February 28, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 47 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सैंतालीसवाँ अध्याय इन्द्र के अभिमान-भङ्ग का प्रसङ्ग — प्रकृति और गुरु की अवहेलना से इन्द्र को शाप, गौतममुनि के शाप से इन्द्र के शरीर में सहस्त्र योनियों का प्राकट्य, अहल्या का उद्धार, विश्वरूप और वृत्र के वध से इन्द्र पर ब्रह्महत्या का आक्रमण, इन्द्र का मानसरोवर में छिपना, बृहस्पति का उनके पास जाना, इन्द्र द्वारा गुरु की स्तुति, ब्रह्महत्या का भस्म होना, इन्द्र का विश्वकर्मा द्वारा नगर का निर्माण कराना, द्विज- बालकरूपधारी श्रीहरि तथा लोमशमुनि के द्वारा इन्द्र का मान-भंजन, राज्य छोड़ने को उद्यत हुए विरक्त इन्द्र का बृहस्पतिजी के समझाने से पुनः राज्य पर ही प्रतिष्ठित रहना श्रीराधिका ने पूछा — जगद्गुरो ! मैंने शूलपाणि शिव के यश तथा दैववश उनके दर्प-भङ्ग की बात सुनी। पार्वती के गर्वभंजन का और शिव-पार्वती के विवाह का भी वर्णन सुना। अब इन्द्र के तथा अन्य लोगों के भी अभिमान के चूर्ण होने के प्रसङ्गों को क्रमशः सुनना चाहती हूँ; कृपया विस्तारपूर्वक कहें। श्रीकृष्ण बोले — सुन्दरि ! इन्द्र के दर्प- भङ्ग की बात तीनों लोकों में प्रसिद्ध है । वह प्रसङ्ग सुन्दर, अनुपम तथा कानों के लिये अमृत के समान मधुर है। प्राचीन काल की बात है । इन्द्र सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके समस्त देवताओं के स्वामी तथा महान् ऐश्वर्य से सम्पन्न हो गये । तपस्या फल से प्रतिदिन उनके ऐश्वर्य की वृद्धि होने लगी । बृहस्पतिजी ने उन्हें सिद्ध मन्त्र की दीक्षा दी। उन्होंने पुष्कर में सौ वर्षों तक उस महामन्त्र का जप किया । जप से वह मन्त्र सिद्ध हो गया और इनका मनोरथ पूरा हुआ। मनुष्य सम्पत्ति से मोहित हुआ ब्रह्मस्वरूपा प्रकृति का आदर नहीं करता; अतः प्रकृति ने इन्द्र को शाप दे दिया । इसीलिये उन्हें अपने गुरु की ओर से भी अत्यन्त क्रोधपूर्वक शाप मिला। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय एक दिन इन्द्र अपनी सभा में बैठे थे । प्रकृति के शाप से उनकी बुद्धि मारी गयी थी; अतः वे गुरु को आते देखकर भी न तो उठे और न प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रणाम ही किया । यह देख बृहस्पतिजी क्रोध से युक्त हो उस सभा में नहीं बैठे, उलटे पाँव घर लौट आये। वहाँ भी वे तारा के निकट नहीं ठहरे, तपस्या के लिये वन में चले गये। उन्होंने मन-ही-मन दुःखी होकर कहा — ‘इन्द्र की सम्पत्ति चली जाय ।’ तदनन्तर इन्द्र को सुबुद्धि प्राप्त हुई और वे बोले — ‘मेरे स्वामी यहाँ से कहाँ चले गये ।’ यों कहकर वे वेगपूर्वक सिंहासन से उठे और तारा के पास गये। वहाँ उन्होंने भक्तिभाव से मस्तक झुका दोनों हाथ जोड़कर माता तारा को प्रणाम किया और सारी बातें बतायीं। फिर वे उच्च-स्वर से बारंबार रोदन करने लगे। पुत्र को रोते देख माता तारा भी बहुत रोयीं और बोलीं — ‘बेटा! तू घर जा। इस समय तुझे गुरुदेव के दर्शन नहीं होंगे। जब दुर्दिन का अन्त होगा, तभी तुझे गुरुजी मिलेंगे और उनकी कृपा से पुनः लक्ष्मी की प्राप्ति होगी । मूढ़ ! तेरा अन्त:करण दूषित है; अतः अब अपने कर्मों का फल भोग । दुर्दिन में अपने गुरु पर दोषारोपण करता है और अच्छे दिनों में अपने-आपको ही संतुष्ट करने में लगा रहता है। (गुरु की अवहेलना करता।) इन्द्र ! सुदिन और दुर्दिन ही सुख और दुःख के कारण हैं । ‘ यों कहकर पतिव्रता तारादेवी चुप हो गयीं । तदनन्तर इन्द्र वहाँ से लौट आये और एक दिन मन्दाकिनी के तट पर स्नान के लिये गये । वहाँ उन्होंने स्नान करती हुई गौतमपत्नी अहल्या को देखा । इन्द्र की बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी थी । उन्होंने गौतम का रूप धारण करके अहल्या का शील भङ्ग कर दिया। इसी बीच गौतमजी भी वहाँ आ गये । इन्द्र ने भयभीत होकर मुनि के चरण पकड़ लिये । तब गौतमजी ने कुपित होकर उनसे कहा । गौतम बोले — इन्द्र ! तुझे धिक्कार है। तू देवताओं में श्रेष्ठ समझा जाता है। कश्यपजी का पुत्र है; ज्ञानी है और जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी का प्रपौत्र है तो भी तेरी ऐसी बुद्धि कैसे हो गयी ? जिसके नाना साक्षात् प्रजापति दक्ष हैं और माता पतिव्रता अदिति देवी हैं, उसका इतना पतन आश्चर्य की बात है ! तू वेदों का ज्ञान प्राप्त करके ज्ञानी कहलाता है; किंतु कर्म से योनि-लम्पट है; अतः तेरे शरीर में एक सहस्र योनियाँ प्रकट हो जायँ । पूरे एक वर्ष तक तुझे सदा योनि की ही दुर्गन्ध प्राप्त होती रहेगी। तत्पश्चात् सूर्य की आराधना करने पर तेरे शरीर की योनियाँ नेत्रों के रूप में परिणत हो जायँगी। मेरे शाप और गुरु के क्रोध से इस समय तू राजलक्ष्मी से भ्रष्ट हो जा। ओ मूढ़ ! तेरे गुरु बड़े तेजस्वी और मेरे अत्यन्त प्रेमी बन्धु हैं। हम दोनों बन्धुओं में फूट न पड़ जाय; इस भय से तेरे गुरु का ही विचार करके मैंने इस समय तेरे प्राण नहीं लिये हैं । तदनन्तर पैरों में पड़ी हुई अहल्या को लक्ष्य करके मुनिवर गौतम ने कहा — ‘प्रिये ! अब तू वन में जा अपने शरीर को पत्थर बनाकर चिरकाल- तक उसी अवस्था में रह । इस बात को मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तेरे मन में कोई कामना नहीं थी । इन्द्र ने स्वयं आसक्त होकर तेरे साथ छल किया है । ‘ स्वामी की ऐसी आज्ञा होने पर अहल्या बहुत डर गयी और ‘हा नाथ! हा नाथ!’ पुकारती तथा रोती हुई वन में चली गयी। साठ हजार वर्षों तक कर्मफल का भोग करने के बाद मुनिप्रिया अहल्या श्रीरामचन्द्रजी के चरणों का स्पर्श पाकर तत्काल शुद्ध हो गयी। फिर वह अत्यन्त सुन्दर रूप धारण करके गौतमजी के पास गयी। मुनि ने सुन्दरी अहल्या को पाकर प्रसन्नता का अनुभव किया । सुन्दरि राधिके! अब इन्द्र का उत्तम वृत्तान्त सुनो, जो पुण्य का बीज तथा पाप का नाशक है । मैं विस्तारपूर्वक उसका वर्णन करता हूँ। गुरु के कोप और प्रकृति की अवहेलना से वज्रधारी इन्द्र की विवेक शक्ति नष्ट हो गयी थी; अतः उनसे एक दिन ब्रह्महत्या का पाप बन गया। गुरु को तो वे छोड़ ही चुके थे; दैव ने भी उन्हें अपना ग्रास बनाया। दैत्यों का आक्रमण हुआ और वे उनसे पीड़ित एवं भयभीत हो जगद्गुरु ब्रह्माजी की शरण में गये। ब्रह्माजी की आज्ञा से उन्होंने विश्वरूप को अपना पुरोहित बनाया। दैव से उनकी बुद्धि मारी गयी थी; इसलिये इन्द्र ने विश्वरूप पर पूरा-पूरा विश्वास कर लिया । विश्वरूप की माता दैत्यवंश की कन्या थी; अतः उनके मन में दैत्यों के प्रति भी पक्षपात था। बुद्धिमान् इन्द्र उनके इस मनोभाव को ताड़ गये; अतः उन्होंने अनायास ही तीखे बाण मारकर पुरोहित विश्वरूप का सिर काट लिया । विश्वरूप के पिता त्वष्टा ने जब यह बात सुनी तो वे तत्क्षण रोष के वशीभूत हो गये और ‘इन्द्रशत्रो विवर्द्धस्व’ (इन्द्र के शत्रु ! तुम बढ़ो) ऐसा कहकर यज्ञ का अनुष्ठान करने लगे, उस यज्ञ के कुण्ड से वृत्र नामक महान् असुर प्रकट हुआ, जिसने अनायास ही समस्त देवताओं को क्रोधपूर्वक कुचल डाला। तब दैत्यमर्दन इन्द्र ने महामुनि दधीचि की हड्डियों से अत्यन्त भयंकर वज्र का निर्माण करके देवकण्टक वृत्रासुर का वध कर डाला। फिर तो इन्द्र पर ब्रह्महत्या ने धावा बोल दिया। वे अचेत से हो रहे थे। ब्रह्महत्या बूढ़ी स्त्री का वेष धारण करके आयी थी। वह लाल कपड़े पहन रखी थी। उसके शरीर की ऊँचाई सात ताड़ों के बराबर थी तथा कण्ठ, ओठ और तालु सूखे हुए थे। उसके दाँत हरिस के समान लंबे थे। उसने इन्द्र को बहुत डरा दिया। वे जब दौड़ते थे तो उनके पीछे-पीछे वह भी दौड़ती थी । ब्रह्महत्या बलिष्ठ थी और इन्द्र अपनी चेतना तक खो बैठे थे । उसका स्वभाव निर्दय था और वह हाथ में तलवार लेकर बड़े वेग से दौड़ रही थी । उस घोर ब्रह्महत्या को देखकर गुरु के चरणों का स्मरण करते हुए वे कमल के नाल के सूक्ष्म सूत्र के सहारे मानसरोव रमें प्रविष्ट हो गये । ब्रह्महत्या ब्रह्माजी के शाप के कारण वहाँ पहुँचने में असमर्थ थी; अतः सरोवर के तट के निकट बरगद की एक शाखा पर जा बैठी। उन दिनों राजा नहुष इन्द्र की जगह त्रिभुवन के स्वामी बनाये गये । नहुष बलिष्ठ थे और देवता दुर्बल। अतः इन्द्र पद पर प्रतिष्ठित हुए नहुष ने देवताओं से यह माँग की कि’ इन्द्राणी शची मुझ इन्द्र की सेवा के लिये उपस्थित हों।’ यह समाचार सुनकर शची को बड़ा भय हुआ । वे तारादेवी की शरण में गयीं । तारा ने अपने पति को बहुत फटकारा और शिष्य-पत्नी की रक्षा की। तब शची को आश्वासन दे गुरु बृहस्पति प्रसन्नतापूर्वक मानसरोवर को गये और वहाँ कातर एवं अचेत हुए देवेन्द्र को सम्बोधित करके बोले । बृहस्पति ने कहा — बेटा ! उठो, उठो । मेरे रहते हुए तुम्हें क्या भय हो सकता है ? मैं तुम्हारा स्वामी एवं गुरु हूँ । मेरे स्वर से ही मुझे पहचानो और भय छोड़ो। बृहस्पति के स्वर को पहचान कर सम्पूर्ण सिद्धियों के स्वामी इन्द्र ने सूक्ष्म रूप को त्याग अपना रूप धारण कर लिया और तत्काल उठकर वेगपूर्वक उन सूर्यतुल्य तेजस्वी गुरु को देखा और प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रणाम किया । गुरुजी उस समय प्रसन्न थे और क्रोध का परित्याग कर चुके थे। पैरों में पड़कर भयविह्वल हो रोते हुए इन्द्र को खींचकर उन्होंने प्रेमपूर्वक छाती से लगा लिया और स्वयं भी प्रेमाकुल होकर रो पड़े! बृहस्पतिजी को संतुष्ट तथा रोते देख देवेश्वर इन्द्र का अङ्ग-अङ्ग पुलकित हो उठा। भक्तिभाव से उनका मस्तक झुक गया और वे हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे । इन्द्र बोले — भगवन्! मेरे अपराध को क्षमा कीजिये । कृपानिधान! कृपा कीजिये। अच्छे स्वामी अपने सेवक के अपराध को हृदय में स्थान नहीं देते। अपनी पत्नी, अपने शिष्य, अपने भृत्य तथा अपने पुत्रों को दुर्बल या सबल कौन मनुष्य दण्ड देने में असमर्थ होता है ? तीन करोड़ देवताओं में मैं ही एक देवाधम और मूढ़ हूँ । सुरश्रेष्ठ! आपकी कृपा से ही मैं उच्च पद पर प्रतिष्ठित हूँ। आपने ही दया करके मुझे आगे बढ़ाया है। आप सारे जगत् का संहार करने की शक्ति रखते हैं। आपके सामने मेरी क्या बिसात है ? मैं वैसा ही हूँ, जैसा बावली का कीट। आप साक्षात् विधाता के पौत्र हैं; अतः स्वयं दूसरी सृष्टि रचने में समर्थ हैं । इन्द्र के मुख से यह स्तवन सुनकर गुरु बृहस्पति बहुत संतुष्ट हुए । उनके मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे और वे प्रेमपूर्वक बोले । बृहस्पति ने कहा — महाभाग ! धैर्य धारण करो और पहले से भी चौगुना महान् ऐश्वर्य पाकर सुस्थिर लक्ष्मी का लाभ लो । वत्स पुरन्दर ! मेरे प्रसाद से तुम्हारे शत्रु मारे गये। अब तुम अमरावती में जाकर राज्य करो और पतिव्रता शची से मिलो। यों कहकर ज्यों ही शिष्यसहित गुरु वहाँ से चलने को उद्यत हुए, त्यों ही उन्होंने अत्यन्त दुःसह एवं भयंकर ब्रह्महत्या को सामने खड़ी देखा । उस पर दृष्टि पड़ते ही इन्द्र अत्यन्त भयभीत गुरु की शरण में गये । बृहस्पति को भी बड़ा भय हुआ। उन्होंने मन-ही-मन मधुसूदन का स्मरण किया । इसी बीच में आकाशवाणी हुई, जिसमें अक्षर तो थोड़े थे, परंतु अर्थ बहुत । बृहस्पतिजी ने वह आकाशवाणी सुनी – ‘संसारविजय नामक जो राधिका कवच है, वह समस्त अशुभों का नाश करनेवाला है । इस समय उसी का उपदेश देकर तुम शिष्य की रक्षा करो।’ तब शिष्यवत्सल बृहस्पति ने शिष्य को उस कवच का उपदेश दिया और अनायास ही हुङ्कारमात्र से ब्रह्महत्या को भस्म कर डाला। तदनन्तर शिष्य को साथ लेकर बृहस्पतिजी अमरावतीपुरी में गये । इन्द्र ने गुरु की आज्ञा से उस पुरी की दशा देखी। शत्रु ने उस नगरी को तोड़-फोड़ डाला था । पति का आगमन सुनकर शची के मन में बड़ा हर्ष हुआ। उसने भक्तिभाव से गुरुदेव को प्रणाम करके प्राणवल्लभ के चरणों में भी मस्तक झुकाया । प्रिये ! इन्द्र का शुभागमन सुनकर सब देवता, ऋषि और मुनि वहाँ आये। उनका चित्त हर्ष से गद्गद हो रहा था। इन्द्र ने अमरावती का निर्माण करने के लिये एक श्रेष्ठ देवशिल्पी को नियुक्त किया । देवशिल्पी ने पूरे सौ वर्षों तक अमरावती की रचना की । नाना विचित्र रत्नों से सम्पन्न तथा श्रेष्ठ मणिरत्नों द्वारा निर्मित उस मनोहर पुरी की कहीं उपमा नहीं थी । फिर भी उससे देवराज इन्द्र संतुष्ट नहीं हुए । विश्वकर्मा को आज्ञा नहीं मिली। इसलिये वे घर जा तो नहीं सके; परंतु उनका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो उठा। वे ब्रह्माजी की शरण में गये । ब्रह्माजी ने उनके अभिप्राय को जानकर कहा — ‘कल तुम्हारे प्रतिरोधक कर्म का क्षय हो जाने पर ही तुम्हें छुटकारा मिलेगा।’ ब्रह्माजी की बात सुनकर विश्वकर्मा शीघ्र ही अमरावती लौट आये और ब्रह्माजी वैकुण्ठधाम में गये। वहाँ उन्होंने अपने माता-पिता श्रीहरि को प्रणाम करके उनसे सारी बातें कहीं। तब श्रीहरि ने ब्रह्माजी को धैर्य देकर अपने घर को लौटाया और स्वयं ब्राह्मण का रूप धारण करके वे अमरावतीपुरी में आये । ब्राह्मण की अवस्था बहुत छोटी थी । शरीर भी अधिक नाटा था । उन्होंने दण्ड और छत्र धारण कर रखे थे। शरीर पर श्वेत वस्त्र और ललाट में उज्ज्वल तिलक से वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। मुस्कराते समय उनकी श्वेत दन्तावली चमक उठती थी । अवस्था में छोटे होने पर भी वे ज्ञान और बुद्धि में बढ़े-चढ़े थे । विद्वान् तो थे ही, स्वयं विधाता के भी विधाता तथा सम्पूर्ण सम्पत्तियों के दाता थे । इन्द्र के द्वार पर खड़े हो वे द्वारपाल से बोले – ‘ द्वाररक्षक ! तुम इन्द्र से जाकर कहो कि द्वार पर एक ब्राह्मण खड़े हैं, जो आपसे शीघ्र मिल नेके लिये आये हैं।’ द्वारपाल ने उनकी बात सुनकर इन्द्र को सूचना दी और इन्द्र शीघ्र आकर उन ब्राह्मण कुमार से मिले । हँसते हुए बालक और बालिकाओं के समूह उन्हें घेरकर खड़े थे। वे बड़े उत्साह से मुस्करा रहे थे और उनका स्वरूप अत्यन्त तेजस्वी जान पड़ता था । इन्द्र ने उन शिशुरूपधारी हरि को भक्तिभाव से प्रणाम किया और भक्तवत्सल श्रीहरि ने प्रेमपूर्वक उन्हें आशीर्वाद दिया । इन्द्र ने मधुपर्क आदि देकर उनकी पूजा की और ब्राह्मणबालक से पूछा- ‘कहिये, किसलिये आपका शुभागमन हुआ है ?” इन्द्र का वचन सुनकर ब्राह्मण बालक ने जो बृहस्पति गुरु के भी गुरु थे, मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहा । ब्राह्मण बोले — देवेन्द्र ! मैंने सुना है कि तुम बड़े विचित्र और अद्भुत नगर का निर्माण करा रहे हो; अतः इस नगर को देखने तथा इसके विषय में मनोवाञ्छित बातें पूछने के लिये मैं यहाँ आया हूँ। कितने वर्षों तक इसका निर्माण कराते रहने के लिये तुमने संकल्प किया है ? अथवा विश्वकर्मा कितने वर्षों में इसका निर्माण कार्य पूर्ण कर देंगे ? ऐसा निर्माण तो किसी भी इन्द्र ने नहीं किया था । ऐसे सुन्दर नगर के निर्माण में दूसरा कोई विश्वकर्मा भी समर्थ नहीं है । ब्राह्मण बालक की यह बात सुनकर देवराज इन्द्र हँसने लगे। वे सम्पत्ति के मद से अत्यन्त मतवाले हो रहे थे; अतः उन्होंने उस द्विजकुमार से पुनः पूछा — ‘ब्रह्मन्! आपने कितने इन्द्रों का समूह देखा अथवा सुना है ? तथा कितने प्रकार के विश्वकर्मा आपके देखने या सुनने में आये हैं ? यह मुझे इस समय बताइये।’ इन्द्र का यह प्रश्न सुनकर ब्राह्मणकुमार हँसे और अमृत के समान मधुर एवं श्रवणसुखद वचन बोले । ब्राह्मण ने कहा — तात ! मैं तुम्हारे पिता प्रजापति कश्यप को जानता हूँ। उनके पिता तपोनिधि मरीचि मुनि से भी परिचित हूँ । मरीचि के पिता देवेश्वर ब्रह्माजी को भी, जो भगवान् विष्णु के नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं, जानता हूँ और उनके रक्षक सत्त्वगुणशाली महाविष्णु का भी परिचय रखता हूँ। मुझे उस एकार्णव प्रलय का भी ज्ञान है, जो सम्पूर्ण प्राणियों से शून्य एवं भयानक दिखायी देता है । इन्द्र ! निश्चय ही सृष्टि कई प्रकार की है। कल्प भी अनेक हैं तथा ब्रह्माण्ड भी कितने ही प्रकार के हैं। उन ब्रह्माण्डों में अनेकानेक ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा इन्द्र भी बहुतेरे हैं । उन सबकी गणना कौन कर सकता है ? सुरेश्वर ! भूतल के धूलिकणों की गणना कर ली जाय तो भी इन्द्रों की गणना नहीं हो सकती है; ऐसा विद्वानों का मत है । इन्द्र की आयु और अधिकार इकहत्तर चतुर्युग तक है। अट्ठाईस इन्द्रों का पतन हो जाने पर विधाता का एक दिन-रात पूरा होता है। इस तरह एक सौ आठ वर्षों तक ब्रह्माजी की सम्पूर्ण आयु है । जहाँ विधाता की भी संख्या नहीं है, वहाँ देवेन्द्रों की गणना क्या हो सकती है ? जहाँ ब्रह्माण्डों की ही संख्या ज्ञात नहीं होती; वहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश की कहाँ गिनती है ? महाविष्णु के रोमकूपजनित निर्मल जल में ब्रह्माण्ड की स्थिति उसी तरह है, जैसे सांसारिक नदी-नद आदि के जल में कृत्रिम नौका हुआ करती है। इस प्रकार महाविष्णु के शरीर में जितने रोएँ हैं, उतने ब्रह्माण्ड हैं; अतएव ब्रह्माण्ड असंख्य कहे गये हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में तुम्हारे- जैसे कितने ही देवता निवास करते हैं । इसी बीच में पुरुषोत्तम श्रीहरि ने वहाँ चींटों के समूह को देखा, जो सौ धनुष की दूरी तक फैला हुआ था । बारी-बारी से उन सबकी ओर देखकर वे ब्राह्मण बालक का रूप धरकर पधारे हुए भगवान् उच्च-स्वर से हँसने लगे। किंतु कुछ बोले नहीं। मौन रह गये। उनका हृदय समुद्र के समान गम्भीर था। ब्राह्मण- वटुक की गाथा सुनकर और उनका अट्टहास देखकर इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ । तदनन्तर उनके विनयपूर्वक पूछने पर ब्राह्मणरूपधारी जनार्दन भाषण देना आरम्भ किया। ब्राह्मण बोले — इन्द्र ! मैंने क्रमशः एक-एक करके चींटों के समुदाय की सृष्टि की है। वे सब चींटे अपने कर्म से देवलोक में इन्द्र के पद पर प्रतिष्ठित हो चुके थे; परंतु इस समय वे सब अपने कर्मानुसार क्रमशः भिन्न-भिन्न जीवयोनियों में जन्म लेते हुए चींटों की जाति में उत्पन्न हुए हैं। कर्म से ही जीव निरामय वैकुण्ठधाम में जाते हैं, कर्म से ब्रह्मलोक में और कर्म से ही शिवलोक में पहुँचते हैं। अपने कर्म से ही वे स्वर्ग में तथा स्वर्गतुल्य स्थान पाताल में भी प्रवेश करते हैं । कर्म से ही अपने लिये दुःख के एकमात्र कारण घोर नरक में गिरते हैं । कर्मसूत्र से ही विधाता जीवधारियों को फल देते हैं । कर्म स्वभाव-साध्य है और स्वभाव अभ्यास-जन्य ।1 देवेन्द्र! चराचर प्राणियों सहित समस्त संसार स्वप्न के समान मिथ्या है । यहाँ कालयोग से सबकी मौत सदा सिर पर सवार रहती है । जीवधारियों के शुभ और अशुभ सब कुछ पानी के बुलबुले के समान हैं । इन्द्र ! विद्वान् पुरुष इसमें सदा विचरता है; परंतु कहीं भी आसक्त नहीं होता । यों कहकर ब्राह्मण देवता वहाँ मुस्कराते हुए बैठे रहे। उनकी बात सुनकर देवेश्वर इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ । वे अपने-आपको अब अधिक महत्त्व नहीं दे रहे थे। इसी बीच एक मुनीश्वर वहाँ शीघ्रतापूर्वक आये जो ज्ञान और अवस्था दोनों में बड़े थे। उनका शरीर अत्यन्त वृद्ध था । वे महान् योगी जान पड़ते थे । वे कटि में कृष्ण- मृगचर्म, मस्तक पर जटा, ललाट में उज्वल तिलक, वक्ष:स्थल में रोमचक्र तथा सिर पर चटाई धारण किये हुए थे । उनका सारा रोममण्डल विद्यमान था; केवल बीच में कुछ रोम उखाड़े गये थे । वे मुनि ब्राह्मणबालक तथा इन्द्र के बीच में आकर ठूंठे काठ की भाँति खड़े हो गये । महेन्द्र ने ब्राह्मण को देखकर सहर्ष प्रणाम किया और मधुपर्क देकर भक्तिभाव से उनकी पूजा की। इसके बाद उन्होंने ब्राह्मण से कुशल – मङ्गल पूछा और सादर एवं सानन्द आतिथ्य करके उन्हें संतुष्ट किया। तत्पश्चात् ब्राह्मण बालक ने उनके साथ बातचीत की और विनयपूर्वक अपना सारा मनोभाव प्रकट किया। बालक ने कहा — विप्रवर! आप कहाँ से आये हैं? और आपका नाम क्या है ? यहाँ आने का उद्देश्य क्या है ? तथा आप कहाँ के रहनेवाले हैं ? आपने मस्तक पर चटाई किसलिये धारण कर रखी है ? मुने! आपके वक्षःस्थल में रोमचक्र कैसा है ? यह बहुत बढ़ा हुआ है; किंतु बीच में से कुछ रोम क्यों उखाड़ लिये गये हैं ? ब्रह्मन्! यदि आपकी मुझ पर कृपा हो तो सब विस्तारपूर्वक कहिये । इन सब अद्भुत बातों को सुनने के लिये मेरे मन में उत्कण्ठा है। ब्राह्मण बालक की यह बात सुनकर वे महामुनि इन्द्र के सामने प्रसन्नतापूर्वक अपना सारा वृत्तान्त बताने लगे। मुनि बोले — ब्रह्मन् ! आयु बहुत थोड़ी होने के कारण मैंने कहीं भी रहने के लिये घर नहीं बनाया है; विवाह भी नहीं किया है और जीविका का साधन भी नहीं जुटाया है। आजकल भिक्षा से ही जीवन-निर्वाह करता हूँ। मेरा नाम लोमश है। आप जैसे ब्राह्मण का दर्शन ही यहाँ मेरे आगमन का प्रयोजन है। मेरे सिर पर जो चटाई है, वह वर्षा और धूप का निवारण करने के लिये है । मेरे वक्षःस्थल में जो रोमचक्र है, उसका भी कारण सुनिये, जो सांसारिक जीवों को भय देने वाला और उत्तम विवेक को उत्पन्न करने वाला है । मेरे वक्षःस्थल का यह रोममण्डल ही मेरी आयु की संख्या का प्रमाण है। ब्रह्मन् ! जब एक इन्द्र का पतन हो जाता है, तब मेरे इस रोमचक्र का एक रोम उखाड़ दिया जाता है। इसी कारण से बीच के बहुत-से रोएँ उखाड़ दिये गये हैं; तथापि अभी बहुत-से विद्यमान हैं । ब्रह्मा का दूसरा परार्द्ध पूर्ण होने पर मेरी मृत्यु बतायी गयी है । विप्रवर ! असंख्य विधाता मर चुके हैं और मरेंगे। फिर इस छोटी-सी आयु के लिये स्त्री, पुत्र और घर की क्या आवश्यकता है ? ब्रह्माजी का पतन हो जाने पर भगवान् श्रीहरि की एक पलक गिरती है; अतः मैं निरन्तर उन्हीं के चरणारविन्दों का दर्शन करता रहता हूँ । श्रीहरि का दास्यभाव दुर्लभ है । भक्ति का गौरव मुक्ति से भी बढ़कर है । सारा ऐश्वर्य स्वप्न के समान मिथ्या और भगवान् की भक्ति में व्यवधान डालने वाला है । यह उत्तम ज्ञान मेरे गुरु भगवान् शंकर ने दिया है; अतः मैं भक्ति के बिना सालोक्य आदि चार प्रकार की मुक्तियों को भी नहीं ग्रहण करना चाहता हूँ । ऐसे कहकर वे मुनि भगवान् शंकरके समीप चले गये और बालकरूपधारी श्रीहरि भी वहीं अन्तर्धान हो गये । इन्द्र स्वप्न की भाँति यह घटना देखकर बड़े विस्मित हुए । अब उन परमेश्वर के मन में सम्पत्ति के लिये तृष्णा नहीं रह गयी । उन्होंने विश्वकर्मा को बुलाकर उनसे मीठी-मीठी बातें कीं तथा रत्न देकर पूजन करने के पश्चात् उन्हें घर जाने की आज्ञा दी। फिर सब कुछ अपने पुत्र को सौंपकर वे भगवान् की शरण में जाने को उद्यत हो गये । उनका विवेक जाग उठा था; अतः वे शची तथा राजलक्ष्मी को त्यागकर प्रारब्ध- क्षय की कामना करने लगे। अपने प्राणवल्लभ को विवेक एवं वैराग्य से युक्त हुआ देख शची का हृदय व्यथित हो उठा। वे शोक से व्याकुल एवं भयभीत हो गुरु की शरण में गयीं। वहाँ सब कुछ निवेदन करके बृहस्पतिजी को बुलाकर इन्द्र को नीति के सार तत्त्व का उपदेश कराया। गुरु बृहस्पति ने दाम्पत्य-प्रेम से युक्त शास्त्र – विशेष की रचना करके स्वयं प्रेमपूर्वक उन्हें पढ़ाया। बृहस्पतिजी ने उस शास्त्र-विशेष का भाव इन्द्र को भलीभाँति समझा दिया । वृन्दावनविनोदिनि ! तब इन्द्र पूर्ववत् राज्य करने लगे। सुरेश्वरि ! इस प्रकार मैंने इन्द्र के अभिमान- भङ्ग का सारा प्रसङ्ग कह सुनाया। पिता नन्द के यज्ञ में जो इन्द्र के दर्प का दलन हुआ था, उसे तो तुमने अपनी आँखों देखा ही था । (अध्याय ४७) 1. कर्म स्वभावसाध्यं च स्वभावोऽभ्यासजीवकः । ॥ १३० १/२ ॥ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे श्रीकृष्णराधासंवादे सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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