ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 51
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
इकावनवाँ अध्याय
धन्वन्तरि के दर्प-भङ्ग की कथा, उनके द्वारा मनसादेवी का स्तवन

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — भगवान् धन्वन्तरि स्वयं महान् पुरुष हैं और साक्षात् नारायण के अंशस्वरूप हैं । पूर्वकाल में जब समुद्र का मन्थन हो रहा था, उस समय महासागर से उनका प्रादुर्भाव हुआ। वे सम्पूर्ण वेदों में निष्णात तथा मन्त्र-तन्त्रविशारद हैं, विनतानन्दन गरुड़ के शिष्य और भगवान् शंकर के उपशिष्य हैं।

एक दिन वे सहस्त्रों शिष्यों से घिरे हुए कैलास पर्वत पर आये । मार्ग में उन्हें भयानक तक्षक दिखायी दिया, जो जीभ लपलपा रहा था। भयानक विष से भरा हुआ वह पर्वताकार नाग लाखों नागों से घिरा हुआ था और धन्वन्तरि को क्रोधपूर्वक काट खाने के लिये आगे बढ़ रहा था । यह देख धन्वन्तरि का शिष्य दम्भी हँसने लगा। उसने भयानक तक्षक को मन्त्र से जृम्भित करके विषहीन बना दिया और उसके मस्तक में विद्यमान बहुमूल्य मणिरत्न को हर लिया। इतना ही नहीं, उसने तक्षक को हाथ से घुमाकर दूर फेंक दिया। तक्षक उस मार्ग में मृतक की भाँति निश्चेष्ट पड़ गया।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

यह देख उसके गणों ने वासुकि के पास जाकर सब समाचार निवेदन किया। उसे सुनकर वासुकि अत्यन्त क्रोध से जल उठे। उन्होंने भयानक विषवाले असंख्य सर्पों को वहाँ भेजा। समस्त सेनापतियों में पाँच मुख्य थे द्रोण, कालिय, कर्कोटक, पुण्डरीक और धनञ्जय। ये सब नाग उस स्थान पर आये, जहाँ धन्वन्तरि विराजमान थे । उन असंख्य नागों को देखकर धन्वन्तरि के शिष्यों को बड़ा भय हुआ । वे सब शिष्य नागों के निःश्वास-वायु से मृतक-तुल्य हो गये और निश्चेष्ट तथा ज्ञानशून्य हो पृथ्वी पर पड़ गये । भगवान् धन्वन्तरि ने गुरु का स्मरण करते हुए मन्त्र का पाठ और अमृत की वर्षा करके सब शिष्यों को जीवित कर दिया। उनमें चेतना उत्पन्न करके जगद्गुरु धन्वन्तरि ने मन्त्रों द्वारा भयानक विष वाले सर्पसमूह को जृम्भित कर दिया। फिर तो वे सब-के-सब ऐसे निश्चेष्ट हुए, मानो मर गये हों। उन नागगणों में कोई ऐसा भी नहीं रह गया, जो नागराज को समाचार दे सके; परंतु नागराज वासुकि सर्वज्ञ हैं, उन्होंने सर्पों के उन समस्त संकट को जान लिया और अपनी ज्ञानरूपिणी बहिन जगगौरी मनसा ( या जरत्कारु) – को बुलाया ।

वासुकि ने उससे कहा — मनसे! तुम जाओ और अत्यन्त संकट से नागों की रक्षा करो। महाभागे ! ऐसा करने पर तुम्हारी तीनों लोकों में पूजा होगी।

वासुकि की बात सुनकर वह नागकन्या हँस पड़ी और विनीत भाव से खड़ी हो अमृत के समान मधुर वचन बोली ।

मनसा ने कहा — नागराज ! मेरी बात सुनिये । मैं युद्ध के लिये जाऊँगी। शुभ और अशुभ ( जीत और हार) तो दैव के हाथ में है; परंतु मैं यथोचित कर्तव्य का पालन करूँगी। समराङ्गण में लीलापूर्वक उस शत्रु का संहार कर डालूंगी। जिसे मैं मार दूँगी, उसकी रक्षा कौन कर सकता है ? मेरे बड़े भाई और गुरु भगवान् शेष ने मुझे जगदीश्वर नारायण का परम अद्भुत सिद्ध मन्त्र प्रदान किया है। मैं अपने कण्ठ में ‘त्रैलोक्य- मङ्गल’ नामक उत्तम कवच धारण करती हूँ; अतः संसार को भस्म करके पुनः उसकी सृष्टि करने में समर्थ हूँ । मन्त्रशास्त्रों में मैं भगवान् शंकर की शिष्या हूँ । पूर्वकाल में भगवान् शिव ने कृपापूर्वक मुझे महान् ज्ञान दिया था ।

ऐसा कहकर श्रीहरि, शिव तथा शेषनाग को प्रणाम करके मन में हर्ष और उत्साह लिये मनसा अन्य नागों को वहीं छोड़ अकेली ही रोषपूर्वक उस स्थान को गयी। उस समय मनसादेवी की आँखें रोष से लाल हो रही थीं। वह उस स्थान पर आयी, जहाँ प्रसन्नमुख और नेत्रवाले धन्वन्तरिदेव विराजमान थे । सुन्दरी मनसा ने दृष्टिमात्र से ही सम्पूर्ण सर्पों को जीवित कर दिया और अपनी विषपूर्ण दृष्टि डालकर शत्रु के शिष्यों को चेष्टाशून्य बना दिया। भगवान् धन्वन्तरि मन्त्र-शास्त्र के ज्ञान में निपुण थे। उन्होंने मन्त्र द्वारा शिष्यों को उठाने का यत्न किया, परंतु वे सफल न हो सके । तब मनसादेवी ने धन्वन्तरि की ओर देख हँसकर अहंकार भरी बात कही ।

मनसा बोली — सिद्धपुरुष ! बताओ तो सही, क्या तुम मन्त्र का अर्थ, मन्त्र-शिल्प, मन्त्रभेद और महान् ओषध का ज्ञान रखते हो ? गरुड़ के शिष्य हो न ? मैं और गरुड़ दोनों भगवान् शंकर के विख्यात शिष्य हैं और दीर्घकाल तक गुरु के पास शिक्षा लेते रहे हैं।

यों कहकर जगदम्बा मनसा सरोवर से कमल ले आयी और उसे मन्त्र से अभिमन्त्रित करके क्रोधपूर्वक धन्वन्तरि की ओर चलाया । प्रज्वलित अग्निशिखा के समान जलते हुए उस कमल- पुष्प को आते देख धन्वन्तरि ने निःश्वासमात्र से उसको भस्म कर दिया। तत्पश्चात् मन्त्र से अभिमन्त्रित एक मुट्ठी धूल लेकर उसके द्वारा उन्होंने उस भस्म को भी निष्फल कर दिया। फिर वे अवहेलनापूर्वक हँसने लगे।

तब मनसादेवी ने ग्रीष्मकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित होने वाली शक्ति हाथ में ले ली और उसे मन्त्र से आवेष्टित करके शत्रु की ओर चला दिया। उस जाज्वल्यमान शक्ति को आते देख धन्वन्तरि ने भगवान् विष्णु के दिये हुए शूल से अनायास ही उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले । शक्ति को भी व्यर्थ हुई देख देवी मनसा रोष से जल उठी। अब उसने कभी व्यर्थ न जाने वाले दुःसह एवं भयंकर नागपाश को हाथ में लिया, जो एक लाख नागों से युक्त, सिद्धमन्त्र से अभिमन्त्रित तथा काल और अन्तक के समान तेजस्वी था। उसने क्रोधपूर्वक उस नागपाश को चलाया। नागपाश को देखकर धन्वन्तरि प्रसन्नता से मुस्करा उठे; उन्होंने तत्काल गरुड़ का स्मरण किया और पक्षिराज गरुड़ वहाँ आ पहुँचे । नागास्त्र को आया देख दीर्घकाल के भूखे हुए हरिवाहन गरुड़ ने चोंच से मार-मारकर सब नागों को अपना आहार बना लिया ।

प्रिये ! नागास्त्र को निष्फल हुआ देख मनसा के नेत्र रोष से लाल हो उठे। उसने एक मुट्ठी भस्म उठाया, जिसे पूर्वकाल में भगवान् शिव ने दिया था । मन्त्र से पवित्र किये गये उस मुट्ठी भर भस्म को चलाया गया देख गरुड़ ने शिष्य धन्वन्तरि को पीछे करके अपने पंख की हवा से वह सारा भस्म बिखेर दिया । यह देख देवी मनसा को बड़ा क्रोध हुआ । उसने धन्वन्तरि का वध करने के लिये स्वयं अमोघ शूल हाथ में लिया। उस शूल को भी भगवान् शिव ने ही दिया था । उससे सैकड़ों सूर्यों के समान प्रभा फैल रही थी। वह अमोघ शूल तीनों लोकों में प्रलयाग्नि के समान प्रकाशित होता था ।

इसी समय ब्रह्मा और शिव धन्वन्तरि की रक्षा तथा गरुड़ के सम्मान के लिये उस समराङ्गण में आये । भगवान् शम्भु तथा जगदीश्वर ब्रह्मा को उपस्थित देख मनसा ने भक्तिभाव से उन दोनों को नमस्कार किया । उस समय भी वह निःशङ्क-भाव से शूल धारण किये रही । धन्वन्तरि तथा गरुड़ ने भी उन दोनों देवेश्वरों को मस्तक झुकाया और बड़ी भक्ति से उनकी स्तुति की। उन दोनों ने भी इन दोनों को आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् लोकहित की कामना से मनसादेवी की पूजा का प्रचार करने के लिये ब्रह्माजी ने धन्वन्तरि से मधुर एवं हितकर वचन कहा ।

ब्रह्माजी बोले — सम्पूर्ण शास्त्रों के विशिष्ट विद्वान् महाभाग धन्वन्तरे ! मनसादेवी के साथ तुम्हारा युद्ध हो, यह मुझे उचित नहीं जान पड़ता। इसके साथ तुम्हारी कोई समता ही नहीं है । यह देवेश्वरी मनसा शिव के दिये हुए अमोघ शूल से तीनों लोकों को जलाकर भस्म करने की शक्ति रखती है। कौथुम – शाखा में वर्णित ध्यान के अनुसार मनसादेवी का भक्तिभाव से ध्यान करके एकाग्रचित्त हो षोडशोपचार अर्पित करते हुए इसकी पूजा करो। फिर आस्तीक मुनि द्वारा किये गये स्तोत्र से तुम्हें इसकी स्तुति करनी चाहिये । इससे संतुष्ट हो मनसादेवी तुम्हें वर प्रदान करेगी।

ब्रह्माजी की यह बात सुनकर शिवजी ने भी उसका अनुमोदन किया । फिर गरुड़ ने प्रेम से प्रयत्नपूर्वक उन्हें समझाया। इन सबकी बात सुनकर स्नान से शुद्ध हो वस्त्र और आभूषण धारण करके धन्वन्तरि ब्रह्माजी को पुरोहित बना मनसा की पूजा करने को उद्यत हुए ।

॥ धन्वन्तरिरुवाच ॥
इहागच्छ जगद्गौरि गृहाण मम पूजनम् ।
पूज्या त्वं त्रिषु लोकेषु पुरा कश्यपकन्यके ॥ ५५ ॥
त्वया जितं जगत्सर्वं देवि विष्णुस्वरूपया ।
तेन तेऽस्त्रप्रयोगश्च न कृतो रणभूमिषु ॥ ५६ ॥

धन्वन्तरि बोले — जद्गगौरी मनसे! यहाँ आओ और मेरी पूजा ग्रहण करो । कश्यपनन्दिनि ! पहले से ही तीनों लोकों में तुम्हारी पूजा होती आयी है। देवि! तुम विष्णुस्वरूपा हो। तुमने सम्पूर्ण जगत् को जीत लिया है; इसीलिये रणभूमि में अस्त्र – प्रयोग नहीं किया है।

ऐसा कहकर संयत हो भक्ति से मस्तक झुका हाथ में श्वेत पुष्प ले वे ध्यान करने को उद्यत हुए।

चारुचम्पकवर्णाभां सर्वाङ्गसुमनोहराम् ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां शोभितां सूक्ष्मवाससा ॥ ५८ ॥
सुचारुकबरीशोभां रत्नाभरणभूषिताम् ।
सर्वाभयप्रदां देवीं भक्तानुग्रहकातराम् ॥ ५९ ॥
सर्वविद्याप्रदां शान्तां सर्वविद्याविशारदाम् ।
नागेन्द्रवाहिनीं देवीं भजे नागेश्वरीं पराम् ॥ ६० ॥

ध्यान
मनसादेवी की अङ्गकान्ति मनोहर चम्पा के समान गौर है। उनके सभी अङ्ग मन को मोह लेने वाले हैं । प्रसन्न मुख पर मन्द हास की छटा छा रही है। महीन वस्त्र उनके श्रीअङ्गों की शोभा बढ़ाते हैं । परम सुन्दर केशों की वेणी अद्भुत शोभा से सम्पन्न है । वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित हैं। सबको अभय देने वाली वे देवी भक्तों पर अनुग्रह के लिये कातर देखी जाती हैं। सम्पूर्ण विद्याओं की देने वाली, शान्तस्वरूपा, सर्वविद्याविशारदा, नागेन्द्रवाहना और नागों की स्वामिनी हैं; उन परा देवी मनसा का मैं भजन करता हूँ ।

प्रिये ! इस प्रकार ध्यान कर पुष्प दे नाना द्रव्यों से युक्त षोडशोपचार चढ़ाकर धन्वन्तरि ने उनका पूजन किया। तत्पश्चात् पुलकित शरीर हो भक्ति से मस्तक झुका दोनों हाथ जोड़ उन्होंने यत्नपूर्वक मनसादेवी की स्तुति की।

॥ धन्वतरिरुवाच ॥
नमः सिद्धिस्वरूपायै सिद्धिदायै नमो नमः ।
नमः कश्यपकन्यायै वरदायै नमो नमः ॥ ६३ ॥
नमः शंकरकन्यायै शंकरायै नमो नमः ।
नमस्ते नागवाहिन्यै नागेश्वर्यै नमो नमः ॥ ६४ ॥
नम आस्तीकजननि जनन्यै जगतां मम ।
नमो जगत्कारणायै जरत्कारुस्त्रियै नमः ॥ ६५ ॥
नमो नागभगिन्यै च योगिन्यै च नमो नमः ।
नमश्चिरं तपस्विन्यै सुखदायै नमो नमः ॥ ६६ ॥
नमस्तपस्यारूपायै फलदायै नमो नमः ।
सुशीलायै च साध्व्यै च शान्तायै च नमो नमः ॥ ६७ ॥

धन्वन्तरि बोले — सिद्धिस्वरूपा मनसादेवी को नमस्कार है। उन सिद्धिदायिनी देवी को बारंबार मेरा प्रणाम है । वरदायिनी कश्यप-कन्या को नमस्कार, नमस्कार और पुनः नमस्कार । कल्याणकारिणी शंकर-कन्या को बारंबार नमस्कार । तुम नागों पर सवार होने वाली नागेश्वरी हो। तुम्हें नमस्कार, नमस्कार, नमस्कार । तुम आस्तीक की माता और जगज्जननी हो; तुम्हें मेरा नमस्कार है । जगत् की कारणभूता जरत्कारु को नमस्कार है। जरत्कारु मुनि की पत्नी को नमस्कार है। नागभगिनी को नमस्कार है । योगिनी को बारंबार नमस्कार है । चिरकाल तक तपस्या करने वाली सुखदायिनी मनसादेवी को बारंबार नमस्कार है। तपस्यारूपा देवी को नमस्कार है । फलदायिनी मनसादेवी को नमस्कार है । साध्वी, सुशीला एवं शान्तस्वरूपा देवी को बारंबार नमस्कार है ।

ऐसा कहकर धन्वन्तरि ने भक्तिभाव से यत्नपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। उस स्तुति से संतुष्ट हुई देवी मनसा धन्वन्तरि को वर देकर शीघ्र ही अपने घर को चली गयी। ब्रह्मा, रुद्र और गरुड़ भी अपने-अपने धाम को चले गये । भगवान् धन्वन्तरि भी अपने भवन को पधारे। फणों से सुशोभित नागगण प्रसन्नतापूर्वक पाताल को चले गये । प्रिये ! इस प्रकार मैंने सम्पूर्ण स्तवराज तुमसे कहा है । आस्तीक ने विधिपूर्वक माता की भक्ति की । इससे वह जगद्गौरी अपने पुत्र मुनिवर आस्तीक पर बहुत संतुष्ट हुई। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस परम पुण्यमय स्तोत्र का पाठ करता है; उसके वंशजों को नागों से भय नहीं होता, इसमें संशय नहीं है।   (अध्याय ५१ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे धन्वन्तरिदर्पभंगमनसाविजयो नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.