February 20, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 06 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ छठा अध्याय देवताओं द्वारा तेजःपुञ्ज में श्रीकृष्ण और राधा के दर्शन तथा स्तवन, श्रीकृष्ण द्वारा देवताओं का स्वागत तथा उन्हें आश्वासन-दान, भगवद्भक्त के महत्त्व का वर्णन, श्रीराधासहित गोप-गोपियों को व्रज में अवतीर्ण होने के लिये श्रीहरि का आदेश, सरस्वती और लक्ष्मीसहित वैकुण्ठवासी नारायण का तथा क्षीरशायी विष्णु का शुभागमन, नारायण और विष्णु का श्रीकृष्ण के स्वरूप में लीन होना, संकर्षण तथा पुत्रों सहित पार्वती का आगमन, देवताओं और देवियों को पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करने के लिये प्रभु का आदेश, किस देवता का कहाँ और किस रूप में जन्म होगा – इसका विवरण, श्रीराधा की चिन्ता तथा श्रीकृष्ण का उन्हें सान्त्वना देते हुए अपनी और उनकी एकता का प्रतिपादन करना, फिर श्रीहरि की आज्ञा से राधा और गोप-गोपियों का नन्द-गोकुल में गमन श्रीनारायण कहते हैं — मुने ! उस तेजःपुञ्ज के सामने ध्यान और स्तुति करके खड़े हुए उन देवताओं ने उस तेजोराशि के मध्यभाग में एक कमनीय शरीर को देखा, जो सजल जलधर के समान श्याम-कान्ति से युक्त एवं परम मनोहर था । उसके मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी । उसका रूप परमानन्द-जनक तथा त्रिलोकी के चित्त को मोह लेने वाला था । उसके दोनों गालों पर मकराकार कुण्डल जगमगा रहे थे । उत्तम रत्नों के बने हुए नूपुरों से उसके चरणारविन्दों की बड़ी शोभा हो रही थी। अग्निशुद्ध दिव्य पीताम्बर से उस श्रीविग्रह की अपूर्व शोभा हो रही थी । वह ऐसा जान पड़ता था, मानो स्वेच्छा और कौतूहलवश श्रेष्ठ मणियों और रत्नों के सारतत्त्व से रचा गया हो । मनोरञ्जन की सामग्री मुरली से संलग्न बिम्बसदृश अरुण अधरों के कारण उसके मुख की मनोहरता बढ़ गयी थी। वह शुभ दृष्टि से देखता और भक्तों पर अनुग्रह के लिये कातर जान पड़ता था। उत्तम रत्नों की गुटिका से युक्त किवाड़ – जैसा विशाल वक्षःस्थल प्रकाशित हो रहा था। कौस्तुभमणि के कारण बढ़े हुए तेज से वह देदीप्यमान दिखायी देता था । उसी तेजःपुञ्ज में देवताओं ने मनोहर अङ्गवाली श्रीराधा को भी देखा। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पश्यंतं सस्मितं कांतं पश्यंतीं वक्रचक्षुषा । मुक्तापंक्तिविनिंद्यैकदंतपंक्तिविराजिताम् ॥ ८ ॥ ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां शरत्पंकजलोचनाम् । शरत्पार्वणचन्द्राभाविनिंदास्यमनोहराम् ॥ ९ ॥ बंधुजीवप्रभामुष्टाधरौष्ठरु चिराननाम् । रणन्मंजीरयुग्मेन पादांबुजविराजिताम् ॥ १० ॥ मणींद्राणां प्रभामोषनखराजिविराजिताम् । कुङकुमाभासमाच्छाद्य पदाधोरागभूषिताम् ॥ ११ ॥ अमूल्यरत्नसाराणां रशनाश्रोणिभूषिताम् । हुताशनविशुद्धांशुकामूल्यज्वलितोज्ज्वलाम् ॥ १२ ॥ महामणींद्रसाराणां किङ्किणीमध्यसंयुताम् । सद्रत्नहारकेयूरकरकंकणभूषिताम् ॥ १३ ॥ रत्नेंद्रसाररचितकपोलोज्ज्वलकुण्डलाम् । कर्णोपरि मणीन्द्राणां कर्णभूषणभूषिताम् ॥ १४ ॥ खगेंद्रचंचुनासाग्र गजेंद्रमौक्तिकान्विताम् । मालतीमालया वक्रकबरीभारशोभि ताम् ॥ १५ ॥ मालया कौस्तुभेंद्राणां वक्षःस्थलसुशोभिताम् । पारिजातप्रसूनानां मालाजालोज्ज्वलांबराम् ॥ १६ ॥ रत्नांगुलीय निकरैः करांगुलिविभूषिताम् । दिव्यशंखविकारैश्च चित्ररागविभूषितैः ॥ १७ ॥ सूक्ष्मसूत्राकृतै रम्यैर्भूषिता शंखभूषणैः । सद्रत्नसारगुटिकाराजिसूत्रसुशोभिताम् ॥ १८ ॥ प्रतप्तस्वर्णवर्णाभामाच्छाद्य चारुविग्रहाम् । नितम्बश्रोणिललितां पीनस्तननतांबराम् ॥ १९ ॥ भूषितां भूषणैः सर्वैः सौंदर्येण विभूषितैः । वे मन्द मुस्कराहट के साथ अपनी ओर देखते हुए प्रियतम को तिरछी चितवन से निहार रही थीं। मोतियों की पाँत को तिरस्कृत करनेवाली दन्तावली उनके मुख की शोभा बढ़ा रही थी। उनका प्रसन्न मुखारविन्द मन्द हास्य की छटा से सुशोभित था । नेत्र शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की छबि को लज्जित कर रहे थे। शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की आभा को निन्दित करने वाले मुख के कारण वे बड़ी मनोहारिणी जान पड़ती थीं। दुपहरिया के फूल की शोभा को चुराने वाले उनके लाल-लाल अधर और ओष्ठ बड़े मनोहर थे तथा वे बहुत सुन्दर वस्त्र धारण किये हुए थीं। उनके युगल चरणारविन्दों में झनकारते हुए मञ्जीर शोभा दे रहे थे। नखों की पंक्ति श्रेष्ठ मणिरत्नों की प्रभा को छीने लेती थी। कुंकुम की आभा को तिरस्कृत कर देने वाले चरणतल के स्वाभाविक राग से वे सुशोभित थीं । बहुमूल्य रत्नों के सारतत्त्व से बने हुए पाशकों की श्रेणी उन्हें विभूषित कर रही थी। अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र धारण करके वे अत्यन्त उद्भासित हो रही थीं। श्रेष्ठ महामणियों के सारतत्त्व से बनी हुई काञ्ची से उनका मध्यभाग अलंकृत था । उत्तम रत्नों के हार, बाजूबंद और कंगन से वे विभूषित थीं । उत्तम रत्नों के द्वारा रचित कुण्डलों से उनके कपोल उद्दीप्त हो रहे थे। कानों में श्रेष्ठ मणियों के कर्णभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। पक्षिराज गरुड़ की चोंच के समान नुकीली नासिका में गजमुक्ता की बुलाक शोभा दे रही थी । उनके घुँघराले बालों की वेणी में मालती की माला लपेटी हुई थी। वक्षःस्थल में अनेक कौस्तुभ-मणियों की प्रभा फैली हुई थी। पारिजात फूलों की माला धारण करने से उनकी रूपराशि परम उज्ज्वल जान पड़ती थी । उनके हाथ की अंगुलियाँ रत्नों की अँगूठियों से विभूषित थीं । दिव्य शङ्ख के बने हुए विचित्र रागविभूषित रमणीय भूषण उन्हें विभूषित कर रहे थे। वे शङ्खभूषण महीन रेशमी डोरे में गुँथे हुए थे। उत्तम रत्नों के सारतत्त्व की बनी हुई काकोलाल डोरे में गूँथकर उसके द्वारा उन्होंने अपने-आपको सज्जित किया था । तपाये हुए सुवर्ण के समान अङ्गकान्ति को सुन्दर वस्त्र से आच्छादित करके वे बड़ी शोभा पा रही थीं । उनका शरीर अत्यन्त मनोहर था । नितम्बदेश और श्रोणिभाग के सौन्दर्य से वे और भी सुन्दरी दिखायी देती थीं। वे समस्त आभूषणों से विभूषित थीं और समस्त आभूषण उनके सौन्दर्य से विभूषित थे । उन श्रेष्ठ परमेश्वर और सुन्दरी परमेश्वरी का दर्शन करके सब देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके सम्पूर्ण मनोरथ पूरे हो गये थे । अतः उन सब देवताओं ने पुनः भगवान् की स्तुति आरम्भ की- ब्रह्मोवाच ॥ तव चरणसरोजे मन्मनश्चंचरीको भ्रमतु सततमीश प्रेमभक्त्या सरोजे । भुवनविभवभोगात्तापशांत्यौषधायसुदृढसु परिपक्वादेहिभक्ति चदास्यम् ॥ २१ ॥ ब्रह्माजी बोले — परमेश्वर ! मेरा चित्तरूपी चञ्चरीक (भ्रमर) आपके चरणारविन्द में निरन्तर प्रेम-भक्तिपूर्वक भ्रमण करता रहे। शान्तिरूपी औषध देकर मेरी जन्म-मरण के रोग से रक्षा कीजिये तथा मुझे सुदृढ़ एवं अत्यन्त परिपक्व भक्ति और दास्यभाव दीजिये । ॥ शंकर उवाच ॥ भवजलनिधिमग्नम्बित्तमीनो मदीयो भ्रमति सततमस्मिन्घोरसंसार कूपे । विषयमतिविनिंद्यं सृष्टिसंहाररूपमपनय तव भक्तिं देहि पादारविंदे ॥ २२ ॥ भगवान् शंकर ने कहा — प्रभो ! भवसागर में डूबा हुआ मेरा चित्तरूपी मत्स्य सदा ही इस घोर संसाररूपी कूपमें चक्कर लगाता रहता है। सृष्टि और संहार यही इसका अत्यन्त निन्दनीय विषय है । आप इस विषय को दूर कीजिये और अपने चरणारविन्दों की भक्ति दीजिये । ॥ धर्म उवाच ॥ तव निजजनसार्द्धं संगमो मे मदीश भवतु विषयबंधच्छेदने तीक्ष्णखङ्गः । तव चरणसरोजे स्थानदानैकहेतुर्जनुषि जनुषि भक्तिं देहि पादारविन्दे ॥ २३ ॥ धर्म बोले — मेरे ईश्वर ! आपके आत्मीयजनों (भक्तों) के साथ मेरा सदा समागम होता रहे, जो विषयरूपी बन्धन को काटने के लिये तीखी तलवार का काम देता है तथा आपके चरणारविन्दों में स्थान दिलाने का एकमात्र हेतु है। आप जन्म-जन्म में मुझे अपने चरणारविन्दों की भक्ति प्रदान कीजिये । भगवान् नारायण कहते हैं — इस प्रकार स्तुति करके पूर्णमनोरथ हुए वे तीनों देवता कामनाओं की पूर्ति करनेवाले श्रीराधावल्लभ के सामने खड़े हो गये । देवताओं की यह स्तुति सुनकर कृपानिधान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान खिल उठी। वे उनसे हितकर एवं सत्य वचन बोले । श्रीकृष्ण ने कहा — तुम सब लोग इस समय मेरे धाम में पधारे हो । यहाँ तुम्हारा स्वागत है, स्वागत है । शिव के आश्रय में रहने वाले लोगों का तो कुशल पूछना उचित नहीं है । यहाँ आकर तुम निश्चिन्त हो जाओ। मेरे रहते तुम्हें क्या चिन्ता है ? मैं समस्त जीवों के भीतर विराजमान हूँ; परंतु स्तुति से ही प्रत्यक्ष होता हूँ । तुम्हारा जो अभिप्राय है, वह सब मैं निश्चितरूप से जानता हूँ। देवताओ ! शुभ-अशुभ जो भी कर्म है, वह समय पर ही होगा। बड़ा और छोटा-सब कार्य काल से ही सम्पन्न होता है । वृक्ष अपने-अपने समय पर ही सदा फूलते और फलते हैं । समय पर ही उनके फल पकते हैं और समय पर ही वे कच्चे फलों से युक्त होते हैं । सुख- दुःख, सम्पत्ति – विपत्ति, शोक – चिन्ता तथा शुभ- अशुभ – सब अपने-अपने कर्मों के फल हैं और सभी समय पर ही उपस्थित होते हैं। तीनों लोकों में न तो कोई किसी का प्रिय है और न अप्रिय ही है । समय आने पर कार्यवश सभी लोग अप्रिय अथवा प्रिय होते हैं । तुम लोगों ने देखा है, पृथ्वी पर बहुत-से राजा और मनु हुए और वे सभी अपने- अपने कर्मों के फल के परिपाक से काल के अधीन हो गये । तुम लोगों का यहाँ गोलोक में जो एक क्षण व्यतीत हुआ है, उतने में ही पृथ्वी पर सात मन्वन्तर बीत गये । सात इन्द्र समाप्त हो गये। इस समय आठवें इन्द्र चल रहे हैं। इस प्रकार मेरा कालचक्र दिन-रात भ्रमण करता रहता है । इन्द्र, मनु तथा राजा सभी लोग काल के वशीभूत हो गये। उनकी कीर्ति, पृथ्वी, पुण्य और पाप की कथामात्र शेष रह गयी है । इस समय भी भूमि पर बहुत-से राजा दुष्ट और भगवन्निन्दक हैं । उनके बल और पराक्रम महान् हैं । परंतु समयानुसार वे सब-के-सब कालान्तक यम के ग्रास हो जायँगे। यह काल इस समय भी मेरी आज्ञा से उपस्थित है। वायु मेरी आज्ञा मानकर ही निरन्तर बहती रहती है । मेरी आज्ञा से ही आग जलती और सूर्य तपते हैं। देवताओ ! मेरी आज्ञा से ही सब शरीरों में रोग निवास करते हैं। समस्त प्राणियों में मृत्यु का संचार होता है तथा वे समस्त जलधर वर्षा करते हैं । मेरे शासन से ही ब्राह्मण ब्राह्मणत्व में, तपोधन तपस्या में, ब्रह्मर्षि ब्रह्म में और योगी योग में निष्ठा रखते हैं । वे सब-के-सब मेरे भय से भीत होकर ही स्वधर्म-कर्म के पालन में तत्पर हैं। जो मेरे भक्त हैं, वे सदा निःशङ्क रहते हैं; क्योंकि वे कर्म का निर्मूलन करने में समर्थ हैं । देवताओ! मैं काल का भी काल हूँ। विधाता का भी विधाता हूँ । संहारकारी का भी संहारक तथा पालक का भी पालक परात्पर परमेश्वर हूँ। मेरी आज्ञा से ये शिव संहार करते हैं; इसलिये इनका नाम ‘हर’ है । तुम मेरे आदेश से सृष्टि के लिये उद्यत रहते हो; इसलिये ‘विश्वस्रष्टा’ कहलाते हो और धर्मदेव रक्षा के कारण ही ‘पालक’ कहलाते हैं। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सबका ईश्वर मैं ही हूँ। मैं ही कर्मफल का दाता तथा कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ। मैं जिनका संहार करना चाहूँ, उनकी रक्षा कौन कर सकता है ? तथा मैं जिनका पालन करूँ, उनको मारने वाला भी कोई नहीं है । मैं सबका सृजन, पालन और संहार करता हूँ । परंतु मेरे भक्त नित्यदेही हैं। उनके संहार में मैं भी समर्थ नहीं हूँ । भक्त सदा मेरे पीछे चलते हैं और मेरे चरणों की आराधना में तत्पर रहते हैं; अतः मैं भी सदा भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिये मौजूद रहता हूँ । ब्रह्माण्ड में सभी नष्ट होते और बारंबार जन्म लेते हैं; परंतु मेरे भक्तों का नाश नहीं होता है। वे सदा निःशङ्क और निरापद रहते हैं । इसीलिये समस्त विद्वान् पुरुष मेरे दास्यभाव की अभिलाषा रखते हैं; दूसरे किसी वर की नहीं । जो मुझसे दास्यभाव की याचना करते हैं; वे धन्य हैं। दूसरे सब-के-सब वञ्चित हैं। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, भय और यमयातना – ये सारे कष्ट दूसरे-दूसरे कर्मपरायण लोगों को प्राप्त होते हैं; मेरे भक्तों को नहीं । मेरे भक्त पाप या पुण्य किसी भी कर्म में लिप्त नहीं होते हैं। मैं उनके कर्मभोगों का निश्चय ही नाश कर देता हूँ। मैं भक्तों का प्राण हूँ और भक्त भी मेरे लिये प्राणों के समान हैं जो नित्य मेरा ध्यान करते हैं, उनका मैं दिन- रात स्मरण करता हूँ”। सोलह अरों से युक्त अत्यन्त तीखा सुदर्शन नामक चक्र महान् तेजस्वी है । सम्पूर्ण जीवधारियों में जितना भी तेज है, वह सब उस चक्र के तेज के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है। उस अभीष्ट चक्र को भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिये नियुक्त करके भी मुझे प्रतीति नहीं होती; इसलिये मैं स्वयं भी उनके पास जाता हूँ। तुम सब देवता और प्राणाधिका लक्ष्मी भी मुझे भक्त से बढ़कर प्यारी नहीं है । देवेश्वरो ! भक्तों का भक्तिपूर्वक दिया हुआ जो द्रव्य है, उसको मैं बड़े प्रेम से ग्रहण करता हूँ, परंतु अभक्तों की दी हुई कोई भी वस्तु मैं नहीं खाता। निश्चय ही उसे राजा बलि ही भोगते हैं। जो अपने स्त्री- पुत्र आदि स्वजनों को त्यागकर दिन-रात मुझे ही याद करते हैं, उनका स्मरण मैं भी तुम लोगों को त्यागकर अहर्निश किया करता हूँ। जो लोग भक्तों, ब्राह्मणों तथा गौओं से द्वेष रखते हैं, यज्ञों और देवताओं की हिंसा करते हैं, वे शीघ्र ही उसी तरह नष्ट हो जाते हैं, जैसे प्रज्वलित अग्नि में तिनके। जब मैं उनका घातक बनकर उपस्थित होता हूँ, तब कोई भी उनकी रक्षा नहीं कर पाता। देवताओ ! मैं पृथ्वी पर जाऊँगा । अब तुम लोग भी अपने स्थान को पधारो और शीघ्र ही अपने अंशरूप से भूतल पर अवतार लो । ऐसा कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर मधुर, सत्य एवं समयोचित बातें कहीं— ‘गोपो और गोपियो ! सुनो। तुम सब-के-सब नन्दरायजी का जो उत्कृष्ट व्रज है, वहाँ जाओ (उस व्रज में अवतार ग्रहण करो) । राधिके ! तुम भी शीघ्र ही वृषभानु के घर पधारो । वृषभानु की प्यारी स्त्री बड़ी साध्वी हैं। उनका नाम कलावती है। वे सुबल की पुत्री हैं और लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई हैं। वास्तव में वे पितरों की मानसी कन्या हैं तथा नारियों में धन्या और मान्या समझी जाती हैं । पूर्वकाल में दुर्वासा के शाप से उनका व्रजमण्डल में गोप के घर में जन्म हुआ है। तुम उन्हीं कलावती की पुत्री होकर जन्म ग्रहण करो। अब शीघ्र नन्दव्रज में जाओ । कमलानने ! मैं बालकरूप से वहाँ आकर तुम्हें प्राप्त करूँगा । राधे ! तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी हो और मैं भी तुम्हें प्राणों से भी बढ़कर प्यारा हूँ। हम दोनों का कुछ भी एक-दूसरे से भिन्न नहीं है। हम सदैव एक रूप हैं । मुने! यह सुनकर श्रीराधा प्रेम से विह्वल होकर वहाँ रो पड़ीं और अपने नेत्र – चकोरों द्वारा श्रीहरि के मुखचन्द्र की सौन्दर्य-सुधा का पान करने लगीं। ‘गोपो और गोपियो ! तुम भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो।’ श्रीकृष्ण की यह बात पूरी होते ही वहाँ सब लोगों ने देखा, एक उत्तम रथ (विमान) आ गया । वह श्रेष्ठ मणिरत्नों के सारतत्त्व तथा हीरक से विभूषित था । लाखों श्वेत चँवर तथा दर्पण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह अग्निशुद्ध सूक्ष्म गेरुए वस्त्रों से सजाया गया था । श्रेष्ठ रत्नों के बने हुए सहस्रों कलश उसकी श्रीवृद्धि कर रहे थे । पारिजातपुष्पों के हारों से उस विमान को सुसज्जित किया गया था । सोने का बना हुआ वह सुन्दर विमान अनुपम तेजःपुञ्जमय दिखायी देता था । उससे सैकड़ों सूर्यों के समान प्रकाश फैल रहा था तथा उस विमान पर बहुत-से श्रेष्ठ पार्षद बैठे हुए थे । उस विमान में एक श्यामसुन्दर कमनीय पुरुष दृष्टिगोचर हुए, जिनके चार हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा रहे थे । उन श्रेष्ठ पुरुष ने पीताम्बर पहन रखा था। उनके मस्तक पर किरीट, कानों में कुण्डल और वक्षःस्थल पर वनमाला शोभा दे रही थी । उनके श्रीअङ्ग चन्दन, अगुरु, कस्तूरी तथा केसर के अङ्गराग से अलंकृत थे । चार भुजाएँ और मुस्कराता हुआ मनोहर मुख देखने ही योग्य थे । भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे आकुल दिखायी देते थे । श्रेष्ठ मणिरत्नों के सारातिसार तत्त्व से बने हुए आभूषण उनके अङ्गों की शोभा बढ़ा रहे थे । उनके वामभाग में सुरम्य शरीरवाली शुक्लवर्णा, मनोहरा, ज्ञानरूपा एवं विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती दिखायी दीं, जिनके हाथों में वेणु, वीणा और पुस्तकें थीं। वे भी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये कातर जान पड़ती थीं । उन महानारायण के दाहिने भाग में शरत्काल के चन्द्रमाकी-सी प्रभा तथा तपाये हुए सुवर्ण की भाँति कान्ति से प्रकाशमान परम मनोहरा और रमणीया देवी लक्ष्मी दृष्टिगोचर हुईं, जिनके मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान खेल रही थी । उनके सुन्दर कपोल उत्तम रत्नमय कुण्डलों से जगमगा रहे थे । बहुमूल्य रत्न, महामूल्यवान् वस्त्र उनके श्रीअङ्गों की शोभा बढ़ाते थे । अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित बाजूबंद और कंगन उनकी भुजाओं की श्रीवृद्धि कर रहे थे । श्रेष्ठ रत्नों के सारतत्त्व के बने हुए मञ्जीर अपनी मधुर झनकार फैला रहे थे । पारिजात के फूलों की मालाओं से वक्षःस्थल उज्ज्वल दिखायी देता था । उनकी वेणी प्रफुल्ल मालती की मालाओं से अलंकृत थी । सुन्दरी रमा का मनोहर मुख शरत्काल के चन्द्रमा की प्रभा को छीने लेता था। उनके भालदेश में कस्तूरीबिन्दु से युक्त सिन्दूर का तिलक शोभा दे रहा था । शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों के समान नेत्रों में मनोहर काजल की रेखा शोभायमान थी। उनके हाथ में सहस्र दलों से संयुक्त लीलाकमल सुशोभित होता था। वे अपनी ओर देखनेवाले नारायणदेव को तिरछी चितवन से निहार रही थीं। पत्नियों और पार्षदों के साथ शीघ्र ही विमान से उतरकर वे नारायणदेव गोप-गोपियों से भरी हुई उस रमणीय सभा में जा पहुँचे। उन्हें देखते ही ब्रह्मा आदि देवता, गोप और गोपी सब-के-सब सानन्द उठकर खड़े हो गये। सबके हाथ जुड़े हुए थे । देवर्षिगण सामवेदोक्त स्तोत्र द्वारा उनकी स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति समाप्त होने पर नारायणदेव आगे जाकर श्रीकृष्णविग्रह में विलीन हो गये । यह परम आश्चर्य की बात देखकर सबको बड़ा विस्मय हुआ । इसी समय वहाँ एक दूसरा सुवर्णमय रथ आ पहुँचा। उससे जगत् का पालन करनेवाले त्रिलोकीनाथ विष्णु स्वयं उतरकर उस सभा में आये। उनके चार भुजाएँ थीं । वनमाला से विभूषित पीताम्बरधारी सम्पूर्ण अलंकारों की शोभा से सम्पन्न तथा करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान श्रीमान् विष्णु बड़े मनोहर दिखायी देते थे । वे मन्द मन्द मुस्करा रहे थे । मुने! उन्हें देखते ही सब लोग उठकर खड़े हो गये । सबने प्रणाम करके उनका स्तवन किया। तत्पश्चात् वे भी वहीं श्रीराधिकावल्लभ श्रीकृष्ण के शरीर में लीन हो गये। यह दूसरा महान् आश्चर्य देखकर उन सबको बड़ा विस्मय हुआ । श्वेतद्वीपनिवासी श्रीविष्णु के श्रीकृष्णविग्रह में विलीन हो जाने के बाद वहाँ तुरंत ही शुद्ध स्फटिकमणि के समान गौरवर्ण वाले संकर्षण नामक पुरुष पधारे। वे बड़ी उतावली में थे। उनके सहस्रों मस्तक थे तथा वे सौ सूर्यों के समान देदीप्यमान हो रहे थे। उनको आया देख सबने उन विष्णुस्वरूप संकर्षण का स्तवन किया। नारद ! उन्होंने भी वहाँ आकर मस्तक झुकाकर राधिकेश्वर की स्तुति की तथा सहस्त्रों मस्तकों द्वारा भक्तिभाव से उनको प्रणाम किया। तत्पश्चात् धर्म के पुत्र स्वरूप हम दोनों भाई नर और नारायण वहाँ गये। मैं तो श्रीकृष्ण के चरणारविन्द में लीन हो गया। किंतु नर अर्जुन के रूप में दृष्टिगोचर हुआ। फिर ब्रह्मा, शिव, शेष और धर्म – ये चारों वहाँ एक स्थान पर खड़े हो गये । इस बीच में देवताओं ने वहाँ दूसरा उत्तम रथ देखा, जो सुवर्ण के सारतत्त्व का बना हुआ था और नाना प्रकार के रत्न-निर्मित उपकरणों से अलंकृत था । वह श्रेष्ठ मणियों के सारतत्त्व से संयुक्त, अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र से सुसज्जित, श्वेत चँवर तथा दर्पणों से अलंकृत, सद्रत्न- सारनिर्मित कलश-समूह से विराजमान, पारिजात-पुष्पों के मालाजाल से सुशोभित, सहस्र पहियों से युक्त, मन के समान तीव्रगामी और मनोहर था । ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालिक मार्तण्ड की प्रभा को तिरस्कृत करने वाला वह श्रेष्ठ विमान मोती, माणिक्य और हीरों के समूह से जाज्वल्यमान जान पड़ता था । उसमें विचित्र पुतलियों, पुष्प, सरोवरों और काननों से उसकी अद्भुत शोभा हो रही थी । मुने! वह देवताओं और दानवों के रथों से बहुत बड़ा था। भगवान् शंकर की प्रसन्नता के लिये विश्वकर्मा ने यत्नपूर्वक उस दिव्य रथ का निर्माण किया था । वह पचास योजन ऊँचा और चार योजन विस्तृत था । रतिशय्या से युक्त सैकड़ों प्रासाद उसकी शोभा बढ़ाते थे। उस विमान में बैठी हुई मूलप्रकृति ईश्वरी देवी दुर्गा को भी देवताओं ने देखा, जो रत्नमय अलंकारों से विभूषित थीं और अपनी दिव्य दीप्ति से तपाये हुए सुवर्ण के सारभाग की प्रभा का अपहरण कर रही थीं। उन अनुपम तेजः स्वरूपा देवी के सहस्रों भुजाएँ थीं और उनमें भाँति-भाँति के आयुध शोभा पा रहे थे। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द हास की छटा छा रही थी । वे भक्तों पर कृपा करने के लिये कातर दिखायी देती थीं । उनके गण्डस्थल और कपोल उत्तम रत्नमय कुण्डलों से उद्भासित हो रहे थे । रत्नेन्द्रसाररचित तथा मधुर झनकार से युक्त मञ्जीरों के कारण उनके चरणों की अपूर्व शोभा हो रही थी । श्रेष्ठ मणिनिर्मित मेखला से मण्डित मध्यदेश अत्यन्त मनोहर दिखायी देता था। हाथों में श्रेष्ठ रत्नसार के बने हुए केयूर और कङ्कण शोभा दे रहे थे । पुष्पों की मालाओं से अलंकृत वक्षःस्थल अत्यन्त उज्ज्वल जान पड़ता था । शरत्काल के मन्दार-सुधाकर की आभा को तिरस्कृत करने वाले सुन्दर मुख से उनकी मनोहरता और बढ़ गयी थी । काजल की काली रेखा से युक्त नेत्र शरत्काल के प्रफुल्ल नील कमलों की शोभा को लज्जित कर रहे थे । चन्दन, अगुरु तथा कस्तूरी द्वारा रचित चित्रपत्रक उनके भाल और कपोल को विभूषित कर रहे थे । नूतन बन्धुजीव-पुष्प के समान आभा वाले लाल- लाल ओठ के कारण उनके मुख की शोभा और भी बढ़ गयी थी। उनकी दन्तावली मोतियों की पाँत की प्रभा को लूटे लेती थी । प्रफुल्ल मालती की माला से अलंकृत वेणी धारण करने वाली वे देवी बड़ी ही सुन्दर थीं। गरुड़ की चोंच के समान नुकीली नासिका के अग्रभाग में लटकती हुई गजमुक्ता की बुलाक अपूर्व छटा बिखेर रही थी । अग्निशुद्ध एवं अत्यन्त दीसिमान् वस्त्र से वे उद्भासित हो रही थीं और दोनों पुत्रों के साथ सिंह की पीठ पर बैठी थीं। उस रथ से उतरकर पुत्रोंसहित देवी ने शीघ्रतापूर्वक श्रीकृष्ण को प्रणाम किया । फिर वे एक श्रेष्ठ आसन पर बैठ गयीं। इसके बाद गणेश और कार्तिके यने परात्पर श्रीकृष्ण, शंकर, धर्म, संकर्षण तथा ब्रह्माजी को नमस्कार किया। उन दोनों देवेश्वरों को निकट आया देख वे सब देवता उठकर खड़े हो गये । उन्होंने आशीर्वाद दिया और दोनों को अपने पास बिठा लिया। देवता बड़ी प्रसन्नता के साथ गणेश और कार्तिकेय के साथ उत्तम वार्तालाप करने लगे। उस समय देवता और देवी उस सभा में श्रीहरि के सामने बैठ गये। उन्हें देख बहुसंख्यक गोप और गोपियाँ आश्चर्य से चकित हो रही थीं। तदनन्तर श्रीकृष्ण के मुखारविन्द पर मुस्कराहट खेलने लगी । श्रीकृष्ण लक्ष्मी से बोले — ‘सनातनी देवि! तुम नाना रत्नों से सम्पन्न भीष्मक के राजभवन में जाओ और वहाँ विदर्भदेश की महारानी के उदर से जन्म धारण करो। साध्वी देवि! मैं स्वयं कुण्डिनपुर में जाकर तुम्हारा पाणिग्रहण करूँगा । ‘ वे रमा आदि देवियाँ पार्वती को देखकर शीघ्र ही उठकर खड़ी हो गयीं। उन्होंने ईश्वरी को रमणीय रत्न-सिंहासन पर बिठाया । विप्रवर नारद! पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती – ये तीनों देवियाँ परस्पर यथोचित कुशल-प्रश्न करके वहाँ एक आसन पर बैठीं। वे प्रेमपूर्वक गोप-कन्याओं से वार्तालाप करने लगीं। कुछ गोपियाँ बड़ी प्रसन्नता के साथ उनके निकट बैठ गयीं । इसी समय जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने वहाँ पार्वती से कहा — ‘सृष्टि और संहार करने वाली कल्याणमयी महामायास्वरूपिणी देवि ! शुभे! तुम अंशरूप से नन्द के व्रज में जाओ और वहाँ नन्द के घर यशोदा के गर्भ में जन्म धारण करो। मैं भूतल पर गाँव-गाँव में तुम्हारी पूजा करवाऊँगा। समस्त भूमण्डल में, नगरों और वनों में मनुष्य वहाँ की अधिष्ठात्री देवी के रूप में भक्तिभाव से तुम्हारी पूजा करेंगे और आनन्दपूर्वक नाना प्रकार के द्रव्य तथा दिव्य उपहार तुम्हें अर्पित करेंगे। शिवे ! तुम ज्यों ही भूतल का स्पर्श करोगी, त्यों ही मेरे पिता वसुदेव यशोदा के सूतिकागार में जाकर मुझे वहाँ स्थापित कर देंगे और तुम्हें लेकर जायँगे। कंस का साक्षात्कार होने मात्र से तुम पुनः शिव के समीप चली आओगी और मैं भूतल का भार उतारकर अपने धाम में आ जाऊँगा । ‘ [ ऐसा कहकर तुरंत ही छः मुखवाले स्कन्द से श्रीकृष्ण बोले ] – वत्स सुरेश्वर ! तुम अंशरूप से भूतल पर जाओ और जाम्बवती के गर्भ से जन्म ग्रहण करो । सब देवता अपने अंश से पृथ्वी पर जायँ और जन्म लें। मैं निश्चय ही पृथ्वी का भार हरण करूँगा । नारद! ऐसा कहकर राधिकानाथ श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठे। फिर देवता, देवियाँ, गोप और गोपियाँ भी बैठ गयीं। इसी बीच में ब्रह्माजी श्रीहरि के सामने उठकर खड़े हो गये और हाथ जोड़कर विनयपूर्वक उन जगदीश्वर से बोले । ब्रह्माजी ने कहा — प्रभो ! इस सेवक के निवेदन पर ध्यान दीजिये । महाभाग ! आज्ञा कीजिये कि भूतल पर किसके लिये कहाँ स्थान होगा । स्वामी ही सदा सेवकों का भरण-पोषण और उद्धार करने वाला है। सेवक वही है जो सदा भक्तिभाव से प्रभु की आज्ञा का पालन करता है। कौन देवता किस रूप से अवतार लेंगे ? देवियाँ भी किस कला से अवतीर्ण होंगी ? भूतल पर कहाँ किसका निवास-स्थान होगा? और वह किस नाम से ख्याति प्राप्त करेगा ? ब्रह्माजी की यह बात सुनकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने इस प्रकार उत्तर दिया । श्रीकृष्ण बोले — ब्रह्मन् ! जिसके लिये जहाँ स्थान होगा, वह विधिवत् बता रहा हूँ, सुनो। कामदेव रुक्मिणी के पुत्र होंगे तथा शम्बरासुर के घर में जो छायारूप से स्थित है, वह सती मायावती के नाम से प्रसिद्ध रति उनकी पत्नी होगी। तुम उन्हीं रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न के पुत्र होंगे और तुम्हारा नाम अनिरुद्ध होगा । भारती शोणितपुर में जाकर बाणासुर की पुत्री होगी । जगदीश्वर अनन्त देवकी के गर्भ से आकृष्ट हो रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे। माया द्वारा उस गर्भ का संकर्षण होने से उनका नाम ‘संकर्षण’ होगा । सूर्यतनया यमुना गङ्गा के अंश के साथ भूतल पर कालिन्दी नामवाली पटरानी होंगी । तुलसी आधे अंश से राजकन्या लक्ष्मणा के रूप में अवतीर्ण होंगी। वेदमाता सावित्री नग्नजित् की पुत्री सती सत्या के नाम से प्रसिद्ध होंगी। वसुधा सत्यभामा और देवी सरस्वती शैव्या होंगी। रोहिणी राजकन्या मित्रविन्दा होंगी। सूर्यपत्नी संज्ञा अपनी कला से जगद्गुरु की पत्नी रत्नमाला होंगी। स्वाहा एक अंश से सुशीला के रूप में अवतीर्ण होंगी। ये रुक्मिणी आदि नौ स्त्रियाँ हुईं। इसके अतिरिक्त पार्वती अपने आधे अंश से जाम्बवती होंगी। ये दस पटरानियाँ बतायी गयी हैं । समस्त देवताओं के अंश भूतल पर जायँ । ब्रह्मन् ! वे राजकुमार होकर युद्ध में मेरे सहायक बनेंगे। कमला की कला से सोलह हजार राजकन्याएँ प्रकट होंगी, वे सब की सब मेरी रानियाँ बनेंगी। वे धर्मदेव अंशरूप से पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर होंगे। वायु के अंश से भीमसेन का और इन्द्र के अंश से साक्षात् अर्जुन का प्रादुर्भाव होगा । अश्विनीकुमारों के अंश से नकुल और सहदेव प्रकट होंगे। सूर्य का अंश वीरवर कर्ण होगा और साक्षात् यमराज विदुर होंगे। कलि का अंश दुर्योधन, समुद्र का अंश शान्तनु, शंकर का अंश अश्वत्थामा और अग्नि का अंश द्रोण होगा । चन्द्रमा का अंश अभिमन्यु के रूप में प्रकट होगा। स्वयं वसु देवता भीष्म होंगे। कश्यप के अंश से वसुदेव और अदिति के अंश से देवकी होंगी। वसु के अंश से नन्द-गोप का प्रादुर्भाव होगा । वसु की पत्नी यशोदा होंगी । कमला के अंश से द्रौपदी होंगी, जिनका प्रादुर्भाव यज्ञकुण्ड से होगा। अग्नि के अंश से महाबली धृष्टद्युम्न का जन्म होगा । शतरूपा के अंश से सुभद्रा होंगी, जिनका जन्म देवकी के गर्भ से होगा । देवता लोग भारहारी होकर अपने अंश से पृथ्वी पर अवतीर्ण हों। इसी प्रकार देवपत्नियाँ भी अपनी कला से भूतल पर पधारें । नारद! ऐसा कहकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो गये । वह सारा विवरण सुनकर प्रजापति ब्रह्मा वहाँ अपने स्थानपर जा बैठे। देवर्षे ! श्रीकृष्ण के वामभाग में वाग्देवी सरस्वती थीं । दाहिने भाग में लक्ष्मी थीं । अन्य सब देवता और पार्वतीदेवी सामने थीं । गोप और गोपियाँ भी उनके सम्मुख ही बैठी थीं । श्रीराधा श्यामसुन्दर के वक्षःस्थल में विराजमान थीं । इसी समय व्रजेश्वरी राधा अपने प्रियतम से बोलीं । राधिका ने कहा — नाथ ! मैं कुछ कहना चाहती हूँ । प्रभो ! इस दासी की बात सुनो। मेरे प्राण चिन्ता से निरन्तर जल रहे हैं, चित्त चञ्चल हो रहा है । तुम्हारी ओर देखते समय मैं पलभर के लिये आँख बंद करने या पलक मारने में भी असमर्थ हो जाती हूँ। फिर प्राणनाथ ! तुम्हारे बिना भूतल पर अकेली कैसे जाऊँगी ? प्राणेश्वर ! जीवनबन्धो! सच बताओ, वहाँ गोकुल में कितने काल के पश्चात् तुम्हारे साथ मेरा अवश्य मिलन होगा। तुम्हें देखे बिना एक निमेष भी मेरे लिये सौ युगों के समान प्रतीत होगा । वहाँ मैं किसे देखूँगी ? कहाँ जाऊँगी ? और कौन मेरी रक्षा करेगा ? प्राणेश ! तुम्हारे सिवा दूसरे किसी पिता, माता, भाई, बन्धु, बहिन अथवा पुत्र का मैं क्षणभर भी चिन्तन नहीं करती हूँ। मायापते ! यदि तुम भूतल पर मुझे भेजकर माया से आच्छन्न कर देना चाहते हो, वैभव देकर भुलाना चाहते हो तो मेरे समक्ष सच्ची प्रतिज्ञा करो। मधुसूदन ! मेरामनरूपी मधुप तुम्हारे मकरन्दयुक्त चरणारविन्द में ही नित्य – निरन्तर भ्रमण करता रहे। जहाँ-जहाँ जिस योनि में भी मेरा यह जन्म हो, वहाँ-वहाँ तुम मुझे अपना स्मरण एवं मनोवाञ्छित दास्यभाव प्रदान करोगे। मैं भूतल पर कभी भी इस बात को न भूलूँ कि तुम मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण हो, मैं तुम्हारी प्रेयसी राधिका हूँ तथा हम दोनों का प्रेम-सौभाग्य शाश्वत है । प्रभो ! यह उत्तम वर मुझे अवश्य दो। जैसे शरीर छाया के साथ और प्राण शरीर के साथ रहते हैं, उसी प्रकार हम दोनों का जन्म एवं जीवन एक-दूसरे के साथ बीते । विभो ! यह श्रेष्ठ वर मुझे दे दो। भगवन् ! भूतल पर पहुँचकर भी कहीं हम दोनों का पलभ रके लिये भी वियोग न हो। यह वर मुझे दो । हरे ! मेरे प्राणों से ही तुम्हारा शरीर निर्मित हुआ है – मेरे प्राण तुम्हारे श्रीअङ्गों से विलग नहीं हैं । मेरी इस धारणा का कौन निवारण कर सकता है ? मेरे शरीर से ही तुम्हारी मुरली बनी है और मेरे मन से ही तुम्हारे चरणों का निर्माण हुआ है। तात्पर्य यह है कि मैं तुम्हारी मुरली को अपना शरीर मानती हूँ और मेरा मन तुम्हारे चरणों से कभी विलग नहीं होता है । संसा में कितने ही ऐसे स्त्री-पुरुष हैं, जो सामने एक-दूसरे की स्तुति करते हैं; परंतु कहीं भी अपने प्रियतम में निरन्तर आसक्त रहने वाली मुझ जैसी प्रेयसी नहीं है । तुम्हारे शरीर के आधे भाग से किसने मेरा निर्माण किया है ? हम दोनों में भेद है ही नहीं । अतः मेरा मन निरन्तर तुम्हीं में लगा रहता है। मेरी आत्मा, मेरा मन और मेरे प्राण जिस तरह तुममें स्थापित हैं, उसी तरह तुम्हारे मन, प्राण और आत्मा भी मुझमें ही स्थापित हैं । अतः विरह की बात कान में पड़ते ही आँखों का पलक गिरना बंद हो गया है और हम दोनों आत्माओं के मन, प्राण निरन्तर दग्ध हो रहे हैं । श्रीकृष्ण बोले — देवि ! उत्तम आध्यात्मिक योग शोक का उच्छेद करने वाला होता है । अतः उसे बताता हूँ, सुनो। यह योग योगीन्द्रों के लिये भी दुर्लभ है। सुन्दरि ! देखो, सारा ब्रह्माण्ड आधार और आधेय के रूप में विभक्त है । इनमें भी आधार से पृथक् आधेय की सत्ता सम्भव नहीं है । फल का आधार है फूल, फूल का आधार है पल्लव, पल्लव का आधार है तना या डाली तथा उसका भी आधार स्वयं वृक्ष है। वृक्ष का आधार अंकुर है, जो बीज की शक्ति से सम्पन्न होता है। उस अंकुर का आधार बीज है, बीज का आधार पृथ्वी है, पृथ्वी के आधार शेषनाग हैं। शेष के आधार कच्छप हैं, कच्छप का आधार वायु है और वायु का आधार मैं हूँ। मेरी आधारस्वरूपा तुम हो; क्योंकि मैं सदा तुममें ही स्थित रहता हूँ । तुम शक्तियों का समूह और मूलप्रकृति ईश्वरी हो । शरीररूपिणी तथा त्रिगुणाधार-स्वरूपिणी भी तुम्हीं हो। मैं तुम्हारा आत्मा निरीह हूँ । तुम्हारा संयोग प्राप्त करके ही चेष्टावान् होता हूँ । शरीर के बिना आत्मा कहाँ ? और आत्मा के बिना शरीर कहाँ ? देवि ! शरीर और आत्मा दोनों की प्रधानता है। दोनों के बिना संसार कैसे चल सकता है ? राधे ! हम दोनों में कहीं भेद नहीं है; जहाँ आत्मा है, वहाँ शरीर है। वे दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। यथा क्षीरे च धावल्यं दाहिका च हुताशने । भूमौ गन्धो जले शैत्यं तथा त्वयि मयि स्थिते ॥ २१७ ॥ धावल्यदुग्धयोरैक्यं दाहिकानलयोर्यथा । भूगन्धजलशैत्यानां नास्ति भेदस्तथाऽऽवयोः ॥ २१८ ॥ मया विना त्वं निर्जीवा चादृश्योऽहं त्वया विना । त्वया विना भवं कर्तुं नालं सुन्दरि निश्चितम् ॥ २१९ ॥ विना मृदा घटं कर्तुं यथा नालं कुलालकः । विना स्वर्णं स्वर्णकारोऽलंकारं कर्तुमक्षमः ॥ २२० ॥ स्वयमात्मा यथा नित्यस्तथा त्वं प्रकृतिः स्वयम् । सर्वशक्तिसमायुक्ता सर्वाधारा सनातनी ॥ २२१ ॥ जैसे दूध में धवलता, अग्नि में दाहिका शक्ति, पृथ्वी में गन्ध और जल में शीतलता है, उसी तरह तुममें मेरी स्थिति है। धवलता और दुग्ध में, दाहिका शक्ति और अग्नि में पृथ्वी और गन्ध में तथा जल और शीतलता में जैसे ऐक्य ( भेदाभाव) है, उसी तरह हम दोनों में भेद नहीं है। मेरे बिना तुम निर्जीव हो और तुम्हारे बिना मैं अदृश्य हूँ । सुन्दरि ! तुम्हारे बिना मैं संसार की सृष्टि नहीं कर सकता, यह निश्चित बात है । ठीक उसी तरह, जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बना सकता और सुनार सोने के बिना आभूषणों का निर्माण नहीं कर सकता। स्वयं आत्मा जैसे नित्य है, उसी प्रकार साक्षात् प्रकृतिस्वरूपा तुम नित्य हो। तुममें सम्पूर्ण शक्तियों का समाहार सञ्चित है। तुम सबकी आधारभूता और सनातनी हो । लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, ब्रह्मा, शिव, शेषनाग और धर्म – ये सब मेरे प्राणों के समान हैं; परंतु तुम मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारी हो । राधिके ! ये सब देवता और देवियाँ मेरे निकट हैं; परंतु तुम यदि इनसे अधिक न होतीं तो मेरे वक्षः-स्थल में कैसे विराजमान हो सकती थीं ? सुशीले राधे! आँसू बहाना छोड़ो। साथ ही इस निष्फल भ्रम का परित्याग करो। शङ्का छोड़कर निर्भीक-भाव से वृषभानु के घर में पधारो । सुन्दरि ! नौ मास तक कलावती के पेट में स्थित गर्भ को माया द्वारा वायु से भरकर रोके रहो। दसवाँ महीना आने पर तुम भूतल पर प्रकट हो जाना। अपने दिव्य रूप का परित्याग करके शिशुरूप धारण कर लेना । जब गर्भ से वायु के निकलने का समय हो, तब कलावती के समीप पृथ्वी पर नग्न शिशु के रूप में गिरकर निश्चय ही रोना । साध्वि ! तुम गोकुल में अयोनिजा-रूप से प्रकट होओगी। मैं भी अयोनिज-रूप से ही अपने आपको प्रकट करूँगा; क्योंकि हम दोनों का गर्भ में निवास होना सम्भव नहीं है। मेरे भूमि पर स्थित होते ही पिताजी मुझे गोकुल में पहुँचा देंगे । वास्त वमें कंस के भय का बहाना लेकर मैं तुम्हारे लिये ही गोकुल में जाऊँगा । कल्याणि ! तुम वहाँ यशोदा के मन्दिर में मुझ नन्द-नन्दन को प्रतिदिन आनन्दपूर्वक देखोगी और हृदय से लगाओगी। राधिके ! मेरे वरदान से तुम्हें समय पर मेरी स्मृति होगी और मैं तुम्हारे साथ वृन्दावन में नित्य स्वच्छन्द विहार करूँगा। सुशीला आदि जो तैंतीस तुम्हारी सखियाँ हैं, उनके तथा अन्यान्य बहुसंख्यक गोपियों के साथ तुम गोकुल को पधारो । असंख्य गोपियों को अपने अमृतोपम एवं परिमित वाणी द्वारा समझा-बुझाकर आश्वासन दे गोलोक में ही रखकर तुम्हें गोकुल में जाना है। राधिके ! मैं भी इन असंख्य गोपों को यहीं स्थापित करके पीछे से वसुदेव के निवासस्थान मथुरापुरी में पदार्पण करूँगा । मेरे प्रिय-से-प्रिय गोप बहुत बड़ी संख्या में मेरे साथ क्रीडा के लिये व्रज में चलें और वहाँ गोपों के घर में जन्म लें । नारद! यों कहकर श्रीकृष्ण चुप हो गये । देवता, देवियाँ, गोप और गोपियाँ वहीं ठहर गयीं। ब्रह्मा, शिव, धर्म, शेषनाग, पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती ने बड़ी प्रसन्नता के साथ परात्पर श्रीकृष्ण का स्तवन किया। उस समय उनके विरहज्वर से व्याकुल तथा प्रेम-विह्वल गोपों और गोपियों ने भी भक्तिभाव से वहाँ श्रीकृष्ण की स्तुति करके उनके चरणों में मस्तक झुकाया । विरह-ज्वर से कातर हुई पूर्णमनोरथा राधा ने भी अपने प्राणाधिक प्रियतम हृदयवल्लभ श्रीकृष्ण का भक्तिभाव से स्तवन किया । उस समय श्रीराधा के नेत्रों में आँसू भरे हुए थे। वे अत्यन्त दीन और भय से व्याकुल दिखायी देती थीं। उन्हें इस अवस्था में देख स्वयं श्रीहरि ने सान्त्वना देने के लिये यह सच्ची बात कही । श्रीकृष्ण बोले — प्राणाधिके महादेवि ! सुस्थिर होओ। भय का त्याग करो। जैसी तुम हो वैसा ही मैं हूँ। मेरे रहते तुम्हें क्या चिन्ता है ? श्रीदाम के शाप की सत्यता के लिये कुछ समयत क (बाह्यरूप में) मेरे साथ तुम्हारा वियोग रहेगा । तदनन्तर मैं मथुरा में आ जाऊँगा । वहाँ भूतल का भार उतारना, माता-पिता को बन्धन से छुड़ाना, माली, दर्जी और कुब्जा का उद्धार करना, कालयवन को मरवाकर मुचुकुन्द को मोक्ष देना, द्वारका का निर्माण, राजसूय-यज्ञ का दर्शन, सोलह हजार एक सौ दस राजकन्याओं के साथ विवाह करना, शत्रुओं का दमन, मित्रों का उपकार, वाराणसीपुरी का दहन, महादेवजी को जृम्भणास्त्र से बाँधना, बाणासुर की भुजाओं को काटना, पारिजात का अपहरण, अन्यान्य कर्मों का सम्पादन, प्रभासतीर्थ की यात्रा में जाना, वहाँ मुनिमण्डली का दर्शन करना, व्रज के बन्धुजनों से वार्तालाप, पिता के यज्ञ का सम्पादन, वहीं शुभ बेला में पुनः तुम्हारे साथ मिलन तथा गोपियों का साक्षात्कार आदि कार्य मुझे करने हैं । फिर तुम्हें अध्यात्मज्ञान का उपदेश देकर वास्तव में तुम्हारे साथ नित्य मिलन का सौभाग्य प्राप्त करूँगा । इसके बाद मेरे साथ दिन-रात तुम्हारा संयोग बना रहेगा। कभी क्षणभर के लिये भी वियोग न होगा। इतना ही नहीं, वहाँ से तुम्हारे साथ मेरा पुनः व्रज में आगमन होगा । प्राणवल्लभे ! वियोगकाल में भी स्वप्न में तुम्हारे साथ मेरा सदैव मिलन होता रहेगा। तुमसे बिछुड़कर द्वारका में जाने पर मेरे और मेरे नारायणांश के द्वारा उपर्युक्त कार्य सम्पादित होंगे। फिर वृन्दावन में तुम्हारे साथ मेरा निवास होगा। फिर माता-पिता तथा गोपियों के शोक का पूर्णतः निवारण होगा । भूतल का भार उतारकर तुम्हारे और गोप-गोपियों के साथ मेरा पुनः गोलोक में आगमन होगा। राधे ! मेरे अंशभूत जो नित्य परमात्मा नारायण हैं, वे लक्ष्मी और सरस्वती के साथ वैकुण्ठलोक को पधारेंगे। धर्म और मेरे अंशों का निवासस्थान श्वेतद्वीप में होगा। देवताओं और देवियों के अंश भी अक्षय धाम को पधारेंगे। फिर इसी गोलोक में तुम्हारे साथ मेरा निवास होगा । कान्ते ! इस प्रकार समस्त भावी शुभाशुभ का वर्णन मैंने कर दिया । मेरे द्वारा जो निश्चय हो चुका है, उसका कौन निवारण कर सकता है ? तदनन्तर श्रीहरि ने देवताओं और देवियों से समयोचित बात कही – देवताओ ! अब तुम लोग भावी कार्य की सिद्धि के लिये अपने-अपने स्थान को जाओ । पार्वति ! तुम अपने दोनों पुत्रों तथा स्वामी के साथ कैलास को जाओ। मैंने जो कार्य तुम्हारे जिम्मे लगाया है, वह सब यथासमय पूरा होगा । व्रजेश्वरि ! राधे ! गणेशजी को छोड़कर शेष छोटे-बड़े सभी देवताओं और देवियों का कला द्वारा भूतल पर अवतरण होगा । तदनन्तर लक्ष्मी, सरस्वती तथा श्रीराधासहित पुरुषोत्तम श्रीहरि को भक्तिभाव से प्रणाम करके सब देवता आनन्दपूर्वक अपने-अपने स्थान को चले गये । श्रीहरि ने जिस कार्य का आयोजन किया था, उसे सफल बनाने के लिये वे व्यग्रतापूर्वक भूतल पर पधारे; क्योंकि स्वामी का बताया हुआ स्थान देवताओं के लिये भी दुर्लभ था । श्रीकृष्ण ने राधा से कहा — प्रिये ! तुम पूर्वनिश्चित गोप-गोपियों के समुदाय के साथ वृषभानु के निवासगृह को पधारो | मैं मथुरापुरी में वसुदेव के घर जाऊँगा । फिर कंस के भय का बहाना बनाकर गोकुल में तुम्हारे समीप आ जाऊँगा । लाल कमल के समान नेत्रोंवाली श्रीराधा श्रीकृष्ण को प्रणाम करके प्रेमविच्छेद के भय से कातर हो उनके सामने फूट-फूटकर रोने लगीं । वे ठहर-ठहरकर कभी कुछ दूर तक जातीं और जा-जाकर बार-बार लौट आती थीं। लौटकर पुनः श्रीहरि का मुँह निहारने लगती थीं। सती राधा शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की कान्ति-सुधा से पूर्ण प्रभु के मुखचन्द्र की सौन्दर्य- माधुरी का अपने निमेष-रहित नेत्र-चकोरों द्वारा पान करती थीं। तदनन्तर परमेश्वरी राधा प्रभु की सात बार परिक्रमा करके सात बार प्रणाम करने के अनन्तर पुनः श्रीहरि के सामने खड़ी हुईं। इतने में ही करोड़ों गोप-गोपियों का समूह वहाँ आ पहुँचा। उन सबके साथ श्रीराधा ने पुनः श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। तत्पश्चात् तैंतीस सखीस्वरूपा गोपकिशोरियों और गोपसमूहों के साथ सुन्दरी राधा श्रीहरि को मस्तक झुकाकर भूतल के लिये प्रस्थित हुईं। वे सब-के-सब श्रीहरि के बताये हुए स्थान नन्द- गोकुल को गये। फिर राधा वृषभानु के घर में और गोपियाँ अन्यान्य गोपों के घरों में गयीं । गोप-गोपियों सहित श्रीराधा के भूतल पर चले जाने पर श्रीहरि भी शीघ्र ही वहाँ पहुँचने के लिये उत्सुक हुए । गोलोक के गोपों और गोपियों से बात करके उन्हें अपने-अपने कामों में लगाकर मन की गति से चलनेवाले जगदीश्वर श्रीहरि मथुरा में जा पहुँचे । पहले देवकी और वसुदेव के जो-जो पुत्र हुए, उन्हें कंस ने तत्काल मार डाला। इस तरह उनके छः पुत्रों को उसने काल के गाल में डाल दिया । देवकी का सातवाँ गर्भ शेषनाग का अंश था, जिसे योगमाया ने खींचकर गोकुल में निवास करने वाली रोहिणीजी के गर्भ में स्थापित कर दिया । फिर वह श्रीहरि की आज्ञा से चली गयी। (अध्याय ६ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे नारायणनारदसंवादे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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