March 5, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 74 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) चौहतरवाँ अध्याय श्रीकृष्ण द्वारा नन्दजी को ज्ञानोपदेश श्रीनारायण कहते हैं — नारद! भगवान् श्रीकृष्ण परमानन्दमय परिपूर्णतम प्रभु हैं। भक्तों पर अनुग्र हके लिये व्याकुल रहने वाले परम परमात्मा हैं। पृथ्वी का भार उतारने के लिये अवतीर्ण हुए वे भगवान् निर्गुण, प्रकृति से परे तथा परात्पर हैं। ब्रह्मा, शिव और शेष भी उनके चरणों की वन्दना करते हैं । नन्दजी की स्तुति सुनकर वे जगदीश्वर बहुत संतुष्ट हुए । नन्द बाबा विरह-ज्वर से कातर हो गोकुल से उनके पास आये थे । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय श्रीभगवान् ने कहा — ‘ बाबा! शोक और भ्रम को छोड़ो तथा व्रज को लौट जाओ। वहाँ जाकर सबको आनन्दित करो। मैं जो परम सत्य ज्ञान बता रहा हूँ, इसे सुनो। यह ज्ञान शोक-ग्रन्थि का उच्छेद करने वाला है । वायु, भूमि, आकाश, जल और पाँचवाँ तेज यही पाँचों महाभूत हैं । श्रुतियों ने बताया है कि इन्हीं पाँचों भूतों द्वारा समस्त शरीरधारियों की देह बनी है । इसीलिए यह पाञ्चभौतिक कही जाती है । मिथ्या भ्रम, कृत्रिम और स्वप्न की भाँति मायायुक्त है । ( मरने पर ) यही पञ्चभूत सबकी देह को अपने में विलीन कर लेते हैं । माया द्वारा संकेत रूप और उसका अभिज्ञान ( पहचान ) भी भ्रमात्मक होता है । अतः कौन किसका पुत्र, कौन किसकी स्त्री और कौन किसका पति है ? जीव केवल कर्म द्वारा अनेक जन्मों तक निरन्तर भ्रमण करता रहता है । क्योंकि कर्म द्वारा ही जीव जन्म-ग्रहण करता है और कर्म द्वारा ही उसका विलयन होता है तथा सुख, दुःख, भय और शोक कर्मवश ही उसे प्राप्त होते हैं । कर्मवश किसी का जन्म स्वर्ग में, किसी का ब्रह्मा के घर, किसी का ब्राह्मणों और क्षत्रियों के घर एवं किसी का वैश्य के घर तो, किसी का शूद्र के यहाँ जन्म होता है । इसी प्रकार किसी का अति नीच के यहां, किसी का कीड़ों में, किसी का मल के भीतर, किसी का पशु-पक्षियों में और किसी का जन्म क्षुद्र जन्तुओं में होता है । अतः हे तात ! अपने कर्मवश सब लोग बार-बार विभिन्न योनियों में भ्रमण किया करते हैं । मेरा प्रिय भक्त सदा कर्म का निर्मूलन करने में लगा रहता है ॥ ११-१२ ॥ इस प्रकार पञ्चभूतों का वर्णन करते हुए श्रीहरि ने नन्द बाबा को उत्तम ज्ञान का उपदेश दिया और अन्त में कहा – ‘ तात ! मेरे भक्तों का कहीं अमङ्गल नहीं होता। मेरा सुदर्शन-चक्र प्रतिदिन उनकी सब ओर से रक्षा करता है । मेरी यह बात यशोदा मैया से, गोपियों से और गोप-गणों से कहो । उन सबके साथ शोक को त्याग दो। अच्छा अब घर को जाओ।’ यों कहकर भगवान् श्रीकृष्ण यादवों की सभा में चुप हो गये। तब आनन्दमग्न नन्द ने पुनः उनसे पूछा । नन्द बोले — परमानन्दस्वरूप गोविन्द ! मैं मूढ़ हूँ और तुम वेदों के उत्पादक हो । मुझे ऐसा लौकिक ज्ञान बताओ, जिससे तुम्हारे चरणों को प्राप्त कर सकूँ। ( अध्याय ७४ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवन्नन्दसंवादे चतुः सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related