ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 59
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
छप्पनवाँ अध्याय
इन्द्र के दर्प-भङ्ग की कथा, नहुष की शची पर कुदृष्टि, शची का धर्म की बातें बताकर नहुष को समझाना और उसके न मानने पर बृहस्पतिजी की शरण में जाकर उनका स्तवन करना

सूतजी कहते हैं — तदनन्तर नारदजी के पूछने पर श्रीनारायण ने संक्षेप से कुछ लोगों के दर्प-भङ्ग की घटनाएँ सुनायीं । फिर इन्द्र के दर्प-भङ्ग का वृत्तान्त बताते हुए बोले ।

श्रीनारायण ने कहा — नारद! इस प्रकार सबके दर्प-भङ्ग का प्रसङ्ग कहा गया। अब इन्द्र के दर्प-भञ्जन की घटना विस्तारपूर्वक सुनो। एक समय इन्द्र अपने ब्रह्मनिष्ठ गुरु बृहस्पति को आते देखकर भी सभा में दर्पवश अपने श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन से नहीं उठे। इसे गुरु ने अपना अपमान समझा और वे अत्यन्त रुष्ट हो वहाँ से लौट गये । यद्यपि उनके मन में इन्द्र के प्रति द्वेषभाव का उदय हुआ था, तथापि धर्मात्मा गुरु ने स्नेहवश कृपा करके उन्हें शाप नहीं दिया; परंतु शाप न मिलने पर भी इन्द्र का घमंड चूर हो गया। यदि दूसरा कोई धर्म अथवा प्रेम का विचार करके किसी के भारी अपराध करने पर भी शाप न दे तो भी उसका वह अपराध अवश्य फल देता है ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारद! धर्मदेव ही उस पापी का नाश कर देते हैं । जो धर्मात्मा पुरुष जिस हिंसक या अपराधी को क्रोधपूर्वक शाप दे देता है, उसके उस शाप से अपराधी का अवश्य विनाश होता है; परंतु उस धर्मात्मा पुरुष का धर्म भी उसी मात्रा में क्षीण हो जाता है। इन्द्र ने जो गुरु का अपमानरूप अधर्म किया था, उसके कारण वे ब्रह्महत्या के भागी हुए। ब्रह्महत्या से डरे हुए इन्द्र अपना राज्य छोड़कर एक पवित्र सरोवर को चले गये और उस सरोवर के कमल-नाल में निवास करने लगे। भारतव र्षमें भगवान् विष्णु का वह सरोवर पुण्यमय तीर्थ और तपस्वीजनों के तप का श्रेष्ठ स्थान है। वहाँ ब्रह्महत्या नहीं जा सकती। उसी को पुराणवेत्ता पुरुष ‘पुष्कर’1  तीर्थ कहते हैं । इन्द्र को राज्यभ्रष्ट हुआ देख धर्मात्मा हरिभक्त नरेश नहुष ने उनके राज्य पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया ।

एक दिन मनोहर अङ्गवाली सुन्दरी शची, जिनके कोई संतान नहीं थी, पति-वियोग के कारण व्यथित-हृदय से आकाश-गङ्गा के तट पर जा रही थीं। उस समय नूतन यौवन से सम्पन्न तथा रत्नमय अलंकारों से विभूषित उन सुन्दर दाँतवाली, परम कोमलाङ्गी महासती शची पर नहुष की दृष्टि पड़ी। उन्हें देखते ही नहुष के मन में दूषित वृत्ति जाग उठी । उसने शची के समक्ष विनयपूर्वक अपनी कुत्सित वासना की पूर्ति के लिये प्रस्ताव रखा।

इस पर शची ने कहा — बेटा! मेरी बात सुनो। महाराज ! तुम प्रजा के भय का भञ्जन करने वाले हो । राजा समस्त प्रजा का पालक पिता होता है और वह सबकी भय से रक्षा करता है । इन दिनों महेन्द्र राज्य-लक्ष्मी से भ्रष्ट हो गये हैं और तुम स्वर्ग में राजा के पद पर प्रतिष्ठित हुए हो । जो राजा होता है, वह निश्चय ही प्रजाजनों का पालक पिता है। गुरुपत्नी, राजपत्नी, देवपत्नी, पुत्रवधू, माता की बहिन (मौसी ), पिता की बहिन (बूआ ), शिष्य-पत्नी, भृत्य-पत्नी, मामी, पिता की पत्नी (माता और विमाता), भाई की पत्नी, सास, बहिन, बेटी, गर्भ धारण करनेवाली (जन्मदात्री) तथा इष्टदेवी- ये पुरुष की सोलह माताएँ हैं 2  । तुम मनुष्य हो और मैं देवता की पत्नी हूँ; अतः तुम्हारी वेद-सम्मत माता हुई। बेटा! यदि माँ के साथ रमण करना चाहते हो तो माता अदिति के पास जाओ। वत्स ! सब पापियों के उद्धार का उपाय है; परंतु मातृगामियों के लिये कोई उपाय नहीं है । वे ब्रह्माजी की आयुपर्यन्त कुम्भीपाक नरक में पकाये जाते हैं । तत्पश्चात् सात कल्पों तक कीड़े होते हैं । फिर सात जन्मों तक कोढ़ी और म्लेच्छ होते हैं। उनका कदापि उद्धार नहीं होता; ऐसा ब्रह्माजी का कथन है । आङ्गिरस -स्मृति कहती है कि वेदों में उनके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है । निश्चय ही संसारी जीवों के लिये स्वर्ग की सम्पत्ति का भोग ही सुख है; परंतु मुमुक्षुओं के लिये मोक्ष, तपस्वीजनों के लिये तप, ब्राह्मणों के लिये ब्राह्मणत्व, मुनियों के लिये मौन, वैदिकों के लिये वेदाभ्यास, कवियों के लिये काव्य-वर्णन तथा वैष्णवों के लिये भगवान् विष्णु का दास्य ही परम सुख है । वे विष्णु-भक्ति के रसास्वादन को ही परम सुख मानते हैं। वैष्णवजन तो विष्णु-भक्ति को छोड़कर मुक्ति को भी लेने की इच्छा नहीं करते ।

राजेन्द्र ! तुम चक्रवर्ती राजाओं के प्रकाशमान कुल में उत्पन्न हुए हो। अनेक जन्मों के पुण्य से तुमने भारतवर्ष में जन्म पाया है। चन्द्रवंशी नरेशरूपी कमलों के विकास के लिये तुम ग्रीष्मकाल की दोपहरी के तेजस्वी सूर्य की भाँति प्रकट हुए हो । समस्त आश्रमों में स्वधर्म का पालन ही उत्तम यश का कारण होता है । स्वधर्म-हीन मूढ़ मानव नरक में गिरते हैं । तीनों संध्याओं के समय श्रीहरि की पूजा ब्राह्मण का अपना धर्म है । भगवच्चरणोदक का पान तथा भगवान्‌ के नैवेद्य का भक्षण उनके लिये अमृत से भी बढ़कर है। नरेश्वर ! जो अन्न और जल भगवान्‌ को समर्पित नहीं किया गया, वह मल-मूत्र के समान है । यदि ब्राह्मण उसे खाते हैं तो वे सब-के-सब सूअर होते हैं । ब्राह्मण आजीवन भगवान् ‌के नैवेद्य का भोजन करें; परंतु एकादशी को भोजन न करें। पूर्णतः उपवास करें। इसी तरह कृष्ण-जन्माष्टमी, शिवरात्रि तथा रामनवमी आदि पुण्य वासरों को भी उन्हें निश्चय ही यत्नपूर्वक उपवास करना चाहिये । ब्रह्माजी ने जो ब्राह्मणों का स्वधर्म बताया है; वह कहा गया ।

नरेश्वर ! पतिव्रताओं का व्रत पतिसेवा है । वही उनके लिये उत्तम तप है। पर-पुरुष पतिव्रताओं के लिये पुत्रतुल्य है; यही नारियों का धर्म है। राजा लोग जैसे प्रजा का औरस पुत्रों की भाँति पालन करते हैं, उसी प्रकार वे प्रजावर्ग की स्त्रियों को भी माता के समान देखते हैं । विष्णु की प्रसन्नता के लिये यज्ञ करते और देवताओं एवं ब्राह्मणों की सेवामें लगे रहते हैं । दुष्टों का निवारण और सत्पुरुषों का पालन करते हैं । पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने क्षत्रियों का यही धर्म बताया था। वाणिज्य और धर्मसंग्रह यह वैश्यों का अपना धर्म है । ब्राह्मणों की सेवा शूद्रों का परम धर्म निश्चित किया गया है। राजन् ! सब कुछ भगवान् श्रीहरि को समर्पण कर देना संन्यासियों का धर्म है । संन्यासी एकमात्र गेरुआ वस्त्र, दण्ड और मिट्टी का कमण्डलु धारण करता है । सर्वत्र समान दृष्टि रखता और सदा श्रीनारायण का स्मरण करता है । नित्य भ्रमण करता है। किसी के घर में नहीं टिकता और लोभवश किसी को विद्या और मन्त्र का उपदेश नहीं देता । संन्यासी अपने लिये आश्रम नहीं बनाता। दूसरी किसी वासना को मन में स्थान नहीं देता; दूसरे किसी का साथ नहीं करता और आसक्ति एवं मोह से दूर रहता है । वह लोभवश स्वादिष्ट भोजन नहीं करता, स्त्री का मुख नहीं देखता तथा व्रत में अटल रहकर किसी गृहस्थ पुरुष से मनचाही भोज्य वस्तु के लिये याचना भी नहीं करता । ब्रह्माजी ने यही संन्यासियों का धर्म बताया है। बेटा ! यह तुम्हें धर्म की बात बतायी है। अब तुम सुखपूर्वक अपने स्थान को जाओ ।

ऐसा कहकर मार्ग में मिली हुई इन्द्राणी चुप हो रहीं और राजा नहुष गर्दन टेढ़ी करके उनसे बोला ।

नहुष ने कहा — देवि! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब उलटी बात है । यथार्थ वैदिक धर्म क्या है ? यह मैं बताता हूँ, सुनो। सुरसुन्दरि ! इसमें संदेह नहीं कि सबको अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है; परंतु स्वर्ग, पाताल तथा दूसरे किसी द्वीप में जो कर्म किये जाते हैं, उनका फल नहीं भोगना पड़ता । पुण्य क्षेत्र भारत में शुभाशुभ कर्म करके कर्मी मनुष्य उस कर्म के बन्धन में बँधकर परलोक में उसके फल को भोगता है । हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्र तक का पवित्र देश ‘भारत’ कहा गया है । वह सब स्थानों में श्रेष्ठ तथा मुनियों की तपोभूमि है। वहाँ जन्म लेकर जीव भगवान् विष्णु की माया से वञ्चित हो सदा विषय-सेवन करता है और श्रीहरि की सेवा को भुला देता है। जो भारतवर्ष में महान् पुण्य करता है, वह पुण्यात्मा पुरुष स्वर्ग को जाता है । वहाँ स्वर्गीय कन्याओं को अपनाकर चिरकाल तक उनके साथ आनन्द भोगता है । मनुष्य मानव शरीर का त्याग करके स्वर्ग में आता है; किंतु सुन्दरि ! मैं अपने शरीर के साथ यहाँ आया हूँ। देखो, मेरा कैसा पुण्य है ? अनेक जन्मों के पुण्य से मैं अभीष्ट स्वर्ग में आया हूँ। तदनन्तर न जाने किस पुण्य से तुमसे मेरा साक्षात्कार हुआ है। यह कर्म का स्थान नहीं, अपने कर्मों के भोग का स्थान है।

यों कहकर कामासक्त नहुष ने फिर बहुत-सी युक्तियों के द्वारा पुनः अपने उसी पापपूर्ण प्रस्ताव को दुहराया ।

तब शची बोलीं — हाय ! इस विवेकशून्य, कर्तव्याकर्तव्य को न जानने वाले, मूढ़, कामातुर पुरुष की कितनी बातें आज मुझे सुननी पड़ेंगी ! काम ने जिनके चित्त को चुरा लिया है, वे विवेकशून्य काममत्त कामी तथा मधुमत्त एवं सुरामत्त मनुष्य अपनी मौत को भी नहीं गिनते। ओ मतवाले नरेश ! आज मुझे छोड़ दे। मैं तेरे लिये माता के समान और रजस्वला हूँ। आज मेरी ऋतु का प्रथम दिन है। पहले दिन रजस्वला स्त्री चाण्डाली के समान मानी जाती है। दूसरे दिन म्लेच्छा और तीसरे दिन धोबिन के समान होती है। चौथे दिन वह अपने पति के लिये शुद्ध होती है; परंतु देवकार्य और पितृकार्य के लिये वह उस दिन भी शुद्ध नहीं मानी जाती। दूसरे के लिये वह उस दिन असत् शूद्रा के समान होती है ।

जो पहले दिन अपनी रजस्वला पत्नी के साथ समागम करता है, वह ब्रह्महत्या के चौथे अंश का भागी होता है, इसमें संशय नहीं है । वह पुरुष देवकर्म तथा पितृकर्म में सम्मिलित होने योग्य नहीं रह जाता। वह लोगों में अधम, निन्दित और अपयश का भागी समझा जाता है। जो दूसरे दिन रजस्वला स्त्री के साथ कामभाव से समागम करता है, उसे अवश्य ही गो-हत्या का पाप लगता है । वह आजीवन देवता, पितर और ब्राह्मण की पूजा के लिये अपना अधिकार खो बैठता है, मनुष्यता से गिर जाता है तथा कलङ्कित हो जाता है । जो तीसरे दिन रजस्वला पत्नी के साथ समागम करता है, वह मूढ़ भ्रूण-हत्या का भागी होता है; इसमें संशय नहीं है। पहले बताये हुए लोगों की भाँति वह भी पतित होकर सम्पूर्ण कर्मों का अनधिकारी हो जाता है। चौथे दिन रजस्वला असत् शूद्रा कही जाती है; अतः विद्वान् पुरुष उस दिन भी उसके पास न जाय। मूढ़ ! मैं तेरी माता हूँ । यदि तू माता को भी बलपूर्वक ग्रहण करना चाहता है तो आज छोड़ दे । ऋतुकाल बीत जाने पर जैसी तेरी मर्जी हो, करना।

इतने पर भी नहुष नहीं माना और बोला — ‘देवरमणी सदा ही शुद्ध होती है। तुम अपने घर चलो। मैं अभी आता हूँ’ – यों कहकर राजा नहुष प्रसन्नतापूर्वक रत्नमय रथपर आरूढ़ हो नन्दनवन में शची के भवन की ओर गया; परंतु शची अपने घर में नहीं लौटी। वह सीधे गुरु बृहस्पति के घर चली गयी। वहाँ जाकर उसने देखा गुरुदेव कुशासन पर विराजमान हैं । तारादेवी उनके चरणारविन्दों की सेवा कर रही हैं । वे ब्रह्मतेज से प्रकाशमान हैं और हाथ में जपमाला लिये अपने अभीष्ट देव श्रीकृष्ण के नाम का निरन्तर जप कर रहे हैं। वे श्रीकृष्ण सबसे उत्कृष्ट, परमानन्दमय, परमात्मा एवं ईश्वर हैं। निर्गुण, निरीह, स्वतन्त्र, प्रकृति से परे, स्वेच्छामय परब्रह्म हैं तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये ही शरीर धारण करते हैं । उनके चिन्तन में लगे और नेत्रों से आनन्द के आँसू बहाते हुए गुरुदेव को शची ने धरती पर माथा टेककर प्रणाम किया। उस समय भक्ति समुद्र में मग्न हुई शची रोती और आँखों से आँसू बहाती थी। साथ ही वह शोक-सागर में भी डूब रही थी । भयभीत शची व्यथित-हृदय से अपने ब्रह्मनिष्ठ गुरु कृपानिधान बृहस्पति की स्तुति करने लगी ।

॥ शच्युवाच ॥
रक्ष रक्ष महाभाग मां भीतां शरणागताम् ।
त्वमीश्वरः स्वदासीं च निमग्नां शोकसागरे ॥ १३९ ॥
अनीश्वरश्चेश्वरो वा बरवान्वा सुदुर्बलः ।
स्वशिष्यभार्यां पुत्रांश्च शासितुं च सदा क्षमः ॥ १४० ॥
दूरीभूतः स्वराज्याच्च स्वशिष्यश्च कृतस्त्वया ।
शान्तिर्बभूव दोषस्य चाधुनाऽनुग्रहं कुरु ॥ १४१ ॥
अनाथां सर्वशून्यां मां शुन्यां ताममरावतीम् ।
संपच्छून्यमाश्रमं मे पश्य रक्ष कृणानिधे ॥ १४२ ॥
दस्युग्रस्तां च मां रक्ष देशं किंकरमानय ।
दत्तवा चरणरेणूंस्तं शुभाशीर्वचनं कुरु ॥ १४३ ॥
सर्वेषां च सुरुणां च जन्मदाता परो गुरुः ।
पितुः शतगुणा माता पूज्या वन्द्या गरीयसी ॥ १४४ ॥
विद्यादाता मन्त्रदाता ज्ञानदो हरिभक्तिदः ।
पूज्यो वन्द्यश्च सेव्यश्च मातुः शतगुणो गुरुः ॥ १४५ ॥
मन्त्राद्युद्गिरणेनैव गुरुरित्युच्यते बुधैः ।
अन्यो वन्द्यो गुरुरयमन्यश्चारोपितो गुरुः ॥ १४६ ॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १४७ ॥
अदीक्षितस्य मूर्खस्य निष्कृतिर्नास्ति नि श्चितम् ।
सर्वकर्मस्वनर्हस्य नरके तत्पशोः स्थितिः ॥ १४८ ॥
जन्मदाताऽन्नदाता च माताऽन्ये गुरवास्तथा ।
पारं कर्तुं न शक्तास्ते घोरसंसारसागरे ॥ १४९ ॥
विद्यामन्त्रज्ञानदाता निपुणः पारकर्मणि ।
स शक्तः शिष्यमुद्धर्तुमीश्वरश्चेश्वरात्परः ॥ १५० ॥
गुरुर्विष्णुर्गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुर्धर्मो गुरुः शेषः सर्वात्मा निर्गुणो गुरुः ॥ १५१ ॥
सर्वतीर्थाश्रयश्चैव कर्वदेवाश्रयो गुरुः ।
सर्ववेदस्वरुपश्च गुरुरूपी हरिः स्वयम् ॥ १५२ ॥
अभीष्टदेवे रुष्टे च गुरुःशक्तो हि रक्षितुम् ।
गुरौ रुष्टेऽभीष्टदेवो न हि शक्तश्च रक्षितुम् ॥ १५३ ॥
सर्वे ग्रहाश्च यं रुष्टा यं रुष्टा देवब्राह्मणाः ।
त्वमेव रुष्टो भवसि गुरुरेव हि देवताः ॥ १५४ ॥
न गुरोश्च प्रियश्चाऽऽत्मा न गुरोश्च प्रियः सुतः ।
धनं प्रियं च न गुरोर्न च भार्या प्रिया तथा ॥ १५५ ॥
न गुरोश्च प्रियो धर्मो न गुरोश्च प्रियं तपः ।
न गुरोश्च प्रियं सत्यं न पुण्यं च गुरोः परम् ॥ १५६ ॥
गुरोः परो न शास्ता च न हि बन्धुर्गुरोः परः ।
देवो राजा च शास्ता च शिष्याणां च सदा गुरुः ॥ १५७ ॥
यावच्छक्तो दातुमन्नं तावच्छास्ता तदन्नदः ।
गुरुः शास्ता च शिष्याणां प्रतिजन्मनि जन्मनि ॥ १५८ ॥
मन्त्रो विद्या गुरुर्देवः पूर्वलब्धो यथा पतिः ।
प्रतिजन्मनि बन्धेन सर्वेषामुपरि स्थितः ॥ १५९ ॥
पिता गुरुश्च वन्द्यश्च यत्र जन्मनि जन्मदः ।
गुरवोऽन्ये तथा माता गुरुश्च प्रतिजन्मनि ॥ १६० ॥
विप्राणां त्वं वरिष्ठश्च गरिष्ठश्च तपस्तिनाम् ।
ब्रह्मिष्ठौ ब्रह्मविद्ब्रह्मविद्ब्रह्मन् धर्मिष्ठः सर्वधर्मिणाम् ॥ १६१ ॥
तुष्टो भव मुनिश्रेष्ठ मां च शक्रं च संप्रतम् ।
त्वयि तुष्टे सदा तुष्टा भवन्ति ग्रहदेवताः ॥ १६२ ॥

शची बोली — महाभाग ! मैं भयभीत हो आपकी शरण में आयी हूँ । आप ईश्वर हैं और मैं शोकसागर में डूबी हुई आपकी दासी हूँ । आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । गुरु असमर्थ हो या समर्थ, बलवान् हो या निर्बल, वह अपने शिष्यों, पत्नी तथा पुत्रों पर सदा शासन करने में समर्थ है। प्रभो! आपने अपने शिष्य को उसके राज्य से दूर कर दिया । बहुत दिन हुए, अब तो उसके दोष की शान्ति हो गयी होगी । अतः कृपा कीजिये। कृपानिधे! मैं अनाथ हूँ । मेरे लिये सब दिशाएँ सूनी हो गयी हैं । अमरावतीपुरी भी सूनी है तथा मेरा निवास-स्थान भी सब प्रकार की सम्पत्तियों से शून्य है । मेरी इस अवस्था पर दृष्टिपात कीजिये और मुझे संकट से बचाइये। मुझे एक डाकू अपना ग्रास बनाना चाहता है । आप मेरी रक्षा कीजिये। अपने किङ्कर देवराज को यहाँ ले आइये । चरणों की धूल देकर उन्हें शुभाशीर्वाद से अनुगृहीत कीजिये ।

समस्त गुरुओं में जन्मदाता पिता श्रेष्ठ गुरु माने गये हैं। पिता की अपेक्षा माता सौगुनी अधिक पूजनीया, वन्दनीया तथा वरिष्ठ है; परंतु जो विद्यादाता, मन्त्रदाता, ज्ञानदाता और हरिभक्ति प्रदान करने वाले गुरु हैं, वे माता से भी सौगुने पूजनीय, वन्दनीय और सेव्य हैं। जिन्होंने अज्ञानरूपी तिमिर ( रतौंधी) – रोग से अन्धे हुए मनुष्य की दृष्टि को ज्ञानाञ्जन की शलाका से खोल दिया है; उन श्रीगुरुदेव को नमस्कार है । जन्मदाता, अन्नदाता, माता, पिता, अन्य गुरु जीव को घोर संसार-सागर से पार करने में समर्थ नहीं हैं। गुरु विष्णु हैं, गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु महेश्वरदेव हैं, गुरु धर्म हैं, गुरु शेषनाग हैं और गुरु सर्वात्मा निर्गुण श्रीकृष्ण हैं; गुरु सम्पूर्ण तीर्थ, आश्रम तथा देवालय हैं। गुरु सम्पूर्ण देवस्वरूप तथा साक्षात् श्रीहरि हैं। इष्टदेव के रुष्ट हो जाने पर गुरुदेव अपने शिष्य की रक्षा कर सकते हैं; किंतु गुरु के रुष्ट हो जाने पर इष्टदेव उसकी रक्षा नहीं कर सकते । जिस पर सम्पूर्ण ग्रह, देवता और ब्राह्मण रुष्ट हो जाते हैं, उसी पर गुरुदेव रुष्ट होते हैं; क्योंकि गुरु ही देवता हैं। आत्मा (शरीर ), पुत्र, धन और पत्नी भी गुरु से बढ़कर प्रिय नहीं हैं। धर्म, तप, सत्य और पुण्य भी गुरु से अधिक प्रिय नहीं हैं । गुरु से बढ़कर शासक और बन्धु दूसरा कोई नहीं है । शिष्यों के लिये सदा गुरु ही शासक, राजा और देवता हैं । अन्नदाता जब तक देने में अन्न समर्थ है, तभी तक वह शासक होता है; परंतु गुरु जन्म-जन्म में शिष्यों के शासक होते हैं । मन्त्र, विद्या, गुरु और देवता – ये पति की भाँति पूर्वजन्म के अनुसार ही प्राप्त होते हैं । प्रत्येक जन्म में गुरु का सम्बन्ध होने से उनका स्थान सबसे ऊपर है। पितारूप गुरु जिस जन्म में जन्म देते हैं, उसी जन्म में वन्दनीय होते हैं। माता तथा अन्य गुरुओं की भी यही स्थिति है; परंतु ज्ञानदाता गुरु प्रत्येक जन्म में वन्दनीय हैं। ब्रह्मन् ! आप ब्राह्मणों में वरिष्ठ, तपस्वी जनों में गरिष्ठ तथा समस्त धर्मात्माओं में उत्तम धर्मिष्ठ एवं ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मवेत्ता हैं । मुनिश्रेष्ठ ! अब आप मुझ पर और इन्द्र पर संतुष्ट हों । आपके संतुष्ट होने पर ही ग्रह और देवता सदा संतुष्ट रहते हैं ।

ब्रह्मन् ! ऐसा कहकर शची फिर उच्च-स्वर से रोने लगी। उसका रोना देखकर तारादेवी भी फूट-फूटकर रोने लगीं । तारा अपने पति के चरणों पर गिर पड़ीं और बार-बार यह कहकर रोने लगीं कि आप इन्द्र के अपराध को क्षमा करें। तब बृहस्पतिजी संतुष्ट हो तारा से बोले ।

गुरू ने कहा — तारे ! उठो। शची का सब कुछ मङ्गलमय होगा, मेरे आशीर्वाद से यह अपने पति महेन्द्र को शीघ्र ही प्राप्त कर लेगी।

ऐसा कहकर बृहस्पतिजी चुप हो गये । तारा पुनः उनके चरणों में गिरीं और बार-बार रोयीं । फिर तारा ने शची को पकड़कर अपने हृदय से लगा लिया और उसे नाना प्रकार के आध्यात्मिक-ज्ञान-सम्बन्धी उत्तम वचन सुनाकर समझाया एवं धीरज बँधाया ।

शचीकृतं गुरुस्तोत्रं पूजाकाले च यः पठेत् ।
गुरुश्चाभीष्टदेवश्च संतुष्टः प्रतिजन्मनि ॥ १६८ ॥
ग्रहदेवद्विजास्तं च परितुष्टाश्च संततम् ।
राजानो बान्धवाश्चैव संतुष्टाः सर्वतः सदा ॥ १६९ ॥
गुरुभक्तिं विष्णुभक्तिं वाञ्छितं लभते ध्रुवम् ।
सदा हर्षो भवेत्तस्य न च शोकः कदाचन ॥ १७० ॥
पुत्रार्थो लभते पुत्रं भार्यार्थो लभते प्रियम् ।
सुस्वरुपां गुणवतीं सतीं पुत्रवतीं ध्रुवम् ॥ १७१ ॥
रोगार्तों मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्योत बन्धनात् ।
अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खोभवति पण्डितः ॥ १७२ ॥
कदाचिद्बन्धुविच्छेदो न भवेत्तस्य निश्चितम् ।
नित्यं तद्वर्धते धर्मों विपुलं निर्मलं यशः ॥ १७३ ॥
लभते परमैश्वर्यं पुत्रपौत्रधनान्वितम् ।
इह सर्वसुखं भुक्त्वा प्राप्यते श्रीहरेः पदम् ॥ १७४ ॥
न भवेत्तत्पुनर्जन्म हरिदास्यं लभेद्ध्रुवम् ।
विष्णुभक्तिनमाब्धौ च निमग्नश्च भवेद्ध्रुवम् ॥ १७५ ॥
शाश्वत्पिबति शान्तिश्च विष्णुभक्तिरसामृतम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकसंतापनाशनम् ॥ १७६ ॥

शचीकृत गुरु-स्तोत्र का, पूजा के समय जो पाठ करता है, उसके प्रत्येक जन्म में गुरु और अभीष्ट देव प्रसन्न होते हैं । ग्रह, देव और ब्राह्मण लोग उस पर निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं एवं राजा और बान्धव-गण सदा प्रसन्न रहते हैं । वह निश्चित ही गुरुभक्ति एवं विष्णुभक्ति समेत मनोरथ को प्राप्त करता है । उसको सदा हर्ष ही होता है, शोक कभी नहीं होता । पुत्रार्थी को पुत्र की प्राप्ति होती है, भार्या की कामनावाले को सुन्दरी, गुणसम्पन्ना, सती और पुत्रवती पत्नी की प्राप्ति होती है । रोगपीड़ित रोग से मुक्त हो जाता है, बद्ध प्राणी बन्धन मुक्त होता है, अल्पर्कीति वाले को महान् यश प्राप्त होता है और मूर्ख पण्डित हो जाता है । उसे बन्धु-वियोग कभी नहीं प्राप्त होता है, यह निश्चित है । उसके धर्म की नित्य वृद्धि होती है और विपुल निर्मल यश मिलता है । पुत्र-पौत्र एवं धन समेत परम ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, इस लोक में समस्त सुखों को भोगकर अन्त में वह भगवान् के लोक को प्राप्त करता है । वहाँ हरि का दास्य-पद प्राप्त करने के कारण उसका पुनर्जन्म निश्चित नहीं होता है और भगवान् विष्णु के भक्ति रस के सागर में निरन्तर निमग्न रहता है एवं शान्तभाव से जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और संताप के नाशक विष्णु के भक्तिरस रूपी अमृत का निरन्तर पान करता है।  (अध्याय ५९ )

1. . ४७वें अध्याय में भी यह प्रसङ्ग आया है । वहाँ ५६ वें श्लोक में कहा गया है कि इन्द्र ने मानसरोवर में प्रवेश किया था – ‘ विवेश मानससरः ।’ यहाँ पुष्करतीर्थ में इन्द्र का प्रवेश कहा गया है। यदि वहाँ के ‘मानस-सरः’ का अर्थ केवल सरोवरमात्र हो तो दोनों स्थानों के वर्णन में एकता आ सकती है।

2. . यो राजा स पिता पाता प्रजानामेव निश्चितम् ।
गुरुपत्नी राजपत्नी देवपत्नी तथा वधूः ॥ ५५ ॥
पित्रोः स्वसा शिष्यपत्नी भृत्यपली च मातुली ।
पितृपत्नी भ्रातृपत्नी श्वश्रूश्च भगिनी सुता ॥ ५६ ॥
गर्भधात्रीष्टदेवी च पुंसः षोडश मातरः ।
त्वं नरो देवभार्याऽहं माता ते देवसंमता ॥ ५७ ॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद महेन्द्रदर्पभङ्गप्रकरणे शचीशोकापनोदने शचीकृतगुरुस्तोत्रकथनं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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