ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 41
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
इकतालीसवाँ अध्याय
ब्रह्माजी की आज्ञा से देवताओं का शिवजी से शैलराज के घर जाने का अनुरोध करना, शिव का ब्राह्मण-वेष में जाकर अपनी ही निन्दा करके शैलराज के मन में अश्रद्धा उत्पन्न करना, मेना का पुत्री को साथ ले कोप भवन में प्रवेश और शिव को कन्या न देने के लिये दृढ़ निश्चय, सप्तर्षियों और अरुन्धती का आगमन तथा शैलराज एवं मेना को समझाना, वसिष्ठ और हिमवान्‌ की बातचीत, शिव की महत्ता तथा देवताओं की प्रबलता का प्रतिपादन, प्रसङ्गवश राजा अनरण्य, उनकी पुत्री पद्मा तथा पिप्पलादमुनि की कथा

श्रीकृष्ण कहते हैं — तब देवता लोग आपस में विचार करके ब्रह्माजी के निकट गये। वहाँ उन्होंने उन लोकनाथ ब्रह्मा से अपना अभिप्राय निवेदन किया ।

देवता बोले — संसार की सृष्टि करने वाले पितामह! आपकी सृष्टि में हिमालय सब रत्नों का आधार है । वह यदि मोक्ष को प्राप्त हो जायगा तो पृथ्वी रत्नगर्भा कैसे कहलायेगी ? शूलपाणि शंकर को भक्तिपूर्वक अपनी पुत्री देकर शैलराज स्वयं नारायण का सारूप्य प्राप्त कर लेंगे – इसमें संशय नहीं है। अतः आप शिव की निन्दा करके गिरिराज के मन में अश्रद्धा उत्पन्न कीजिये । प्रभो ! आपके सिवा दूसरा कोई यह कार्य करने में समर्थ नहीं है। इसलिये आप उनके घर जाइये।

देवताओं की यह बात सुनकर स्वयं ब्रह्माजी उनसे कानों को अमृत के समान मधुर प्रतीत होने वाला तथा नीति का सारभूत उत्तम वचन बोले ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

ब्रह्माजी ने कहा — बच्चो ! मैं शिव की निन्दा करने में समर्थ नहीं हूँ। यह अत्यन्त दुष्कर कार्य है । शिव की निन्दा सम्पत्ति का नाश करने वाली और विपत्ति का बीज है । तुम लोग भूतनाथ शिव को ही वहाँ भेजो। वे स्वयं अपनी निन्दा करें। परायी निन्दा विनाश का और अपनी निन्दा यश का कारण होती है ।परनिन्दा विनाशाय स्वनिन्दा यशसे परम् ॥ ७ ॥

प्रिये ! ब्रह्माजी का वचन सुनकर उन्हें प्रणाम करके देवता लोग शीघ्र ही कैलास पर्वत को गये और वहाँ पहुँचकर भगवान् शिव की स्तुति करने लगे । स्तुति करके उन सबने करुणानिधान शंकर को अपना अभिप्राय बताया। उनकी बात सुनकर भगवान् शंकर हँसे और उन्हें आश्वासन दे स्वयं शैलराज के पास गये; फिर तो सब देवता शीघ्र ही अपने घर लौटकर आनन्द का अनुभव करने लगे। क्यों न हो, इष्टसिद्धि आनन्द देने वाली और अभीष्ट वस्तु की असिद्धि सदा दुःख बढ़ाने वाली होती है ।

उधर शैलराज अपनी सभा में बन्धुवर्ग से घिरे हुए प्रसन्नतापूर्वक बैठे थे। उनके साथ पार्वती भी थी। इसी बीच स्वयं भगवान् शिव ब्राह्मण का रूप धारण करके सहसा वहाँ आ पहुँचे। उनके मुख और नेत्रों से प्रसन्नता प्रकट हो रही थी । ब्राह्मण के हाथ में दण्ड और छत्र था । उनका वस्त्र लंबा था । उन्होंने ललाट में उत्तम तिलक लगा रखा था। उनके एक हाथ में स्फटिकमणि की माला थी और उन्होंने गले में भगवान् शालग्राम को धारण कर रखा था। उन्हें देखते ही हिमवान् अपने सेवकगणों सहित उठकर खड़े हो गये। उन्होंने भूमि पर दण्ड की भाँति पड़कर भक्तिभाव से उस अपूर्व अतिथि को प्रणाम किया। पार्वती ने विप्ररूपधारी प्राणेश्वर को भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाया । फिर ब्राह्मण ने सबको प्रसन्नतापूर्वक आशीर्वाद दिये । गिरिराज के दिये हुए आसन पर वे शीघ्रतापूर्वक बैठे और आतिथ्य में मधुपर्क आदि जो कुछ भी मिला, वह सब उन्होंने प्रेमपूर्वक ग्रहण किया । शैलराज ने ब्राह्मण का कुशल- समाचार पूछते हुए कहा- ‘विप्रवर! आपका परिचय क्या है ?’ तब उन द्विजराज ने गिरिराज को आदरपूर्वक सब कुछ बताया ।

ब्राह्मण बोले — गिरिराज ! मैं घटक-वृत्ति 1   का आश्रय लेकर भूमण्डल में घूमता रहता हूँ। मेरी मन के समान तीव्र गति है । गुरुदेव के वरदान से मैं सर्वत्र पहुँचने में समर्थ एवं सर्वज्ञ हूँ। मुझे ज्ञात हुआ है कि तुम अपनी इस लक्ष्मी-सरीखी दिव्य कन्या को शंकर के हाथ में देना चाहते हो, जिसके शील और कुल का कुछ भी पता नहीं है । शंकर निराश्रय हैं – उनका कहीं भी ठौर-ठिकाना नहीं है। वे असङ्ग – सदा अकेले रहने वाले हैं। उनके न रूप है, न गुण । वे श्मशान में विचरनेवाले, सम्पूर्ण भूतों के अधिपति तथा योगी हैं । शरीर पर वस्त्र तक नहीं है। सदा दिगम्बर – नंग-धड़ंग रहते हैं। उनके शरीर में सर्पों का वास है । अङ्गराग के स्थान राख – भभूत ही उनके अंगों को विभूषित करती है। उनका स्वरूप ही व्यालग्राही (दुष्टों अथवा सर्पों को ग्रहण करनेवाला) है। वे काल का व्यापादन ( नाश या अपव्यय) करने वाले हैं। अज्ञात-मृत्यु2  , ज्ञ3  अथवा अज्ञ, अनाथ4  और अबन्धु5  हैं। भव (संसार की उत्पत्ति के कारण) अथवा अभव (जन्मरहित) हैं । वे सिर पर तपाये हुए सुवर्णकी- सी कान्ति वाली जटाओं का बोझ धारण करने वाले (विरक्त) तथा निर्धन हैं। उनकी अवस्था कितनी है, इसका ज्ञान किसी को नहीं है । वे अत्यन्त वृद्ध हैं । विकार-शून्य हैं। सबके आश्रय हैं अथवा सभी उनके आश्रय हैं। व्यर्थ घूमते रहते हैं । सर्पों का हार धारण किये भीख माँगते हैं । (यही उनका परिचय है, जिन्हें तुम अपनी पुत्री देने जा रहे हो । )

भगवान् नारायण ज्ञानियों में श्रेष्ठ तथा कुलीन हैं । (अथवा समस्त कुलों की उत्पत्ति के स्थान हैं।) तुम उनके महत्त्व को समझो। पार्वती का दान करने के निमित्त वे ही तुम्हारे लिये योग्य पात्र हैं । पार्वती का विवाह शंकर से हो रहा है, यह सुनते ही बड़े-बड़े लोगों के मुख पर उपहास-सूचक मुस्कराहट दौड़ जायगी । एक तुम हो, जो लाखों पर्वतों के राजाधिराज हो और एक शिव हैं, जिनके एक भी भाई-बन्धु नहीं है। तुम अपने बन्धु-बान्धवों से तथा धर्मपत्नी मेना से भी शीघ्र ही पूछो और इन सबकी सम्मति जानने का प्रयत्न करो। भैया ! और सबसे तो यत्नपूर्वक पूछना, किंतु पार्वती से इस विषय में न पूछना; क्योंकि उसे शंकर के अनुराग का रोग लगा हुआ है। रोगी को दवा नहीं अच्छी लगती। उसे सदा कुपथ्य ही रुचिकर जान पड़ता है।

वृन्दावन-विनोदिनी राधे ! यों कह शान्त स्वभाव वाले ब्राह्मण ने शीघ्र ही स्नान और भोजन करके प्रसन्नतापूर्वक अपने घर का रास्ता लिया । ब्राह्मण की पूर्वोक्त बात सुनकर मेना शोकयुक्त हो नेत्रों से आँसू बहाने लगीं। उनका हृदय व्यथित हो उठा । वे हिमालय से बोलीं ।

मेना ने कहा — शैलराज ! मेरी बात सुनिये, जो परिणाम में सुख देने वाली है। आप इन श्रेष्ठ पर्वतों से पूछिये, इनकी क्या राय है। मैं तो अपनी बेटी को शंकर के हाथ में नहीं दूँगी । देखिये, मैं सारे विषयों को त्याग दूँगी, विष खा लूँगी और पार्वती के गले में फाँसी लगाकर भयानक वन में चली जाऊँगी ।

ऐसा कह मेना रोषपूर्वक पार्वती का हाथ पकड़कर कोप-भवन में चली गयीं। खाना-पीना छोड़कर रोने लगीं और भूमि पर ही सो गयीं । इसी समय भाइयों सहित वसिष्ठ वहाँ आये। उन सबके साथ अरुन्धती भी थीं । शैलराज ने उन सब महर्षियों को प्रणाम करके बैठने के लिये सोने का सिंहासन दिया और सोलह उपचार अर्पित करके भक्तिभाव से उनका पूजन किया। ऋषि लोग सभा बीच उस सुखद सिंहासन पर बैठे और अरुन्धतीदेवी तत्काल वहाँ चली गयीं, जहाँ मेना और पार्वती थीं । जाकर उन्होंने देखा, मेना शोक से अचेत हो पृथ्वी पर सो रही हैं । तब उन साध्वी देवी ने मधुर वाणी में कहा।

अरुन्धती बोलीं — पतिव्रते मेनके! उठो । मैं अरुन्धती तुम्हारे घर आयी हूँ। मुझे पितरों की मानसी कन्या तथा ब्रह्माजी की पुत्रवधू समझो ।

अरुन्धती का स्वर सुनकर मेना शीघ्र ही उठकर खड़ी हो गयीं। उन्होंने लक्ष्मी के समान तेजस्विनी देवी अरुन्धती के चरणों में मस्तक रखकर उन्हें प्रणाम किया और इस प्रकार कहा ।

मेना बोलीं — अहो ! हमारा जन्म बड़ा ही पुण्यमय है। हम लोगों का यह कौन – सा पुण्य आज फलित हुआ है, जिससे ब्रह्माजी की पुत्रवधू तथा वसिष्ठजी की धर्मपत्नी ने मेरे घर में पदार्पण  किया है। देवि ! मैं आपकी किङ्करी हूँ। यह घर आपका है। हमारे बड़े पुण्य से आपका यहाँ शुभागमन हुआ है।

सम्भ्रम-पूर्वक इतना ही कहकर मेना ने सती अरुन्धती को सोने की चौकी पर बिठाया और उनके चरण पखारकर उन्हें मिष्टान्न भोजन कराया। फिर स्वयं भी पुत्री के साथ भोजन किया । तदनन्तर अरुन्धती ने मेना को शिव के लिये नीति की बातें समझायीं और प्रसङ्गवश उनके साथ सम्बन्ध जोड़ने वाले वचन भी कहे। इधर उन महर्षियों ने भी शैलराज को उत्तम वाणी में नीति का सारतत्त्व समझाया और प्रसङ्गवश ऐसी बातें कहीं, जो शिव और पार्वती के सम्बन्ध को जोड़ने वाली थीं।

ऋषि बोले — शैलराज ! हमारी बात सुनो। यह तुम्हारे लिये शुभकारक है। तुम पार्वती का विवाह शिव के साथ कर दो और उन लोकसंहारक महादेव के श्वशुर बनो। देवेश्वर शिव तुमसे याचना नहीं करेंगे। तुम यत्नपूर्वक शीघ्र ही उन्हें समझाओ- विवाह के लिये तैयार करो। तुम्हारी शंका का निवारण करने के लिये ब्रह्माजी स्वयं विवाह स्थिर कराने के निमित्त प्रयत्न करें। योगियों में श्रेष्ठ शंकर कभी विवाह के लिये इच्छुक नहीं हैं । ब्रह्माजी की प्रार्थना से ही वे तुम्हारी पुत्री को ग्रहण करेंगे। उसे ग्रहण करने का दूसरा कारण यह है कि तुम्हारी कन्या की तपस्या के अन्त में उन्होंने उसे अपनाने की प्रतिज्ञा कर ली है। इन दो कारणों से ही योगिराज शिव विवाह करेंगे।

ऋषियों की यह बात सुनकर हिमवान् हँसे और कुछ भयभीत हो अत्यन्त विनयपूर्वक बोले ।

हिमालय ने कहा — मैं शिव के पास कोई राजोचित सामग्री नहीं देखता । न रहने के लिये कोई घर है, न ऐश्वर्य । यहाँ तक कि उनके कोई स्वजन – बान्धव भी नहीं हैं। जो अत्यन्त निर्लिप्त योगी हो, उसके हाथ कन्या देना उचित नहीं है। आप लोग ब्रह्माजी के पुत्र हैं । अतः अपना सत्य एवं निश्चित मत प्रकट कीजिये । यदि पिता कामना, लोभ, भय अथवा मोह के वशीभूत हो सुयोग्य पात्र के हाथ में अपनी कन्या नहीं देता है तो सौ वर्षों तक नरक में पड़ा रहता है; 6  अतः मैं स्वेच्छा से शूलपाणि को अपनी कन्या नहीं दूँगा । ऋषियो ! इस विषय में जो उचित कार्य हो; वह आप कीजिये ।

हिमवान्‌ की बात सुनकर वेद-वेदाङ्गों के विद्वान् ब्रह्मपुत्र वसिष्ठ वेदोक्त मत प्रकट करने के लिये उद्यत हुए।

वसिष्ठजी ने कहा — शैलराज ! लोक और वेद में तीन प्रकार के वचन कहे गये हैं। शास्त्रज्ञ पुरुष अपनी निर्मल ज्ञानदृष्टि से उन सभी वचनों को जानता है। पहला वचन वह है, जो वर्तमान काल में कानों को सुन्दर लगे और जल्दी समझ में आ जाय; किंतु पीछे असत्य और अहितकर सिद्ध हो। ऐसी बात केवल शत्रु कहता है। उससे कदापि हित नहीं होता। दूसरे प्रकार का वचन वह है, जो आरम्भ में सहसा दुःखजनक जान पड़े; परंतु परिणाम में सुख देने वाला हो। ऐसा वचन दयालु और धर्मशील पुरुष ही अपने भाई- बन्धुओं को समझाने के लिये कहता है । तीसरी उत्कृष्ट श्रेणी का वचन वह है जो कानों में पड़ते ही अमृत के समान मधुर प्रतीत हो तथा सर्वदा सुख की प्राप्ति कराने वाला हो। उसमें सारतत्त्व सत्य होता है और उसमें सबका हित होता है । ऐसा वचन सर्वश्रेष्ठ तथा सभी को अभीष्ट होता है ।

गिरिराज ! इस प्रकार नीतिशास्त्र में तीन प्रकार के वचनों का निरूपण किया गया है। अब तुम्हीं कहो इन तीनों में से कौन-सा वचन तुमसे कहूँ ? तुम्हें कैसी बात सुनने की इच्छा है ? देवेश्वर शंकर वास्तव में बाह्य धन-सम्पत्ति से रहित हैं; क्योंकि उनका मन एकमात्र तत्त्वज्ञान के समुद्र में निमग्न रहता है। बाह्य धन-सम्पत्ति आपाततः रमणीय जान पड़ती है; परंतु वह बिजली की चमक की भाँति शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाली है। नित्यानन्दस्वरूप स्वात्माराम परमेश्वर को इस तरह की सम्पत्ति के लिये क्या इच्छा होगी ? गृहस्थ मनुष्य ऐसे पुरुष को अपनी पुत्री देता है, जो राज्य-वैभव से सम्पन्न हो। जिसके स्त्री से द्वेष हो, ऐसे वर को कन्या देने वाला पिता कन्याघाती होता है; परंतु कौन कह सकता है कि भगवान् शंकर दुःखी हैं? क्योंकि धनाध्यक्ष कुबेर भी उनके किङ्कर हैं । जो भगवान् भ्रूभङ्ग की लीलामात्र से सृष्टि का निर्माण एवं संहार करने में समर्थ हैं; जो ईश प्रकृति से परे, निर्गुण, परमात्मा एवं सर्वेश्वर हैं; जो समस्त जन्तुओं से निर्लिप्त और उनमें लिप्त भी हैं; जो अकेले ही समस्त सृष्टि के संहारकर्म तथा सृष्टिकर्म में भी समर्थ हैं एवं सर्वरूप हैं; निराकार, साकार, सर्वव्यापी और स्वेच्छामय हैं; जो ईश्वर स्वयं सृष्टिकार्य का सम्पादन करने के लिये तीन रूप धारण करते हैं तथा सृष्टिकर्ता ‘ब्रह्मा’, पालनकर्ता ‘विष्णु’ एवं संहारकर्ता ‘शिव’ – नाम से प्रसिद्ध होते हैं; जो ‘ब्रह्मा’- रूप से ब्रह्मलोक में, ‘विष्णु’ – रूप से क्षीरसागर में तथा ‘शिव’ – रूप से कैलास में वास करते हैं; वे परब्रह्म परमेश्वर ही ‘श्रीकृष्ण’ कहे गये हैं । ब्रह्मा आदि सब रूप उन्हीं की विभूतियाँ हैं।

श्रीकृष्ण के दो रूप हैं — द्विभुज और चतुर्भुज । चतुर्भुज – रूप से तो वे वैकुण्ठ में निवास करते हैं और स्वयं द्विभुज- रूप से गोलोक में विराजमान हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर उन भगवान् श्रीकृष्ण के अंश हैं। कोई देवता उनकी कला है और कोई कलांश । श्रीकृष्ण ने सृष्टि के लिये उन्मुख होकर स्वयं अपनी प्रकृति (शक्तिस्वरूपा श्रीराधा ) – को प्रकट किया और उनमें अपने तेजोमय वीर्य की स्थापना की। उस गर्भ से एक डिम्ब का प्रादुर्भाव हुआ, जिसके भीतर से महाविराट् (नारायण) प्रकट हुए। उन्हीं को महाविष्णु जानना चाहिये । वे श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं। वे ही जब एकार्णव के जल में शयन करते थे, उस समय उनके नाभिकमल से ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ । सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के भाल-देश से चन्द्रशेखर शंकर प्रकट हुए हैं। महाविष्णु के वामपार्श्व से विष्णु (लघु विराट्) – – का प्राकट्य हुआ । शैलराज ! इस प्रकार प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि प्राकृतिक कहे गये हैं I

श्रीकृष्ण से प्रकट हुई प्रकृति ने मुख्यतः चार प्रकार की मूर्ति धारण की। इसके सिवा सृष्टि- संचालन के लिये लीलापूर्वक अपने अंश और कला द्वारा उन्होंने और भी बहुत से रूप धारण किये। श्रीकृष्ण के वामाङ्ग से प्रकट हुई प्रकृतिदेवी स्वयं तो रासेश्वरी राधा के रूप में प्रतिष्ठित हैं । वे ही स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से प्रकट हो वाणी सरस्वती कहलायीं, जो राग-रागिनियों की अधिष्ठात्री देवी हैं। श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल से प्रकट हुई वे सर्वसम्पत्स्वरूपिणी लक्ष्मी के नाम से प्रसिद्ध हुईं तथा सम्पूर्ण देवताओं के तेज में उन्होंने अपने- आपको ही शिवारूप से अभिव्यक्त किया और समस्त दानवों का वध करके उन्होंने देवताओं को राज्यलक्ष्मी प्रदान की। तत्पश्चात् कल्पान्तर में दक्षपत्नी के गर्भ से जन्म ले वे ही सती नाम से प्रसिद्ध हुईं और शिव की पत्नी बनीं। दक्ष ने स्वयं ही सती को शिव के हाथ में दिया; परंतु पिता के यज्ञ में पति की निन्दा सुनकर सती ने योग से अपने शरीर को त्याग दिया । पितरों की मानसी कन्या मेनका तुम्हारी पत्नी हैं। उनके गर्भ से उन्हीं जगदम्बिका सती ने जन्म ग्रहण किया है।

शैलराज ! यह शिवा जन्म-जन्म में और कल्प-कल्प में शिव की पत्नी रही हैं । यह पराशक्ति जगदम्बा ज्ञानियों की बुद्धिरूपा है। इसे पूर्वजन्म की बातों का स्मरण बना रहता है। यह सर्वज्ञा, सिद्धिदायिनी और सिद्धिरूपिणी है। इसकी अस्थि और चिताभस्म को भगवान् शिव स्वयं भक्तिपूर्वक धारण करते हैं । कल्याणस्वरूप गिरिराज ! तुम स्वेच्छा से अपनी कन्या शिव को दे दो, दे दो। नहीं तो, वह स्वयं अपने प्राणवल्लभ के स्थान को चली जायगी और तुम देखते रह जाओगे । पूर्वजन्म से जो जिसकी पत्नी है, दूसरे जन्म में वह अपने उस प्रियतम को अवश्य पाती है। प्रजापति के इस नियम का कोई भी खण्डन नहीं कर सकता । भगवान् शिव स्वात्माराम और तत्त्वज्ञ हैं; अतः विवाह के लिये उत्सुक नहीं हैं। तारकासुर से पीड़ित हुए समस्त देवताओं ने इसके लिये उनका स्तवन किया है। देवताओं की पीड़ा देखकर ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर कृपालु भगवान् शिव ने कृपापूर्वक उनके इस अनुरोध को स्वीकार किया है । विवाह की प्रतिज्ञा करके योगीन्द्र शिव ने जब शिवा को असंख्य क्लेश उठाते देखा, तब तुम्हारी पुत्री की तपस्या स्थान में वे स्वयं ब्राह्मण का रूप धारण करके आये और उसे आश्वासन तथा वर देकर पुनः अपने स्थान को लौट गये ।

गिरिराज ! इस समाचार को सुनकर ही इन्द्र आदि सब देवता प्रसन्नतापूर्वक यहाँ आये थे। भगवान् नारायण, ब्रह्मा, धर्म, ऋषि-मुनि, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस सब इस समय एक स्थान पर मिले और इस विषय पर सबने अच्छी तरह विचार किया। उन्हीं लोगों ने हमें शीघ्र यहाँ भेजा है। देवी अरुन्धती अपने कर्तव्य का पालन करके उऋण हो चुकी हैं। तुम्हें समझाने में हमें सदा ही अधिक प्रसन्नता होती है; तुम्हारे सामने शिवा के विवाह का शुभ कार्य प्राप्त है, जो सब काल में सुख देनेवाला है। शैलेन्द्र ! यदि स्वेच्छापूर्वक शिवा का विवाह शिव के साथ नहीं करोगे तो भी वह होकर ही रहेगा; क्योंकि भवितव्यता (होनहार ) प्रबल होती है। वे महादेवजी रत्नसारनिर्मित रथपर योगीन्द्रों में श्रेष्ठ, ज्ञानियों के गुरु के भी गुरु, आदि- मध्य और अन्त से रहित, निर्विकार एवं अजन्मा परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण को बिठाकर यहाँ विवाह के लिये पधारेंगे। नारायण को साथ ले तपस्या के स्थान में शिव ने शिवा को वर दिया है । ईश्वर की दुर्लभ प्रतिज्ञा कभी विफल नहीं हो सकती । ब्रह्मा से लेकर कीट पर्यन्त सारा जगत् नश्वर और अस्थिर है; परंतु साधु पुरुषों की प्रतिज्ञा दुर्लङ्घय और अमिट होती है ।

हिमालय ! एक ही इन्द्र ने लीलापूर्वक समस्त पर्वतों के पंख काट डाले। पवनदेव ने खेल-खेल में ही मेरु पर्वत के एक शिखर को भंग कर दिया। अतः तुम्हीं बताओ पर्वतों में कौन-से ऐसे हैं, जो देवताओं से युद्ध कर सकें। पवन से प्रेरित हो समस्त पर्वत एक ही क्षण में समुद्रों के भीतर जा गिरेंगे। शैलेन्द्र ! यदि एक के लिये सारी सम्पत्ति का विनाश हो रहा हो तो उस एक को देकर शेष सबकी रक्षा कर लेनी चाहिये; परंतु यह नियम शरणागत के लिये लागू नहीं है । शरणागत की रक्षा के लिये तो अपने प्राणों का परित्याग कर देना भी उचित है । फिर स्त्री, पुत्र, धन आदि अन्य सब वस्तुओं की तो बात ही क्या है ? ऐसा नीतिवेत्ताओं का मत है।

महाराज अनरण्य ब्राह्मण को अपनी पुत्री देकर शाप से मुक्त हुए और अपनी समस्त सम्पदाओं की रक्षा कर सके। अनरण्य ब्राह्मणों के हितकारी थे; परंतु उन्हीं के शाप में डूबकर अत्यन्त कातर हो गये थे। उस समय नीतिशास्त्र के विद्वानों ने उन्हें शीघ्र ही कर्तव्य का बोध कराया और उसको पालन करके वे संकट से मुक्त हुए। शैलेन्द्र ! तुम भी शिव को अपनी पुत्री देकर समस्त बन्धुजनों की रक्षा करो और देवताओं को भी अधीन बना लो ।

वसिष्ठजी की बात सुनकर पर्वतेश्वर हँसे; उन्होंने व्यथित हृदय से राजा अनरण्य का वृत्तान्त पूछा।

हिमालय बोले — ब्रह्मन् ! राजाधिराज अनरण्य किस कुल में उत्पन्न हुए थे और उन्होंने किस प्रकार अपनी पुत्री देकर समस्त सम्पदाओं की रक्षा की थी ?

वसिष्ठजी ने कहा — शैलराज ! नृपेश्वर अनरण्य मनुवंशी राजा थे । वे चिरंजीवी, धर्मात्मा, वैष्णव तथा जितेन्द्रिय थे। पहले मनु का नाम स्वायम्भुव है, जो ब्रह्माजी के पुत्र और अत्यन्त धर्मात्मा थे। उन्होंने इकहत्तर चतुर्युग तक धर्मपूर्वक राज्य किया था। तदनन्तर वे शतरूपा के साथ वैकुण्ठधाम में चले गये और श्रीहरि का दास्य एवं सामीप्य पाकर उनके दास हो गये। तत्पश्चात् स्वारोचिष मनु हुए, जो एक महान् पुरुष थे। उनका काल व्यतीत हो जाने पर उत्तम मनु का राज्य आया । उत्तम के भी चले जाने पर धर्मात्मा तामस मनु के पद पर प्रतिष्ठित हुए । उनके बाद ज्ञानिशिरोमणि रैवत का मन्वन्तर आया। तत्पश्चात् छठे चाक्षुष मनु और सातवें श्राद्धदेव मनु उस पद के अधिकारी हुए हैं। आठवें मनु का नाम सावर्णि समझना चाहिये, जो सूर्य के ज्येष्ठ पुत्र हैं। वे ही पूर्वजन्म में भूतल पर चैत्रवंशी राजा सुरथ के नाम से प्रसिद्ध थे । नवें मनु का नाम दक्षसावर्णि और दसवें का ब्रह्मसावर्णि है । ग्यारहवें श्रेष्ठ मनु को धर्मसावर्णि कहते हैं । तत्पश्चात् रुद्रसावर्णि का मन्वन्तर आता है । रुद्रसावर्णि भगवान् शिव के भक्त और जितेन्द्रिय थे। उनके बाद क्रमशः देवसावर्णि और इन्द्रसावर्णि तेरहवें तथा चौदहवें मन्वन्तरों के अधिकारी हुए हैं। भैया ! इस प्रकार मैंने तुम्हें चौदह मनुओं का परिचय दिया। इन सबके व्यतीत हो जाने पर ब्रह्माजी का एक दिन पूरा होता है। अब तुम इन्द्रसावर्णि का सारा वृत्तान्त मुझसे सुनो।

इन्द्रसावर्णि सब मनुओं में श्रेष्ठ, धर्मात्मा तथा गदाधारी भगवान् विष्णु के अनन्य भक्त थे । उन्होंने इकहत्तर युगों तक धर्मपूर्वक राज्य किया । इसके बाद वे अपने पुत्र सुरेन्द्र को राज्य देकर तपस्या के लिये वन में चले गये । सुरेन्द्र का पुत्र महाबली श्रीमान् श्रीनिकेत हुआ । उसका पुत्र महायोगी पुरीषतरु और उसका पुत्र अत्यन्त तेजस्वी गोकामुख हुआ । गोकामुख के वृद्धश्रवा, वृद्धश्रवा के भानु, भानु के पुण्डरीक, पुण्डरीक के जिह्वल, जिह्वल के शृङ्गी, शृङ्गी के भीम और भीम के पुत्र यशश्चन्द्र हुए; जिन्होंने अपने यश से चन्द्रमा को जीत लिया था। संतपुरुष तथा देवता लोग सदा ही उनकी निर्मल कीर्ति का गान करते हैं। उनका पुत्र वरेण्य और वरेण्य का पुत्र पुरारण्य हुआ। पुरारण्य के धार्मिक पुत्र का नाम धरारण्य था । धरारण्य के पुत्र मङ्गलारण्य हुए, जो ज्ञानियों में श्रेष्ठ और तपस्वी थे। नृपश्रेष्ठ मङ्गलारण्य के कोई पुत्र नहीं था; अतः वे तपस्या के लिये पुष्कर में गये । वहाँ दीर्घकाल तक तप करके महेश्वर से वर पाकर वे घर आये । वहाँ उन्हें अनरण्य नामक पुत्र प्राप्त हुआ, जो भगवान् विष्णु का भक्त और जितेन्द्रिय था । उस पुत्र को राज्य देकर मङ्गलारण्य तपस्या के लिये वन में चले गये। नृपश्रेष्ठ अनरण्य सातों द्वीपों से युक्त पृथ्वी का पालन करने लगे; उन्होंने भृगुजी को पुरोहित बनाकर सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया; परंतु इन्द्रपद को नश्वर और अत्यन्त तुच्छ मानकर उन्होंने उसे ग्रहण नहीं किया। उन शुद्धबुद्धि वाले नरेश ने अपने प्रज्वलित तेज से इन्द्र, बलि तथा समस्त दानवेन्द्रों को लीलापूर्वक जीत लिया ।

हिमालय ! उन महाराज के सौ पुत्र और एक सुन्दरी कन्या हुई, जो लक्ष्मी के समान लावण्यमयी थी । उसका नाम पद्मा रखा गया था। वह पिता के घर में रहकर धीरे-धीरे युवावस्था में प्रविष्ट हुई। तब महाराज ने वर की खोज के लिये दूत भेजा । एक दिन अपने आश्रम को जाने के लिये उत्सुक हुए पिप्पलाद मुनि ने तपस्या के निर्जन स्थान में एक गन्धर्व को देखा, जो स्त्रियों से घिरा था । उसका चित्त शृङ्गाररस के समुद्र में डूबा हुआ था । काम से अत्यन्त मतवाले हुए उस गन्धर्व को दिन-रात का भान नहीं होता था । उसे देखकर मुनिवर पिप्पलाद के मन में कामभाव का उदय हुआ । । उनका चित्त तपस्या से विचलित हो गया और वे पत्नी-प्राप्ति का उपाय सोचने लगे। एक दिन पुष्पभद्रा नदी में स्नान के लिये जाते हुए मुनीश्वर पिप्पलाद ने युवती पद्मा को देखा, जो पद्म (लक्ष्मी) – के समान मनोरम जान पड़ती थी ।

मुनि ने आसपास खड़े हुए लोगों से पूछा धरारण्य — ‘यह कन्या कौन है ?’

लोगों ने बताया — ‘ये महाराज अनरण्य की पुत्री हैं।’

मुनि ने स्नान करके अपने इष्टदेव राधावल्लभ का पूजन किया और कामनापूर्वक भिक्षा माँगने के लिये वे अनरण्य की सभा में गये । मुनि को आया देख राजा ने शीघ्र ही उनके चरणों में प्रणाम किया और भय से व्याकुल हो मधुपर्क आदि देकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की।

वह सब कुछ ग्रहण करके मुनि ने कामनापूर्वक राजकन्या को माँगा । उनकी याचना सुनकर राजा चुप हो गये। उनसे कुछ भी उत्तर देते नहीं बना । मुनि ने फिर याचना की। नरेश्वर ! अपनी कन्या मुझे दीजिये; अन्यथा मैं एक ही क्षण में सबको भस्म कर डालूँगा । मुनि के तेज से राजा के समस्त सेवक आच्छन्न हो गये। मुनि को वृद्ध और जरा- जीर्ण हुआ देख भृत्यगणों सहित राजा रोने लगे । सब रानियाँ भी रोदन करने लगीं। इस समय क्या करना चाहिये, इसका निर्णय करने की शक्ति किसी में नहीं रह गयी । कन्या की माता महारानी शोक से व्याकुल हो मूर्च्छित हो गयीं।

तब नीतिशास्त्र के ज्ञाता राजपण्डित ने राजा, रानी, राजकुमारों और कन्या को उत्तम नीति का उपदेश देते हुए कहा — ‘नरेश्वर ! आज या दूसरे दिन आप अपनी कन्या किसी-न-किसी को देंगे ही। इस ब्राह्मण को छोड़कर और किसको आप कन्या देना उचित समझते हैं? मैं तो तीनों लोकों में इस ब्राह्मण के सिवा दूसरे किसी को कन्यादान का उत्तम पात्र नहीं देखता हूँ। आप मुनि को अपनी पुत्री देकर समस्त सम्पदाओं की रक्षा कीजिये; अन्यथा राजकन्या के कारण सारी सम्पत्ति नष्ट हो जायगी । शरणागत के सिवा दूसरे किसी भी एक मनुष्य का त्याग करके सर्वस्व की रक्षा की जा सकती है ।’

पण्डितजी की बात सुनकर राजा ने बारंबार विलाप के पश्चात् राजकन्या को वस्त्राभूषणों से अलंकृत करके मुनीन्द्र के हाथ में दे दिया । प्राणवल्लभा को पाकर मुनि प्रसन्नतापूर्वक अपने आश्रम को लौट गये। राजा भी शोक के कारण सबका त्याग करके तपस्या के लिये चले गये। पति और पुत्री के शोक से सुन्दरी महारानी ने अपने प्राणों को त्याग दिया । राजा के बिना उनके पुत्र, पौत्र और भृत्यगण शोक से अचेत हो गये । राजा अनरण्य गोलोकनाथ राधावल्लभ का चिन्तन और सेवन करते हुए तप करके गोलोकधाम को चले गये । उनका ज्येष्ठ पुत्र कीर्तिमान् राजा हुआ। वह भूतल पर समस्त प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करने लगा ।     (अध्याय ४१ )
1. जो वर के लिये योग्य कन्या और कन्या के लिये योग्य वर का पता देकर उन दोनों में सगाई या वैवाहिक सम्बन्ध पक्का कराते हैं, उन्हें ‘घटक‘ कहते हैं। उनकी वृत्ति ही घटक या घाटिका-वृत्ति है ।
2. निन्दापक्ष में अज्ञातमृत्यु का अर्थ है, जिसकी मृत्यु का किसी को ज्ञान नहीं है अर्थात् जन्मकुण्डली आदि न होने से जिनकी आयु का पता लगाना असम्भव है। कन्या उसको दी जाती है, जिसके दीर्घायु होने का निश्चय कर लिया गया हो । स्तुति पक्ष में – जिन्हें मृत्यु का कभी अनुभव नहीं हुआ अर्थात् जो अमर एवं मृत्युञ्जय है ।
3. निन्दापक्ष में ‘अज्ञ’ पदच्छेद है और स्तुतिपक्ष में ‘ज्ञ’ ।
4. निन्दापक्ष में अनाथ का अर्थ असहाय है और स्तुति पक्ष में जो नाथरहित है— स्वयं ही सबके नाथ हैं।
5. अबन्धु – बन्धुहीन, बेसहारा अथवा अद्वितीय ।

6. नानुरूपाय पुत्राय पिता कन्या ददाति चेत् ।
कालाल्लोभाद्भयान्मोहाच्छताब्दं नरकं व्रजेत् ॥ ५० ॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे राधाकृष्णसंवादे एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

See Also:-

1. शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 33

2. शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [तृतीय-पार्वतीखण्ड] – अध्याय 34

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