March 6, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 79 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) उन्नासीवाँ अध्याय जमदग्नि तथा सूर्य का परस्पर शाप देना, ब्रह्माजी द्वारा दोनों को समझाना-बुझाना नन्द बोले — हे जगत्प्रभो ! राहु से ग्रस्त सूर्य और चन्द्रमा तथा भादों मास के कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की चतुर्थी में चन्द्रमा का दर्शन क्यों नहीं करना चाहिए ? तुम वेदों के जनक हो, इसलिए तुम्हें छोड़कर और किससे पूछूं ? क्योंकि यह वेद और पुराण में गोपनीय है । इसे विद्वान् लोग भी नहीं जानते हैं । उनकी ऐसी बात सुनकर भगवान् ने यह कहा । श्रीभगवान् बोले — हे नन्द ! ऐसी बात कहने के लिए वैदिकों ने निषेध (मना) किया है । अतः इसके लिए क्षमा करो, मुझसे कोई दूसरी बात पूछो, क्योंकि हे तात! ऐसी विश्वस्त बात विद्वान् लोग प्रकाशित नहीं करते हैं । प्रकाशित करने पर विघ्न होता है और देव-संयोग से सज्जनों में फूट पड़ जाती है । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नन्द बोले — हे जगन्नाथ ! भक्त को वञ्चित न करो। देवेश्वर सूर्य और चन्द्रमा राहुग्रस्त होने पर अदृश्य होते हुए भी पुण्यदायक हैं । श्रीभगवान् बोले — हे नन्द ! इस पुरानी कथा को, जिसके सुनने से मनुष्य कलङ्करहित और तीर्थ-स्नान का फल प्राप्त करता है, तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ! सम्पूर्ण पातक करनेवाले को देखकर मनुष्य को जिस पाप का भागी होना पड़ता है वह सब पाप इस आख्यान के श्रवण करने मात्र से भस्मीभूत हो जाता है । एक बार जमदग्नि बड़े कौतूहल एवं प्रसन्न मन से अपनी पत्नी रेणुका को साथ लिये नर्मदा जी के तट पर गये । वहाँ नर्मदा के निर्जन तट पर उन्होंने उसके साथ विहार किया । जो नवविवाहिता, सुन्दरी, नवीनयौवना, उत्तम वेशवाली, मन्द मुसकानेवाली, रत्नों के भूषणों से भूषित, मन्द-मन्द चलने वाली, सुन्दरियों में अनुपम, श्वेत चम्पा के समान रूप-रङ्गवाली, उत्तम पूर्णचन्द्र के समान मुखवाली एवं कटाक्ष करनेवाली थी । हे व्रज ! वह अत्यन्त सूक्ष्म वस्त्र पहने हुई थी तथा काम के बाणों से अति पीड़ित थी । उसके सर्वाङ्ग में रोमाञ्च हो आया था । कोयल की कूक, भौंरों के गुञ्जार तथा सुगन्धित वायु के सञ्चार से युक्त एवं पुष्पों की शय्या से समन्वित तट पर चन्दन-चर्चित सर्वाङ्ग वाले तथा वस्त्र-माला धारण करने वाले मुनि जमदग्नि उस सुन्दरी के साथ महारास के रस का उपभोग कर रहे थे । उस समय स्वयं सूर्य ने उनसे कहा — ‘तुम जगत्पति ब्रह्मा के, जो वेदों के कर्ता हैं, प्रपौत्र हो और स्वयं चारों वेदों के कार्यों में अतिनिष्णात, सदा पवित्र, वेदाङ्ग के रचयिता, धर्मज्ञाता, वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ, महातपस्वी तेजस्वी, ब्रह्मचारी और उत्तमव्रती हो । तुम लोगों के सुरचित शास्त्रों को पढ़कर अन्य लोग पण्डित हो जाते हैं । वेद के कथनानुसार आचरण करना धर्म है और उसके प्रति-कूल चलना अधमं है । अतः धर्मज्ञ होकर धर्म क्यों छोड़ रहे हो ? और अधर्मं में तत्पर कैसे हो गये हो ? जबकि वेद दिन में मैथुन करने को विशेष दोष बतलाता है । मैं धर्मी पुरुषों का साक्षी हूँ, इसीलिए तुमसे कह रहा हूँ । ब्राह्मण रूप में तेजस्वी सूर्य देव को देखकर कोप एवं सूर्य की बात सुनकर मुनि ने लज्जा के कारण मुख लाल किये हुए कहा । जमदग्नि बोले — अपने को पण्डित मानने वाले आप कौन हैं ? तुम्हें छोड़कर दूसरा कोई पण्डित ही नहीं है । मैं भगवान् भृगु का शिष्य हूँ और तुम कश्यप के शिष्य हो । धर्म और अधर्म के निरूपण में मैं चारों वेदों को जानता हूँ । वेद में कहे हुए के अनुसार आचरण धर्म और उसके प्रतिकूल अधर्म है, यह जो तुम कह रहे हो वह अज्ञानी पुरुषों के लिए है, जो अपने कर्म से निरन्तर बँधे रहने के कारण जड़वत् हैं । किन्तु सर्वभक्षी अग्नि की भाँति तेजस्वी पुरुषों को (विपरीत आचरणों में) कोई दोष नहीं होता है । अन्य लोग, आप और सभी धर्म के साक्षी हैं तथा तुम्हारे शास्त्रज्ञ पुत्र (धर्म) कर्मों के फलदाता भी हैं, तथापि हम वैष्णवों के तुम लोग शासक नहीं हो । भगवान् वासुदेव के भक्तों का कहीं अशुभ नहीं होता, क्योंकि भगवान् का सुदर्शन चक्र वैष्णवों की निरन्तर रक्षा करता है । अत: हे दिवाकर ! स्वयं नारायण भगवान् ब्रह्मा, शिव, यम और तुम भी हमारे शासक नहीं हो । राजकुमार की भांति हम लोग सर्वथा स्वच्छन्दगामी हैं । मैं यम समेत समस्त देवों को भस्म कर सकता हूँ । हे सूर्य ! महेन्द्र आदि को तो एक क्षण में लीला की भांति समाप्त कर सकता हूँ । मेरे धर्म के वक्ता तुम कौन हो ? अपने घर चले जाओ। मेरे शासक तो भगवान् श्रीकृष्ण हैं जो प्रकृति से परे हैं । आज इस निर्जन स्थान में तुमने आकर मेरा रसभङ्ग किया है, इस कारण मेरे शाप से तुम पाप दृश्य ( देखने से पाप-दायी) और राहुग्रस्त होगे । तुम्हें देखने के लिए आने वाले मेघ तुमसे सदैव दूर रहते थे किन्तु अब वायु द्वारा प्रेरित होकर वे तुम्हें आच्छादित करेंगे, अपने तेज का गर्व करने के कारण तुम हततेजा ( तेजहीन) हो जाओगे । अतः तुम मेघों से आच्छन्न, अल्पतेज वाले और राहुग्रस्त होगे । ब्राह्मण की बात सुनकर भगवान् भास्कर ने स्वयं हाथ जोड़कर मुनिश्रेष्ठ जमदग्नि की स्तुति की । भास्कर बोले — हे धर्मज्ञाता ! सभी ब्राह्मण धन्य, मान्य, आदरणीय एवं अवध्य हैं । स्वयं नारायण भगवान्, शिव, ब्रह्मा, गणेश, शेप, सनातन धर्म तथा ब्राह्मण रूपी जनार्दन भी ब्राह्मण की स्तुति करते हैं । ब्रह्मन् ! हम लोग ब्राह्मण का दिया हुआ पाते हैं । ब्राह्मण और अग्नि हमारे मुख हैं। सभी देवता दो मुखवाले हैं । ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। आप शुद्ध वैष्णव हैं। अपने धर्म का आचरण कीजिये । वैष्णवों में क्रोध कहाँ ? उनके हृदय में तो निरन्तर जनार्दन भगवान् निवास करते हैं । हम लोगों द्वारा ब्राह्मण पूजित हैं और आप लोगों द्वारा देवगण पूजित हैं, अतः हे द्विज ! यह आचरण परस्पर में एक-दूसरे का स्नेह भाजन है । तुमने मुझे शाप दे दिया है, तो मैं भी तुम्हें शाप दे रहा हूँ । नहीं तो लोग मुझे कहेंगे कि सूर्य में कुछ भी तेज नहीं है । अतः हे द्विजेश्वर ! तुम क्षत्रिय द्वारा पराजित होगे और क्षत्रिय के अस्त्र द्वारा ही आपका मरण भी होगा । सूर्य की बात सुनकर (ब्राह्मण) देव पुनः क्रुद्ध हो गये, जिसके कारण उनका मुखमण्डल अतिलाल हो गया । उन्होंने सूर्य को पुन: शाप दिया — ‘ आप शिव द्वारा पराजित होंगे ‘ । हे व्रज ! इस प्रकार दोनों का कलह जानकर जगत् के विधाता ब्रह्मा स्वयं कश्यप को साथ लिये वहां आये । वहां पहुँचने पर धर्मज्ञों के गुरु के गुरु ब्रह्मा ने संत्रस्त सूर्य और धर्मज्ञ एवं मुनिश्रेष्ठ जमदग्नि को समझाना आरम्भ किया ॥ ४२-४३ ॥ ब्रह्मा बोले — हे भास्कर ! तुम साक्षात् नारायण हो, अतः क्षमा करो, ब्राह्मण तुम्हारे परिपोष्य (भली-भाँति पालन-पोषण करने योग्य) और सदा अवध्य हैं। मैं तुम्हारे उत्कट ब्राह्मणशाप का अन्त बताता हूँ, क्योंकि मैं त्रस्त होकर यहां आया हूँ । मुझे भृगु ने प्रेरित किया। कश्यप और मरीचि ने भी प्रेरित किया है । अतः मैं स्पष्ट कहता हूँ । हे सुरश्रेष्ठ ! शान्त हो जाओ। तुम समस्त कर्मों के साक्षी हो । किसी दिन कुछ क्षणों के लिए तुम मेघों से आच्छन्न होकर पुन: तुरन्त उससे मुक्त हो जाओगे । कम और अधिक मास-वाले वर्ष में तुम राहु द्वारा ग्रस्त होगे और उस समय कुछ लोगों के लिए अदृश्य ( न देखने योग्य) और किन्हीं के लिए तुम्हारा दर्शन पुण्यप्रद होगा। इसके अतिरिक्त सब समय आप पुण्यदृश्य ( दर्शन करने से पुण्यप्रद ) रहेंगे। तुम्हें देखने एवं नमस्कार करने से लोग पापरहित होंगे । जन्म-स्थान, सातवें, आठवें, बारहवें, नवम, चतुर्थ और दसवें स्थान में रहने से तुम मनुष्यों के लिए अदृश्य ( न देखने योग्य) रहोगे और उसी भाँति अस्त समय, मेघाच्छन्न होने पर, मध्याह्न में, जल में और अर्ध उदित होने पर पापदृश्य ( देखने पर पापप्रद) रहोगे । पत्नी के दुःख के कारण पत्नी के हेतु बन जाने पर श्वसुर और साले के द्वारा तुम्हारा तेज कम कर दिया जायगा । अन्यथा तुम्हारी पत्नी संज्ञा तुम्हारा तेज सहन करने में असमर्थ होगी । माली और सुमाली नामक दैत्यों के युद्ध में तुम शिव द्वारा पराजित होगे । तत्पश्चात् जमदग्नि से कहा — हे विप्र !अब अपने घर जाओ, हे वत्स ! तुम्हारे तेज द्वारा सारा जगत् क्षणमात्र में भस्म हो सकता है । अतः ऐसा न करके यथासुख घर चले जाओ, क्योंकि सूर्य नित्य तुम्हारे परिपाल्य ( भली-भाँति पालन के योग्य) हैं और तुम सूर्य के । इस प्रकार तुम दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध पूज्य और पोष्य-पोषक रूप है । क्षत्रियवंश में हरि के अंश से उत्पन्न कार्तवीर्यार्जुन नामक राजा से तुम पराजित होगे और उन्हीं के हाथों से तुम्हारी मृत्यु भी होगी ॥ ५४-५७ ॥ तुम्हारा जन्मान्तरीय कर्म अभी सब नष्ट नहीं हुआ है । किन्तु नारायण भगवान् अपने अंश द्वारा तुम्हारे पुत्र होंगे, जो इस पृथ्वी को इक्कीस बार निःक्षत्रिय करेंगे और तुम्हारी मृत्यु भूमण्डल में तुम्हारे यश का कारण बनेगी । हे व्रजेश्वर ! इतना कहकर ब्रह्मा अपने ब्रह्मलोक चले गये और अनन्तर जमदग्नि एवं भास्कर भी अपने-अपने घर गये । हे तात ! जिस कारण सूर्य राहुग्रस्त और अदृश्य ( न देखने योग्य) होते हैं, वह पुण्यप्रद आख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया । हे पिता ! भादों मास के कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष की चतुर्थी में उदय होने पर चन्द्रमा जिस कारण अदृश्य ( न देखने योग्य), नष्टरूप, राहुग्रस्त एवं मेरे शाप द्वारा कलङ्की हुआ है, उन सब पुरानी कथाओं को मैं अब तुम्हें बता रहा हूँ सुनो । (अध्याय ७९ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवन्नन्दसंवाद एकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७९ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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