February 20, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 07 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सातवाँ अध्याय श्रीकृष्णजन्म-वृत्तान्त-आकाशवाणी से प्रभावित हो देवकी के वध के लिये उद्यत हुए कंस को वसुदेवजी का समझाना, कंस द्वारा उसके छः पुत्रों का वध, सातवें गर्भ का संकर्षण, आठवें गर्भ में भगवान् का आविर्भाव – देवताओं द्वारा स्तुति, भगवान् का दिव्य रूप में प्राकट्य, वसुदेव द्वारा उनकी स्तुति, भगवान् का पूर्वजन्म के वरदान का प्रसङ्ग बताकर अपने को व्रज में ले जाने की बात बता शिशुरूप में प्रकट होना, वसुदेवजी का व्रज में यशोदा के शयनगृह में शिशु को सुलाकर नन्द-कन्या को ले आना, कंस का उसे मारने को उद्यत होना, परंतु वसुदेवजी तथा आकाशवाणी के कथन पर विश्वास करके कन्या को दे देना, वसुदेव-देवकी का सानन्द घर को लौटना नारदजी ने पूछा — महाभाग ! श्रीकृष्ण का जन्म-वृत्तान्त महान् पुण्यप्रद और उत्तम है । वह जन्म, मृत्यु और जरा का नाश करनेवाला है। अतः आप इस प्रसङ्ग को कुछ विस्तार के साथ बतलाइये । वसुदेव किसके पुत्र थे और देवकी किसकी कन्या थीं ? देवकी और वसुदेव पूर्वजन्म में कौन थे ? उनके विवाह का वृत्तान्त भी बताइये । अत्यन्त क्रूर स्वभाव वाले कंस ने देवकी के छः पुत्रों का वध क्यों किया ? तथा श्रीहरि का जन्म किस दिन हुआ? यह सब मैं सुनना चाहता हूँ । आप कृपापूर्वक कहिये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय श्रीनारायण ने कहा — महर्षि कश्यप ही वसुदेव हुए थे और देवमाता अदिति देवकी के रूप में अवतीर्ण हुई थीं । पूर्वजन्म के पुण्य के फलरूप से ही उन्होंने श्रीहरि को पुत्ररूप से प्राप्त किया था । देवमीढ़ द्वारा मारिषा के गर्भ से महान् पुरुष वसुदेव का जन्म हुआ। उनके जन्मकाल में अत्यन्त हर्ष से भरे हुए देवसमुदाय ने आनक और दुन्दुभि नामक बाजे बजाये थे । इसलिये श्रीहरि के जनक वसुदेव को प्राचीन संत-महात्मा ‘आनकदुन्दुभि’ कहते हैं । यदुकुल में आहुक के पुत्र श्रीमान् देवक हुए थे, जो ज्ञान के समुद्र कहे जाते हैं। उन्हीं की पुत्री देवकी थीं। यदुकुल के आचार्य गर्ग ने वसुदेव के साथ देवकी का विधिपूर्वक यथोचित विवाह सम्बन्ध कराया था। देवक ने विवाह के लिये बहुत सामान एकत्र किये थे । उन्होंने उत्तम लग्न में अपनी पुत्री देवकी को वसुदेव के हाथ में समर्पण कर दिया । नारद! देवक ने दहेज में सहस्रों घोड़े, सहस्रों स्वर्णपात्र, वस्त्राभूषणों से विभूषित सैकड़ों सुन्दरी दासियाँ, नाना प्रकार के द्रव्य, भाँति- भाँति के रत्न, उत्तम मणि, हीरे तथा रत्नमय पात्र दिये थे। देवक की कन्या श्रेष्ठ रत्नमय आभूषणों से विभूषित, सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान कान्तिमती, त्रिभुवनमोहिनी, धन्य, मान्य तथा श्रेष्ठ युवती थी । रूप और गुण की निधि थी । उसके मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छायी रहती थी । उसे रथ पर बिठाकर वसुदेव जब प्रस्थान करने लगे, तब बहिन के विवाह में हर्ष से भरा हुआ कंस भी उसके साथ चला। वह तत्काल देवकी के रथ के निकट आ गया । इसी समय कंस को सम्बोधित करके आकाशवाणी हुई- ‘ राजेन्द्र ! क्यों हर्ष से फूल उठे हो ? यह सच्ची बात सुनो। देवकी का आठवाँ गर्भ तुम्हारी मृत्यु का कारण होगा ।’ यह सुनकर महाबली कंस ने हाथ में तलवार ले ली। दैवी वाणी पर विश्वास करके भयभीत और कुपित हो वह महापापी नरेश देवकी का वध करने के लिये उद्यत हो गया । वसुदेवजी बड़े भारी पण्डित, नीतिज्ञ तथा नीतिशास्त्र के ज्ञान में निपुण थे । उन्होंने कंस को देवकी का वध करने के लिये उद्यत देख उसे समझाना आरम्भ किया । वसुदेवजी बोले — राजन् ! जान पड़ता है तुम राजनीति नहीं जानते हो। मेरी बात सुनो। यह तुम्हारे लिये हितकर और यशस्कर है। साथ ही कलङ्क को दूर करने वाली, शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित तथा समय के अनुरूप भी है। भूपाल ! यदि इसके आठवें गर्भ से ही तुम्हारी मृत्यु होने वाली है तो इस बेचारी का वध करके क्यों अपयश लेते और अपने लिये नरक का मार्ग प्रशस्त करते हो ? जीवमात्र के वध से ही न्यूनाधिक पाप होता है; परंतु ब्रह्महत्या बहुत बड़ा पातक है । स्त्री का वध करने से मनुष्य को ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है। विशेषतः यह तुम्हारी बहिन है । तुमसे पालित और पोषित होने योग्य है तथा तुम्हारी शरण में आयी है। नरेश्वर ! इसका वध करने पर तुम्हें सौ स्त्रियों की हत्या का पाप लगेगा । मनुष्य जप, तप, दान, पूजा, तीर्थदर्शन, ब्राह्मणभोजन और होमयज्ञ आदि का अनुष्ठान स्वर्ग (दिव्य सुख) – की प्राप्ति के लिये ही करता है । साधु-पुरुष समस्त संसार को पानी के बुलबुले और स्वप्न की भाँति निस्सार एवं मिथ्या मानते और भयदायक समझते हैं। इसीलिये वे सदैव यत्नपूर्वक धर्म का अनुष्ठान करते हैं । यदुकुल-कमल-दिवाकर धर्मिष्ठ नरेश्वर ! अपनी इस बहिन को छोड़ दो; मारो मत । तुम्हारी राजसभा में कई प्रकार के विद्वान् हैं। तुम उन सबसे पूछो कि इसके विषय में क्या करना चाहिये ? भाई ! इसके आठवें गर्भ में जो संतान होगी, उसे मैं तुम्हारे हाथ में दे दूँगा । उससे मेरा क्या प्रयोजन है ? अथवा ज्ञानिशिरोमणे ! जितनी भी संतानें होंगी, उन सबको मैं तुम्हारे हवाले कर दूँगा; क्योंकि उनमें से एक भी मुझे तुमसे अधिक प्रिय नहीं है । राजेन्द्र ! बहिन को जीवित छोड़ दो। यह तुम्हें बेटी के समान प्यारी है। तुमने इस छोटी बहिन को सदा मीठे अन्न-पान देकर पाल-पोसकर बड़ा किया है। वसुदेवजी की यह बात सुनकर राजा कंस ने बहिन को छोड़ दिया । वसुदेवजी प्यारी पत्नी को साथ लेकर अपने घर गये। नारद! देवकी के गर्भ से क्रमशः जो छः संतानें हुईं, उन्हें वसुदेवजी ने कंस को दे दिया; क्योंकि वे सत्य से बँधे हुए थे। कंस ने क्रमशः उन सबको मार डाला । देवकी के सातवें गर्भ के आने पर कंस ने भय के कारण उसकी रक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया। परंतु योगमाया ने उस गर्भ को खींचकर रोहिणी के पेट में रख दिया। रक्षकों ने राजा को यह सूचना दी कि देवकी का सातवाँ गर्भ गिर गया। उसी गर्भ से भगवान् अनन्त प्रकट हुए, जो ‘संकर्षण’ नाम से प्रसिद्ध हुए । तदनन्तर देवकी का आठवाँ गर्भ प्रकट हुआ जो वायु से भरा हुआ था । नवाँ मास व्यतीत होने के पश्चात् दसवाँ मास उपस्थित होने पर सर्वदर्शी भगवान् ने उस गर्भ पर दृष्टिपात किया। समस्त नारियों में श्रेष्ठ देवी देवकी स्वयं तो रूपवती थीं ही, भगवान् के दृष्टिपात करने पर तत्काल ही उनका सौन्दर्य चौगुना बढ़ गया। कंस ने देखा, देवकी के मुख और नेत्र खिल उठे हैं । वह तेज से प्रज्वलित हो योगमाया के समान दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रही है; मूर्तिमान् ज्योतिः पुञ्ज-सी दिखायी देती है। उसे देख असुरराज कंस को बड़ा विस्मय हुआ । उसने मन-ही-मन कहा- ‘इस गर्भसे जो संतान होगी, वही मेरी मृत्यु का कारण है’ – ऐसा कहकर कंस यत्त्रपूर्वक देवकी और वसुदेव की रखवाली करने लगा। उसने सात द्वारवाले भवन में उन दोनों को रख छोड़ा था । दसवें मास के पूर्ण होने पर जब वह गर्भ वायु से पूर्ण हो गया। तब सबसे निर्लिप्त रहने वाले साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण ने देवकी के हृदय-कमल में निवास किया। उस समय महामनस्वी वसुदेव ने देवकी पर दृष्टिपात करके समझ लिया कि प्रसवकाल संनिकट आ गया है। फिर तो वे भगवान् श्रीहरि का स्मरण करने लगे । रत्नमय प्रदीप से युक्त उस परम मनोहर भवन में उन्होंने तलवार, लोहा, जल और अग्नि को लाकर रखा। मन्त्रज्ञ मनुष्य तथा भाई-बन्धुओं की स्त्रियों को भी बुला लिया । भय से व्याकुल वसुदेव ने विद्वान् ब्राह्मण तथा बन्धुओं को भी सादर बुला भेजा। इसी समय जब रात के दो पहर बीत गये, आकाश में बादल घिर आये, बिजलियाँ चमकने लगीं, अनुकूल वायु चलने लगी तथा रक्षक निद्रित हो शय्या पर इस तरह निश्चेष्ट सो गये, मानो मरकर अचेत हो गये हों; तब धर्म, ब्रह्मा तथा शिव आदि देवेश्वरगण वहाँ आये तथा गर्भस्थ परमेश्वर की स्तुति करने लगे । ॥ श्रीकृष्ण गर्भ स्तुति ॥ ॥ देवा ऊचुः ॥ जगद्योनिरयोनिस्त्वमनन्तोऽव्यय एव च । ज्योतिः स्वरूपो ह्यनघः सगुणो निर्गुणो महान् ॥ ५५ ॥ भक्तानुरोधात्साकारो निराकारो निरङ्कुशः । निर्व्यूहो निखिलाधारो निःशङ्को निरुपद्रवः ॥ ५६ ॥ निरुपाधिश्च निर्लिप्तो निरीहो निधनान्तकः । स्वात्मारामः पूर्णकामो निमिषो नित्य एव च ॥ ५७ ॥ स्वेच्छामयः सर्वहेतुः सर्वः सर्वगुणाश्रयः । सुखदो दुःखदो दुर्गो दुर्जनान्तक एव च ॥ ५८ ॥ सुभगो दुर्भगो वाग्मी दुराराध्यो दुरत्ययः । वेदहेतुश्च वेदाश्च वेदाङ्गो वेदविद्विभुः ॥ ५९ ॥ इत्येवमुक्त्वा देवाश्च प्रणेमुश्च मुहुर्मुहुः । हर्षाश्रुलोचनाः सर्वे ववृषः कुसुमानि च ॥ ६० ॥ द्विचत्वारिंशन्नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् । दृढां भक्तिं हरेर्दास्यं लभते वाञ्छितं फलम् ॥ ६१ ॥ देवता बोले — भगवन्! आप समस्त संसार की उत्पत्ति के स्थान हैं, किंतु आपकी उत्पत्ति का स्थान कोई नहीं है। आप अनन्त, अविनाशी, निष्पाप, सगुण, निर्गुण तथा महान् ज्योतिः स्वरूप हैं । आप निराकार होते हुए भी भक्तों के अनुरोध से साकार बन जाते हैं। आप पर किसी का अंकुश या नियन्त्रण नहीं है । आप सर्वथा स्वच्छन्द, सर्वेश्वर, सर्वरूप तथा समस्त गुणों के आश्रय हैं। आप संतों को सुख देनेवाले, दुष्टों को दुःख प्रदान करने वाले, दुर्गमस्वरूप एवं दुर्जनों के नाशक हैं। आप तक तर्क की पहुँच नहीं होती है। आप सबके आधार हैं । शङ्का और उपद्रव से शून्य हैं । उपाधिशून्य, निर्लिप्त और निरीह हैं । मृत्यु की भी मृत्यु हैं । अपनी आत्मा में रमण करने वाले पूर्णकाम, निर्दोष और नित्य हैं। आप सौभाग्यशाली और दुर्भाग्य-रहित हैं तथा प्रवचन-कुशल हैं। आपको रिझाना या लाँघना कठिन ही नहीं, असम्भव है। आपके निःश्वास से वेदों का प्राकट्य हुआ है; इसलिये आप उनके प्रादुर्भाव में हेतु हैं । सम्पूर्ण वेद आपके स्वरूप हैं। छन्द आदि वेदाङ्ग भी आपसे भिन्न नहीं हैं। आप वेदवेत्ता और सर्वव्यापी हैं । ऐसा कहकर देवताओं ने बारंबार उनको प्रणाम किया। उन सबके नेत्रों में हर्ष के आँसू छलक रहे थे। उन सबने फूलों की वर्षा की । जो पुरुष प्रातःकाल उठकर (मूल श्लोकमें कहे गये) बयालीस नामों का पाठ करता है, वह श्रीहरि की दृढभक्ति, दास्यभाव तथा मनोवाञ्छित फल पाता है । See Also:-1. गर्भगत कृष्णस्तुतिः 2. श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय २ भगवान् नारायण कहते हैं — इस प्रकार स्तुति सुनाकर देवता लोग अपने-अपने धाम को चले गये। फिर जल की वृष्टि होने लगी । सारी मथुरा नगरी निश्चेष्ट होकर सो रही थी । मुने ! वह रात्रि घोर अन्धकार से व्याप्त थी । जब रात के सात मुहूर्त निकल गये और आठवाँ उपस्थित हुआ, तब आधी रात के समय सर्वोत्कृष्ट शुभ लग्न आया । वह वेदों से अतिरिक्त तथा दूसरों के लिये दुर्ज्ञेय लग्न था । उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी । अशुभ ग्रहों की नहीं थी । अर्धरात्रे समुत्पन्ने रोहिण्यामष्टमीतिथौ । जयन्तीयोगसंयुक्ते चार्धचन्द्रोदये मुने ॥ ६५ ॥ रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी तिथि के संयोग से जयन्ती नामक योग सम्पन्न हो गया था। मुने! जब अर्धचन्द्रमा का उदय हुआ, उस समय लग्न की ओर देख-देखकर भयभीत हुए सूर्य आदि सभी ग्रह आकाश में अपनी गति के क्रम को लाँघकर मीन लग्न में जा पहुँचे। शुभ और अशुभ सभी वहाँ एकत्र हो गये । विधाता की आज्ञा से एक मुहूर्त के लिये वे सभी ग्रह प्रसन्नतापूर्वक ग्यारहवें स्थान में जाकर वहाँ सानन्द स्थित हो गये। मेघ वर्षा करने लगे। ठंढी-ठंढी हवा चलने लगी । पृथ्वी अत्यन्त प्रसन्न थी । दसों दिशाएँ स्वच्छ हो गयी थीं। ऋषि, मनु, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, देवता और देवियाँ सभी प्रसन्न थे। अप्सराएँ नृत्य करने लगीं । गन्धर्वराज और विद्याधरियाँ गीत गाने लगीं। नदियाँ सुखपूर्वक बहने लगीं। अग्निहोत्र की अग्रियाँ प्रसन्नतापूर्वक प्रज्वलित हो उठीं । स्वर्ग में दुन्दुभियों और आनकों की मनोहर ध्वनि होने लगी। खिले हुए पारिजात के पुष्पों की झड़ी लग गयी । पृथ्वी नारी का रूप धारण करके स्वयं सूतिकागार में गयी । वहाँ जय-जयकार, शङ्खनाद तथा हरिकीर्तन का शब्द गूँज रहा था। इसी समय सती देवकी वहाँ गिर पड़ीं । उनके पेट से वायु निकल गयी और वहीं भगवान् श्रीकृष्ण दिव्यरूप धारण करके देवकी के हृदयकमल के कोश से प्रकट हो गये। उनका शरीर अत्यन्त कमनीय और परम मनोहर था । दो भुजाएँ थीं । हाथ में मुरली शोभा पा रही थी । कानों में मकराकृति कुण्डल झलमला रहे थे । मुख मन्द हास्य की छटा से प्रसन्न जान पड़ता था । वे भक्तों पर कृपा करने के लिये कातर से दिखायी पड़ते थे । श्रेष्ठ मणि-रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित आभूषण उनके शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। पीताम्बर से सुशोभित श्रीविग्रह की कान्ति नूतन जलधर के समान श्याम थी । चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम के द्रव से निर्मित अङ्गराग सब अङ्गों में लगा हुआ था। उनका मुखचन्द्र शरत्पूर्णिमा के शशधर की शुभ्र ज्योत्स्ना को तिरस्कृत कर रहा था । बिम्बफल के सदृश लाल अधर के कारण उसकी मनोहरता और बढ़ गयी थी । माथे पर मोरपंख के मुकुट तथा उत्तम रत्नमय किरीट से श्रीहरि की दिव्य ज्योति और भी जाज्वल्यमान हो उठी थी। टेढ़ी कमर, त्रिभङ्गी झाँकी, वनमाला का शृङ्गार, वक्ष में श्रीवत्स की स्वर्णमयी रेखा और उस पर मनोहर कौस्तुभमणि की भव्य प्रभा अद्भुत शोभा दे रही थी। उनकी किशोर अवस्था थी । वे शान्तस्वरूप भगवान् श्रीहरि ब्रह्मा और महादेवजी के भी परम कान्त (प्राणवल्लभ ) हैं । मुने! वसुदेव और देवकी ने उन्हें अपने समक्ष देखा। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। वसुदेवजी ने अपनी पत्नी देवकी के साथ अश्रुपूर्णनयन, पुलकितशरीर तथा नतमस्तक हो हाथ जोड़ भक्तिभाव से उनकी स्तुति की। ॥ वसुदेवकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रं ॥ ॥ वसुदेव उवाच ॥ त्वामतीन्द्रियमव्यक्तमक्षरं निर्गुणं विभुम् । ध्यानासाध्यं च सर्वेषां परमात्मानमीश्वरम् ॥ ८३ ॥ स्वेच्छामयं सर्वरूपं स्वेच्छारूपधरं परम् । निर्लिप्तं परमं ब्रह्म बीजरूपं सनातनम् ॥ ८४ ॥ स्थूलात्स्थूलतरं व्यासमतिसूक्ष्ममदर्शनम् । स्थितं सर्वशरीरेषु साक्षिरूपमदृश्यकम् ॥ ८५ ॥ शरीरवन्तं सगुणमशरीरं गुणोत्करम् । प्रकृतेः प्रकृतीशं च प्राकृतं प्रकृतेः परम् ॥ ८६ ॥ सर्वेशं सर्वरूपं च सर्वान्तकरमव्ययम् । सर्वाधारं निराधारं निर्व्यूहं स्तौमि किं विभुम् ॥ ८७ ॥ अनन्तः स्तवनेऽशक्तोऽशक्ता देवी सरस्वती । यं वा स्तोतुमशक्तश्च पञ्चवक्त्रः षडाननः ॥ ८८ ॥ चतुर्मुखो वेदकर्ता यं स्तोतुमक्षमः सदा । गणेशो न समर्थश्च योगीन्द्राणां गुरोर्गुरुः ॥ ८९ ॥ ऋषयो देवताश्चैव मुनीन्द्रमनुमानवाः । स्वप्ने तेषामदृश्यं च त्वामेवं कि स्तुवन्ति ते ॥ ९० ॥ श्रुतयः स्तवनेऽशक्ताः किं स्तुवन्ति विपश्चितः । विहायैवं शरीरं च बालो भवितुमर्हसि ॥ ९१ ॥ वसुदेवकृतं स्तोत्रं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः । भक्ति दास्यमवाप्नोति श्रीकृष्णचरणाम्बुजे ॥ ९२ ॥ विशिष्टपुत्रं लभते हरिदासं गुणान्वितम् । संकटं निस्तरेत्तूर्णं शत्रुभीत्या प्रमुच्यते ॥ ९३ ॥ वसुदेवजी बोले — भगवन्! आप श्रीमान् (सहज शोभा से सम्पन्न), इन्द्रियातीत, अविनाशी, निर्गुण, सर्वव्यापी, ध्यान से भी किसी के वश में न होनेवाले, सबके ईश्वर और परमात्मा हैं । स्वेच्छामय, सर्वस्वरूप, स्वच्छन्द रूपधारी, अत्यन्त निर्लिप्त, परब्रह्म तथा सनातन बीजरूप हैं । आप स्थूल से भी अत्यन्त स्थूल, सर्वत्र व्याप्त, अतिशय सूक्ष्म दृष्टि-पथ में न आनेवाले, समस्त शरीरों में साक्षीरूप से स्थित तथा अदृश्य हैं। साकार, निराकार; सगुण, गुणों के समूह; प्रकृति, प्रकृति के शासक तथा प्राकृत पदार्थों में व्याप्त होते हुए भी प्रकृति से परे विद्यमान हैं । विभो ! आप सर्वेश्वर, सर्वरूप, सर्वान्तक, अविनाशी, सर्वाधार, निराधार और निर्व्यूह (तर्क के अविषय) हैं; मैं आपकी क्या स्तुति करूँ ? भगवान् अनन्त ( सहस्रों जिह्वावाले शेषनाग ) भी आपका स्तवन करने में असमर्थ हैं। सरस्वतीदेवी में भी वह शक्ति नहीं कि आपकी स्तुति कर सकें । पञ्च-मुख महादेव और छः मुख वाले स्कन्द भी जिनकी स्तुति नहीं कर सकते, वेदों को प्रकट करने वाले चतुर्मुख ब्रह्मा भी जिनके स्तवन में सर्वदा अक्षम हैं तथा योगीन्द्रों के गुरु के भी गुरु गणेश भी जिनकी स्तुति में असमर्थ हैं; उन आपका स्तवन ऋषि, देवता, मुनीन्द्र, मनु और मानव कैसे कर सकते हैं? उनकी दृष्टि में तो आप कभी आये ही नहीं हैं। जब श्रुतियाँ आपकी स्तुति नहीं कर सकतीं तो विद्वान् लोग क्या कर सकते हैं ? मेरी आपसे इतनी ही प्रार्थना है कि आप ऐसे दिव्य शरीर को त्यागकर बालक का रूप धारण कर लें । जो मनुष्य वसुदेवजी के द्वारा किये गये इस स्तोत्र का तीनों संध्याओं के समय पाठ करता है, वह श्रीकृष्णचरणारविन्दों की दास्य-भक्ति प्राप्त कर लेता है । उसे विशिष्ट एवं हरिभक्त पुत्र की प्राप्ति होती है । वह सारे संकटों से शीघ्र पार हो जाता और शत्रु के भय से छूट जाता है । भगवान् नारायण कहते हैं — वसुदेवजी की बात सुनकर भक्तों पर अनुग्रह के लिये कातर रहने वाले प्रसन्नवदन श्रीहरि ने स्वयं इस प्रकार कहा । श्रीकृष्ण बोले — मैं तपस्याओं के फल से ही इस समय तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ । तुम इच्छानुसार वर माँगो | तुम्हारा कल्याण होगा, इसमें संशय नहीं । पूर्वका लमें तुम तपस्वीजनों में श्रेष्ठ प्रजापति कश्यप थे और ये सुतपा माता अदिति तुम्हारे साथ थीं। तुमने अपनी इन तपस्विनी पत्नी अदिति के साथ तपस्या द्वारा मेरी आराधना की थी। वहाँ मुझे देखकर तुमने मेरे समान पुत्र होने का वर माँगा और मैंने भी तुम्हें यह वर दिया कि मेरे समान पुत्र की प्राप्ति होगी । तात ! तुम्हें वर देकर मैंने मन-ही-मन विचार किया। फिर यह बात ध्यान में आयी कि मेरे समान तो कोई त्रिभुवन में ही नहीं है । इसलिये मैं स्वयं ही तुम्हारे पुत्रभाव को प्राप्त हुआ। आप स्वयं कश्यपजी हैं और तपस्या के प्रभाव से इस समय मेरे पिता वसुदेव हुए हैं । ये उत्तम तपस्यावाली पतिव्रता देवमाता अदिति ही इस समय अपने अंश से मेरी माता देवकी के रूप में प्रकट हुई हैं। आप और माता अदिति से ही मैं अंशतः वामनरूप में अवतीर्ण हुआ था; किंतु इस समय आपके तप के फल से मैं परिपूर्णतम परमात्मा ही पुत्ररूप में प्रकट हुआ हूँ । महामते ! तुम पुत्रभाव से या ब्रह्मभाव से जब मुझे पा गये हो तो अब निश्चय ही जीवन्मुक्त हो जाओगे। तात ! अब तुम मुझे लेकर शीघ्र ही व्रज में चलो और यशोदा के घर में मुझे रखकर वहाँ उत्पन्न हुई माया को ले आओ तथा यहाँ अपने पास उसे रख लो। ऐसा कहकर श्रीहरि वहाँ तुरंत शिशुरूप हो गये । श्यामल पुत्र को पृथ्वी पर नग्नभाव से सोया देख विष्णु की माया से मोहित हो वसुदेवजी सूतिकागार में अपनी स्त्री से तन्द्रा में बोले – ‘प्रिये ! यह कैसा तेजःपुञ्ज है ?’ ऐसा कह वसुदेव ने पत्नी के साथ कुछ विचार करके बालक को गोद में उठा लिया और उसे लेकर वे नन्द- गोकुल में जा पहुँचे। वहाँ नन्दगाँव में यशोदा नींद से अचेत हो रही थीं। उन्होंने शय्या पर उन्हें निद्रित अवस्था में देखा। साथ ही नन्दजी भी वहाँ नींद में बेसुध हो रहे थे । वहाँ घर में जो कोई भी प्राणी थे, सब सो गये थे । वसुदेवजी ने देखा, तपाये हुए सुवर्ण के समान गौर कान्तिवाली एक नग्न बालिका पड़ी-पड़ी घर की छत की ओर दृष्टिपात कर रही है। उसके प्रसन्न मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। उसे देखकर वसुदेवजी को बड़ा विस्मय हुआ । वे तुरंत ही पुत्र को वहाँ सुलाकर कन्या को गोद में ले डरते-डरते मथुरा की ओर गये और अपनी पत्नी के सूतिकागार में जा पहुँचे। वहीं उन्होंने उस महामाया-स्वरूपिणी बालिका को सुला दिया। बालिका जोर-जोर से रोने लगी। उसे देखकर देवकी थर्रा उठी। उस बालिका ने अपने रोने की आवाज से ही रक्षकों को जगा दिया। रक्षक शीघ्र उठकर खड़े हो गये और उस बालिका को छीनकर कंस के निकट जा पहुँचे । देवकी और वसुदेव भी शोक से विह्वल हो पीछे-पीछे गये । महामुने ! बालिका को देखकर कंस को अधिक प्रसन्नता नहीं हुई । उस रोती हुई बच्ची पर भी उसे दया नहीं आयी। वह क्रूरकर्मा असुर उस बालिका को लेकर पत्थर पर दे मारने के लिये आगे बढ़ा। उस समय वसुदेव और देवकी ने बड़े आदर के साथ उससे कहा — ‘नृपश्रेष्ठ कंस ! तुम नीतिशास्त्र में निपुण विद्वान् हो; अतः हमारी सच्ची, नीतियुक्त तथा मनोहर बात सुनो। भैया ! तुमने हमारे भाई-बन्धु होकर भी हम दोनों के छः पुत्रों का वध कर डाला, फिर भी तुम्हें दया नहीं आती! अब इस आठवें गर्भ में यह अबला बालिका प्राप्त हुई है। हमारी इस बच्ची को मारकर तुम्हें भूतल पर कौन – सा महान् ऐश्वर्य प्राप्त हो जायगा ? क्या एक अबला युद्ध के मुहाने पर तुम्हारी राज्यलक्ष्मी का हनन करने में समर्थ हो सकती है ?’ ऐसा कहकर वसुदेव और देवकी दोनों दुरात्मा कंस के सामने वहाँ फूट-फूटकर रोने लगे । कंस बड़ा ही निर्दय था । उसने उन दोनों की बातें सुनकर इस प्रकार उत्तर दिया । कंस बोला — बहिन ! मेरी बात सुनो। मैं तुम्हें समझाता हूँ । विधाता दैववश एक तिनके के द्वारा पर्वत को धराशायी करने में समर्थ हैं। एक कीड़े के द्वारा सिंह और व्याघ्र को तथा एक मच्छर के द्वारा विशालकाय हाथी को नष्ट कर सकते हैं। शिशु के द्वारा महान् वीर का, क्षुद्र जन्तुओं द्वारा विशालकाय प्राणी का, चूहे के द्वारा बिल्ली का और मेढक के द्वारा सर्प का वध करा सकते हैं। इस प्रकार विधाता जन्य के द्वारा जनक का, भक्ष्य के द्वारा भक्षक का, अग्नि के द्वारा जल का और सूखे तिनके के द्वारा अग्नि का नाश करने में समर्थ हैं। एकमात्र द्विज जह्नु ने सात समुद्रों को पी लिया था; अतः तीनों लोकों में विधाता की विचित्र गति को समझ पाना अत्यन्त कठिन है । दैवयोग से यह बालिका ही मेरा नाश करने में समर्थ हो जायगी, अतः मैं बालिका का भी वध कर डालूँगा । इस विषय में विचार करने की आवश्यकता नहीं है । ऐसा कहकर कंस उस बालिका को मारना ही चाहता था कि वसुदेवजी ने पुनः उससे कहा—’ राजन् ! तुमने अब तक व्यर्थ ही हिंसा की है । कृपानिधे! अब इस बालिका को मुझे दे दो।’ महामुने ! उनकी बात सुनकर विचारज्ञ कंस संतुष्ट हो गया। इसी समय उसे बोध कराती हुई आकाशवाणी प्रकट हुई । ‘ओ मूढ़ कंस! तू विधाता की गति को न जानकर किसे मारने जा रहा है ? तेरा वध करने वाला बालक कहीं उत्पन्न हो गया है। समय आने पर प्रकट होगा ।’ यह दैववाणी सुनकर राजा कंस ने बालिका को त्याग दिया । वसुदेव और देवकी उसे पाकर बड़े प्रसन्न हुए। वे उस बालिका को छाती से लगाये घर को लौट आये। मरी हुई कन्या मानो पुनः जी गयी हो, इस प्रकार उसे पाकर वसुदेवजी ने ब्राह्मणों को बहुत धन दिया । विप्रवर ! वह कन्या परमात्मा श्रीकृष्ण की बड़ी बहिन हुई । पार्वती के अंश से उसका आविर्भाव हुआ था । लोक में वह ‘एकानंशा’ नाम से विख्यात हुई । द्वारका में रुक्मिणी के विवाह के अवसर पर वसुदेवजी ने उस कन्या को भगवान् शंकर के अंशावतार महर्षि दुर्वासा के हाथ में भक्तिपूर्वक दे दिया था । मुने! इस प्रकार श्रीकृष्ण जन्म के विषय में सारी बातें बतायी गयीं। इसका बारंबार कीर्तन जन्म, मृत्यु और जरा के कष्ट को नष्ट करनेवाला, सुखदायक और पुण्यदायक है ।* ( अध्याय ७) * श्रीमद्भागवत के वर्णन के साथ इसका मेल नहीं खाता। उसमें चतुर्भुजरूप से भगवान् प्रकट होते हैं। कन्या को कंस पृथ्वी पर पटक देता है और वह आकाश में जाकर कंस को सावधान करती है। कल्पभेद से दोनों ही वर्णन सत्य हो सकते हैं। ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे नारायणनारदसंवादे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारदना० सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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