February 27, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 44 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ चौंवालीसवाँ अध्याय पार्वती के विवाह की तैयारी, हिमवान् के द्वार पर दूलह शिव के साथ बारात में विष्णु आदि देवताओं का आगमन, हिमालय द्वारा उनका सत्कार, वर को देखने के लिये स्त्रियों का आगमन, वर के अलौकिक रूप-सौन्दर्य को देख मेना का प्रसन्न होना, स्त्रियों द्वारा दुर्गा के सौभाग्य की सराहना, दुर्गा का रूप, दम्पति का एक- दूसरे की ओर देखना, गिरिराज द्वारा दहेज के साथ शिव के हाथ में कन्या का दान तथा शिव का स्तवन भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — वसिष्ठजी के पूर्वोक्त वचन को सुनकर सेवकगणों तथा पत्नीसहित हिमालय को बड़ा विस्मय हुआ; किंतु स्वयं पार्वती मन-ही-मन हँस रही थी । अरुन्धती ने भी उन मेनादेवी को, जो शोक से कातर हो खाना-पीना छोड़कर रो रही थीं; समझाया । तब उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक शोक का त्याग कर दिया तथा अरुन्धती को उत्तम भोजन कराकर स्वयं भी भोजन किया। इसके बाद वे प्रसन्न-चित्त से समस्त मङ्गल कार्यों का सम्पादन करने लगीं। प्रिये ! तदनन्तर वसिष्ठजी की आज्ञा से हिमालय ने वैवाहिक सामग्री एकत्रित की और बड़ी उतावली के साथ विभिन्न स्थानों में निमन्त्रणपत्र भेजवाया। तत्पश्चात् उन्होंने शिव के पास मङ्गलपत्रिका पठवायी। इसके बाद शैलराज ने विवाह के लिये भोज्य-पदार्थ, मिष्टान्न, दिव्य वस्त्र तथा स्वर्ण-रत्न आदि का अपार संग्रह किया। पार्वती को स्नान करवाकर वस्त्राभूषणों से अलंकृत किया गया। उसके नेत्रों में काजल और पैरों में महावर लगाया गया। इधर देवेश्वरगण विविध वाहनों पर सवार हो रत्नमय रथ पर आरूढ़ हुए भगवान् शंकर को साथ लिये हिमालय-भवन के समीप पहुँचे। वहाँ भाँति- भाँति से सबका स्वागत-सत्कार किया गया। देवेश्वरों को सामने देख हिमालय ने उन्हें प्रणाम किया और सेवकों को आज्ञा दी कि ‘इन सम्माननीय अतिथियों के लिये सिंहासन प्रस्तुत किये जायँ।’ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तत्पश्चात् विनतानन्दन गरुड़ की पीठ से तत्काल ही उतरकर चार भुजाधारी भगवान् नारायण अपने पार्षदों सहित सिंहासन पर बैठे । रत्नमय आभूषणों से विभूषित चतुर्भुज पार्षद रत्नमयी मुट्ठी में बँधे हुए श्वेत चामरों द्वारा उनकी सेवा कर रहे थे। उस समाज में श्रेष्ठतम ऋषि और बड़े-बड़े देवता उनके गुण गा रहे थे। भगवान् का प्रसन्नमुख मन्द मुस्कान से सुशोभित था और वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये कातर जान पड़ते थे। उनके पास ही देवताओंके साथ ब्रह्माजी भी बैठे। ऋषि और मुनि भी मङ्गलमय स्थानपर विराजमान हुए । इसी समय भगवान् शिव रथसे उतरकर रत्नमय सिंहासन पर बैठे । बैठकर उन्होंने पर्वतराज हिमालय की ओर देखा । तत्पश्चात् भगवान् शिव को देखने के लिये वस्त्राभूषणों से विभूषित हो शैलेन्द्र-नगर की स्त्रियाँ आयीं। उनमें बालिकाएँ, युवतियाँ और वृद्धाएँ भी थीं। ऋषियों, देवों, नागों, गन्धर्वों, पर्वतों और राजाओं की भी मनोहर कन्याएँ वहाँ आ पहुँचीं। मेना ने कुमारी कन्याओं के साथ दूलह शंकर का दर्शन किया। उनके श्रीअङ्गों की कान्ति मनोहर चम्पा के समान गौर थी। वे एक मुख तथा तीन नेत्रों से सुशोभित थे। उनके प्रसन्न – मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे। उनके अङ्ग चन्दन, अगुरु, कस्तूरी तथा सुन्दर कुंकुम से अलंकृत थे। उन्होंने मालती की माला धारण कर रखी थी। उनका मस्तक श्रेष्ठ रत्नमय मुकुट से प्रकाशमान था। अग्निशोधित, अनुपम, अत्यन्त सूक्ष्म, सुन्दर, विचित्र और बहुमूल्य दो वस्त्रों से उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। उन्होंने हाथ में रत्नमय दर्पण ले रखा था । अञ्जन से अञ्जित होने के कारण उनके नेत्रों की शोभा बढ़ गयी थी । पूर्ण प्रभा से आच्छादित होने के कारण वे अत्यन्त मनोहर दिखायी देते थे। उनकी अवस्था अत्यन्त तरुण (नवीन) थी। वे भूषणभूषित रमणीय अङ्गों से बड़ी शोभा पा रहे थे। उस समय उन्होंने भगवान् नारायण की आज्ञा से परम सुन्दर अनुपम रूप धारण कर रखा था । भगवान् शंकर योगस्वरूप, योगेश्वर, योगीन्द्रों के गुरु के भी गुरु, स्वतन्त्र, गुणातीत तथा सनातन ब्रह्मज्योति हैं। वे गुणों के भेद से अनन्त भिन्न- भिन्न रूप धारण करते हैं, तथापि रूपरहित हैं। भवसागर में डूबे हुए प्राणियों का उद्धार करने वाले हैं तथा जगत् की सृष्टि, पालन एवं संहार के कारण हैं। वे सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वेश्वर, सर्वजीवन तथा सबके साक्षी हैं । उनमें किसी प्रकार की इच्छा या चेष्टा नहीं है । वे परमानन्दस्वरूप, अविनाशी, आदि, अन्त और मध्य से रहित, सबके आदिकारण तथा सर्वरूप हैं। ऐसे दिव्य जामाता को देखकर आनन्दमग्न हुई मेना ने शोक को त्याग दिया। ‘सती धन्य है, धन्य है’- कहकर वहाँ आयी हुई युवतियों ने पार्वती के सौभाग्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। कुछ कन्याएँ कहने लगीं – ‘अहो ! दुर्गा बड़ी भाग्यशालिनी है ।’ कुछ कामिनियाँ कामभाव से युक्त हो मौन एवं स्तब्ध रह गयीं और कितनी ही बोल उठीं- ‘अरी सखी! हमने अपने जीवन में ऐसा वर कभी नहीं देखा था । ‘ बाजे बजाने वालों ने भाँति-भाँति की कलाएँ दिखाते हुए वहाँ अनेक प्रकार के सुन्दर और मधुर वाद्य बजाये । इसी समय हिमवान् के अन्तःपुर की परिचारिकाएँ दुर्गा को बाहर ले आयीं। वह रत्नमय सिंहासन पर बैठी थी । उसके सामने रत्नमयी वेदी शोभा पा रही थी । उसके मुख-मण्डल का कस्तूरी तथा स्निग्ध सिन्दूर के बिन्दुओं से शृङ्गार किया गया था। चारु चन्दन से चर्चित चन्द्रसदृश आभा वाले आनम्र भालदेश से उसकी बड़ी शोभा हो रही थी । श्रेष्ठ रत्नों के सार से निर्मित हार उसके वक्षःस्थल की शोभा बढ़ा रहा था। वह त्रिलोचन शिव की ओर कनखियों से देख रही थी। उनके सिवा और कहीं उसकी दृष्टि नहीं जाती थी। उसके मुख पर अत्यन्त मन्द मुस्कान की आभा बिखरी हुई थी। वह कटाक्षपूर्वक देखने के कारण बड़ी मनोहर जान पड़ती थी । उसकी भुजाएँ और हाथ रत्ननिर्मित केयूर, कड़े तथा कंगन से विभूषित थे। उसके कटिप्रदेश में रत्नों की बनी हुई करधनी शोभा दे रही थी । झनकारते हुए मञ्जीर चरणों का सौन्दर्य बढ़ाते थे। वह बहुमूल्य, तुलना रहित, विचित्र एवं कीमती दो वस्त्रों से सुशोभित थी । उसके सुन्दर कपोल श्रेष्ठ रत्नमय कुण्डलों से जगमगा रहे थे । दन्तपङ्गि मणि के सारभाग की प्रभा को छीने लेती थी। वह एक हाथ में रत्नमय दर्पण लिये हुए थी और दूसरे में क्रीडाकमल लेकर घुमा रही थी। उसके अङ्ग चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से चर्चित थे। ऐसी अलौकिक रूप वाली जगत् की आदिकारणभूता जगदम्बा को सब लोगों ने प्रसन्नता के साथ देखा । हर्ष से युक्त भगवान् त्रिलोचन ने भी नेत्र के कोने से पार्वती की ओर देखा । देखकर वे आनन्द-विभोर हो उठे। उसकी सम्पूर्ण आकृति सती से सर्वथा मिलती-जुलती थी । उसे देखकर भगवान् शंकर ने विरह- ज्वरका परित्याग कर दिया। उन्होंने अपना मन दुर्गा को अर्पित कर दिया और स्वयं सब कुछ भूल गये । उनके सारे अङ्ग पुलकित हो गये तथा नेत्रों में आनन्द के आँसू छलक आये । इसी समय हर्ष से भरे हुए हिमवान् ने पुरोहित के साथ जाकर वस्त्र, चन्दन और आभूषणों द्वारा उनका वर के रूप में वरण किया । भक्तिभाव से पाद्य आदि उपचार अर्पित किये तथा दिव्य गन्धवाली मनोहर मालाओं से दूलह को अलंकृत किया। तत्पश्चात् यथासम्भव शीघ्र वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक उनके हाथ में अपनी कन्या का दान कर दिया। राधिके ! तदनन्तर हर्ष से भरे हुए हिमालय ने उदारतापूर्वक दहेज में उन्हें अनेक प्रकार के रत्न, सुन्दर रत्नों के बने हुए मनोहर पात्र, एक लाख गौ, रत्नजटित झूल और अंकुश से युक्त एक सहस्र गजराज, सजे-सजाये तीन लाख घोड़े, श्रेष्ठ रत्नों से अलंकृत लाखों अनुरक्त दासियाँ, पार्वती के लिये छोटे भाई के समान प्रिय एक सौ ब्राह्मण वटु और श्रेष्ठ रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित सौ रमणीय रथ दिये । पूर्वोक्त वस्तुओं के साथ शैलराज द्वारा यत्नपूर्वक दी हुई पार्वती को भगवान् शंकर ने प्रसन्न-मन से ‘स्वस्ति’ कहकर ग्रहण किया। हिमालय ने कन्यादान करके भगवान् शंकर की परिहार नामक स्तुति की। उन्होंने दोनों हाथ जोड़ माध्यन्दिन – शाखा में वर्णित स्तोत्र को पढ़ते हुए उनका स्तवन किया । ॥ शिव परिहार स्तुति स्तोत्रम् ॥ ॥ हिमालय उवाच ॥ प्रसीद दक्षयज्ञघ्न नरकार्णवतारक । सर्वात्मरूप सर्वेश परमानंदविग्रह ॥ ६३ ॥ गुणार्णव गुणातीत गुणयुक्त गणेश्वर । गुणबीज महाभाग प्रसीद गुणिनां वर ॥ ६४ ॥ योगाधार योगरूप योगज्ञ योगकारण । योगीश योगिनां बीज प्रसीद योगिनां गुरो ॥ ६५ ॥ प्रलयप्रलयाद्यैकभवप्रलयकारण । प्रलयान्ते सृष्टिबीज प्रसीद परिपालक ॥ ६६ ॥ संहारकाले घोरे च सृष्टिसंहारकारण । दुर्निवार्य दुराराध्य चाशुतोष प्रसीद मे ॥ ६७ ॥ कालस्वरूप कालेश काले च फलदायक । कालबीजैककालघ्न प्रसीद कालपालक ॥ ६८ ॥ शिवस्वरूप शिवद शिवबीज शिवाश्रय । शिवभूत शिवप्राण प्रसीद परमाश्रय ॥ ६९ ॥ इत्येवं स्तवनं कृत्वा विरराम हिमालयः । प्रशशंसुः सुराः सर्वे मुनयश्च गिरीश्वरम् ॥ ७० ॥ हिमालयकृतं स्तोत्रं संयतो यः पठेन्नरः । प्रददाति शिवस्तस्मै वाञ्छितं राधिके ध्रुवम् ॥ ७१ ॥ हिमालय बोले — सर्वेश्वर शिव ! आप दक्ष-यज्ञ का विध्वंस करने वाले तथा शरणागतों को नरक के समुद्र से उबारने वाले हैं, सबके आत्मस्वरूप हैं और आपका श्रीविग्रह परमानन्दमय है; आप मुझपर प्रसन्न हों; गुणवानों में श्रेष्ठ महाभाग शंकर ! आप गुणों के सागर होते हुए भी गुणातीत हैं; गुणों से युक्त, गुणों के स्वामी और गुणों के आदि कारण हैं; मेरे ऊपर प्रसन्न होइये । प्रभो ! आप योग के आश्रय, योगरूप, योग के ज्ञाता, योग के कारण, योगीश्वर तथा योगियों के आदिकारण और गुरु हैं; आप मेरे ऊपर कृपा करें। भव ! आपमें ही सब प्राणियों का लय होता है, इसलिये आप ‘प्रलय’ हैं । प्रलय के एकमात्र आदि तथा उसके कारण हैं । फिर प्रलय के अन्त में सृष्टि के बीजरूप हैं; मुझ पर प्रसन्न होवें । भयंकर संहार- काल में सृष्टि का संहार करने वाले आप ही हैं । आपके वेग को रोकना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन हैं और उस सृष्टि का पूर्णतः परिपालन करने वाले है । आराधना द्वारा आपको रिझा लेना भी सहज नहीं है तथापि आप भक्तों पर शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं; प्रभो! आप मुझ पर कृपा करें। आप कालस्वरूप, काल के स्वामी, कालानुसार फल देने वाले, काल के एकमात्र आदिकारण तथा काल के नाशक एवं पोषक हैं; मुझ पर प्रसन्न हों। आप कल्याणकी मूर्ति, कल्याणदाता तथा कल्याण के बीज और आश्रय हैं। आप ही कल्याणमय तथा कल्याणस्वरूप प्राण हैं; सबके परम आश्रय शिव ! मुझ पर कृपा करें। इस प्रकार स्तुति कर हिमालय चुप हो गये, उस समय समस्त देवताओं और मुनियों ने गिरिराज के सौभाग्य की सराहना की । राधिके ! जो मनुष्य सावधान-चित्त होकर हिमालय द्वारा किये गये स्तोत्र का पाठ करता है, उसके लिये शिव निश्चय ही मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान करते हैं । (अध्याय ४४) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे पार्वतीसंप्रदाने चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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