ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 46
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
छियालीसवाँ अध्याय
पार्वती और शंकर का विलास

राधिका बोलीं — प्रभो ! अतिचिरकाल से मृतक तथा शिव के द्वारा जीवित किये गये अपने प्रियतम (काम) को पुन: पाकर हर्षान्वित रति ने क्या किया ? । स्त्रियों को अपने पति से विच्छेद होना मरण से भी अत्यन्त दुःखदायी होता है और पुनः पति का मिलाप हो जाना परम दुर्लभ सुख देता है । शिव ने संगात्मक मङ्गल कर्म में सती को पुनः प्राप्त करके चिरकाल के विरह से रहित तथा हर्षं से युक्त होकर क्या किया ? । पुरुषों के लिए स्त्री-वियोग महान् दुःखप्रद होता है और उसका पुनः मिल जाना प्राणदान से भी अधिक सुखदायी । रति चिरकाल से पुरुष वियोगिनी थी और शिव को स्त्री-वियोग था, उन दोनों को अपने-अपने अभीष्ट की प्राप्ति हो गयी । तब दोनों ने कौन सुखानुभव किया, इसे सुनने का मुझे महान् कौतूहल हो रहा है । आप विद्वानों में श्रेष्ठ हैं, इसलिए प्रभो ! विस्तारपूर्वक कहने की कृपा करें । (क्योंकि) पार्वती और शिव का तथा रति और कामदेव का पुनः मिलन सुनने वालों के लिए शोकनाशक एवं समस्त मङ्गलों का कारण हैं ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारायण बोले — इतना कहकर मुसकराती हुई राधिका देवी चुप हो गयीं। उनकी बात सुनकर मुसकराहट के साथ श्रीकृष्ण ने उनसे कहा ।

श्रीकृष्ण बोले — कामपीड़ित रति ने अपने मृतक पति काम को पुनः पाकर शिव के विवाह गृह से अपने घर ले आयी । घर पहुँचकर रमण के लिए उत्सुक उस रति ने अपनी सखियों के द्वारा यत्नपूर्वक पति का सुन्दर वेश बनवाया । कामशास्त्र के रचयिता काम ने उसका भाव समझकर उसके ( साथ रत्न के) रथ पर चढ़कर अपने घर से वन में चला गया, प्रत्येक अतिरमणीय पर्वत, नदी, नद, द्वीप, समुद्र तट, मनोहर पुष्पोद्यान, स्वर्णिम भूमि ( सोने की खान), अत्यन्त निर्जन वटवृक्ष के मूल, नदी-तट की रेतीली भूमि और खिले हुए फूलों के वन में, जहां भोरों की गुंजार ओर कोयलों की कूक सुनायी पड़ती थी एवं ऐसे स्थान में जहाँ जल की फुहार को सुगन्धित वायु बिखेरता था, रति ने विविध कलाओं से रमण किया, जिसे देखकर सचेतन स्त्रियों का चित्त हरण हो गया, वे आश्चर्यचकित हो गयीं । दिव्य सौ वर्षों तक काम ने रति के साथ रमण किया । उसमें उसे दिन-रात का कुछ भी ज्ञान नहीं था । दोनों रति-शास्त्र के विशेषज्ञ थे । इससे दोनों आनन्दमग्न होकर सुरत व्यापार में ही निरन्तर लगे रहे. उन्हें रति-विराग कभी हुआ ही नहीं । उस रति ने अपना पति-वियोग-संताप त्याग दिया । अपहृत ( खोये हुए ) रत्न को पाकर कौन उसे क्षणमात्र भी त्याग सकता है ?  राधिके ! इस प्रकार मैंने रति का सन्ताप- कारण तुम्हें सुना दिया ।

अब हर गौरी का अनुपम शृंगार-रमण सुनो, जो सुननेवालों के कानों के लिए अमृत के समान, परम आश्चर्यमय, अभीष्ट, समस्त संतापहारी, सुखदायक, पुण्य प्रदायक एवं शुभ है । ससुर के घर में पार्वती समेत निवास करते हुए शिव ने उनकी आज्ञा प्राप्त करके क्रीड़ा करने के लिए रत्नों के सारभाग के उपकरणों से युक्त, उत्तम रत्नों से जटित एवं विश्वकर्मा द्वारा रचित रत्नों के रथ पर चढ़कर वन को प्रस्थान किया । शतश्वङ्ग (सौ शिखरवाले) पर्वत एवं सुवसन, मलय, गन्धमादन, नन्दन, पुष्पभद्र, पारिभद्र, भद्रक, पुलिन्द, कलिन्द, पुंड्र, पिण्डारक और अंधक नामक प्रदेशों तथा अत्यन्त रमणीय वनों में और सागर तटों पर, अस्ताचल के निकट वृक्ष के मनोहर मूल भाग में जहाँ सती को त्यागकर उन्होंने करुणालाप किया था, विभिन्न स्थानों में और पशु-पक्षी से रहित एकान्त स्थान में मनोरथानुसार यात्रा करके उन्होंने शिवा के साथ रमण किया । पुन: शिव ने प्रसन्न होकर सती को उन सब स्थानों को दिखाया, जहाँ-जहाँ वे उनका पूर्वकालीन शव लिये भ्रमण कर चुके थे ।

अति चिरकाल तक विहार करने पर जब भी उन दोनों के मन नहीं भरे तब जगत्पिता ने एक सहस्र वर्षों तक महाविहार किया । माया से परे तथा मायाधीश अपनी माया से माया में आसक्त हो गये । सुख से काल के बनाने वाले योगी को काल का ज्ञान नहीं हुआ । वहाँ परस्पर विरह से उत्पन्न सम्पूर्ण संताप को त्यागते हुए शक्ति और शक्तिमान् को कुछ परिश्रम भी नहीं हुआ । उन दोनों का मन सुख में आसक्त था; शरीर में रोमाञ्च हो आया था; वे फूलों की शय्या पर लेटे हुए काम-बाण से मूर्च्छित हो रहे थे;  रतिशास्त्र की विधि को जानने वाले वे दोनों नखों और दांतों के प्रहार से क्षत-विक्षत शरीर हो गये थे; चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और सिन्दूर के बिन्दु पुत गये थे; बालों का जूड़ा खुल गया था और माला टूट गयी थी । हे सुन्दरि ! वस्त्रों, नूपुरों, कंगनों, कड़ों और कुण्डलों के शब्दों से क्रीड़ा करते हुए, पुष्पशय्या को कुचलते हुए, अत्यन्त हाँफते हुए, तेज, क्रीड़ा और कौतुक में समान होते हुए तथा विश्व का भरण करनेवाले दोनों के भार से पृथ्वी दब गयी । वह विदीर्ण होकर पर्वत, वन तथा समुद्र समेत काँपने लगी ।

उन दोनों के अतिशय भार से आक्रान्त पृथ्वी के भार से शेषनाग भाराक्रान्त हो गया । उसके भार से कच्छप पीड़ित हो उठा । कच्छप के भार से ही सबके आधार वायु अत्यन्त विकल हो गये, जिससे सबके प्राण स्तम्भित हो गये । प्राणों के स्तम्भित हो जाने पर सब भय से व्याकुल हो गये । ब्रह्मा आदि सभी देवता विष्णु की शरण में पहुँचे । नारायण के चरण कमल में समस्त वृत्तान्त निवेदन किया । तब भगवान् नारायण ने ब्रह्मा से कहा ।

नारायण बोले — ब्रह्मन् ! उनके विहार भङ्ग करने का समय अभी नहीं प्राप्त हैं । काल-प्रयुक्त कार्य उचित समय पर ही सिद्ध होता है । पूरे एक सहस्र वर्ष के उपरान्त वे स्वेच्छा से विरत हो जायेंगे । अभी शिव को रमण ही प्रिय है । इससे कोई भी उन्हें अलग करने में समर्थ नहीं हो सकता है । जो उपाय द्वारा स्त्री-पुरुष का रति भङ्ग करता है, उसे प्रत्येक जन्म में पति-पत्नी वियोग प्राप्त होता है । अनन्तर वह. पातकी एक लाख वर्षों तक कालसूत्र नामक नरक में पड़ा रहता है और इस लोक में आजीवन ज्ञानभ्रष्ट, नष्टकीर्ति होकर दरिद्र होता है।

रम्भा इन्द्र की रति को महामुनि दुर्वासा ने भङ्ग किया था, जिससे उन्हें स्त्री-विरह प्राप्त हुआ था । पुनः उन्होंने दिव्य सहस्र वर्षों तक शूलपाणि शिव की आराधना करके अन्य स्त्री को पाकर अपना वियोग-सन्ताप दूर किया । महर्षि गौतम ने रोहिणी-चन्द्रमा के सम्भोग को भङ्ग किया, जिससे उन्हें स्त्री- विच्छेद प्राप्त हुआ और पुनः पुष्कर क्षेत्र में दिव्य सहस्र वर्षों तक शिव की आराधना करने पर उन्हें अहल्या की प्राप्ति हुई, जिससे उनका सन्ताप दूर हुआ । एक बार मुनि ने निर्जन वन में दिन में अपनी पत्नी से संभोग करते हुए ब्रह्माण्डक नामक पुत्र को क्रोध से विरत कर दिया । इससे कल्पान्तर में उन्हें पुत्र वियोग प्राप्त हुआ । तब पुन: दूसरे कल्प में शिव की आराधना से पुत्र प्राप्त करके विकलता का त्याग किया । शूद्रा के साथ निर्जन स्थान में उपभोग करते हुए निश्चेष्ट हलवाहे को रोक दिया, उसका फल जो उन्हें भोगना पड़ा, उसे सुनो । इसी के परिणामस्वरूप महर्षि विश्वामित्र ने उन्हें श्री, राज्य एवं धन से वञ्चित कर उनकी बड़ी कदर्थना की । पश्चात् उन्होंने समस्त सम्पत्ति के दाता शिव की आराधना की, जिससे गण, परिवार समेत वे मेरे मन्दिर वैकुण्ठ में गये । इसीलिए वृषली के साथ सम्भोग करते हुए द्विजश्रेष्ठ अजामिल को कोई भी देवता डर से नहीं रोक सके । कर्मभोग समाप्त होने पर वह मेरा भक्त स्वयं उसे छोड़कर मेरे नाम के स्मरण मात्र से मेरे यहाँ चला आया ।

इसलिए हे विधे ! कर्म बलवान् होता है । उसी से सब कुछ साध्य है । उस कर्म का फल में प्रदान करता हूँ । उसका निवारण कौन कर सकता है ? कर्मफलदाता शिव का कर्म-फल संचय रूप संभोग- कर्म दिव्य हजार वर्षों तक चलने वाला है । सहस्र वर्ष पूर्ण हो जाने पर वहाँ जाकर शंकर स्वयं ऐसा उपाय करेंगे, जिससे उनका तेज निश्चित रूप से पृथ्वी पर गिरेगा और उससे स्कन्द की उत्पत्ति होगी जो भक्तों का उद्धार करेगा । मैं सदा भद्र (कल्याण) स्वरूप हूँ, अतः मेरे रहते तुम लोगों को क्या भय है ?  भगवन् ! इस समय आप लोग गणों समेत घर जाइये और निर्जन स्थान में शिव को पार्वती के साथ क्रीड़ा करने दीजिये ।

इतना कहकर नारायण शीघ्र अपने अन्तःपुर चले गये और देव लोग अपने- अपने घर गये एवं शिव स्वस्थतापूर्वक रति क्रिया में रत रहे ।

नारायण बोले — मन्द मुसुकान समेत कटाक्ष करनेवाली राधिका से इतना कहकर श्रीकृष्ण उनके साथ चन्दन वन के एकान्त स्थान में चले गये । वह निर्जन स्थान अत्यन्त रमणीक, वायु द्वारा सुगन्धित एवं पुष्प वाटिकाओं से व्याप्त था, वहीं उन्होंने क्रीड़ा की। वहीं फूलों की शय्याएं बिछी थीं, कोयलों की कूक सुनायी पड़ती थी, वह भ्रमरों की गुञ्जार से युक्त तथा कामिनियों के लिए मनोहर था । नारद ! इस प्रकार मङ्गल कर्म को जो सावधान होकर सुनता है उसे कभी भी बन्धु-विच्छेद नहीं होता है और महाशोक-सागर में निमग्न होने, पुत्र, स्त्री, भृत्य एवं बन्धुओं से मतभेद होने पर इसका एक मास श्रवण करने से निश्चित ही अभीष्ट प्राप्त होता है ।

सूत बोले — महामुनि धर्मपुत्र (नारायण) इतना कहकर चुप हो गये, पश्चात् देवर्षि नारद ने कौतुक-वश पुन: उसे पूछना प्रारम्भ किया । (अध्याय ४६)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे नारायणनारदसंवादे मंगलवर्णनं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४६ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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