ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 57
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
सतावनवाँ अध्याय
लक्ष्मी का वैराग्य-त्याग

नारायण बोले — हे नारद! देवों की स्तुति सुनकर सती लक्ष्मी ने रोना बन्द कर दिया और उनकी स्तुति से अति प्रसन्न होकर कहा ।

महालक्ष्मी बोलीं — हे देववृन्द ! मैं इस समय क्रोध या वैराग्य के आवेश में आकर शरीर त्याग नहीं कर रही हूँ । इसके लिए मैंने अपने हृदय में जो कुछ निश्चित किया है, उसे कह रही हूँ, सुनो ! जो परमेश्वर महान्, सबके लिए समान, निर्गुण, सर्वात्मा और सदा आनन्द स्वरूप हैं, उनके लिए तृण और पर्वत समान हैं । फिर जो अपनी भौंहों को टेढ़ी करने मात्र से लाखों लक्ष्मी बना सकने में समर्थ हैं, पर-पत्नी और भृत्य को समान भाव से देखते हैं, उनकी सेवा करने से क्या लाभ ? मैं उनकी पत्नियों में प्रधान हूँ, फिर भी द्वारपाल ने मुझे इस समय रोक दिया है, जो उनके भृत्य के भृत्य का भृत्य है । परिपूर्ण कृष्ण को मैं अभीष्ट भी नहीं रही ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

पति सौभाग्य से हीन होने के कारण मैं अग्नि में कामना करके अपना जीवन त्यागना चाहती हूँ, जिससे पूर्वकाल की तरह कल्याण हो । जो स्त्री पति-सौभाग्य-हीन है, वह सब ओर से सौभाग्य-हीन है । शयन-भोजन में उसे कोई सुख नहीं है, उसका जीवन व्यर्थ है । जिसे अपने प्रियतम का प्रेम नहीं प्राप्त है, उसका जन्म निरर्थक है, अतः उसे अपने पुत्र, धन, अपने सौन्दर्य, सम्पत्ति अथवा यौवन से ही क्या प्रयोजन ? जिसे सबसे बढ़कर परम प्रेमास्पद अपने स्वामी में भक्ति नहीं है, वह अपवित्र, धर्म-हीन और समस्त कार्यों में वर्जित है । क्योंकि पति ही बन्धु, गति, भर्ता, देव और गुरु है, अतः सबसे बढ़कर स्वामी होता है, पति से बढ़कर कोई गुरु नहीं है ।

हे देवगण ! पिता, माता, पुत्र और भ्राता बड़ी कठिनाई से धन दे सकते हैं, किन्तु मूढ़ स्त्रियों को भी पति सर्वस्व प्रदान करता है । इसीलिए पति के महत्त्व को कोई महापतिव्रता ही जानती है जो अति उत्तम कुल में उत्पन्न, सुशीला एवं कुल का पालन करनेवाली होती है । और जो असत्कुल में उत्पन्न, उग्र स्वभाववाली, धर्मरहित, कटुवादिनी एवं व्यभिचारिणी होती है, वह क्रोध से पति की निन्दा करती है । जो स्त्री सर्वश्रेष्ठ एवं विष्णु के समान गुरु अपने पति से द्वेष करती है वह चौदहों इन्द्रों के काल तक कुम्भीपाक नरक में पचती रहती है । पति-भक्ति-हीन स्त्री का व्रत, अनशन (उपवास), दान, पुण्य और चिरकाल का तप भस्मीभूत होकर व्यर्थ हो जाता है ।

इसलिए मैं अपने निष्ठुर ईश्वर पति को कुछ भी नहीं कहूँगी; केवल पतिदेव के भृत्यापराधवश मैं निश्चित हो प्राणत्याग कर दूंगी । क्योंकि महासती स्त्री पति से अपराध होने पर भी उसे निष्ठुर बात नहीं कहती है और यदि सहन करने में असमर्थ होती है तो धर्मतः अपने प्राणों का त्याग कर देती है । इसलिए स्त्रियों का पति-सेवा ही व्रत है, पति सेवा परम तप है, पति-सेवा महान् धर्म है, पति-सेवा देव पूजा है, पति सेवा परम सत्य एवं दान और तीर्थ सेवन स्वरूप है । अत: स्त्रियों का पति समस्त देव रूप होता है और सर्वदेवमय वह पवित्र मूर्ति है । वह समस्त पुण्य स्वरूप और पतिरूप में जनार्दन भगवान् है, अतः जो पतिव्रता पति का उच्छिष्ट भोजन और उसके चरणोदक का सदा सेवन करती है, उसके दर्शन और सान्निध्य के लिए देवता लोग नित्य इच्छुक रहते हैं, उन्हीं स्त्रियों के दर्शन एवं स्पर्श करने से समस्त तीर्थ पापियों को पापों से मुक्त कर पवित्र करते हैं ।

यह कहकर महासती लक्ष्मी बार-बार रोने लगीं । यह देखकर भयभीत ब्रह्मा भक्ति से कन्धे झुकाकर कहने लगे ।

ब्रह्मा बोले — हे पतिव्रते ! तुमने अपने प्रियतम के अपराध-भय से जय-विजय को शाप नहीं दिया, इसलिए उन मूर्खो का कल्याण नहीं होगा । धर्मात्मा प्राणी अपने क्षमाशील (स्वभाव) के कारण यदि अपराधी को शाप नहीं देता है, तो उसका निश्चित एवं अविलम्ब सर्वनाश हो जाता है । यदि वह न शाप दे सकता है और न दण्ड विधान करने में ही समर्थ होता है, तो उस अपराधी पुरुष को धर्म स्वयं दण्ड देता है । अतः हे माता ! (जो कुछ हो गया) वह सब क्षमा करो और अपने स्वामी के भक्त मुझको सृष्टिकार्य में नियुक्त करके अपने प्रियतम के समीप चलो ।

इतना कहकर ब्रह्मा ने देवों और मुनियों समेत लक्ष्मी को आगे करके भगवान् के स्तुत्यर्थ शीघ्र वैकुण्ठ को प्रस्थान कर दिया । वहाँ पहुँचने पर कमलासन एवं चतुर्मुख ब्रह्मा ने अपने चारों मुखों द्वारा चारों वेदवेत्ताओं के गुरु जगन्नाथ भगवान् की स्तुति करना आरम्भ किया । कमलापति भगवान् ने ब्रह्मा की स्तुति सुनकर और सामने नीचे मुख किये रोती हुई लक्ष्मी को देखकर कहा ।

श्रीभगवान् बोले — हे कमलोद्भव ! मैं सर्वज्ञ, सबका आत्मा, सबका पालक, सब पर शासन करने- वाला एवं सबका आदि कारण हूँ, अतः सब कुछ जानता हूँ । भक्त, पत्नी एवं बन्धुओं आदि में सर्वत्र समता का ही भाव मैं रखता हूँ, और विशेषता यह है कि जो मेरा अतिभक्त है वह पत्नी से भी बढ़कर ( प्रिय) है । इसलिए इन दुर्जेय द्वारपालों का जो मेरे भक्तिपूर्ण भक्त हैं और तुम्हारे पुत्र हैं उनका तथा साथ ही मेरा भी अपराध क्षमा करो । मेरी भक्ति से परिपूर्ण बलवान् जन दैत्यों से भी कभी भयभीत नहीं होता । भक्तिरूपी मदिरा पीकर उसके मद से मतवाले उन भक्तों की रक्षा मेरा सुदर्शन चक्र करता है ।

इतना कहकर जगत् के अधीश्वर भगवान् ने लक्ष्मी को अपने हृदय से लगा लिया ।

अनन्तर द्वारपाल को बुलाकर उससे कहने लगे —  हे वत्स ! भय मत करो । सुखपूर्वक रहो । मेरे रहते तुम्हें कोई भय नहीं है और मेरे भक्तों पर अन्य कौन शासन कर सकता है ? अतः हे वत्स ! अब पुनः अपने पद पर सुस्थिर हो जाओ ।

हे महामुने ! यह कहकर भगवान् चुप हो गये। पश्चात् देवगण भी जगदीश्वर भगवान् को प्रणाम करके अपने-अपने स्थान को चले गये । नारायण की बात सुनकर द्वारपाल ने सम्पूर्ण शरीर से रोमाञ्चित होकर भक्ति से कन्धे झुकाये कहना आरम्भ किया ।

जय बोला — हे भगवन् ! आपके चरणकमल का एकाग्र मन से ध्यान करने वाला मैं लक्ष्मी, देवों तथा मुनिगणों से भी नहीं डरता हूँ । (अध्याय ५७)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद लक्षमी-वैराग्यमोचनं नाम सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५७ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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