March 4, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 69 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) उनहत्तरवाँ अध्याय श्रीराधा के सो जाने पर ब्रह्मा आदि देवताओं का आना और स्तुति करके श्रीकृष्ण को मथुरा जाने के लिये प्रेरित करना, श्रीकृष्ण का जाना, श्रीराधा का उठना और प्रियतम के लिये विलाप करके मूर्च्छित होना, श्रीकृष्ण का लौटकर आना, रत्नमाला का श्रीकृष्ण को राधा की अवस्था बताना, श्रीकृष्ण का राधा के लिये स्वप्न में मिलने का वरदान देकर व्रज में जाना तदनन्तर आनन्दमग्ना राधिकाजी सो गयीं। इसी समय लोकपितामह ब्रह्माजी शिव, शेष आदि देवताओं तथा मुनीन्द्रों के साथ वहाँ आये । आकर उन्होंने धरती पर माथा टेक प्रणाम किया और हाथ जोड़ वे उन परिपूर्णतम परमेश्वर का सामवेदोक्त स्तोत्र से स्तवन करने लगे । ॥ ब्रह्माकृत श्रीकृष्णस्तोत्र ॥ ॥ ब्रह्मोवाच ॥ जय जय जगदीश वन्दितचरण निर्गुण निराकार स्वेच्छामय भक्तानुग्रह नित्यविग्रह ॥ २३ ॥ गोपवेष मायया मायेश सुवेष सुशील शान्त सर्वकान्त दान्त नितान्तज्ञानानन्द परात्परतर प्रकृतेः पर सर्वान्तरात्मरूप निर्लिप्त साक्षिस्वरूप व्यक्ताव्यक्त निरञ्जन भारावतारण करुणार्णव शोकसेतापग्रसन जरामृत्युभयादिहरण शरणपञ्जर भक्तानुग्रहकारक भक्तवत्सल भक्तसंचितधन ओं नमोऽस्तु ते ॥ २४ ॥ सर्पाधिष्ठातृदेवायेत्युक्त्वा वै प्रीणनाय च । पुनःपुनःरुवाचेदं मूर्च्छितश्च बभूव ह ॥ २५ ॥ इति ब्रह्मकृतं स्तोत्रं यः शृणोति समाहितः । तत्सर्पाभीष्टसिद्धिश्च भवत्येव न संशयः ॥ २६ ॥ अपुत्रो लभते पुत्रं प्रियाहीनो लभेत्प्रियाम् । निर्धनो लभते सत्यं परिपूर्णतमं धनम् ॥ २७ ॥ इह लोके सुखं भुक्त्वा चान्ते दास्यं लभेद्धरेः । अचलां भक्तिमाप्नोति मुक्तेरपि सुदुर्लभाम् ॥ २८ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ब्रह्माजी बोले — जगदीश्वर ! आपकी जय हो, जय हो। आपके चरणों की सभी वन्दना करते हैं। आप निर्गुण, निराकार और स्वेच्छामय हैं । सदा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये ही दिव्य विग्रह धारण करते हैं और वह श्रीविग्रह नित्य है । माया से गोपवेष धारण करने वाले मायापते ! आपकी वेश-भूषा तथा शील-स्वभाव सभी सुन्दर एवं मनोहर हैं। आप शान्त तथा सबके प्राणवल्लभ हैं । स्वभावतः इन्द्रिय-संयम और मनोनिग्रह से सम्पन्न हैं । नितान्त ज्ञानानन्दस्वरूप, परात्परतर, प्रकृति से परे, सबके अन्तरात्मा, निर्लिप्त, साक्षिस्वरूप, व्यक्ताव्यक्तरूप, निरञ्जन, भूतलका भार उतारने वाले, करुणासागर, शोक-संतापनाशन, जरा-मृत्यु और भय आदि को हर लेने वाले, शरणागतरक्षक, भक्तों पर दया करने के लिये व्याकुल रहने वाले, भक्तवत्सल, भक्तों के संचित धन तथा सच्चिदानन्दस्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। सबके अधिष्ठाता देवता तथा प्रीति प्रदान करने वाले प्रभु को सादर नमस्कार है । इस तरह बारंबार कहते हुए ब्रह्माजी प्रेमावेश से मूर्च्छित हो गये । जो ब्रह्माजी द्वारा किये गये इस स्तोत्र को एकाग्रचित्त होकर सुनता है, उसके सम्पूर्ण अभीष्ट पदार्थों की सिद्धि होती है; इसमें संशय नहीं है । इस प्रकार स्तुति और बारंबार प्रणाम करके जगद्विधाता ब्रह्माजी सचेत हो धीरे-धीरे उठे और पुनः भक्तिभाव से बोले । ब्रह्माजी ने कहा — देवदेवेश्वर ! उठिये । परमानन्दकारण! सानन्द, नित्यानन्दमय नन्दनन्दन आपको नमस्कार है । नाथ! नन्दभवन में पधारिये और वृन्दावन को छोड़िये । सौ वर्षों के लिये जो सुदामा का शाप प्राप्त हुआ है, उसको स्मरण कीजिये । भक्त के शाप को सफल बनाने के लिये प्रियाजी को उतने समय के लिये त्याग दीजिये । फिर इन्हें पाकर आप गोलोक में पधारियेगा । देव आप पिता के घर जाकर वहाँ आये हुए अक्रूरजी से मिलिये। वे आपके पितृव्य (चाचा), माननीय अतिथि तथा धन्यवाद के योग्य सर्वसमर्थ वैष्णव हैं। भगवन्! अब उनके साथ मधुपुरी की यात्रा कीजिये। हरे! वहाँ शिव के धनुष को तोड़िये और शत्रुगणों को हतोत्साह कीजिये – मार भगाइये । दुरात्मा कंस का वध कीजिये और पिता-माता को सान्त्वना दीजिये । द्वारकापुरी का निर्माण कीजिये, भूतल का भार उतारिये, भगवान् शंकर की वाराणसीपुरी को दग्ध कीजिये और इन्द्र के भवन पर भी धावा बोलिये। युद्ध में शिवजी को जृम्भास्त्र से जृम्भित करके बाणासुर की भुजाओं को काटिये । नाथ! इससे पहले आपको रुक्मिणी का हरण, नरकासुर का वध तथा सोलह हजार राजकुमारियों का पाणिग्रहण करना है । व्रजेश्वर ! अब इन प्राणतुल्या प्रियतमा को छोड़िये और व्रज में चलिये । उठिये, उठिये, आपका कल्याण हो। जब तक राधा की नींद नहीं टूटती है; तभी तक चल दीजिये । इतना कहकर ब्रह्माजी इन्द्र आदि देवताओं के साथ ब्रह्मलोक को चले गये। साथ ही शेषनाग तथा शंकरजी भी अपने स्थान को पधारे। देवताओं ने श्रीकृष्ण के ऊपर प्रेम और भक्ति से पुष्प और चन्दन की वर्षा की। फिर आकाशवाणी हुई — ‘प्रभो! कंस वध के योग्य है; अतः उसका वध कीजिये; अपने माता-पिता को बन्धन से छुड़ाइये और पृथ्वी के भार का निवारण कीजिये ।’ नारद! इस प्रकार आकाशवाणी सुनकर भूतभावन भगवान् श्रीकृष्ण भगवती राधा को छोड़कर धीरे-धीरे वहाँ से उठे । बारंबार पीछे की ओर देखते हुए श्रीहरि कुछ दूर तक गये; फिर चन्दनवन में वासस्थान के पास ही थोड़ी देर लिये ठहर गये। उधर राधा निद्रा त्यागकर अपनी शय्या से उठ बैठीं और शान्त, कान्त, प्राणवल्लभ श्रीहरि को वहाँ न देख विलाप करती हुई बोलीं- ‘ हा नाथ ! हा रमणश्रेष्ठ ! हा प्राणेश्वर ! हा प्राणवल्लभ ! हे प्राणचोर प्रियतम ! तुम कहाँ गये ?’ फिर एक क्षण तक अन्वेषण करती हुई वे मालतीवन में घूमती फिरीं । कभी क्षणभर के लिये बैठ जातीं, कभी उठ जातीं और कभी भूतल पर सो जाती थीं। कुछ क्षणों तक अत्यन्त उच्चस्वर से बारंबार रोदन और विलाप करती रहीं। ‘हे नाथ ! आओ-आओ’ ऐसा बारंबार कहकर वे संताप से मूर्च्छित हो गयीं । विरहानल से संतप्त हो घास-फूस से ढके हुए भूतल पर इस तरह गिरीं, मानो प्राणान्त हो गया हो । ब्रह्मन् ! उस समय वहाँ अगणित गोपियाँ आ पहुँचीं । किन्हीं के हाथों में चँवर थे और कोई चन्दन का अनुलेपन लिये आयी थीं । उन सबके बीच जो प्रियाली ( प्यारी सखी) थी, उसने श्रीराधा को अपनी छाती से लगा लिया । वह प्रियाजी को मरणासन्न-सी देख प्रेम से विह्वल हो रोने लगी। उसने पङ्क के ऊपर सजल कमलदल बिछाकर उस पर श्रीराधा को सुलाया। वे चेष्टाहीन और मृतक-सी जान पड़ती थीं। गोपियाँ सुन्दर श्वेत चँवर डुलाती हुई उनकी सेवामें लग गयीं । उनके अङ्गों में चन्दन का लेप किया। उस अवस्था में सती राधा के वस्त्र गीले हो गये थे । इतने में ही श्रीकृष्ण वहाँ लौट आये और अपनी उन प्राणवल्लभा को पूर्वोक्त अवस्था में देखा । नारद ! जब वे पास आने लगे तो बलवती गोपियों ने उन्हें रोक दिया और उन्हें इस तरह पकड़कर ले आयीं, जैसे राजभय आदि से प्रेरित हो किसी दण्डनीय अपराधी को बाँधकर लाया गया हो । निकट आकर कृपानिधान श्रीकृष्ण ने राधा को गोद में बिठा लिया, उन्हें सचेत किया और प्रबोधक वचनों द्वारा समझाया। होश में आकर देवी राधा ने जब प्राणवल्लभ को देखा, तब वे सुस्थिर हो गयीं और उन्होंने विरह-ज्वर को त्याग दिया। उस समय राधा की चतुर सखी रत्नमाला ने जो सबके द्वारा सम्मानित थी, श्रीकृष्ण से नीति का सारभूत परम उत्तम मधुर वचन कहा । रत्नमाला बोली — श्रीकृष्ण ! सुनो। मैं ऐसी बात बताती हूँ, जो परिणाम में सुख देने वाली, हितकारक, सत्य, नीति का सारभूत तथा पति-पत्नी में प्रीति बढ़ाने वाली है। वह नीतिसम्मत, वेदों और पुराणों द्वारा अनुमोदित, लोक-व्यवहार में प्रशंसनीय तथा उत्तम यश की प्राप्ति कराने वाली है। नारियों को जैसे माता प्यारी होती है, उसी तरह बन्धुजनों में भाई प्रिय होता है । भाई से प्रिय पुत्र और पुत्र से प्रिय पति होता है । साध्वी स्त्रियों के लिये सत्पुरुषों द्वारा समादृत स्वामी सौ पुत्रों से भी अधिक प्रिय होता है । रसिका और चतुरा स्त्रियों के लिये पति से बढ़कर प्यारा दूसरा कोई नहीं है। इस मिथ्या संसार में पति-पत्नी की परस्पर प्रीति, समता तथा प्रेम-सौभाग्य परम अभीष्ट है। जिस-जिस घर में पति-पत्नी एक-दूसरे के प्रति समभाव नहीं रखते, वहीं दरिद्रता का निवास है । वहाँ उन दोनों का जीवन निष्फल है । संसारे चानृते वत्स दंपत्योः प्रीतिरेव च । परस्परं च समता प्रियसौभाग्यमीप्सितम् ॥ ६४ ॥ स्त्री के लिये स्वामी से मतभेद या फूट होना महान् दुःख की बात है । वैसा जीवन शोक और संताप का बीज तथा मरण से भी अधिक कष्टदायक है । सोते और जागते समय भी स्त्रियों के प्राण पति में ही बसते हैं। पति ही इहलोक और परलोक में स्त्री का गुरु है । नाथ ! ज्यों ही आप यहाँ से गये त्यों ही राधा को मूर्च्छा आ गयी। ये सहसा घास से ढकी हुई भूमि पर गिर पड़ीं। उस समय मैंने इनके मुँह पर उत्तम शीतल जल का छींटा दिया, तब इनकी साँस चलने लगी और कुछ-कुछ चेतना आयी । मेरी सखी क्षण-क्षण में पुकार उठती थीं – ‘ हे नाथ! हे कृष्ण !’ फिर दूसरे ही क्षण संतप्त हो रोने लगतीं और तत्काल मूर्च्छित हो जाती थीं। राधिका का शरीर विरहाग्नि से संतप्त हो तपायी हुई लोहे की छड़ी के समान अग्नितुल्य हो गया था; इसे छूआ नहीं जाता था। राधा के लिये सोने और जागने में, दिन और रात में, घर और वन में, जल, थल और आकाश में तथा चन्द्रोदय और सूर्योदय में कोई भेद नहीं रह गया है। इनकी आकृति मृतक-तुल्य एवं जडवत् हो गयी है। ये एक ही स्थान पर रहकर सदा सम्पूर्ण जगत् को विष्णुमय देखती हैं। चिकने पङ्क पर कमलों के सजल पत्र बिछाकर जो शय्या तैयार की गयी थी; उस पर ये आपके लिये विरहातुर होकर सोयी थीं। प्यारी सखियाँ निरन्तर श्वेत चँवर डुलाकर सेवा करने लगीं। इनके अङ्गों पर चन्दनमिश्रित जल छिड़का गया। इनके सारे वस्त्र गीले हो गये, तथापि राधा के अङ्गों का स्पर्श होने मात्र से वहाँ का सारा पङ्क सूख गया । स्निग्ध कमलदल तत्क्षण जलकर भस्म हो गये । चन्दन सूख गया। राधा का चम्पा के समान कान्तिमान् सुनहरा वर्ण केश के रंग की भाँति काला पड़ गया। सिन्दूर के सुन्दर बिन्दु तत्काल श्याम हो गये । वेश-भूषा, विलास, लीला एवं क्रीड़ा छूट गयी । कमलाकान्त कृष्ण ! यदि आप शीघ्र लौटकर नहीं आयेंगे तो आपके वियोग में मेरी सखी निश्चय ही अपने प्राणों का परित्याग कर देगी । अतः नीतिविशारद श्रीकृष्ण ! आप मन-ही-मन विचारकर जो उचित हो वह करें, जिससे आपके प्रति अनुरक्त अबला की हत्या न हो । रत्नमाला की यह बात सुनकर माधव हँस पड़े और हितकर, सत्य, नीतिसार एवं परिणाम में सुखद वचन बोले । श्रीभगवान् ने कहा — प्रिये रत्ने ! यद्यपि मैं ईश्वर हूँ और मिलन में बाधा डालने वाले शाप का खण्डन कर सकता हूँ, तथापि ऐसा करना मेरे लिये उचित नहीं है। मैं नियति के नियम को बदला नहीं करता हूँ । समस्त ब्रह्माण्डों में मैंने जो मर्यादा स्थापित की है, उसी का सहारा लेकर देवता, मुनि और मनुष्य कर्म करते हैं (फिर उसको मैं ही कैसे तोड़ दूँ) । सुन्दरि ! सुदाम के शापसे हम दोनों दम्पति को परस्पर जो कुछ समय के लिये वियोग प्राप्त होने वाला है, वह यद्यपि हमें अभीष्ट नहीं है, तथापि होकर ही रहेगा। सुमध्यमे! मैं राधा को वर देता हूँ। उस वर के अनुसार जाग्रत्-अवस्था में ही इन्हें मुझसे वियोग का अनुभव होगा; परंतु स्वप्न में राधा को निरन्तर मेरा आलिङ्गन प्राप्त होता रहेगा। मैंने प्रियाजी को अध्यात्म की बुद्धि प्रदान की है। उससे इनका शोक मिट जायगा । रत्नमाले ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम राधा को समझाओ। अब मैं नन्दभवन को जा रहा हूँ । नारद! यों कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण नन्दभवन की ओर चल दिये और सखियाँ राधा को समझाने लगीं। घर जाकर श्यामसुन्दर ने माता-पिता को प्रणाम किया । माता ने उन्हें गोद में बिठा लिया और तुरंत का तैयार किया हुआ माखन खिलाया । फिर शीतल जल पीकर उन्होंने माता का दिया हुआ पान खाया और वहीं माँ के समीप बैठे रहे । समस्त गोपसमूह श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगे। उन्होंने भी श्यामसुन्दर को प्रसन्नतापूर्वक हार, चन्दन और ताम्बूल दिये । (अध्याय ६९ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद श्रीकृष्णागमनं नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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