February 26, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 39 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ उनतालीसवाँ अध्याय गिरिराज हिमवान् द्वारा गणों सहित शिव का सत्कार, मेना को शिव के अलौकिक सौन्दर्य के दर्शन, पार्वती द्वारा शिव की परिक्रमा, शिव का उन्हें आशीर्वाद, शिवा द्वारा शिव का षोडशोपचार पूजन, शंकर द्वारा कामदेव का दहन तथा पार्वती को तपस्या द्वारा शिव की प्राप्ति भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — प्रिये ! इस प्रकार स्तुति करके गिरिराज हिमवान् नगर से दूर निवास करने वाले भगवान् शंकर से कुछ ही दूरी पर उनकी आज्ञा ले स्वयं भी ठहर गये। उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान् को मधुपर्क आदि दिया और मुनियों तथा शिव के पार्षदों का पूजन किया। उस समय मेना स्त्रियों के साथ वहाँ आयी। उसने वट के नीचे आसन लगाये चन्द्रशेखर शिव को देखा। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द हास्य की छटा छा रही थी। वे व्याघ्रचर्म धारण किये मुनि-मण्डली के मध्य भाग में ब्रह्मतेज से प्रकाशित हो रहे थे, मानो आकाश में तारिकाओं के बीच द्विजराज चन्द्रमा शोभा पा रहे हों । करोड़ों कन्दर्पो के समान उनका मनोहर रूप अत्यन्त आह्लाद प्रदान करनेवाला था । वे वृद्धावस्था छोड़कर नूतन यौवन धारण करते थे और अत्यन्त सुन्दर रमणीय रूप हो युवतियों के चित्त चुरा रहे थे । वे कामातुरा कामिनियों को कामदेव के समान जान पड़ते थे। सतियों को औरस पुत्र के समान प्रतीत होते थे । वैष्णवों को महाविष्णु तथा शैवों को सदाशिव के रूप में दृष्टिगोचर होते थे । शक्ति के उपासकों को शक्तिस्वरूप, सूर्यभक्तों को सूर्यरूप, दुष्टों को कालरूप तथा श्रेष्ठ पुरुषों को परिपालक के रूप में दिखायी देते थे। काल को काल के समान, मृत्यु को मृत्यु एवं अत्यन्त भयानक जान पड़ते थे। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय स्त्रियों के लिये उनका व्याघ्रचर्म मनोहर वस्त्र बन गया । भस्म चन्दन हो गया । सर्प सुन्दर मालाओं के रूप में परिणत हो गये। जटा सुन्दर सँवारी हुई चूड़ा जान पड़ी। कण्ठ में कालकूट की प्रभा कस्तूरी समान प्रतीत हुई।चन्द्रमा भाल- देशमें चन्दन जान पड़े। मस्तक पर गङ्गा की मनोहारिणी धारा परम सुन्दर मालती माला के रूप में परिणत हो गयी । अस्थियों की माला रत्नमाला बन गयी । धतूर मनोहर चम्पा के रूप में बदल गया। पाँच मुख के स्थान में उन्हें एक ही मुख दिखायी देने लगा, जो दो नेत्र-कमलों से सुशोभित था। मुख शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की आभा को प्रतिहत करके अत्यन्त देदीप्यमान हो रहा था । बन्धुजीव ( दुपहरिया ) – की लाली को तिरस्कृत करने वाले उनके ओष्ठ और अधर से मुख की मनोहरता बढ़ गयी थी । श्वेत चन्द्रमा ही मानो वृषभराज नन्दी बन गये थे और भूत आदि नर्तकों का काम करते थे। महेश्वर के स्वरूप में तत्काल सब कुछ बदल गया। शिव का ऐसा रूप देख मेना बहुत संतुष्ट हुई। कितनी रमणियाँ भगवान् शंकर के रूप-सौन्दर्य को देखकर अत्यन्त मुग्ध हो गयीं और नाना प्रकार की अभिलाषाएँ करने लगीं। अहो ! पार्वती बड़ी पुण्यवती है। भारतवर्ष में इसी का जन्म स्पृहणीय है; क्योंकि ये शिव इसके स्वामी होने वाले हैं। इस प्रकार की बातें कितनी ही स्त्रियाँ कर रही थीं। शिव का दर्शन करके मेना सानन्द अपने घर को लौट गयीं। शिव का पूजन करके उनके चरणों में मस्तक नवाकर शैलराज भी अपने घर को गये। गिरिराज ने मेना के साथ एकान्त में सलाह करके पार्वती को उसकी मङ्गल कामना से शिव के समीप भेजा । पार्वती का हृदय भगवान् शंकर में अनुरक्त था । सखियों के साथ मनोहर वेष धारण करके हर्षपूर्वक वे शिव के निकट गयीं । वहाँ प्रसन्नमुख और नेत्र वाले शान्तस्वरूप शिव का दर्शन करके शिवा ने सात बार परिक्रमा की और मुस्कराकर उन्हें प्रणाम किया । उस समय भगवान् शिव ने आशीर्वाद देते हुए कहा — ‘सुन्दरि ! तुम्हें अनन्य प्रेमी, गुणवान्, अमर, ज्ञानिशिरोमणि और सुन्दर पति प्राप्त हो । शुभे ! तुम्हारा पतिविषयक सौभाग्य सतत बना रहे । साध्वि ! तुम्हारा पुत्र नारायण के समान गुणवान् होगा । जगदम्बिके! तीनों लोकों में तुम्हारी उत्कृष्ट पूजा होगी । तुम समस्त ब्रह्माण्डों में सबसे श्रेष्ठ होओ। सुन्दरि ! तुमने सात बार परिक्रमा करके भक्तिभाव से मुझे नमस्कार किया है। अतः मैं सात जन्मों के लिये संतुष्ट हो गया। तुम उसका फल पाओ । तीर्थ, प्रियतम पति, इष्टदेवता, गुरुमन्त्र तथा औषध में जिनकी जैसी आस्था होती है, उन्हें वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है । ‘ ऐसा कहकर योगीश्वर शंकर ने व्याघ्रचर्म पर योगासन लगाया और मुझ परब्रह्मरूप ज्योति का तत्काल ध्यान आरम्भ कर दिया। तब देवी पार्वती ने उनके दोनों चरण पखारकर चरणामृत पान किया और अग्निशुद्ध वस्त्र से भक्तिपूर्वक उन चरणों का मार्जन किया। विश्वकर्मा द्वारा निर्मित रमणीय रत्नसिंहासन उनकी सेवामें अर्पित किया। फिर कांस्यपात्र में रखे हुए अपूर्व नैवेद्य का भोग लगाया। तत्पश्चात् उनके चरणों में गङ्गाजल से युक्त अर्घ्य दिया। इसके बाद मनोहर सुगन्धयुक्त चन्दन तथा कस्तूरी और कुंकुम भी सेवामें प्रस्तुत किये। तदनन्तर हालाहल विष के चिह्न से सुन्दर प्रतीत होने वाले कण्ठ में मालती की माला पहनायी । भक्ति-भाव से पूजा की । शिव की प्रसन्नता के लिये उन पर पुष्पों की वृष्टि की। सुवर्णपात्र में अमृत और मधुर मधु दिया। सैकड़ों रत्नमय दीप जलाये । सब ओर उत्तम धूप की सुगन्ध फैलायी । त्रिभुवन – दुर्लभ वस्त्र, सोने के तारों का यज्ञोपवीत तथा पीने के लिये सुगन्धित एवं शीतल जल पार्वती ने अपने प्रियतम की सेवामें प्रस्तुत किये। फिर रत्नसारेन्द्र-निर्मित अतिशय सुन्दर रमणीय भूषण, सुवर्णमढ़ी सींगवाली दुर्लभ कामधेनु, स्नानोपयोगी द्रव्य, तीर्थजल तथा मनोहर ताम्बूल भी क्रमशः अर्पित किये। इस प्रकार षोडशोपचार चढ़ाकर पार्वती ने बारंबार प्रणाम किया । यह उनका नित्य का नियम बन गया। वे प्रतिदिन भक्तिभाव से शिव की पूजा करके पिता के घर लौट जाया करती थीं। अप्सराओं के मुख से इन्द्र ने यह सुना कि भगवान् महेश्वर पार्वतीदेवी के प्रति अनुरक्त हैं । यह समाचार सुनकर इन्द्र हर्ष से नाचने लगे । उन्होंने बड़ी उतावली के साथ दूत भेजकर कामदेव को बुलवाया। इन्द्र की आज्ञा से कामदेव अमरावतीपुरी में गये। तब इन्द्र ने उन्हें शीघ्र ही उस स्थान पर भेजा, जहाँ शिवा और शिव विद्यमान थे । पञ्चबाण काम ने अपने पाँचों बाणों को साथ ले उस स्थान को प्रस्थान किया, जहाँ शक्तिसहित शिव विराजमान थे। वहाँ पहुँचकर मदन ने देखा, भगवान् शिव शिवा के साथ विद्यमान हैं। उनके मुख और नेत्र प्रसन्न दिखायी देते हैं। वे त्रिभुवनकान्त एवं शान्त हैं। उन्हें देखकर कामदेव बाणसहित धनुष हाथ में लिये आकाश में खड़ा हो गया। उसने बड़े हर्ष के साथ अपने अमोघ एवं अनिवार्य अस्त्र का शंकर पर प्रयोग किया; परंतु वह अमोघ अस्त्र भी परमात्मा शंकर पर व्यर्थ हो गया। जैसे आकाश निर्लेप होता है, उसी तरह निर्लिप्त परमात्मा शिव पर जब वह शस्त्र विफल हो गया, तब कामदेव को बड़ा भय हुआ। वह सामने खड़ा हो भगवान् मृत्युञ्जय की ओर देखता हुआ काँपने लगा। भय से विह्वल हुए काम ने इन्द्र आदि देवताओं का स्मरण किया। तब सब देवता वहाँ आये और शंकर के कोप से डरकर काँपने लगे। उन्होंने स्तोत्र पढ़कर देवाधिदेव शंकर का स्तवन किया। इतने में ही शिव के ललाटवर्ती नेत्र से कोपाग्नि प्रकट हुई। देवता लोग स्तुति कर ही रहे थे कि शम्भु से उत्पन्न हुई वह आग ऊँची-ऊँची लपटें उठाती हुई प्रज्वलित हो उठी । वह प्रलयकालिक अग्नि की ज्वाला के समान जान पड़ती थी । आकाश में ऊपर उठकर चक्कर काटती हुई वह आग पृथ्वी पर उतर आयी और चारों ओर चक्कर देकर कामदेव पर टूट पड़ी। भगवान् शंकर के कोप से कामदेव एक ही क्षण में भस्म हो गये। यह देख सब देवता विषादमें डूब गये और पार्वती ने भी सिर नीचा कर लिया । तदनन्तर रति भगवान् शिव के सामने बहुत विलाप करने लगी । भय से काँपते हुए समस्त देवताओं ने शिव का स्तवन किया। इसके बाद वे बार-बार रोते हुए रति से बोले — ‘माँ ! पति के शरीर का थोड़ा-सा भस्म लेकर उसकी रक्षा करो और भय छोड़ो । हम लोग उन्हें जीवित करायेंगे। तुम पुनः अपने प्रियतम को प्राप्त करोगी; परंतु जब भगवान् शंकर का क्रोध दूर हो जायगा और उनकी प्रसन्नता का समय होगा, तभी यह कार्य सम्भव हो सकेगा ।’ रति का विलाप देखकर पार्वती मूर्च्छित हो गयीं और उन अतीन्द्रिय गुणातीत चन्द्रशेखर की स्तुति करने लगीं। तब भगवान् शिव रोती हुई पार्वती को वहीं छोड़कर अपने स्थान को चले गये। फिर तो उसी क्षण पार्वती का सारा अभिमान चूर हो गया। गिरिराजनन्दिनी ने अपने रूप और यौवन का गर्व त्याग दिया। अब उन्हें सखियों को अपना मुँह दिखाने में भी लज्जा का अनुभव होने लगा। सब देवता रति को आश्वासन दे रुद्रदेव को दण्डवत् प्रणाम करने के पश्चात् अपने स्थान को चले गये। उस समय उनका मन शोक से उद्विग्र हो रहा था । राधिके ! कामपत्नी रति रोष से लाल आँखों वाले रुद्रदेव का भय से स्तवन करके शोक से रोती हुई अपने घर को चली गयी। परंतु पार्वती लज्जावश पिता के घर नहीं गयी। वह सखियों के मना करने पर भी तपस्या के लिये वन में चली गयी। तब शोक से विह्वल हुई सखियों ने भी उन्हीं का अनुगमन किया। माताओं के रोकने पर भी वे सब-की-सब गङ्गा तटवर्ती वन की ओर चली गयीं। आगे चलकर पार्वती ने दीर्घकाल तक तपस्या करके भगवान् त्रिलोचन को पतिरूप में प्राप्त किया । रति ने भी शंकर के वर से यथासमय कामदेव को प्राप्त किया। राधे ! इस प्रकार पार्वती के दर्पमोचन से सम्बन्ध रखने वाली सारी बातें कही गयीं। पार्वती का यह चरित्र गूढ़ है । बताओ, तुम और क्या सुनना चाहती हो ? (अध्याय ३९) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related