March 6, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 80 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) अस्सीवाँ अध्याय चन्द्रमा द्वारा तारा का अपहरण, तारा द्वारा चन्द्रमा को शाप देना तथा शुक्र द्वारा उपदेश देना श्रीकृष्ण बोले — पूर्व समय में गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा जो नवीन यौवन सम्पन्न, रत्नों के आभूषणों से सुभूषित, अत्युत्तम और सूक्ष्म वस्त्र पहने हुई, पतिव्रता, उत्तम श्रोणी भागवाली, मन्दहास करनेवाली, रमणीय, सुन्दरी और अत्यन्त मनोहर थी, उसका सुन्दर जूड़ा मालती की मालाओं से भूषित था । उसका उज्ज्वल भाल उत्तम चन्दन की बिन्दी के साथ सिन्दूर की बिन्दी और उसके नीचे कस्तूरी की बिन्दी से सुशोभित था । उसके पैरों में रत्नेन्द्र के सारभाग से बने हुए नूपुरों की झनकार हो रही थी । उसकी टेढ़ी चितवन थी । नेत्र उत्तम काजलों से सुप्रकाशित हो रहे थे । अत्यन्त उत्कृष्ट एवं सुन्दर मोती के समान दांतों की पंक्तियाँ मनोहारिणी थीं । रत्नों के युगल कुण्डलों से सुन्दर गण्डस्थल प्रकाशमय हो रहा था । इस प्रकार वह कामिनियों में अनुपम बाला गजेन्द्र की भांति मन्द मन्द गमन करनेवाली, अतिकोमला, चन्द्रमुखी थी । वह स्वर्ग-मन्दाकिनी के किनारे स्नान करने के उपरान्त स्निग्ध वस्त्र पहने हुई, गुरु-चरण का ध्यान करती हुई अपने घर जा रही थी । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय उसे देखकर चन्द्रमा सर्वांग में काम के बाणों से पीड़ित होकर अचेत हो गया । हे व्रज ! भाद्रपद की चतुर्थी में मूर्च्छित चन्द्रमा को क्षण में पुन: चेतना प्राप्त हुई और रथ पर बैठे ही उस बलवान् रसिक ने ( बलात्) तारा का दोनों हाथ पकड़कर अपने रथ पर बैठा लिया और उसने तारा का आलिंगन करके चुम्बन किया । प्रतिरोध करते हुए तारा बोली — हे चन्द्र ! देवकुलकलङ्क ! मुझे छोड़ दे, मैं तुम्हारी गुरुपत्नी और ब्राह्मणी हूँ, मैं सदा पतिव्रत-धर्म का पालन करती हूँ । गुरुपत्नी के साथ समागम करने से सौ ब्रह्महत्याओं का भागी होना पड़ता है । गुरुपत्नी यदि ब्राह्मणपत्नी और पतिव्रता है, तो उसके साथ सम्भोग करने से सहस्र ब्रह्महत्याओं का पाप लगता है । मैं तुम्हारी माता हूँ, और तुम मेरे पुत्र हो । यदि ऐसा (अनुचित) कार्य करते हो, तो तुम्हें धिक्कार है और यह सुनते ही देवगुरु (बृहस्पति) तुम्हें भस्म कर देंगे । मेरे स्वामी के तुम शिष्य हो और उन्हें पुत्र से भी अधिक प्रिय हो । अतः रे पापी ! ऐसा मत कर, मुझ माता को छोड़ दे और अपने धर्म की रक्षा कर, अन्यथा ( नहीं तो ) यदि मुझे फिर पकड़ेगा तो तुम्हें मैं स्त्रीहत्या का दोष लगाऊँगी । चन्द्रमा ने तारा की सभी बातें अनसुनी कर दीं । यह देखकर तारा ने, जो निष्काम ( कामरहित ) एवं पतिव्रता थी. क्रुद्ध होकर उन्हें शाप दिया — ‘तुम राहु से ग्रस्त, मेघों से आच्छन्न और पापदृश्य ( दर्शनमात्र से पापप्रद) हो जाओ । इसी प्रकार कलङ्की और यक्ष्मारोग से पीड़ित होगे, इसमें संशय नहीं । इस प्रकार चन्द्रमा को शाप देकर उसने कामदेव को भी शीघ्रता से शाप दिया — किसी तेजस्वी पुरुष द्वारा तुम भस्म किये जाओगे । ‘ हे व्रज ! तदुपरान्त चन्द्रमा ने तारा को पकड़कर ( बलात्) रमण किया और रोदन करती एवं बिलखती उस रमणी को पुनः अपने साथ लेकर वहाँ से प्रस्थान कर दिया । वहाँ उसे बलि के घर से लौटे हुए असुरों के गुरु शुक्राचार्य दिखायी पड़े । चन्द्रमा ने उन्हें प्रणाम करके अपना समस्त वृत्तान्त कहा और उनकी शरण ली। निरपेक्ष, वेद-वेदांग के पारगामी तथा मुनिश्रेष्ठ शुक्राचार्य नीतिपूर्ण बातों से उसे समझाने लगे । शुक्र बोले — वत्स ! सुनो, मैं कह रहा हूँ कि गुरु (बृहस्पति) को जो शिव जी के गुरुपुत्र और ब्रह्मा के पौत्र हैं, तारा सौंप दो । निशापते ! तुम देवों के पूजित और प्रिय गुरु को, उनकी प्रिया (तारा) सौंपकर शीघ्र उनकी शरण में चले जाओ । हे विधो ! तुम मेरे कथनानुसार अपनी गुरुपत्नी को छोड़ दो, क्योंकि वे माता के समान हैं और अपने पाप का प्रक्षालन कर डालो, क्योंकि पाप से छुटकारा पाना महाफल है । पतिव्रता गुरुपत्नी के साथ बलात् सम्भोग करने से मनुष्य को सहस्रों ब्रह्महत्या के पातक का भागी होना पड़ता है तथा कुम्भीपाकनरक में सौ ब्रह्मा की आयु पर्यन्त रहना पड़ता है । हे सुर ! नारायण के यहाँ तृण से लेकर पर्वत तक में समानता का व्यवहार होता है । इसलिए हे वत्स ! भगवान् के स्थान में जब ब्रह्मा को भी कर्म-भोग करना पड़ता है, तो तुम्हारी क्या बात है। संसार में देव राक्षस और त्रिविध जीव सभी नारायण के आश्रित हैं । (अध्याय ८० ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवन्नन्दसंवाद ताराहरणेऽशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related