ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 38
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
अड़तीसवाँ अध्याय
देवी सती और पार्वतीके गर्व-मोचन की कथा, सती का देहत्याग, पार्वती का जन्म, गर्ववश उनके द्वारा आकाशवाणी की अवहेलना, शंकरजी का आगमन, शैलराज द्वारा उनकी स्तुति तथा उस स्तुति की महिमा

श्रीकृष्ण ने कहा देवि ! जगद्गुरु शंकर के दर्प-भङ्ग का वृत्तान्त तो तुमने सुन लिया। अब मुझसे दुर्गा के दर्प-विमोचन की कथा सुनो। सम्पूर्ण देवताओं के तेज से प्रकट हो जगदम्बा ने कामिनी का कमनीय एवं मनोहर रूप धारण किया तथा दानवेन्द्रों का वध करके देवकुल की रक्षा की। इसके बाद देवी ने दक्षपत्नी के उदर से जन्म लिया । दक्षकन्या सतीदेवी ने पिनाकपाणि शिव को पतिरूप में ग्रहण किया और बड़ी भक्ति के साथ वे निरन्तर स्वामी की सेवामें लगी रहीं। दैवयोग से देवताओं की सभा में दक्ष के साथ शिव की अकारण शत्रुता हो गयी। दक्ष ने घर आकर एक यज्ञ का आयोजन किया । उसमें उन्होंने समस्त देवताओं को आमन्त्रित किया; किंतु क्रोध के कारण शंकर को नहीं बुलाया । सब देवता अपनी पत्नियों के साथ दक्ष के घर आये; परंतु स्वाभिमानवश शंकर अपने गणों के साथ वहाँ नहीं गये । उनके मन में भी दक्ष के प्रति बड़ा रोष था ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

सती के मन में पिता आदि के प्रति मोह था; इसलिये उन्होंने यत्नपूर्वक पतिदेव को उस यज्ञ में चलने के लिये समझाया। जब किसी तरह उन्हें वहाँ ले जाने में वे समर्थ न हो सकीं, तब स्वयं चञ्चल हो उठीं और पति की आज्ञा प्राप्त किये बिना ही दर्पवश पिता के घर चली आयीं । पति के शाप से वहाँ उनका दर्प-भङ्ग हुआ। पिता ने उनसे बात तक नहीं की। वाणीमात्र से भी पुत्री का सत्कार नहीं किया । इतना ही नहीं, उन्हें वहाँ पति की निन्दा भी सुननी पड़ी। उसे सुनकर स्वाभिमानवश सती ने अपने शरीर को त्याग दिया।

प्रिये ! इस प्रकार सती के दर्प – भङ्ग का वृत्तान्त कहा गया। अब तुम उनके जन्मान्तर तथा दर्प-दलन की कथा सुनो। सती ने शीघ्र ही गिरिराज हिमालय की पत्नी मेना के गर्भ से जन्म ग्रहण किया। शिव ने प्रेमवश सती की चिता का भस्म और उनकी अस्थियाँ ग्रहण कीं । अस्थियों की तो माला बनायी और भस्म से अङ्गराग का काम लिया। वे प्रेमवश बार-बार सती को याद करते और उनके विरह में इधर-उधर घूमते रहते थे । उधर मेना ने देवी को जन्म दिया। उनकी आकृति बड़ी ही मनोहर थी। विधाता की सृष्टि में गिरिराजनन्दिनी के लिये कहीं कोई उपमा नहीं थी । गुणों की तो वे जननी ही हैं; अतः सभी और सब प्रकार के सद्गुणों को धारण करती हैं । समस्त देवपत्नियाँ उनकी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं। जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कला बढ़ती है, उसी तरह हिमालय के घर में वे देवी दिनोंदिन बढ़ने लगीं।

जब उन्होंने युवावस्था में प्रवेश किया, तब उन जगदम्बा को सम्बोधित करके आकाशवाणी ने कहा-‘ – ‘शिवे ! तुम कठोर तपस्या द्वारा भगवान् शिव को पति रूप में प्राप्त करो; क्योंकि तपस्या के बिना ईश्वर को पाना अथवा उनके अंश से गर्भ धारण करना असम्भव है।’ यह आकाशवाणी सुनकर यौवन के गर्व से भरी हुई पार्वती हँसकर चुप हो रहीं ।

वह मन-ही-मन सोचने लगीं कि ‘जो मेरे दूसरे जन्म की अस्थि और भस्म को धारण करते हैं; वे इस जन्म में मुझे सयानी हुई देख कैसे नहीं ग्रहण करेंगे। जो चतुर होकर भी मेरे शोक से समूचे ब्रह्माण्ड में भटकते फिरे; वे ही मुझ परम सुन्दरी को अपनी आँखों से देख लेने पर क्यों नहीं ग्रहण करेंगे ? जिन कृपानिधान ने मेरे लिये दक्ष यज्ञ का विध्वंस कर डाला था; वे अपनी जन्म-जन्म की पत्नी मुझ पार्वती को क्यों नहीं ग्रहण करेंगे ? पूर्वजन्म से ही जो जिसकी पत्नी है और जिसका जो पति है, उन दोनों में यहाँ भेद कैसे हो सकता है ? क्योंकि प्रारब्ध को कोई पलट नहीं सकता ।’

अत्यन्त अभिमान के कारण अपने को समस्त रूप और गुणों का आधार मानकर साध्वी शिवा ने तप नहीं किया। उन्होंने शिव को ईश्वर नहीं समझा। ‘समस्त सुन्दरियों में मुझसे बढ़कर सुन्दरी दूसरी कोई नहीं है’- यह धारणा हृदय में लेकर शिवादेवी गर्ववश तपस्या में नहीं प्रवृत्त हुईं। वे यही सोचती थीं कि पुरुष अपनी स्त्रियों के रूप, यौवन तथा वेशभूषा का ग्राहक है। शिव मेरा नाम सुनते ही बिना तपस्या के मुझे ग्रहण कर लेंगे । मन में यह विश्वास लेकर गिरिजा हिमवान् के घर में रहती थीं और दिन-रात सखी-सहेलियों के बीच खेलकूद में मतवाली रहा करती थीं। इसी समय शीघ्रतापूर्वक दूत ने गिरिराज के भवन में आकर दोनों हाथ जोड़ उनके सामने मधुर वाणी में कहा ।

दूत बोला — शैलराज ! उठिये, उठिये । अक्षयवट के पास जाइये। वहाँ वृषभवाहन महादेवजी अपने गणों के साथ पधारे हैं। महाराज! आप भक्तिभाव से मस्तक झुका उन्हें मधुपर्क आदि देकर उन इन्द्रियातीत देवेश्वर का पूजन कीजिये । महादेवजी सिद्धिस्वरूप, सिद्धों के स्वामी, योगीन्द्रों के गुरु के भी गुरु, मृत्युञ्जय, काल के भी काल तथा सनातन ब्रह्मज्योति हैं । वे प्रभु परमात्मस्वरूप, सगुण तथा निर्गुण हैं। उन्होंने भक्तों के ध्यान के लिये निर्मल महेश्वररूप धारण किया है ।

दूत की यह बात सुनकर हिमवान् प्रसन्नता-पूर्वक उठे और मधुपर्क आदि साथ ले भगवान् शंक रके समीप गये। दूत की पूर्वोक्त बात सुनकर देवी शिवा के मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। उन्होंने अपने मन में यही माना कि महेश्वर मेरे ही लिये आये हैं। यही जानकर उन्होंने विविध दिव्य वस्त्रों तथा दिव्य रत्नालंकारों एवं मालाओं के द्वारा अपने सम्पूर्ण अङ्गों को सुसज्जित किया। तत्पश्चात् अपने अनुपम रूप को देखकर पार्वती ने मन-ही-मन शंकरजी का ध्यान किया । विशेषतः स्वामी के चरणकमलों का वे चिन्तन करने लगीं। उस समय शिव को छोड़कर पिता, माता, बन्धु-बान्धव, साध्वी वर्ग तथा सहोदर भाई किसी को भी उन्होंने अपने मन में स्थान नहीं दिया।

इधर गिरिराज हिमालय ने वहाँ जाकर भगवान् चन्द्रशेखर के दर्शन किये। वे गङ्गाजी के रमणीय तट से ऊपर को आ रहे थे। उनके मुख पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैल रही थी । वे संस्कारयुक्त माला धारण किये मेरे नाम का जप कर रहे थे। उनके सिर पर सुनहरी प्रभा से युक्त जटाराशि विराजमान थी। वे वृषभ की पीठ पर बैठकर हाथ में त्रिशूल लिये सब प्रकार के आभूषणों से सुशोभित थे। सर्प का ही यज्ञोपवीत पहने सर्पमय आभूषणों से विभूषित थे। उनकी अङ्गकान्ति शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल थी, वे वस्त्र के स्थान में व्याघ्रचर्म धारण किये, हड्डियों की माला पहने तथा अङ्गों में विभूति रमाये बड़ी शोभा पाते थे। दिगम्बर वेष, पाँच मुख और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे। उनके श्रीअङ्गों से करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश फैल रहा था । हिमवान् ने उनके चारों ओर एकादश रुद्रों को देखा, जो ब्रह्मतेज से प्रकाशमान थे । शिव के वामभाग में महाकाल और दाहिने भाग में नन्दिकेश्वर खड़े थे । भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, बेताल, क्षेत्रपाल, भयानक पराक्रमी भैरव, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन, जैगीषव्य, कात्यायन, दुर्वासा और अष्टावक्र आदि ऋषि- सब उनके सामने खड़े थे ।

हिमालय ने इन सबको मस्तक झुकाकर भगवान् शिव को प्रणाम किया और पृथ्वी पर माथा टेक दण्ड की भाँति पड़कर दोनों हाथ जोड़ लिये। इसके बाद बड़ी भक्ति-भावना से शिव के चरणकमल पकड़कर पर्वतराज ने नमस्कार किया और नेत्रों से आँसू बहाते पुलकित-शरीर हो धर्म के दिये हुए स्तोत्र से परमेश्वर शिवकी स्तुति आरम्भ की।

॥ हिमालय कृत शङ्कर स्तोत्र ॥

॥ हिमालय उवाच ॥
त्वं ब्रह्मा सृष्टिकर्ता च त्वं विष्णुः परिपालकः ।
त्वं शिवः शिवदोऽनन्तः सर्वसंहारकारकः ॥ ६५ ॥
त्वमीश्वरो गुणातीतो ज्योतीरूपः सनातनः ।
प्रकृतः प्रकृतीशश्च प्राकृतः प्रकृतेः परः ॥ ६६ ॥
नानारूपविधाता त्वं भक्तानां ध्यानहेतवे ।
येषु रूपेषु यत्प्रीतिस्तत्तद्रूपं बिभर्षि च ॥ ६७ ॥
सूर्यस्त्वं सृष्टिजनक आधारः सर्वतेजसाम् ।
सोमस्त्वं सस्यपाता च सततं शीतरश्मिना ॥ ६८ ॥
वायुस्त्वं वरुणस्त्वं च त्वमग्निः सर्वदाहकः ।
इन्द्रस्त्वं देवराजश्च कालो मृत्युर्यमस्तथा ॥ ६९ ॥
मृत्युञ्जयो मृत्युमृत्युः कालकालो यमान्तकः ।
वेदस्त्वं वेदकर्ता च वेदवेदाङ्गपारगः ॥ ७० ॥
विदुषां जनकस्त्वं च विद्वांश्च विदुषां गुरुः ।
मन्त्रस्त्वं हि जपस्त्वं हि तपस्त्वं तत्फलप्रदः ॥ ७१ ॥
वाक् त्वं वागधिदेवी त्वं तत्कर्ता तद्गुरुः स्वयम् ।
अहो सरस्वतीबीजं कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ॥ ७२ ॥
इत्येवमुक्त्वा शैलेन्द्रस्तस्थौ धृत्वा पदाम्बुजम् ।
तत्रोवास तमाबोध्य चावरुह्य वृषाच्छिवः ॥ ७३ ॥
स्तोत्रमेतन्महापुण्यं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो भयेभ्यश्च भवार्णवे ॥ ७४ ॥
अपुत्रो लभते पुत्रं मासमेकं पठेद्यदि ।
भार्याहीनो लभेद्भार्यां सुशीलां सुमनोहराम् ॥ ७५ ॥
चिरकालगतं वस्तु लभते सहसा ध्रुवम् ।
राज्यभ्रष्टो लभेद्राज्यं शंकरस्य प्रसादतः ॥ ७६ ॥
कारागारे श्मशाने च शत्रुग्रस्तेऽतिसंकटे ।
गभीरेऽतिजलाकीर्णे भग्नपोते विषादने ॥ ७७ ॥
रणमध्ये महाभीते हिंस्रजन्तुसमन्विते ।
सर्वतो मुच्यते स्तुत्वा शंकरस्य प्रसादतः ॥ ७८ ॥

हिमालय बोले — भगवन्! आप ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं । आप ही जगत्पालक विष्णु हैं । आप ही सबका संहार करने वाले अनन्त हैं और आप ही कल्याणदाता शिव हैं। आप गुणातीत ईश्वर, सनातन ज्योतिःस्वरूप हैं । प्रकृति और उसके ईश्वर हैं । प्राकृत पदार्थरूप होते हुए भी प्रकृति से परे हैं। भक्तों के ध्यान करने के लिये आप अनेक रूप धारण करते हैं। जिन रूपों में जिसकी प्रीति है, उसके लिये आप वे ही रूप धारण करते हैं । आप ही सृष्टि के जन्मदाता सूर्य हैं । समस्त तेजों के आधार हैं । आप ही शीतल किरणों से सदा शस्यों का पालन करने वाले सोम हैं । आप ही वायु, वरुण और सर्वदाहक अग्नि हैं । आप ही देवराज इन्द्र, काल, मृत्यु तथा यम हैं। मृत्युञ्जय होने के कारण मृत्यु की भी मृत्यु, काल के भी काल तथा यम के भी यम हैं । वेद, वेदकर्ता तथा वेद-वेदाङ्गों के पारङ्गत विद्वान् भी आप ही हैं । आप ही विद्वानों के जनक, विद्वान् तथा विद्वानों के गुरु हैं । आप ही मन्त्र, जप, तप और उनके फलदाता हैं। आप ही वाक् और आप ही वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं। आप ही उसके स्रष्टा और गुरु हैं । अहो ! सरस्वती का बीज अद्भुत है। यहाँ कौन आपकी स्तुति कर सकता है ?

ऐसा कहकर गिरिराज हिमालय उनके चरणकमलों को धारण करके खड़े रहे । भगवान् शिव वृषभ पर बैठे हुए शैलराज को प्रबोध देते रहे । जो मनुष्य तीनों संध्याओं के समय इस परम पुण्यमय स्तोत्र का पाठ करता है, वह भवसागर में रहकर भी समस्त पापों तथा भयों से मुक्त हो जाता है । पुत्रहीन मनुष्य यदि एक मास तक इसका पाठ करे तो पुत्र पाता है । भार्याहीन को सुशीला तथा परम मनोहारिणी भार्या प्राप्त होती है । वह चिरकाल से खोयी हुई वस्तु को सहसा तथा अवश्य पा लेता है । राज्यभ्रष्ट पुरुष भगवान् शंकर के प्रसाद से पुनः राज्य को प्राप्त कर लेता है। कारागार, श्मशान और शत्रु-संकट में पड़ने पर तथा अत्यन्त जल से भरे गम्भीर जलाशय में नाव टूट जाने पर, विष खा लेने पर, महाभयंकर संग्राम के बीच फँस जाने पर तथा हिंसक जन्तुओं से घिर जाने पर इस स्तुति का पाठ करके मनुष्य भगवान् शंकर की कृपा से समस्त भयों से मुक्त हो जाता है।    (अध्याय ३८)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे ऽष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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