ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 72
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
बहतरवाँ अध्याय
पुरी की शोभा का वर्णन, कुब्जा पर कृपा, माली को वरदान, धोबी का उद्धार, कुब्जा का गोलोकगमन, कंस का दुःस्वप्न, रङ्गभूमि में कंस का पधारना, धनुर्भङ्ग, हाथी का वध, कंस का उद्धार, उग्रसेन को राज्यदान, माता-पिता के बन्धन काटना, वसुदेवजी द्वारा नन्द आदि का सत्कार और ब्राह्मणों को दान

श्रीनारायण कहते हैं — मुने! तदनन्तर श्रीकृष्ण गुरुजनों को नमस्कार करके आँगन से बाहर निकले और स्वर्गीय रथ पर आरूढ़ हो सुन्दर मथुरापुरी की ओर चल दिये । मथुरा अपनी शोभा से इन्द्र की अमरावतीपुरी को परास्त करके अत्यन्त मनोहर दिखायी देती थी। श्रीकृष्ण ने अक्रूर तथा सखाओं के साथ उस रमणीय नगरी में प्रवेश किया । श्रेष्ठ रत्नों से खचित और विश्वकर्मा द्वारा रचित मथुरापुरी सुन्दर बहुमूल्य रत्ननिर्मित कलशों से सुशोभित थी। सैकड़ों सुन्दर, श्रेष्ठ और अभीष्ट राजमार्गों से वह नगरी घिरी हुई थी। वे राजमार्ग चन्द्रकान्त मणियों के सारभाग से जटित होने के कारण चन्द्रमा के समान ही प्रकाशित होते थे । वहाँ विचित्र मणियों के सारतत्त्व से शत-शत वीथियों का निर्माण किया गया था । पुण्य वस्तुओं के संचय से सम्पन्न श्रेष्ठ व्यवसायी अपनी दूकानों से उन राजमार्गों की शोभा बढ़ाते थे । पुरी के चारों ओर सहस्रों सरोवर शोभा दे रहे थे, जो शुद्ध स्फटिकमणि के समान उज्ज्वल तथा पद्मरागमणियों की दीप्ति से देदीप्यमान थे।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

रत्नमय अलंकारों एवं आभूषणों से विभूषित पद्मिनी जाति की श्रेष्ठ सुन्दरियों से वह नगरी शोभायमान थी। वे सब सुन्दरियाँ सुस्थिर यौवन से युक्त थीं और श्रीकृष्ण-दर्शन की लालसा से मुँह ऊपर उठाये अपलक नेत्रों से राजमार्ग की ओर देख रही थीं। उनके हाथों में अक्षतपुञ्ज थे । असंख्य रत्ननिर्मित रथ पुरी की शोभा बढ़ाते थे। अनेक प्रकार के विचित्र भूषणों से उन रथों को विभूषित एवं चित्रित किया गया था । बहुत-से पुष्पोद्यान, जो भाँति-भाँति के पुष्पों से भरे थे और जिनमें भ्रमर रसास्वादन करते थे, मथुरापुरी की श्रेयोवृद्धि कर रहे थे। माधुर्य मधु से युक्त, मधुलोभी तथा मधुमत्त मधुकर मधुकरियों के समूह से संयुक्त हो उन उद्यानों में आनन्द का अनुभव कर रहे थे । नगर के चारों ओर अनेक प्रकार के दुर्ग थे, जिनके कारण शत्रुओं का वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन था। रक्षाशास्त्र-विशारद रक्षकों से वह पुरी सदा सुरक्षित थी । विश्वकर्मा द्वारा श्रेष्ठ एवं विचित्र रत्नों से रचित अगणित अट्टालिकाओं से संयुक्त मथुरानगरी बड़ी मनोहर जान पड़ती थी ।

इस प्रकार मथुरापुरी की शोभा देख आगे बढ़ते हुए कमलनयन श्रीकृष्ण ने मार्ग में कुब्जा को देखा, जो अत्यन्त जराजीर्ण एवं वृद्धा-सी थी । डंडे के सहारे चलती थी । अत्यन्त झुकी हुई थी और झुर्रियाँ लटक रही थीं। उसकी आकृति रूखी और विकृत थी । वह कस्तूरी और केसर मिला हुआ चन्दन का अनुलेपन लिये आ रही थी, जिसके स्पर्शमात्र से शरीर सुगन्धित, सुस्निग्ध तथा अत्यन्त मनोहर हो जाता था । उस वृद्धा ने शान्त, ऐश्वर्ययुक्त, श्रीसम्पन्न, श्रीनिवास, श्रीबीज एवं श्रीनिकेतन श्यामसुन्दर श्रीवल्लभ को मन्द मुस्कान के साथ देखा। देखते ही उसके दोनों हाथ जुड़ गये । वह भक्ति से विनीत हो गयी और सहसा चरणों में सिर रखकर उसने प्रणाम किया। साथ ही उनके श्याम मनोहर अङ्ग में चन्दन लगाया। श्रीकृष्ण के जो सखा थे, उनके अङ्गों में भी चन्दन का अनुलेपन किया । फिर चन्दन का सुवर्णमय पात्र हाथ में लिये श्रेष्ठ दासी ने बारंबार परिक्रमा करके श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।

श्रीकृष्ण की दृष्टि पड़ते ही वह सहसा अनुपम शोभा से सम्पन्न तथा रूप और यौवन से लक्ष्मी के समान रमणीय हो गयी । आग में तपाकर शुद्ध की हुई स्वर्णप्रतिमा के समान दीप्तिमती हो उठी। सुन्दर वस्त्र और रत्नों के आभूषण उसके अङ्गों की शोभा बढ़ाने लगे। वह बारह वर्ष की अवस्थावाली कुमारी कन्या के समान धन्या और मनोहारिणी प्रतीत होने लगी । बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित श्रेष्ठतम हार से उसका वक्षःस्थल उद्भासित हो उठा। वह गजराज की भाँति मन्द गति से चलने लगी । रत्नों के मञ्जीर उसके चरणों की शोभा बढ़ाने लगे। सिर पर केशों की बँधी हुई वेणी मालती की माला से आवेष्टित थी, जो सुन्दर और गोलाकार दिखायी देती थी। उसने ललाट में सिन्दूर की बेंदी लगा रखी थी, जो अनार के फूल की भाँति लाल थी । उस बेंदी के ऊपर कस्तूरी और चन्दन के भी बिन्दु थे। उस सुन्दरी ने अपने हाथ में रत्नमय दर्पण ले रखा था।

श्रीनिवास हरि उसे आश्वासन देकर आगे बढ़ गये। वह कृतार्थ हो प्रसन्नतापूर्वक अपने घर गयी, मानो लक्ष्मी अपने धाम को जा रही हो। उसने अपने घर को देखा। वह लक्ष्मी के निवास-मन्दिर की भाँति मनोहर हो गया था । उसमें रत्नमयी शय्या बिछी थी तथा उस भवन का निर्माण श्रेष्ठ रत्नों के सारतत्त्व से हुआ था। रत्नों की दीपमालाएँ अपनी प्रभा से उस गृह को उद्भासित कर रही थीं। उस भवन में सब ओर रत्नमय दर्पण लगे थे, जो उसकी भव्यता को बढ़ा रहे थे। सिन्दूर, वस्त्र, ताम्बूल, श्वेत चँवर और माला लिये दास-दासियों के समुदाय उस दिव्य भवन को घेरकर खड़े थे। मुने! सुन्दरी कुब्जा मन, वाणी और शरीर से श्रीहरि के चरणों के ही चिन्तन और समाराधन में लगी थी । वह निरन्तर यही सोचती रहती थी कि कब श्रीहरि का शुभागमन होगा और कब मैं उनके मनोहर मुखचन्द्र के दर्शन पाऊँगी। उसे सारा जगत् सदा श्रीकृष्णमय दिखायी देता था। करोड़ों कन्दर्पो की लावण्य-लीला से सुशोभित श्यामसुन्दर पलभर के लिये भी उसे भूलते नहीं थे।

कुब्जा को बिदा करने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने एक मनोहर माली को देखा, जो मालाओं का समूह लिये राजभवन की ओर जा रहा था । उसने भी श्रीकान्त को देख पृथ्वी पर माथा टेककर उन्हें प्रणाम किया और अपनी सारी मालाएँ परमात्मा श्रीकृष्ण को अर्पित कर दीं। श्रीकृष्ण उसे अत्यन्त दुर्लभ दास्यभाव का वरदान दे मालाएँ पहनकर उस सुन्दर राजमार्ग पर आगे बढ़ गये । तदनन्तर उन्हें एक धोबी दिखायी दिया, जो वस्त्रों का गट्ठर लिये जा रहा था। वह बड़ा बलवान् और अहंकारी था तथा यौवन के मद से उन्मत्त हो सदा उद्दण्डतापूर्ण बर्ताव किया करता था । महामुने ! श्रीकृष्ण ने उससे विनयपूर्वक वस्त्र माँगा । उसने वस्त्र तो उन्हें दिया नहीं, उलटे कठोर बातें सुनायीं ।

धोबी बोला — ओ मूढ़ ! तू गोप-जनों का लाड़ला है । यह वस्त्र गाय के चरवाहों के योग्य नहीं है; अत्यन्त दुर्लभ और राजाओं के ही उपयोग में आने योग्य है ।

धोबी की यह बात सुनकर मधुसूदन हँसे । बलदेव, अक्रूर और गोपगण भी हँसने लगे । श्रीकृष्ण ने एक ही तमाचे में उस धोबी का काम तमाम करके कपड़ों का वह गट्ठर ले लिया और सखाओं सहित उन्होंने अपनी रुचि के अनुसार वस्त्र धारण किये। वह रजकराज ( धोबियों का सरदार) दिव्य देह धारण करके श्रीकृष्ण-पार्षदों से वेष्टित रत्नमय विमान द्वारा गोलोक को चला गया। उसका वह दिव्य शरीर अक्षय यौवन से युक्त, जरा और मृत्यु का निवारक, श्रेष्ठ पीताम्बर से सुशोभित, मन्द मुस्कान से विलसित, श्यामकान्ति से कमनीय और मनोहर था । गोलोक में पहुँचकर वह भी वहाँ के पार्षदों में एक पार्षद हो गया। वहाँ अपने मन को वश में रखकर वह नित्य – निरन्तर श्रीकृष्ण के शुभागमन का चिन्तन करता रहा।

इधर मथुरा में सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये। तब श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर अक्रूर अपने घर को गये और श्रीकृष्ण भी नन्द एवं बलदेव आदि के साथ आनन्दपूर्वक किसी वैष्णव के घर गये, जो कपड़ा बुनने का व्यवसाय करता था। उसने अपना सर्वस्व भगवान् ‌को समर्पित कर रखा था। उस भक्त ने श्रीनिवास को प्रणाम करके उनका पूजन किया और भगवान् ने उसको अपना वह दास्यभाव प्रदान किया जो ब्रह्मा आदि देवताओं के लिये भी दुर्लभ है । वहाँ उत्तम मिष्टान्न भोजन करके सब लोग पलंग पर सो गये । तदनन्तर श्रीकृष्ण कुब्जा के घर पधारे। उसने स्वागत किया ।

भगवान् ने उसको बताया — ‘प्रिये ! श्रीरामावतार के समय तुमने मेरे लिये तप किया था; अतः अब मुझसे मिलकर जरा-मृत्युरहित और अत्यन्त दुर्लभ मेरे परमधाम गोलोक को जाओ।’

इसी समय गोलोक से एक रत्ननिर्मित रथ वहाँ आया और कुब्जा दिव्य देह धारण करके उसी के द्वारा गोलोक को चली गयी। मुने! वह वहीं चन्द्रमुखी गोपी हो गयी और कितनी ही गोपियाँ उसकी परिचारिका हुईं। भगवान् नन्दनन्दन भी क्षणभर कुब्जा के यहाँ ठहरकर पुनः अपने निवास-मन्दिर में लौट आये, जहाँ नन्दजी सानन्द विराजमान थे।

उधर भयविह्वल कंस ने रात को नींद आ जाने पर दुःखद दुःस्वप्न देखा, जो उसकी मृत्यु का सूचक था। उसने देखा, सूरज आकाश से गिरकर पृथ्वी पर पड़ा है और उसके चार खण्ड हो गये हैं। मुने! इसी तरह चन्द्रमण्डल भी आकाश से भूमि पर गिरकर दस खण्डों में विभक्त दिखायी दिया। उसने कुछ ऐसे पुरुष देखे, जिनकी आकृति विकृत थी । वे हाथों में रस्सी लिये नंग-धड़ंग दिखायी देते थे। एक विधवा शूद्री दृष्टिगोचर हुई, जो नंगी थी और जिसकी नाक कटी हुई थी। वह हँसती थी । उसने चूने का तिलक लगा रखा था और उसके सफेद और काले केश ऊपर की ओर उठे थे। वह एक हाथ में तलवार और दूसरे में खप्पर लिये हुए थी । उसकी जीभ लपलपा रही थी और उसके गले में मुण्डमाला पड़ी थी। उसके सिवा कंस ने गदहा, भैंस, बैल, सूअर, भालू, कौआ, गीध, कङ्क, वानर, सफेद कुत्ता, घड़ियाल, सियार, भस्मपुञ्ज, हड्डियों का ढेर, ताड़ का फल, केश, कपास, बुझे अङ्गार (कोयले ), उल्का, चिता पर चढ़ा हुआ मुर्दा, कुम्हार और तेली के चक्र, टेढ़ी- मेढ़ी कौड़ी, मरघट, अधजला काठ, सूखा काठ, कुश, तृण, चलता हुआ धड़, मुर्दे का चिल्लाता हुआ मस्तक, आग से जला हुआ स्थान, भस्म-युक्त सूखा तालाब, जली मछली, लोहा, दावानल से जलकर बुझे हुए वन, गलित कोढ़ से युक्त नंगा शूद्र, शिखा खोले और अत्यन्त रोष से भरकर शाप देते हुए ब्राह्मण एवं गुरु, अधिक कुपित हुए संन्यासी, योगी एवं वैष्णव मनुष्य देखे ।

ऐसा दुःस्वप्न देख कंस की नींद खुल गयी और उसने माता, पिता, भाई तथा पत्नी से वह सब कह सुनाया। पत्नी प्रेम से विह्वल होकर रोने लगी । कंस ने रङ्गभूमि में दर्शकों के बैठने के लिये मञ्च बनवाये और सभा के द्वार पर हाथी को खड़ा कर दिया। हाथी के साथ ही पहलवान और जुझारू सेना भी स्थापित कर दी। तत्पश्चात् धनुर्यज्ञ का मङ्गल-कृत्य आरम्भ किया। सभा बनवायी। पुण्यदायक स्वस्तिवाचन एवं मङ्गलपाठ कराया तथा योगयुक्त पुरोहित को यत्नपूर्वक आवश्यक कार्य के अनुष्ठान में नियुक्त किया। राजा कंस हाथ में विलक्षण तलवार ले रमणीय मञ्च पर जा बैठा । मल्लयुद्ध के लिये उस कला में निपुण योद्धा को नियुक्त किया । आमन्त्रित श्रेष्ठ राजाओं, ब्राह्मणों, मुनीश्वरों, सुहृद्वर्ग के लोगों, धर्मात्मा पुरुषों तथा युद्धकुशल पुरुषों को यथास्थान बैठाया ।

नारद ! इसी समय बलराम के साथ भगवान् श्रीकृष्ण रङ्गभूमि में आये और महादेवजी के धनुष को लीलापूर्वक बीच से ही तोड़ डाला। धनुष टूटने की भयंकर आवाज से सारी मथुरापुरी बहरी-सी हो गयी। कंस को बड़ा दुःख हुआ और देवकीनन्दन श्रीकृष्ण हर्ष से खिल उठे। द्वारवर्ती मल्लसहित हाथी का वध करके वे सभा में उपस्थित हुए। योगीजनों ने उन्हें साक्षात् परमात्मदेव परमेश्वर के रूप में देखा। वे अपने हृदयकमल में जिस स्वरूप का ध्यान करते थे, वही उन्हें बाहर दृष्टिगोचर हुआ। राजाओं की दृष्टि में वे सर्वशासक दण्डधारी राजेन्द्र थे । माता-पिता ने उनको स्तनपान करने वाले दुधमुँह बालक के रूप में देखा । कामिनियों की दृष्टि में वे करोड़ों कन्दर्पं की लावण्य-लीला धारण करने वाले रसिकशेखर थे। कंस ने कालपुरुष समझा और उसके भाइयों ने शत्रु । मल्लों ने अपनी मृत्यु का स्थान माना और यादवों ने उनको प्राणों के समान प्रिय देखा ।

श्रीकृष्ण ने सभा में बैठे हुए मुनियों, ब्राह्मणों तथा माता, पिता एवं गुरुजनों को नमस्कार किया । फिर वे हाथ में सुदर्शनचक्र लिये राजमञ्च के निकट गये। मुने ! उन्होंने कंस को भक्त के रूप में देखा । भक्तों के तो वे जीवनबन्धु ही हैं । कृपानिधान श्रीकृष्ण ने कृपापूर्वक कंस को मञ्च से खींच लिया और लीला से ही उसको मार डाला। उस समय राजा कंस को सम्पूर्ण जगत् श्रीकृष्णमय दिखायी दे रहा था। मृत्यु के पश्चात् उसके निकट हीरे के हारों से विभूषित रत्नमय विमान आ पहुँचा और वह दिव्य रूप धारण करके समृद्धिशाली हो उस विमान से विष्णुधाम में जा पहुँचा । मुने! कंस का उत्कृष्ट तेज श्रीकृष्ण के चरणारविन्द में प्रविष्ट हो गया । उसका और्ध्वदैहिक संस्कार एवं सत्कार करके श्रीहरि ने ब्राह्मणों को धन का दान किया। इसके बाद राज्य एवं राजा का छत्र बुद्धिमान् उग्रसेन को सौंप दिया। चन्द्रवंशी उग्रसेन पुनः यादवों के ‘राजेन्द्र’ हो गये । कंस की माता, पत्नियाँ, पिता, बन्धु-बान्धव, मातृवर्ग की स्त्रियाँ, बहिन तथा भाइयों की स्त्रियाँ भी विलाप करने लगीं।

वे बोलीं — ‘ राजेन्द्र ! उठो, राजसिंहासन पर बैठकर हमें दर्शन दो । ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त चराचर प्राणियों का आधारभूत जो असंख्य विश्व हैं, उन सबकी जो स्वयं ही लीलापूर्वक सृष्टि करते हैं; ब्रह्मा, शिव, शेष, धर्म, सूर्य तथा गणेश आदि देवता, मुनीन्द्रवर्ग और देवेन्द्रगण जिनका दिन-रात ध्यान करते हैं; वेद और सरस्वती भयभीत हो जिनका स्तवन करती हैं; प्रकृतिदेवी भी हर्ष से उल्लसित हो जिनके गुण गाती हैं; जो प्रकृति से परे, प्राकृतस्वरूप, स्वेच्छामय, निरीह, निर्गुण, निरञ्जन, परात्परतर ब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर, नित्यज्योतिःस्वरूप, भक्तोंपर अनुग्रह के ही दिव्य देह धारण करने वाले, नित्यानन्दमय, नित्यरूप तथा नित्य अविनाशी शरीर धारण  करने वाले हैं; वे ही मायापति भगवान् गोविन्द भूतल का भार उतारने के लिये माया से गोपबालक के वेष में अवतीर्ण हुए हैं। वे सर्वेश्वर प्रभु जिसे मारते हैं, उसकी रक्षा कौन पुरुष कर सकता है ? इसी प्रकार वे सर्वात्मा श्रीहरि जिसकी रक्षा करते हों उसे मारने वाला भी कोई नहीं है ।’

महामुने ! ऐसा कहकर सब लोग चुप हो गये । परिवार के लोगों ने ब्राह्मणों को भोजन कराया और उन्हें सब प्रकार का धन दिया । सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण भी पिता के निकट गये और उनकी बेड़ी – हथकड़ी काटकर उन्होंने माता और पिता दोनों को बन्धन से मुक्त किया। तत्पश्चात् उन देवेश्वर ने दण्ड की भाँति पृथ्वी पर पड़कर माता-पिता को साष्टाङ्ग प्रणाम किया और भक्ति से मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति की।

श्रीभगवान् बोले — जो पुरुष पिता और माता का तथा विद्यादाता एवं मन्त्रदाता गुरु का पोषण नहीं करता, वह जीवनभर पाप से शुद्ध नहीं होता। समस्त पूजनीयों में पिता वन्दनीय महान् गुरु हैं । परंतु माता गर्भ में धारण एवं पोषण करती है; इसलिये पिता से भी सौगुनी श्रेष्ठ है । माता पृथ्वी के समान क्षमाशीला और सबका समानरूप से हित चाहने वाली है; अतः भूतल पर सबके लिये माता से बढ़कर बन्धु दूसरा कोई नहीं है। साथ ही यह भी सच है कि विद्यादाता और मन्त्रदाता गुरु माता से भी बहुत बढ़-चढ़कर आदर के योग्य हैं। वेद के अनुसार गुरु से बढ़कर वन्दनीय और पूजनीय दूसरा कोई नहीं है ।

मुने ! ऐसा कहकर श्रीकृष्ण और बलराम ने माता को प्रणाम किया। फिर माता-पिता ने भी उन दोनों को आदरपूर्वक गोद में बिठा लिया और उन्हें उत्तम मिष्टान्न भोजन कराया । नन्द और ग्वालबालों को भी बड़े आदर से खिलाया। बच्चों का मङ्गल-कृत्य कराया और उसके उपलक्ष्य में भी बहुत-से ब्राह्मणों को जिमाया। उस समय वसुदेव ने प्रसन्नतापूर्वक ब्राह्मणों को बहुत धन दिया। (अध्याय ७२)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद कंसवधवसुदेव-देवकीमोक्षणं नाम द्विसप्ततितमोध्यायः ॥ ७२ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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