ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 66
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
छियासठवाँ अध्याय
श्रीराधा का श्रीकृष्ण को अपने दुःस्वप्न सुनाना

श्रीनारायण कहते हैं — उसी दिन राधा ने रात्रि में बड़े बुरे सपने देखे । उन्होंने उठकर श्रीकृष्ण से कहा ।

राधिका बोली — प्रभो ! मैं रत्नसिंहासन पर रत्नमय छत्र धारण किये बैठी थी। उसी समय रोष से भरे हुए एक ब्राह्मण ने आकर मेरा वह छत्र ले लिया और मुझ अबला को ही महाघोर कज्जलाकार दुस्तर गम्भीर सागर में फेंक दिया। मैं शोक से पीड़ित हो वहाँ जल के प्रवाह में बारंबार चक्कर काटने लगी । घड़ियालों से भरे उस समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरों के वेग से टकराकर मैं व्याकुल हो गयी और बारंबार तुम्हें पुकारने लगी – ‘हे नाथ ! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।’ तुम्हें न देखकर मैं महान् भय में पड़ गयी और देवता से प्रार्थना करने लगी । श्रीकृष्ण ! समुद्र में डूबती हुई मैंने देखा, चन्द्रमण्डल के सैकड़ों टुकड़े हो गये हैं और वह आकाश से भूतल पर गिर रहा है। दूसरे ही क्षण मुझे दिखायी दिया कि सूर्यमण्डल भी आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़ा और उसके चार टुकड़े हो गये। फिर एक ही समय में आकाश के भीतर चन्द्रमा और सूर्य के मण्डल को मैंने पूर्णतः राहु से ग्रस्त और अत्यन्त काला देखा । एक ही क्षण के बाद देखती हूँ कि एक तेजस्वी ब्राह्मण ने रोषपूर्वक आकर मेरी गोद में रखे हुए अमृत कलश को फोड़ डाला ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

क्षणभर बाद यह दिखायी दिया कि वह महारुष्ट ब्राह्मण मेरे नेत्रगत पुरुष को पकड़कर लिये जा रहा है। प्रभो ! मेरे हाथ से क्रीड़ा-कमल-दण्ड सहसा गिर पड़ा और उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये। उत्तम रत्नों के सारभाग से बना हुआ दर्पण भी सहसा हाथ से गिरकर टूक-टूक हो गया। जो पहले निर्मल था, वह पीछे काला दिखायी देने लगा था। मेरा रत्नसारनिर्मित हार और कमल छिन्न-भिन्न हो वक्ष:स्थल से खिसककर पृथ्वी पर गिर पड़ा। कमल अत्यन्त मलिन पड़ गया था । मेरी अट्टालिका में जो पुतलियाँ बनी हैं, वे सब-की-सब क्षण-क्षण में नाचती, हँसती, ताल ठोकती, गाती और रोती दिखायी दीं। आकाश में काले रंग का एक विशाल चक्र बारंबार घूमता दिखायी दिया, जो बड़ा भयंकर था । वह कभी नीचे को गिरता और फिर ऊपर को उठ जाता था । मेरे प्राणों का अधिष्ठाता देवता पुरुषरूप में भीतर से बाहर निकला और मुझसे बोला- ‘ राधे ! बिदा होकर अब मैं यहाँ से जा रहा हूँ।’ काले वस्त्र पहने हुए एक काली प्रतिमा दिखायी दी, जो मेरा आलिङ्गन और चुम्बन करने लगी । प्राणवल्लभ ! यह विपरीत लक्षण देखकर मेरे दायें अङ्ग फड़क रहे हैं और प्राण आन्दोलित हो रहे हैं। वे शोक से रोते और क्षीण होते हैं । मेरा चित्त उद्विग्न हो उठा है । नाथ! तुम वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो । बताओ, यह सब क्या है ? क्या है ?

यों कहकर राधिकादेवी शोक से विह्वल और भयभीत हो श्रीकृष्ण के चरणकमलों में गिर पड़ीं। उनके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे । भगवान् श्रीकृष्ण ने राधा को उठाकर सान्त्वना दी और उनके प्रति अपना महान् स्नेह प्रकट किया।   ( अध्याय ६६)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद राधाशोकापनोदने षट्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६६ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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