ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 64
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
चौंसठवाँ अध्याय
पुरोहित सत्यक का अरिष्ट-शान्ति के लिये धनुर्यज्ञ का अनुष्ठान बताना, कंस का नन्दनन्दन को शत्रु बताना और उन्हें व्रज से बुलाने के लिये वसुदेवजी को प्रेरित करना, वसुदेवजी के अस्वीकार करने पर अक्रूर को वहाँ जाने की आज्ञा देना, ऋषिगण तथा राजाओं का आगमन

श्रीनारायण कहते हैं — मुने ! बुद्धिमान् पुरोहित सत्यक शुक्राचार्य के शिष्य थे। उन्होंने सब बातों पर विचार करके कंस के लिये हित की बात बतायी।

सत्यक बोले — महाभाग ! भय छोड़ो। मेरे रहते तुम्हें भय किस बात का है ? महेश्वर का यज्ञ करो, जो समस्त अरिष्टों का विनाश करने वाला है। इस महेश्वर-याग का नाम है – धनुर्यज्ञ, जिसमें बहुत-सा अन्न खर्च होता है और बहुत दक्षिणा बाँटी जाती है। वह यज्ञ दुःस्वप्नों का विनाश तथा शत्रु-भय का निवारण करनेवाला है। उस यज्ञ से आध्यात्मिक, आधिदैविक और उत्कट आधिभौतिक – इन तीन तरह के उत्पातों का खण्डन होता है। साथ ही वह ऐश्वर्य की वृद्धि करने वाला है । यज्ञ समाप्त होने पर समस्त सम्पदाओं के दाता भगवान् शंकर प्रत्यक्ष दर्शन देते और ऐसा वर प्रदान करते हैं, जिससे जरा और मृत्यु का निवारण हो जाता है।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

पूर्वकाल में महाबली बाण, नन्दी, परशुराम तथा बलवानों में श्रेष्ठ भल्ल ने इस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। पहले भगवान् शिव ने इस यज्ञ से संतुष्ट होकर यह दिव्य धनुष नन्दीश्वर को दिया था। धर्मात्मा नन्दीश्वर ने बाणासुर को दिया । फिर यज्ञ करके महासिद्ध हुए बाणासुर ने पुष्करतीर्थ में यह धनुष परशुरामजी को अर्पित कर दिया । कृपानिधान परशुरामजी ने कृपापूर्वक अब तुमको यह धनुष दे दिया है। नरेश्वर ! यह धनुष बड़ा ही कठोर (मजबूत ) है । इसकी लंबाई एक सहस्र हाथ की है । खींचने पर यह दस हाथ तक फैलता है। इसका भगवान् शंकर की इच्छा से निर्माण हुआ है । पशुपति का यह पाशुपत धनुष जुते हुए रथ के द्वारा भी कठिनाई से ही ढोया जाता है। भगवान् नारायणदेव को छोड़कर अन्य सब लोग कभी इसे तोड़ नहीं सकते। भगवान् शंकर के इस कल्याणकारी यज्ञ में तुम शीघ्र ही इस धनुष की पूजा करो और शुभ कर्म में भेजने योग्य निमन्त्रण सबके पास भेज दो।

नरेश्वर ! इस यज्ञ में यदि धनुष टूट जायगा तो यजमान का नाश होगा, इसमें संशय नहीं है । धनुष टूटने पर निश्चय ही यज्ञ भी भङ्ग हो जाता है । जब यज्ञ-कर्म सम्पन्न ही नहीं होगा तो उसका फल कौन देगा ? महामते ! इस धनुष मूलभाग में ब्रह्मा, मध्यभाग में स्वयं नारायण और अग्रभाग में उग्र प्रतापशाली महादेवजी प्रतिष्ठित हैं। इस धनुष में तीन विकार हैं तथा यह श्रेष्ठ रत्नों द्वारा जटित है। ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालिक प्रचण्ड मार्तण्ड की प्रभा को यह धनुष अपनी दिव्य दीप्ति से दबा देता है । राजन् ! महाबली अनन्त, सूर्य तथा कार्तिकेय भी इस धनुष को झुकाने में समर्थ नहीं हैं; फिर दूसरे की तो बात ही क्या है ? पूर्वकाल में त्रिपुरारि शिव ने इसी के द्वारा त्रिपुरासुर का वध किया था । तुम इस महोत्सव के लिये बिना किसी भय के स्वेच्छापूर्वक माङ्गलिक कार्य आरम्भ करो ।

सत्यक की यह बात सुनकर चन्द्रवंश की वृद्धि करने वाले कंस ने सभी कार्यों में सदा यजमान का हित चाहने वाले पुरोहितजी से कहा ।

कंस बोला — पुरोहितजी ! वसुदेव के घर में मेरा वध करने वाला एक कुलनाशक पुत्र उत्पन्न हुआ है, जो नन्द के भवन में नन्दनन्दन होकर स्वच्छन्दतापूर्वक पालित-पोषित हो रहा है । उस बलवान् बालक ने मेरे बुद्धिमान् मन्त्रियों, शूरवीर बान्धवों तथा पवित्र बहिन पूतना को मार डाला है । वह इच्छानुसार अपने बल को बढ़ा लेता है । उसने गोवर्द्धन पर्वत को एक हाथ पर ही धारण कर लिया था और शूरवीर महेन्द्र को भी पराजित कर दिया था । उसने ब्रह्माजी को समस्त चराचर जगत् का ब्रह्मरूप में दर्शन कराया था तथा बालकों और बछड़ों के कृत्रिम समुदाय की रचना कर ली थी। सत्यकजी ! उस बलवान् बालक का वध करने के लिये ही कोई सलाह दीजिये । निश्चय ही इस भूतल पर, स्वर्ग और पाताल में एवं तीनों लोकों में उसके सिवा दूसरा कोई मेरा शत्रु नहीं है । सर्वत्र जो श्रेष्ठ राजा हैं, वे मेरे प्रति बान्धव-भाव रखते हैं। ब्रह्माजी और भगवान् शंकर तो तपस्वी हैं। उन्हें तपस्या से ही छुट्टी नहीं है । रह गये सनातन भगवान् विष्णु; परंतु वे भी सबके आत्मा हैं और सब पर समान दृष्टि रखते हैं । यदि नन्दपुत्र को मार डालूँ तो तीनों लोकों में मेरा सम्मान बढ़ जायगा । मैं सार्वभौम सम्राट् एवं सातों द्वीपों का महाराज हो जाऊँगा । स्वर्ग में जो इन्द्र हैं, वे भी दैत्यों से परास्त होने के कारण दुर्बल ही रहते हैं; अत: उनका वध करके मैं महेन्द्र हो जाऊँगा। इन्द्रलोक में प्रतिष्ठित होकर मैं सूर्य को, राजयक्ष्मा से ग्रस्त हुए अपने ही पूर्वपुरुष चन्द्रमा को तथा वायु, कुबेर और यम को भी निश्चय ही जीत लूँगा; अतः आप शीघ्र ही नन्द-व्रज में जाइये और नन्द, नन्दनन्दन श्रीकृष्ण तथा उसके बलवान् भाई बलराम को भी अभी बुला लाइये ।

कंस की बात सुनकर सत्यक ने हितकर, सत्य, नीति का सारभूत, उत्तम एवं समयोचित वचन कहा।

सत्यक बोले — महाभाग ! तुम नन्द-व्रज के अभीष्ट स्थानमें अक्रूर, उद्धव अथवा वसुदेवजी को भेजो।

सत्यक की बात सुनकर उसी सभा में स्वर्ण-सिंहासन पर बैठे हुए वसुदेवजी से उसने कहा ।

राजेन्द्र कंस बोला — मेरे प्रिय बन्धु वसुदेवजी ! आप नीतिशास्त्र के तत्त्वज्ञ और उपाय ढूँढ़ निकालने में चतुर हैं; अतः नन्द-व्रज में अपने पुत्र के घर आप ही जाइये। वृषभानु, नन्दराय, बलराम, नन्दनन्दन श्रीकृष्ण तथा समस्त गोकुल-वासियों को यज्ञ में यहाँ शीघ्र बुला लाइये। मेरे दूत समस्त राजाओं तथा मुनियों को इसकी सूचना देने के लिये चिट्ठी लेकर चारों दिशाओं में जायँ ।

ब्रह्मन् ! राजा की बात सुनकर वसुदेवजी के ओठ, तालु और कण्ठ सूख गये; वे व्यथित-हृदय से बोले ।

वसुदेवजी ने कहा — राजेन्द्र ! इस कार्य के लिये इस समय नन्द-व्रज में मेरा जाना उचित नहीं होगा। मुझ वसुदेव के पुत्र अथवा नन्दनन्दन को इस यज्ञ का समाचार मैं दूँ और अपने साथ बुलाकर लाऊँ – यह किसी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। यदि तुम्हारे यज्ञ-महोत्सव में नन्दपुत्र का आगमन हुआ तो अवश्य ही तुम्हारे साथ उसका विरोध होगा; अतः मैं उस बालक को बुलाकर यहाँ युद्ध करवाऊँ — यह मेरी दृष्टि में श्रेयस्कर नहीं है। इसमें उस बालक की और तुम्हारी भी हानि हो सकती है । यदि वह बालक मारा गया तो सब लोग यही कहेंगे कि पिता ने ही साथ ले जाकर कृष्ण को मरवा दिया और यदि तुम्हें कुछ हो गया, तब लोग कहने लगेंगे कि वसुदेव ने अपने पुत्र के द्वारा राजा को ही मौत के घाट उतार दिया । दो में से एक की तत्काल मृत्यु होगी; यह निश्चित है। इसके सिवा और भी बहुत-से शूरवीर धराशायी होंगे; क्योंकि युद्ध कभी निरापद नहीं होता ।

मुने ! वसुदेवजी की यह बात सुनकर राजेन्द्र कंस के नेत्र रोष से लाल हो गये। वह तलवार लेकर उन्हें मार डालने के लिये आगे बढ़ा। यह देख अत्यन्त बलवान् उग्रसेन ने ‘हाय ! हाय!’ करके अपने पुत्र महाराज कंस को तत्काल रोक दिया। रोष से भरे हुए वसुदेव अपने आसन से उठकर घर को चले गये। तब राजा कंस ने अक्रूर को नन्द- व्रज में जाने के लिये कहा और शीघ्र ही प्रत्येक दिशा में दूत भेजे। कंस का निमन्त्रण पाकर समस्त मुनि और नरेश आवश्यक सामानों के साथ वहाँ आये। समस्त दिक्पाल, देवता, तपस्वी ब्राह्मण, सनकादि मुनि, पुलस्त्य, भृगु, प्रचेता, जाबालि और मार्कण्डेय आदि बहुत-से महान् ऋषिगण अपने शिष्यों सहित पधारे। हम दोनों भाई ( नर और नारायण) भी वहाँ पहुँचे थे। राजाओं में जरासंध, दन्तवक्र, द्रविड – नरेश दाम्भिक, शिशुपाल, भीष्मक, भगदत्त, मुद्गल, धृतराष्ट्र, धूमकेश, धूमकेतु, शंबर, शल्य, सत्राजित, शंकु तथा अन्यान्य महाबली नरेश आये थे। इनके सिवा भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, महाबली अश्वत्थामा, भूरिश्रवा, शाल्व, कैकेय तथा कौशल भी पधारे थे। महाराज कंस ने सबके साथ यथोचित सम्भाषण किया और पुरोहित सत्यक ने यज्ञ के दिन शुभ कृत्य का सम्पादन किया ।   (अध्याय ६४ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद कंसयज्ञ-कथानं नाम चतुःषष्टितमोध्यायः ॥ ६४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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