ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 49
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
उनचासवाँ अध्याय
अग्नि के दर्प-भङ्ग की कथा

श्रीकृष्ण कहते हैं — तदनन्तर सूर्यदेव ब्रह्माजी को प्रणाम करके प्रसन्न हुए और उनकी आज्ञा से अभिमान छोड़ प्रेमपूर्वक विनयपूर्ण बर्ताव करने लगे । अब अग्नि के मान-भञ्जन का उपाख्यान सुनो। यह उत्तम प्रसङ्ग पुराणों में गोपनीय है और कानों में अमृत के समान मधुर प्रतीत होता है।

एक समय की बात है। अग्निदेव सौ ताड़ों के बराबर ऊँची और भयंकर लपटें उठाकर तीनों लोकों को भस्म कर डालने के लिये उद्यत हो गये। महर्षि भृगु ने उन्हें शाप दिया था; इसलिये वे क्षोभ और क्रोध से भरे थे। अपने को तेजस्वी और दूसरों को तुच्छ मानकर वे त्रिलोकी को भस्म करना चाहते थे। इसी बीच में माया से शिशुरूपधारी जनार्दन भगवान् विष्णु लीलापूर्वक वहाँ आ पहुँचे और सामने खड़े हो अग्नि की उस दाहिका शक्ति को उन्होंने हर लिया । तत्पश्चात् मन्द मन्द मुस्कराते हुए भक्ति से मस्तक झुका वे विनयपूर्वक बोले ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

शिशु ने कहा — भगवन् ! आप क्यों रुष्ट हैं ? इसका कारण मुझे बताइये । व्यर्थ ही आप तीनों लोकों को भस्म करने के लिये उद्यत हुए हैं ? भृगुजी ने आपको शाप दिया है; अतः आप उनका ही दमन कीजिये । एक के अपराध से तीनों लोकों को भस्म कर डालना आपके लिये कदापि उचित नहीं है। ब्रह्माजी ने इस विश्व की सृष्टि की है, साक्षात् श्रीहरि इसके पालक हैं और भगवान् रुद्र संहारक । ऐसा ही क्रम है। जगदीश्वर शंकर के रहते हुए आप स्वयं जगत् को भस्म करने के लिये क्यों उद्यत हुए हैं ? पहले जगत् का पालन करने वाले भगवान् विष्णु को जीतिये। उसके बाद इसका शीघ्रतापूर्वक संहार कीजिये ।

ऐसा कहकर ब्राह्मण बालक ने सामने पड़े हुए सरकंडे के एक पत्ते को, जो बहुत ही सूखा हुआ था, हाथ में उठा लिया और उसे जलाने के लिये अग्नि को दिया। सूखा ईंधन देख अग्निदेव भयानक रूप से जीभ लपलपाने लगे। उन्होंने अपनी लपटों में ब्राह्मण बालक को उसी तरह लपेट लिया, जैसे मेघों की घटा से चन्द्रमा छिप जाता है; परंतु उस समय न तो वह सूखा पत्ता जला और न उस शिशु का एक बाल भी बाँका हुआ। यह देख अग्निदेव उस बालक के सामने लज्जा से ठिठक गये। अग्निदेव का दर्प- भङ्ग करके वह शिशु वहीं अन्तर्धान हो गया तथा अग्निदेव अपनी मूर्ति को समेटकर डरे हुए की भाँति अपने स्थान को चले गये । इसी तरह राजा अम्बरीष के यहाँ महर्षि दुर्वासा दर्प का दलन हुआ था । ( वह कथा पहले आ चुकी है ।) ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 25

राधिका बोलीं — जगद्गुरो ! अब धन्वन्तरि के दर्प-भङ्ग की कथा सुनाइये ।

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! राधिकाका यह वचन सुनकर भगवान् मधुसूदन हँसे और उन्होंने उस श्रवणसुखद प्राचीन कथाको सुनाना आरम्भ किया । ( अध्याय ४९ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे अग्निदर्पमोचनं नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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