ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 48
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
अड़तालीसवाँ अध्याय
सूर्य के दर्प-भङ्ग की कथा

राधिका बोलीं — भगवन्! आपने इन्द्र के दर्प-भङ्ग का प्रसङ्ग मुझसे कहा। अब मैं सूर्यदेव के गर्व-गञ्जन की बात यथार्थ-रूप से सुनना चाहती हूँ ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — सुन्दरि ! सूर्य एक ही बार उदय लेकर फिर अस्त हो गये, परंतु माली और सुमाली नामक दो दैत्यराज सूर्यास्त हो जाने के बाद भी वैसा ही प्रकाश बनाये रखने के लिये उद्यत हुए। भगवान् शंकर के वर से महान् ऐश्वर्य पाकर वे दोनों दैत्य मद से उन्मत्त हो गये थे। उनकी प्रभा से रात्रि नहीं होने पाती थी । (रात के समय भी दिनका-सा प्रकाश छाया रहता था ।) यह देख सूर्यदेव रुष्ट हो गये और उन्होंने अपने शूल से अवहेलना-पूर्वक उन दोनों दैत्यों को मारा । सूर्य के शूल से आहत हो वे दोनों दैत्य मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

भक्तों का विनाश हुआ जान भक्तवत्सल शंकर आये और उन्होंने अपने महान् ज्ञान द्वारा उन दोनों को जीवन-दान दिया। तब वे दोनों दैत्य भगवान् शिव को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके अपने घर को चले गये । इधर महादेवजी रोष से आगबबूला हो उठे और सूर्य को मारने के लिये दौड़े। संहारकर्ता हर मेरा विनाश करने के लिये चले आ रहे हैं, यह देख सूर्यदेव भय से भागते हुए तत्काल ब्रह्माजी की शरण में गये। तब महादेवजी ने रोष से शूल उठाकर ब्रह्माजी के भवन पर धावा किया। भगवान् शिव काल के भी काल और विधाता के भी विधाता हैं ।

उन परमेश्वर हर को रुष्ट हुआ देख लोकनाथ ब्रह्मा चारों मुखों से वेदोक्त स्तोत्र पढ़ते हुए उनकी स्तुति करने लगे ।

॥ ब्रह्माकृत शिव स्तोत्र ॥

॥ ब्रह्मोवाच ॥
प्रसीद दक्षयज्ञघ्न सूर्यं मच्छरणागतम् ।
त्वयैव सृष्टं सृष्टेश्च समारम्भे जगद्गुरो ॥ १० ॥
आशुतोष महाभाग प्रसीद भक्तवत्सल ।
कृपया च कृपासिन्धो रक्ष रक्ष दिवानिशम् ॥ ११ ॥
ब्रह्मस्वरूप भगवन्सृष्टिस्थित्यन्तकारण ।
स्वयं रविं च निर्माय स्वयं संहर्तुमिच्छसि ॥ १२ ॥
स्वयं ब्रह्मा स्वयं शेषो धर्मः सूर्यो हुताशनः ।
इन्द्रचंद्रादयो देवास्त्वत्तो भीताः परात्पर ॥ १३ ॥
ऋषयो मुनयश्चैव त्वां निषेव्य तपोधनाः ।
तपसां फलदाता त्वं तपस्त्वं तपसां फलम् ॥ १४ ॥
इत्येवमुक्त्वा ब्रह्मा तं सूर्यमानीय भक्तितः ।
प्रीत्या समर्पयामास शङ्करे दीनवत्सले ॥ १५ ॥
शंभुस्तमाशिषं कृत्वा विधिं नत्वा जगद्विधिः ।
प्रसन्नवदनः श्रीमानालयं प्रययौ मुदा ॥ १६ ॥
इति धातृकृतं स्तोत्रं संकटे यः पठेन्नरः ।
भयात्प्रमुच्यते भीतो बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥ १७ ॥
राजद्वारे श्मशाने च मग्नपोते महार्णवे ।
स्तोत्रस्मरणमात्रेण मुच्यते नात्र संशयः ॥ १८ ॥

ब्रह्माजी बोले — दक्ष-यज्ञ-विनाशक शिव ! सूर्यदेव मेरी शरण में आये हैं; अतः आप इन पर कृपा कीजिये । जगद्गुरो ! सृष्टि के आरम्भ में आपने ही सूर्य की सृष्टि की है। महाभाग आशुतोष ! भक्तवत्सल! प्रसन्न होइये । कृपासिन्धो ! कृपापूर्वक दिन और रात की रक्षा कीजिये । ब्रह्मस्वरूप भगवन्! आप जगत् की सृष्टि, पालन और संहार के कारण हैं। क्या स्वयं ही सूर्य का निर्माण करके स्वयं ही इनका संहार करना चाहते हैं ? आप स्वयं ही ब्रह्मा, शेषनाग, धर्म, सूर्य और अग्नि हैं । परात्पर परमेश्वर ! चन्द्र और इन्द्र आदि देवता आपसे भयभीत रहते हैं। ऋषि और मुनि आपकी ही आराधना करके तपस्या के धनी हुए हैं। आप ही तप हैं, आप ही तपस्या के फल हैं और आप ही तपस्याओं के फलदाता हैं।

ऐसा कहकर ब्रह्माजी सूर्य को ले आये और भक्ति तथा प्रीति के साथ दीनवत्सल शंकर को उन्हें सौंप दिया। भगवान् शिव का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उन जगत्-विधाता ने सूर्य को आशीर्वाद देकर ब्रह्माजी को प्रणाम किया और बड़े हर्ष के साथ अपने धाम को प्रस्थान किया । जो मनुष्य संकटकाल में ब्रह्माजी द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह भयभीत हो तो भय से और बँधा हो तो बन्धन से मुक्त हो जाता है । राजद्वार पर, श्मशान भूमि में और महासागर में जहाज टूट जाने पर स्तोत्र के स्मरणमात्र से मनुष्य संकटमुक्त हो जाता है; इसमें संशय नहीं है ।  ( अध्याय ४८ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे श्रीकृष्णराधासंवादे अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.