाव से वे कार्तवीर्य अर्जुन का संहार कर सके; फिर तुम मानुषी कैसे हो ? उन्होंने अभिमानपूर्वक महात्मा गणेश का एक दाँत तोड़ दिया। वे केवल तुमसे ही भय मानते थे; फिर तुम मानवी स्त्री कैसे हो ? जब मैं क्रोध से उन्हें भस्म करने को उद्यत हुई, तब हे ईश्वरि ! मेरी प्रसन्नता के लिये तुमने स्वयं आकर उनकी रक्षा की; फिर तुम मानुषी कैसे हो ? श्रीकृष्ण प्रत्येक कल्प में तथा जन्म-जन्म में तुम्हारे पति हैं। जगन्मातः ! तुमने लोकहित के लिये ही यह व्रत किया है। अहो ! श्रीदाम के शाप से और भूमि का भार उतारने के लिये पृथ्वी पर तुम्हारा निवास हुआ है; फिर तुम मानवी स्त्री कैसे हो ? तुम जन्म, मृत्यु और जरा का नाश करने वाली देवी हो । कलावती की अयोनिजा पुत्री एवं पुण्यमयी हो; फिर तुम्हें साधारण मानुषी कैसे माना जा सकता है ? तीन मास व्यतीत होने पर जब मनोहर मधुमास (चैत्र) उपस्थित होगा, तब रात्रि के समय निर्जन, निर्मल एवं सुन्दर रासमण्डल में वृन्दावन के भीतर श्रीहरि के साथ समस्त गोपिकाओं सहित तुम्हारी रासक्रीड़ा सानन्द सम्पन्न होगी । सती राधे ! प्रत्येक कल्प में भूतल पर श्रीहरि के साथ तुम्हारी रसमयी लीला होगी, यह विधाता ने ही लिख दिया है। इसे कौन रोक सकता है ? सुन्दरी ! श्रीहरिप्रिये ! जैसे मैं महादेवजी की सौभाग्यवती पत्नी हूँ, उसी प्रकार तुम श्रीकृष्ण की सौभाग्यशालिनी वल्लभा हो । जैसे दूध में धवलता, अग्नि में दाहिका शक्ति, भूमि में गन्ध और जल में शीतलता है; उसी प्रकार श्रीकृष्ण में तुम्हारी स्थिति है । देवाङ्गना, मानवकन्या, गन्धर्वजाति की स्त्री तथा राक्षसी – इनमें से कोई भी तुमसे बढ़कर सौभाग्यशालिनी न तो हुई है और न होगी ही । मेरे वर से ब्रह्मा आदि के भी वन्दनीय, परात्पर एवं गुणातीत भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं तुम्हारे अधीन होंगे। पतिव्रते ! ब्रह्मा, शेषनाग तथा शिव भी जिनकी आराधना करते हैं, जो ध्यान से भी वश में होनेवाले नहीं हैं तथा जिन्हें आराधना द्वारा रिझा लेना समस्त योगियों के लिये भी अत्यन्त कठिन है; वे ही भगवान् तुम्हारे अधीन रहेंगे। राधे ! स्त्रीजाति में तुम विशेष सौभाग्यशालिनी हो । तुमसे बढ़कर दूसरी कोई स्त्री नहीं है। तुम दीर्घकाल तक यहाँ रहने के पश्चात् श्रीकृष्ण के साथ ही गोलोक में चली जाओगी। मुने ! ऐसा कहकर पार्वतीदेवी तत्काल वहीं अन्तर्हित हो गयीं। फिर गोपकुमारियों के साथ श्रीराधि का भी घर जाने को उद्यत हुईं। इतने में ही श्रीकृष्ण राधिका के सामने उपस्थित हो गये । राधा ने किशोर-अवस्था वाले श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण को देखा । उनके श्रीअङ्गों पर पीताम्बर शोभा पा रहा था। वे नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित थे। घुटनों तक लटकती हुई मालती – माला एवं वनमाला उनकी शोभा बढ़ा रही । उनका प्रसन्न मुख मन्द हास्य से शोभायमान था। वे भक्तजनों पर अनुग्रह करने के लिये कातर जान पड़ते थे। उनके सम्पूर्ण अङ्ग चन्दन से चर्चित थे । नेत्र शरद्- ऋतु के प्रफुल्ल कमलों को लज्जित कर रहे थे। मुख शरद् ऋतु की पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति मनोहर था, मस्तक पर श्रेष्ठ रत्नमय मुकुट अपनी उज्ज्वल आभा बिखेर रहा था । दाँत पके हुए अनार के दाने – जैसे स्वच्छ दिखायी देते थे। आकृति बड़ी मनोहर थी। उन्होंने विनोद के लिये एक हाथ में मुरली और दूसरे हाथ में लीला-कमल ले रखा था । वे करोड़ों कन्दर्पो की लावण्य-लीला के मनोहर धाम थे । उन गुणातीत परमेश्वर की ब्रह्मा, शेषनाग और शिव आदि निरन्तर स्तुति करते हैं । वे ब्रह्मस्वरूप तथा ब्राह्मणहितैषी हैं। श्रुतियों ने उनके ब्रह्मरूप का निरूपण किया है। वे अव्यक्त और व्यक्त हैं। अविनाशी एवं सनातन ज्योतिः-स्वरूप हैं। मङ्गलकारी, मङ्गलके आधार, मङ्गलमय तथा मङ्गलदाता हैं। श्यामसुन्दर के उस अद्भुत रूप को देखकर राधा ने वेगपूर्वक आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया । उन्हें अच्छी तरह देखकर प्रेम के वशीभूत हो वे सुध-बुध खो बैठीं । प्रियतम के मुखारविन्द की बाँकी चितवन से देखते-देखते उनके अधरों पर मुस्कराहट दौड़ गयी और उन्होंने लज्जावश अञ्चल से अपना मुख ढँक लिया। उनकी बारंबार ऐसी अवस्था हुई। श्रीराधा को देखकर श्यामसुन्दर के मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। समस्त गोपिकाओं के सामने खड़े हुए वे भगवान् श्रीराधा से बोले । श्रीकृष्ण ने कहा — प्राणाधिके राधिके ! तुम मनोवाञ्छित वर माँगो । हे गोपकिशोरियो ! तुम सब लोग भी अपनी इच्छा के अनुसार वर माँगो । श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर श्रीराधिका तथा अन्य सब गोपकन्याओं ने बड़े हर्ष के साथ उन भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रभु से वर माँगा । राधिका बोलीं — प्रभो ! मेरा चित्तरूपी चञ्चरीक आपके चरणकमलों में सदा रमता रहे। जैसे मधुप कमल में स्थित हो उसके मकरन्द का पान करता है; उसी प्रकार मेरा मनरूपी भ्रमर भी आपके चरणारविन्दों में स्थित हो भक्तिरस का निरन्तर आस्वादन करता रहे। आप जन्म-जन्म में मेरे प्राणनाथ हों और अपने चरणकमलों की परम दुर्लभ भक्ति मुझे दें। मेरा चित्त सोते-जागते, दिन-रात आपके स्वरूप तथा गुणों के चिन्तन में सतत निमग्न रहे । यही मेरी मनोवाञ्छा है । गोपियाँ बोलीं — प्राणबन्धो ! आप जन्म- जन्म में हमारे प्राणनाथ हों और श्रीराधा की ही भाँति हम सबको भी सदा अपने साथ रखें । गोपियों का यह वचन सुनकर प्रसन्न-मुख वाले श्रीमान् यशोदानन्दन ने कहा — ‘तथास्तु’ (ऐसा ही हो) । तत्पश्चात् उन जगदीश्व रने श्रीराधिका को प्रेमपूर्वक सहस्रदलों से युक्त क्रीडाकमल तथा मालती की मनोहर माला दी। साथ ही अन्य गोपियों को भी उन गोपीवल्लभ ने हँसकर प्रसाद-स्वरूप पुष्प तथा मालाएँ भेंट कीं । तदनन्तर वे बड़े प्रेम से बोले । श्रीकृष्ण ने कहा — व्रजदेवियो ! तीन मास व्यतीत होने पर वृन्दावन के सुरम्य रासमण्डल में तुम सब लोग मेरे साथ रासक्रीड़ा करोगी। जैसा मैं हूँ, वैसी ही तुम हो। हममें तुममें भेद नहीं है। मैं तुम्हारे प्राण हूँ और तुम भी मेरे लिये प्राणस्वरूपा हो । प्यारी गोपियो ! तुम लोगों का यह व्रत लोक-रक्षा के लिये है, स्वार्थ-सिद्धि के लिये नहीं; क्योंकि तुम लोग गोलोक से मेरे साथ आयी हो और फिर मेरे साथ ही तुम्हें वहाँ चलना है । (तुम मेरी नित्यसिद्धा प्रेयसी हो। तुमने साधन करके मुझे पाया है, ऐसी बात नहीं है।) अब शीघ्र अपने घर जाओ। मैं जन्म-जन्म में तुम्हारा ही हूँ । तुम मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर हो; इसमें संशय नहीं है । ऐसा कहकर श्रीहरि वहीं यमुनाजीके किनारे बैठ गये। फिर सारी गोपियाँ भी बारंबार उन्हें निहारती हुई बैठ गयीं। उन सबके मुखपर प्रसन्नता छा रही थी; मन्द मुस्कान की प्रभा फैल रही थी। वे प्रेमपूर्वक बाँकी चितवन से देखती हुई अपने नेत्र-चकोरों द्वारा श्रीहरि के मुखचन्द्र की सुधा का पान कर रही थीं। तत्पश्चात् वे बारंबार जय बोलकर शीघ्र ही अपने-अपने घर गयीं और श्रीकृष्ण भी ग्वाल-बालों के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने घर को लौटे। इस प्रकार मैंने श्रीहरि का यह सारा मङ्गलमय चरित्र कह सुनाया, गोपीचीर-हरणकी यह लीला सब लोगों के लिये सुखदायिनी है । (अध्याय २७) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे गोपिकावस्त्रहरणप्रस्तावो नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ See Also:- श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय २२ (चीर-हरण) Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related