March 3, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 61 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) इकसठवाँ अध्याय बलि द्वारा इन्द्र का गर्व चूर करना तथा गौतम से इन्द्र और अहल्या को शाप की प्राप्ति नारायण बोले — हे ब्रह्मन् ! इन्द्र के दर्प-भंग के सम्बन्ध में थोड़ा-सा कह दिया, अब दूसरा रहस्यमय वृत्तान्त सावधानी से सुनो । पूर्वकाल में इन्द्र ने समुद्र मन्थन करके अमृत का पान किया और दैत्य-समूहों को पराजित किया। इससे उन्हें अत्यधिक अभिमान हो गया । तब भगवान् कृष्ण ने बलि द्वारा इन्द्र का अभिमान चूर किया । इन्द्र आदि देवगण हतश्रीक हो गये । अनन्तर बृहस्पति के स्तोत्र और अदिति के व्रतानुष्ठान द्वारा प्रसन्न होकर व्यापक भगवान् ने अदिति में अपने आंशिक कला से वामन अवतार लिया । पश्चात् कृपानिधान भगवान् ने बलि से राज्य की याचना करके महेन्द्र को पुनः रत्न-सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया और देवों को सम्पत्ति प्रदान की । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय हे मुने ! इसी प्रकार पहले कल्पान्तर में भी इन्द्र को पुनः अभिमान हो गया था, जिसे दुर्वासा द्वारा नष्ट कराकर भगवान् ने उन्हें श्री विहीन कर दिया था, किन्तु भक्तवत्सल एवं कृपालु भगवान् ने कृपया पुनः उन्हें श्रीसम्पन्न किया । फिर श्री-सम्पन्नता के मद से मदान्ध होने के कारण इन्द्र ने पुनः गौतम-प्रिया अहल्या का अपहरण किया, जिसके कारण गौतम के शापवश इन्द्र को भगाङ्ग ( सहस्र भगयुक्त) होना पड़ा । सभी देवता लज्जित हुए और बृहस्पति तो मृतक के समान हो गये । पश्चात् सहस्र वर्ष तक सूर्य का तप करके इन्द्र ने उन्हें प्रसन्न किया। सूर्य के वरदान से वे सहस्राक्ष हो गये । जिस प्रकार तारा के अपहरण करने से चन्द्रमा में कलङ्क हो गया था, वैसा ही इन्द्र का वह महान् नेत्र-समूह कलंकरूप हो गया । – नारद बोले — हे ब्रह्मन् ! हे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! गौतम प्रिया अहल्या का, जो महासती, पूज्या, लोक- पावन करनेवाली शुद्धहृदया, महापुण्या, निर्मला एवं कमला की कला रूप है, इन्द्र ने किस प्रकार अपहरण किया ? इसे जानने की इच्छा हो रही है बताने की कृपा करें । नारायण बोले — हे नारद ! सूर्यग्रहण के समय पुष्करतीर्थ की यात्रा में आयी हुई अहल्या को इन्द्र ने देखा था । वह सुन्दर मुसकराने वाली, सुन्दर दाँतों वाली एवं शान्त थी । उसे देखते ही इन्द्र तत्काल चेतनाहीन हो गये । दूसरे दिन मन्दाकिनी के तट पर इन्द्र ने उसे देखा । वह अकेली, मुसकराती हुई स्नान कर रही थी । उसको देखकर इन्द्र की चेतना पुनः लुप्त हो गयी । क्षण भर के बाद चेतना प्राप्त होने पर इन्द्र उसके समीप जाकर विनय के साथ चिकनी-चुपड़ी बात उस पतिव्रता से कहने लगा । महेन्द्र ने कहा — अहो, यह गुण ! यह रूप ! और क्या ही नवीन यौवन है। तुम्हारी मुख-शोभा तो शारदीय चन्द्रमा को भी तिरस्कृत कर रही है । अहो ! तुम्हारी तिरछी चितवन पुरुषों के मन को (बलात्) आकर्षित करती है और कमल की कान्ति को चुराने वाले ये नयन कितने सुन्दर है । गजराज और खंजन पक्षी को अपमानित करनेवाली कैसी सुन्दर चाल है तथा वाणी तो अमृत से भी मधुर एवं दुर्लभ है । अहो ! तपस्वी गौतम ने क्या इसीलिए तप किया था, जो उसके फलस्वरूप ऐसी सुन्दर दाँतोंवाली श्रेष्ठ सुन्दरी उन्हें प्राप्त हुई है ! क्या भगवान् विष्णु की माया एवं सनातनी प्रकृति दुर्गा जी की सेवा करके ऐसी पद्मिनी नारी को, जो लक्ष्मी या लक्ष्मी सदृश अत्यन्त कोमल, सुन्दर मुखवाली, ललना, कमलमुखी, शुद्ध, सुन्दर दांतोंवाली, श्यामा ( सोलह वर्ष-वाली ) और पतली कमर वाली है, प्राप्त किया ? कामशास्त्र में निपुण होने के कारण मैं तुम्हारा पालन करना जानता हूँ । अथवा कामदेव या कामुक चन्द्रमा जान सकते हैं। गौतम तुम्हें क्या जानेंगे ? कामशास्त्र के वे विद्वान् मेरी नित्य प्रशंसा करते हैं और उर्वशी आदि अप्सराएं भी निरन्तर मेरी प्रशंसा करती रहती हैं । हे वरानने ! मैं शची को दासी बनाकर तुम्हें सौंप दूंगा और ( मेरे साथ रहकर ) तीनों लोकों की विपुललक्ष्मी को ग्रहण करो और गौतम को त्याग दो ॥ ३० ॥ मूर्ख विधाता ने अनुचित जोड़ी बनायी जो एक तपस्वी को ऐसी कामुकी, सुन्दरी सौंप दी । इतना कहकर इन्द्र आनन्द से अहल्या के चरण पर गिर पड़े। तब उस महासती ने उनसे वेदोक्त और यथोचित वचन कहना आरम्भ किया । अहल्या बोली — ब्रह्मा के अभाग्य से तथा तपस्वी मरीचि और कश्यप जी के भी अभाग्यवश तुम उनके पापी पुत्र उत्पन्न हुए । जिस पुरुष का मन स्त्रियों द्वारा अपहृत हो चुका है (अर्थात् स्त्रियों में ही निरन्तर लगा रहता है) उसके जप, तप, मन, व्रत, देव-पूजन और तीर्थ सेवन करने से क्या लाभ है ? कामियों के मन को मोहित करने के लिए सृष्टि में स्त्रीरूप का निर्माण हुआ है, अन्यथा सृष्टि होती ही नहीं । इसीलिए पूर्वकाल भगवान् की आज्ञा से ब्रह्मा ने सृष्टि का विस्तार किया था । स्त्री माया की पिटारी है, तथा मनुष्यों के धर्म मार्ग ( में बढ़ने देने) की अर्गला (बेड़ा) है, तप ( को रोकने) का व्यवधान (विघ्न) और समस्त दोषों का महान् आश्रय है | यह् कर्मरूपी बन्धन से आबद्ध पुरुषों की कठिन बेड़ी है । यह पुरुषरूपी मछलियों को फँसाने-वाली बंशी (लोहे की कटिया) की भांति है तथा कीट (पति) रूपी पुरुषों के लिए अतिप्रज्वलित दीपक है । दूध जिसके मुंह में है ऐसे विष से भरे घड़े की भाँति आरम्भ में अतिमधुर है किन्तु परिणाम में दुःखों का बीज और नरक की सीढ़ी है । इसी हेतु सनकादि ऋषियों ने विवाह नहीं किया है। परस्त्रियों में जिनका मन आसक्त है, उनके सभी कर्म निष्फल हैं । हे शक्र ! परायी स्त्री का सेवन करना इस लोक में अत्यन्त अपयश देनेवाला है और परलोक में कामुक को घोर नरक देता है । इतना कहकर गौतम की वह महापतिव्रता पत्नी कामुक इन्द्र को छोड़कर बड़ी शीघ्रता से अपने घर चली गयी । और वहां पहुँचकर तपस्वी गौतम से उसने वह समस्त वृत्तान्त कहा, जिसे सुनकर मुनि ने हँसते हुए महेन्द्र की बड़ी निन्दा की । शीघ्र ही एक बार गौतम शङ्कर के यहां गये । इसी बीच इन्द्र ने गौतम का स्वरूप धारणकर अहल्या के साथ रमण कर लिया । सर्वज्ञ मुनि सब कुछ जानकर अपने घर आये । मुनिश्रेष्ठ (गौतम) ने बाहर निकलते हुए इन्द्र को देखा और अहल्या को एकान्त में पड़ी हुई देखा । मुनि ने इन्द्र को शाप दिया — तुम्हारे अंगों में भग हो जायँ ।’ भयाकुल एवं रोदन करती हुई पत्नी को भी शाप दिया — ‘तू महावन में पाषाण रूप ( पत्थर) हो जा ।’ अत्यन्त लज्जित होते हुए इन्द्र तो अपने घर चले गये, पर भयभीत एवं शोक से क्षीण अहल्या ने पति से मधुर वचन कहा । अहल्या बोली — हे धार्मिक ! मुझ निर्दोष दासी को क्यों छोड़ रहे हो ? तुम वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो, अतः धर्मानुसार विचार करो । गौतम बोले — मैं तुम्हें जानता हूँ कि तुम शुद्धहृदया दृढ़ नियमानुष्ठान वाली पतिव्रता हो, किन्तु तुम दूसरे का वीर्य धारण किये हुए हो। इसीलिए तुम्हारा परित्याग कर रहा हूँ । पर-पुरुष द्वारा उपभोग की हुई स्त्री सभी कर्मों में अशुद्ध मानी जाती है। इसलिए जो पुरुष उस अपनी पत्नी के साथ पुनः विहार करता है उस महामूढ़ को कल्प पर्यन्त नरक में रहना पड़ता है । पर-पुरुष द्वारा उपभुक्त स्त्री द्वारा छुआ हुआ अन्न विष्ठा के समान और जल मूत्र के समान होता है, यह निश्चित है । उसका स्पर्श नहीं करना चाहिए, ऐसा करने से पूर्वजन्म का पुण्य नष्ट हो जाता है। पर-पुरुष के साथ अनिच्छा से शृङ्गार ( सम्भोग ) करने वाली स्त्री दूषित नहीं होती है जो स्वेच्छा से शृंगार करती है वही स्त्री दूषित होती है । तुमने इन्द्र को पति मानकर घर में सुखपूर्वक उनके साथ रमण किया और मुझे देखने के पश्चात् ही तुम्हें ज्ञान हुआ है। अतः तुम महावन में जाओ और वहाँ पाषाण रूप होकर पड़ी रहो । अनन्तर भगवान् राम का चरणस्पर्श होने पर पुन: पवित्र हो जाओगी । उसी पुण्य द्वारा यहाँ आकर मुझे पुनः प्राप्त करोगी । अतः हे कान्ते ! महारण्य में जाओ । इतना कहकर (गौतम) तप करने के लिए चले गये । हे मुने ! इस प्रकार इन्द्र का दर्प-भंग मैंने बता दिया । किन्तु इन्द्र ने भगवान् की कृपा से पुनः लक्ष्मी प्राप्त की । (अध्याय ६१) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद एकषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६१ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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