March 2, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 56 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) छप्पनवाँ अध्याय लक्ष्मी स्तोत्र कथन नारद बोले — ब्रह्मन् ! मैं अनन्त एवं अच्युत का अपूर्व, रहस्यमय, परम अद्भुत एवं धन्य अनन्त चरित्र सुन चुका । भगवान् श्रीकृष्ण ने महाविष्णु ( महा विराट् ) एवं अन्य लोगों के दर्प को किस प्रकार चूर-चूर किया, आप उसे कहने की कृपा करें । भगवान् श्रीकृष्ण का चरित तो स्वतः सुनने में अतिमधुर है ही, किन्तु आपके मुख से मधुर कृष्णचरित सुनने में उसमें अत्यन्त मधुरता आ जाती है । नारायण बोले — एक बार महाविष्णु को सहसा अभिमान उत्पन्न हो गया कि समस्त विश्व मेरे लोमकूपों में स्थित हैं, अतः मैं ही ईश्वर हूँ । अनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण अपना संहार-भैरव रूप धारण करके उन्हें लीलापूर्वक निगलने लगे, केवल सिर अवशेष रहने पर महाविष्णु तन्मयता से उनका ध्यान एवं स्तुति करने लगे । भयभीत देखकर कृपानिधान भगवान् ने उनका शरीर पुनः पूर्व की भांति सुसम्पन्न कर दिया । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय हे ब्रह्मन् ! इसी भाँति ब्रह्मा को भी एक बार सहसा अभिमान हो गया था—कि मैं ही तीनों लोकों का धाता (धारण करनेवाला), कर्त्ता एवं साक्षात् ईश्वर हूँ, मुझसे बढ़कर कोई पूजित नहीं है और न मुझसे बढ़कर कोई जितेन्द्रिय है । मन में ऐसा निश्चय करने पर उन्हें अत्यन्त अभिमान हो गया । अनन्तर गोलोक में अपने समीप बैठे हुए ब्रह्मा को व्यापक भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्रह्म-समूह का तत्काल दर्शन कराया, जिनमें पाँच मुख वाले, चार-मुख वाले, छह मुख वाले एवं उससे अधिक सौ मुख वाले ब्रह्मा थे। प्रत्येक ब्रह्मा के साथ ब्रह्माण्ड समुदाय को भी लीलापूर्वक दिखा दिया, जिससे ब्रह्मा लज्जित होकर नीचे सिर झुकाकर अपनी देह त्याग करने के लिए तैयार हो गये । अनन्तर कृपानिधान भगवान ने उन पर पुनः कृपा की और समय आने पर मोहिनी द्वारा उन्हें अपूज्य भी बनाया, उनकी अपनी कन्या को दिखाकर उन्हें कामाकुल किया और पुनः शिव द्वारा उनके अभिमान को चूर-चूर कर दिया, जिससे लज्जित होकर उन्होंने अपनी उस देह का त्यागकर अन्य शरीर धारण किया । अनन्तर महाज्ञानी, ज्ञानानन्दस्वरूप एवं सनातन भगवान् ने ब्राह्मणरूप में प्रकट होकर ब्रह्मा को पुन: पूज्य बना दिया और उन्हें ज्ञान भी प्रदान किया। इसी प्रकार भगवान् विष्णु को एक बार गर्व हो गया था कि – ‘मैं ही समस्त जगत् का पालन-पोषणकर्ता एवं ईश्वर हूँ । पश्चात् रामावतार होने पर भगवान् कृष्ण ने उन्हें आत्मविस्मृत (अपने को भूल जाना) करके उनका गर्व दूर किया। शेष को भी अभिमान हो गया था कि- मैं समस्त विश्व को धारण करता हूँ, अतः मेरे समान कौन है । यह देखकर भगवान् ने उनके गर्व को गरुड़ द्वारा चूर-चूर कर दिया । हे मुने ! एक बार भगवान् कृष्ण के वाहन गरुड़ की समस्त नागों ने पूजा की किन्तु अपने अभिमान के कारण शेष ने उनकी अर्चना नहीं की । इस पर क्रुद्ध होकर गरुड़ ने उस मनस्वी अनन्त को जीत लिया। तब कृपानिधान श्रीकृष्ण ने उसको (गरुड़ से ) छुड़ा दिया । स्वयं शिव भी अपने अभिमान के कारण विवाह करने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे । भगवान् ने माया द्वारा मोहित करके उन्हें पत्नीयुत किया और पुनः उनकी पत्नी – महासती दक्ष-पुत्री का हरण कर लिया । ( अर्थात् दक्षयज्ञ में सती ने आत्मदाह कर लिया) । पश्चात् शिव उनके शव को गोद में लिये वर्षों शोकपीड़ित रहे, शोक के कारण बार-बार रोदन करते हुए अनेकों स्थानों में घूमते रहे । पुनः जन्मान्तर में उस सती पार्वती को प्राप्त कर शिव अति प्रसन्न हुए, किन्तु दक्ष-शाप के कारण उन्हें अपना ज्ञान विस्मृत हो गया, फिर अङ्गिरापुत्र दुर्वासा ने उन्हें शीघ्र स्मरण कराया। इसी प्रकार पूर्वकाल में भगवान् ने एक बार शिव को रथ पर बैठाकर त्रिपुरासुर के यहाँ भेजा । और वहां शिव द्वारा उस दैत्य की हत्या कराकर उन्हें ‘त्रिपुरारि’ नाम से विख्यात किया । कृपानिधान शिव ने सबके लिए सब प्रकार के वरदान देने में समर्थ होते हुए भी स्वयं कल्पवृक्ष होकर प्रतिज्ञा की । अनन्तर वृकासुर ने भगवान् शिव की आराधना करके उनसे वरदान प्राप्त किया कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूं, वह उसी समय भस्म हो जाये, यह सुनकर जगत् के स्वामी शिव ने कहा — ‘ तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा।’ इस भाँति रुद्र से वरदान प्राप्त करके वह दैत्य वहाँ से जाते हुए शिव के ही सिर पर हाथ रखने के लिए शीघ्रता से दौड़ पड़ा । यह देखकर शिव अति भयभीत हुए और भगवान् की शरण में गये । अनन्तर भगवान् ने शिव के निमित्त उस दैत्य को ( युक्ति से) भस्म किया । पूर्वकाल में बाणासुर के साथ युद्ध करते हुए शिव को भगवान् ने अपने जृम्भण करने वाले अस्त्र से लीलापूर्वक जड़ बना दिया । पुनः दक्ष यज्ञ में दम्भपूर्वक आये हुए शिव को भगवान् ने उनके गले में हाथ लगाकर वहाँ से हटा दिया । इसी भांति केदार-कन्या द्वारा महान् धर्म को शाप पड़ा, जिससे भयभीत होकर धर्म अमावस्या के चन्द्रमा की भाँति अति दुर्बल (क्षीण ) हो गये । तब शाप का अन्त हो जाने पर — सत्ययुग में वे पुनः पूर्णरूप से स्वस्थ हो गये । त्रेता में उनके तीन चरण, द्वापर में दो चरण और कलि में एक चरण रह जाता है तथा कलि के अन्त में वे पुनः क्षीण हो जाते हैं । इस प्रकार सोलहवें भाग में अवस्थित तथा अत्यन्त दुःखी धर्म भगवान् के चरणों का स्मरण करने लगे । तब सत्ययुग में पुनः परिपूर्ण हो गये । इस भांति युगों के अनुसार वे क्रमशः घटते-बढ़ते रहते हैं । माण्डव ऋषि के शाप से यमराज को भी शूद्र के घर उत्पन्न होना पड़ा और सौ वर्ष के उपरान्त वे पुनः शुद्ध हुए । विमाता के शाप से साम्ब को गलत्कुष्ठ का रोग हो गया। तब वे सूर्य का व्रत करके पुनः शुद्ध हुए । अभिमान के मद में चूर होकर चन्द्रमा ने बृहस्पति की पत्नी (तारा) का अपहरण कर लिया, किन्तु यक्ष्मा रोग से ग्रस्त होने पर उनका भी दर्प भंग हो गया । अपने तेज के अभिमान में सूर्य शङ्कर के सेवक – सुमाली दैत्य को मारने के लिए पर्वत पर जा पहुँचे, जो सूर्य की ही भाँति प्रकाश करने का कार्य रात-दिन कर रहा था। अनन्तर सूर्य से भयभीत होकर वह दैत्य शिव की शरण में चला गया । हे मुने ! सूर्य को देखकर शिव ने उन्हें मारने के लिए अपना शूल उठाया । यह देखकर सूर्य बहुत भयभीत हुए और भागते हुए काशी पहुंचे। वहाँ काशी के अधीश्वर शिव ने शूल द्वारा सूर्य का हनन किया, जिससे वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े और उनका दर्प-भङ्ग हो गया । पश्चात् समस्त भूमण्डल घोर अंधकार से सहसा आच्छन्न हो गया, यह देखकर आशुतोष महादेव ने उसी क्षण उन्हें जीवित कर दिया । उपरान्त लज्जित एवं भयभीत होकर सूर्य ने शिव जी की स्तुति की और कृपानिधान शिव प्रसन्नतापूर्वक उन्हें आशिष देकर घर चले गये । पूर्वकाल में भगवान् ने सहज ही में गरुड़ का दर्प-भंजन कर दिया; क्योंकि वह शिव और उनके वृषभ ( नन्दी) के नि:श्वास- वायु से उस समय उड़ा दिया गया जब श्रेष्ठ देव नारायण से मिलने के लिए शिव नन्दी की पीठ पर जा रहे थे । इसी प्रकार भृगु महर्षि के शाप से अग्नि का अभिमान चूर हो गया — वे सर्वभक्षी हो गये । बृहस्पति की पत्नी तारा का अपहरण हो जाने से उनका भी दर्प भङ्ग हो गया । अम्बरीष के कारण भगवान् विष्णु के उस दुःसह सुदर्शन चक्र ने दुर्वासा का अभिमान चूर कर दिया । भगवान् ने ब्राह्मण ( सनत्कुमारादि) के शाप के छल से वैकुण्ठ से नीचे गिराकर अपने द्वारपाल जय-विजय का दर्प भञ्जन किया । वे दोनों ( जय-विजय) हिरण्यकशिपु – हिरण्याक्ष नामक दैत्य हुए। वह हिरण्यकशिपु भी भगवान् नृसिंह द्वारा मारा गया। वे दोनों उसी भाँति रसातल में भगवान् के वराहावतार द्वारा हिरण्याक्ष भी सहज ही में मारा गया । पुनः रावण कुम्भकर्ण हुए। वहाँ लङ्का में भगवान् राम के बाणों द्वारा वे दोनों मारे गये, जिनके हनन के लिए ब्रह्मा ने पहले ही प्रार्थना की थी । पुनः तीसरे जन्म में वे दोनों शिशुपाल-दन्तवक्र हुए जो भगवान् श्रीकृष्ण के बाण द्वारा आहत होकर पुनः स्वर्ग चले गये । इस प्रकार भगवान् ने दैत्यों द्वारा देवों का और देवों द्वारा दैत्यों का परस्पर विरोध कराकर (दोनों) का दर्प भंग किया । भगवान् ने ब्रह्मा द्वारा आपका भी अभिमान चूर कर दिया है, क्योंकि पूर्वकाल में आप प्रजापति के नारद नामक पुत्र थे । पिता के शाप से गन्धर्व, शूद्री-पुत्र आदि क्रमशः हुए और इस समय भगवान् की कृपा से पुनः नारद रूप में दिखायी देते हो । एक बार कामदेव को भी अभिमान हो गया कि समस्त विश्व मेरे ही अधीन है। तब भगवान् ने उस मदान्ध कामदेव को शिव द्वारा भस्म करा दिया और प्रसन्न होकर पुनः सहज ही में जीवित भी कर दिया । इसलिए भगवान् के भक्तों पर वह उसी दिन से अपने अस्त्रों का प्रयोग नहीं करता है । (भगवान् ने ) अभिमानी लक्ष्मण का भी युद्ध में रावण – प्रेरित शिव-शूल के द्वारा दर्प-मोचन किया । हे नारद! राम द्वारा स्तुति करने पर जो ब्रह्मशाप के कारण स्वयं विष्णु होकर भी अपने को विस्मृत हो गये थे, पुनः उन्हें जीवित किया । पूर्वकाल में ( भगवान् ने ) कार्तवीर्यार्जुन का भी परशुराम के अमोघ परशु ( फरसा ) अस्त्र द्वारा दर्प-भङ्ग किया था । इसी प्रकार ब्राह्मण-पुत्र के मरण, कृष्ण की स्त्रियों के अपहरण और समर में कर्ण के साथ युद्ध में अर्जुन का भी अभिमान चूर किया। उषा के हरण में भगवान् ने स्वयं बाण की भुजाओं को छिन्न-भिन्न करके उसका दर्प-भङ्ग किया और दक्ष के यज्ञ में भृगु का दर्प-मोचन किया। भगवान् ने राम के विवाह में – मार्ग में जाते हुए परशुराम का राम द्वारा अभिमान चूर किया । वायु द्वारा सुमेरु पर्वत का शिखर भङ्ग कराकर उसका अभिमान चूर किया और अगस्त्य द्वारा — जलपान कराकर — समुद्र का अभिमान नष्ट किया । प्राचीन काल में असमय में सृष्टि-विनाश करने पर तुले हुए कुपित वायु का भगवान् ने उनके पुत्र की मुत्यु के द्वारा अभिमान भङ्ग किया । उषा-हरण की यात्रा में भगवान् के द्वारकापुरी से चले जाने पर उन्होंने बाणासुर की गौओं के कारण वरुण को शाप दिया । नारायण (विष्णु) के सामने गंगा के साथ सरस्वती का कलह होने पर सरस्वती का त्याग कर उनका दर्पभंग किया । शिव ने हिमालय में रहकर अभिमानिनी दुर्गा का त्याग कर दिया और काम को भस्म कर वे स्वयं तप के लिए चले गये । अनन्तर अभिमान चूर हो जाने से देवी बहुत लज्जित हुईं और शिव की प्राप्ति के लिए भगवान् विष्णु की आराधना करने के हेतु जंगल में चली गयीं । भारत में अति चिरकाल तक तप करके देवी ने भगवान् विष्णु के वरदान से सनातन भगवान् शिव को अपना स्वामी बनाया । वह देवी महासौभाग्य युक्त, शंकर की प्रिया, विश्व की सभी देवियों में पूज्या, वन्दनीया तथा देवताओं से स्तुत हुई । हे महामुने ! पूर्वकाल में महालक्ष्मी को भी अभिमान हो गया था । तब जय-विजय के द्वारा देवी का अपमान कराकर उनका भी अभिमान चूर किया । भक्त को अभीष्ट वर प्रदान करने के उपरान्त वे द्वार में प्रवेश कर रही थीं कि द्वारपाल ने उस द्वार पर उन्हें रोक दिया । अभिमानिनी एवं महासती महालक्ष्मी इसे अपना अपमान समझकर भगवान् के चरण-कमलों का स्मरण करके देह त्याग करने के लिए तैयार हो गयीं । यह देखकर ब्रह्मा, महेश, विष्णु, धर्म, सूर्य, चन्द्र, कामदेव, वैश्वानर, कुबेर, ऋषिवृन्द; मुनिगण, विघ्ननाशक, ( विनायकगण ), मनुवृन्द, महेन्द्र, वरुण, वायु और अग्नि रोते हुए, लक्ष्मी के पास पहुँचे तथा मूल प्रकृति एवं ईश्वरी महालक्ष्मी की स्तुति करने लगे । ॥ सर्व देव कृत लक्ष्मी स्तोत्र ॥ ॥ देवा ऊचुः ॥ क्षमस्व भगवत्यम्ब क्षमाशीले परात्परे । शुद्धसत्त्वस्वरुपे च कोपादिपरिवर्जिते ॥ ७६ ॥ उपमे सर्वसाध्वीनां देवीनां देवपूजिते । त्वया विना जगत्सर्व मृततुल्यं च निष्फलम् ॥ ७७ ॥ सर्वसंपत्स्वरुपा त्वं सर्वेषां सर्वरूपिणी । रासेश्वर्यधिदेवी त्वं त्वत्कलाः सर्वयोषितः ॥ ७८ ॥ कैलासे पार्वती त्वं च क्षीरोदे सिन्धुकन्यका । स्वर्गे च स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं मर्त्यलक्ष्मीश्च भूतले ॥ ७९ ॥ वैकुण्ठे च महालक्ष्मीर्देवदेवी सरस्वती । गङ्गा च तुलसी त्वं च वृन्दा वृन्दावने वने ॥ ८० ॥ कृष्णप्राणाधिदेवी त्वं गोलोके राधिका स्वयम् । रासे रासेश्वरी त्वं च वृन्दा वृन्दावने वने ॥ ८१ ॥ कृष्णप्रिया त्वं भाण्डीरे चन्द्रा चन्दनकानने । विरजा चम्पकवने शतशृङ्गे च सुन्दरी ॥ ८२ ॥ पद्मावती पद्मवने मालती मालतीवने । कृन्ददन्ती कुन्दवने सुशीला केतकीवने ॥ ८३ ॥ कदम्बमाला त्वं देवी कदम्बकाननेऽपि च । राजलक्ष्मी राजगेहे गृहलक्ष्मीर्गृहे गृहे ॥ ८४ ॥ इत्युक्तवा देवताः सर्वे मुनयो मनवस्तथा । रुरुदुर्नम्रवदनाः शुष्ककण्ठोष्ठतालुकाः ॥ ८५ ॥ इति लक्ष्मीस्तवं पुण्यं सर्वदेवैः कृतं शुभम् । यः पठेत्प्रातरुत्थाय स वै सर्वं लभेद्ध्रुवम् ॥ ८६ ॥ अभार्योलभते भार्यां विनीतां च सुतां सतीम् । सुशीलां सुनदरीं रम्यामतिसुप्रियवादिनीम् ॥ ८७ ॥ पुत्रपौत्रवतीं शुद्धां कुलजां कोमलां वराम् । अपुत्रो लभते पुत्रं वैष्णवं चिरजीविनम् ॥ ८८ ॥ परमैश्वर्ययुक्तं च विद्यावन्तं यशस्विनम् । भ्रष्टराज्यो लभेद्राज्यं भ्रष्टश्रीर्लभते श्रियम् ॥ ८९ ॥ हतबन्धुर्लभेद्बन्धुं धनभ्रष्टो धनं लभेत् । कीर्तिंहीनो लभेत्कीर्तिं प्रतिष्ठां च लभेद्ध्रुवम् ॥ ९० ॥ सर्वमङ्गलदं स्तोत्रं शोकसंतापनाशनम् । हर्षानन्दकरं शश्वद्धर्ममोक्षसुहृत्प्रदम् ॥ ९१ ॥ देववृन्द बोले — हे क्षमाशीले ! अम्ब ! भगवति ! हे परात्परे ! शुद्धसत्त्वस्वरूपवाली ! क्रोध आदि से शून्य ! क्षमा करो । हे समस्त पतिव्रता देवियों की उपमा स्वरूप ! हे देवपूजिते ! तुम्हारे बिना यह समस्त जगत् मृततुल्य एवं निष्फल है । तुम समस्त सम्पत्स्वरूपा हो, सभी प्राणियों के सर्वरूप हो, तुम्हीं रासेश्वरी और अधिष्ठात्री देवी हो और ( संसार की ) समस्त स्त्रियां तुम्हारी कला हैं । तुम कैलास में पार्वती, क्षीरसागर में सिन्धुपुत्री ( महालक्ष्मी), स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी एवं भूतल पर मर्त्य-लक्ष्मी हो । उसी भाँति वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, देवदेवी, सरस्वती, गंगा, तुलसी और ब्रह्मलोक की सावित्री देवी हो । तुम गोलोक में भगवान् कृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी राधा हो, रास में स्वयं रासेश्वरी और वृन्दावन की वृन्दा हो । तुम भाण्डीरवन में कृष्णप्रिया, चन्दनवन में चन्द्रा, चम्पकवन में विरजा और शतशृङ्ग (सौ शिखर- वाले पर्वत) की सुन्दरी हो । तुम पद्मवन की पद्मावती, मालती वन की मालती, कुन्दवन की कुन्ददन्ती ( कुन्द पुष्प के समान दाँतोंवाली) एवं केतकी-वन की सुशीला हो । कदम्बवन की तुम कदम्बमाला देवी हो, राजघर की राजलक्ष्मी और घर-घर की गृहलक्ष्मी स्वरूप हो । इतना कहकर सभी देववृन्द, मुनिगण और मनु लोग नीचे मुख करके रोदन करने लगे, जिनके कण्ठ, ओंठ और तालु सूखे हुए थे । इस प्रकार समस्त देवकृत इस पुण्य एवं शुभ लक्ष्मी स्तोत्र को जो प्रातःकाल उठकर पढ़ता है, उसे निश्चित ही सब कुछ प्राप्त होता है । स्त्री-रहित को विनीता, पतिव्रता, सुशीला, सुन्दरी, रम्या, अतिमधुर बोलनेवाली, पुत्र-पौत्रः सम्पन्ना, शुद्धकुलीना एवं अति कोमलाङ्गी स्त्री की प्राप्ति होती है । पुत्रहीन को वैष्णव, चिरजीवी परम ऐश्वर्यं सम्पन्न, विद्यावान् एवं यशस्वी पुत्र प्राप्त होता है । राज्यच्युत को पुनः राज्यप्राप्ति, भ्रष्टश्री को श्री की प्राप्ति, नष्ट बन्धु को बन्धु की प्राप्ति, धनहीन को धन और कीर्ति रहित को कीर्ति समेत प्रतिष्ठा की निश्चित प्राप्ति होती है । इस प्रकार यह स्तोत्र सम्पूर्ण मङ्गलदायक, शोकसंतापकनाशक, हर्ष आनन्दकारी और निरन्तर धर्म, मोक्ष एवं मित्र प्रदान करनेवाला है । (अध्याय ५६) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवद्गुणवर्णने लक्ष्मीस्तोत्रकथनं नाम षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायाः ॥ ५६ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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