March 7, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 83 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) तिरासीवाँ अध्याय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, संन्यासी तथा विधवा और पतिव्रता नारियों के धर्म का वर्णन नन्दजी ने पूछा — बेटा! तुम्हारा कल्याण हो । अब तुम वेदों तथा ब्रह्मा आदिकी उत्पत्ति का सारा कारण वर्णन करो; क्योंकि तुम्हारे सिवा मैं और किससे पूछूं ? साथ ही ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों का कार्य करने वालों के जो धर्म हैं तथा संन्यासियों, यतियों, ब्रह्मचारियों, वैष्णव-ब्राह्मणों, सत्पुरुषों, विधवाओं एवं पतिव्रता नारियों, गृहस्थों, गृहस्थपत्नियों, विशेषतया शिष्यों और माता-पिता के प्रति पुत्रों एवं कन्याओं के जो धर्म हैं; उन सबको बतलाने की कृपा करो । प्रभो ! स्त्रियों की कितनी जातियाँ होती हैं ? भक्तों के कितने भेद हैं ? ब्रह्माण्ड कितने प्रकार का है ? वदन (बोली या मुख) किस प्रकार का होता है ? नित्य क्या है और कृत्रिम क्या है ? क्रमश: यह सब बतलाओ । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय – श्रीभगवान् ने कहा — नन्दजी ! ब्राह्मण सदा संध्यावन्दन से पवित्र होकर मेरी सेवा करता है और नित्य मेरे प्रसाद को खाता है। वह मुझे निवेदन किये बिना कभी भी नहीं खाता; क्योंकि जो विष्णु को अर्पित नहीं किया गया है, वह अन्न विष्ठा और जल मूत्र के समान माना जाता है । अतः विष्णु प्रसाद को खाने वाला ब्राह्मण जीवन्मुक्त हो जाता है । नित्य तपस्या में संलग्न रहने वाला, पवित्र, शमपरायण, शास्त्रज्ञ, व्रतों और तीर्थों का सेवी, नाना प्रकार के अध्यापन-कार्य से संयुक्त धर्मात्मा ब्राह्मण विष्णु मन्त्र से दीक्षित होकर गुरु की सेवा करता है; तत्पश्चात् उनकी आज्ञा लेकर संग्रहवान् (गृहस्थ) बनता है । उसे गुरु को नित्य पूजन की दक्षिणा देनी चाहिये तथा निःसंदेह नित्य गुरुजनों का पालन-पोषण करना चाहिये; क्योंकि समस्त वन्दनीयों में पिता ही महान् गुरु माना जाता है, परंतु पिता से सौगुनी माता, माता से सौगुना अभीष्टदेव और अभीष्टदेव से चारगुना मन्त्र-तन्त्र प्रदान करने वाला गुरु श्रेष्ठ है । गुरु प्रत्यक्षरूप में ऐश्वर्यशाली भगवान् नारायण हैं । गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु और गुरु ही स्वयं शिव हैं। सभी देवता गुरु में सदा हर्षपूर्वक निवास करते हैं। जिसके संतुष्ट होने पर सभी देवता संतुष्ट हो जाते हैं, वे श्रीहरि भी गुरु के प्रसन्न होने पर प्रसन्न हो जाते हैं। गुरु यदि शिष्यों पर पुत्र के समान स्नेह नहीं करते तो उन्हें ब्रह्महत्या का पाप लगता है और आशीर्वाद न देने से उन्हें भी वह फल भोगना पड़ता है । जो विप्र सदा अपने धर्म में तत्पर, ब्रह्मज्ञ तथा सदा विष्णु की सेवा करनेवाला है; वही पवित्र है। उसके अतिरिक्त अन्य विप्र सदा अपवित्र रहता है। जो ब्राह्मण होकर बैलों को जोतता है, शूद्रों की रसोई बनाता है, देवमूर्तियों पर चढ़े हुए द्रव्य से जीवन-निर्वाह करता है, संध्या नहीं करता, उत्साहहीन है, दिन में नींद लेता है, शूद्र के श्राद्धान्न को खाता है, शूद्रों के मुर्दों का दाह करता है; ऐसे सभी ब्राह्मण शूद्र के समान माने जाते हैं। जो विधिपूर्वक शालग्राम महायन्त्र की पूजा करके उनके अर्पित किये हुए नैवेद्य को खाता है तथा उनके चरणोदक को पीता है; वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। उसे विष्णु-लोक की प्राप्ति होती है; क्योंकि श्रीहरि का चरणोदक पीकर मनुष्य तीर्थ-स्नायी हो जाता है। जो शालग्राम शिला के जल से अपने को अभिषिक्त करता है; उसने सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया और समस्त यज्ञों में दीक्षा ग्रहण कर ली। व्रजेश्वर ! शालग्राम-शिला का जल गङ्गाजल से दस गुना बढ़कर है। जो ब्राह्मण उसे नित्य पान करता है; वह जीवन्मुक्त एवं देवताओं के समान हो जाता है । जो ब्राह्मणों का नित्यकर्म, विष्णु के निवेदित नैवेद्य का भोजन, उनकी यत्नपूर्वक पूजा, उनके चरणोदक का सेवन, नित्य त्रिकाल संध्या और भक्तिपूर्वक मेरा पूजन करता है, मेरे जन्म के दिन तथा एकादशी को भोजन नहीं करता; हे तात! जो व्रतपरायण होकर शिवरात्रि तथा श्रीरामनवमी के दिन आहार नहीं करता; वह ब्राह्मण जीवन्मुक्त है । भूतल पर जितने तीर्थ हैं, वे सभी उस विप्र के चरणों में नतमस्तक होते हैं; अतः उस ब्राह्मण का चरणोदक पीकर मनुष्य तीर्थस्नायी हो जाता है । जब तक उस ब्राह्मण के चरणोदक से पृथ्वी भीगी रहती है, तब तक उसके पितर कमलपत्र के पात्र में जल पीते हैं। विष्णु के प्रसाद को खाने वाला ब्राह्मण पृथ्वी को, तीर्थों को और मनुष्यों को पवित्र कर देता है तथा स्वयं जीवन्मुक्त हो जाता है । जो ब्राह्मण विष्णु-मन्त्र का उपासक है; वही वैष्णव है। उस वैष्णव ब्राह्मण की बुद्धि उत्कृष्ट होती है; अतः उससे बढ़कर पुरुष दूसरा नहीं है। जो किसी क्षेत्र में जाकर पुरश्चरणपूर्वक नारायण का जप करता है; वह अनायास ही अपने आपका तथा अपनी एक हजार पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। जिसके संकल्प तो बाहर होते हैं, परंतु क्रियाएँ विष्णुपद में होती हैं; वह एकनिष्ठ वैष्णव अपने एक लाख पूर्वपुरुषों का उद्धार कर देता है। ( भगवान् कहते हैं— ) ब्राह्मण और देवता मेरे प्राण हैं, परंतु भक्त प्राणों से भी बढ़कर प्रिय है । समस्त लोकों में जितने प्रिय पात्र हैं, उनमें भक्त से अधिक प्यारा मेरे लिये दूसरा कोई नहीं है। इसलिये विष्णु-भक्ति से रहित होकर विष्णु-मन्त्र की दीक्षा नहीं ग्रहण करनी चाहिये । उत्तम बुद्धिसम्पन्न पुरुष को चाहिये कि वह उदासीन एवं दुराचारी गुरु से मन्त्र की दीक्षा न ग्रहण करे। यदि दैववश ग्रहण कर लेता है तो वह निश्चय ही धनहीन हो जाता है । ब्राह्मणों का भोजन सदा मांसरहित हविष्यान्न है; क्योंकि मांस का परित्याग कर देने से ब्राह्मण तेज में सूर्य के तुल्य हो जाता है। पूजक ब्राह्मण पहले स्थान को भली-भाँति संस्कृत करके तब भोजन तैयार करता है, फिर लिपे-पुते स्वच्छ स्थान पर भक्तिपूर्वक मुझे निवेदित करके तत्पश्चात् आदरपूर्वक ब्राह्मण को देकर तब स्वयं भोजन करता है । जो ब्राह्मण को अर्पण न करके स्वयं खा जाता है; वह शराबी के समान माना जाता है। चन्द्रमा और सूर्य के ग्रहण के समय अथवा जननाशौच या मरणाशौच में अपवित्र मनुष्य से स्पर्श हो जाने पर भोजन-पात्र, भ्रष्ट-द्रव्य तथा अन्न का तुरंत परित्याग कर देना चाहिये । फिर धुली हुई धोती और गमछा धारण करके पैर धोकर शुद्ध स्थान पर भोजन करना चाहिये । द्विजातियों को चाहिये कि सूर्य के रहते अर्थात् दिन में दो बार भोजन न करें; क्योंकि वैसा करने से वह कर्म निष्फल हो जाता है और भोक्ता नरकगामी होता है । हविष्यान्न का भोजन करने वाले संयमी को उचित है कि वह श्राद्ध के दिन यात्रा, युद्ध, नदी-तट, दुबारा भोजन और मैथुन का परित्याग कर दे। जो विष्णुभक्त एवं बुद्धिमान् हो, उसी ब्राह्मण को पात्र का दान देना चाहिये; किंतु जो शूद्रा का पति, शूद्र का पुरोहित, संध्याहीन, दुष्ट, बैलों को जोतनेवाला, शुक्र बेचने वाला और देव-प्रतिमा पर चढ़े हुए द्रव्य से जीविका चलाने वाला हो; उसे यत्न करके कभी भी नहीं देना चाहिये । इन लोगों को पात्र प्रदान करने से ब्राह्मण नरकगामी होता है । उस दिन पात्र का उपभोग करके मैथुन करने से नरक की प्राप्ति होती है । तात ! कन्या बेचने वाला सबसे बढ़कर पापी होता है। जो मूल्य लेकर कन्यादान करता है, वह महारौरव नामक नरक में जाता है, फिर कन्या के शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षों तक पितरों सहित वह, उसका पुत्र और पुरोहित भी कुम्भीपाक नरक कष्ट भोगते हैं । इसलिये बुद्धिमान् को चाहिये कि योग्य वर को ही कन्या प्रदान करें। व्रजेश्वर ! जो पुराणों तथा चारों वेदों द्वारा वर्णित है, वह ब्राह्मणों तथा वैष्णवों का धर्म मैंने कह दिया । (अब क्षत्रियों के धर्म बतलाता हूँ — ) क्षत्रियों को सदा यत्नपूर्वक ब्राह्मणों का पूजन, नारायण की अर्चा, राज्यों का पालन, युद्ध में निर्भीकता, ब्राह्मणों को नित्य दान, शरणागत की रक्षा, प्रजाओं और दुःखियों का पुत्रवत् पालन, शस्त्रास्त्र की निपुणता, रण में पराक्रम, तपस्या और धर्म-कार्य करना चाहिये। जो सदसद्विवेकवाली बुद्धि से युक्त तथा नीति-शास्त्र का ज्ञाता हो, उसका सदा पालन करना चाहिये और सत्पुरुषों से भरी हुई सभा में उसे नित्य नियुक्त करना चाहिये । प्रतापी एवं यशस्वी क्षत्रिय हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों से युक्त चतुरङ्गिणी सेना का नित्य यत्नपूर्वक पालन करता है । युद्ध के लिये बुलाये जाने पर वह युद्ध-दान से विमुख नहीं होता; क्योंकि जो क्षत्रिय युद्ध में प्राण-विसर्जन करता है, उसे यशस्कर स्वर्ग की प्राप्ति होती है । वैश्यों का धर्म व्यापार, खेती करना, ब्राह्मणों और देवताओं का पूजन, दान, तपस्या और व्रत का पालन है। नित्य ब्राह्मणों की पूजा करना शूद्र का धर्म कहा गया है । ब्राह्मण को कष्ट देने वाला तथा उसके धन पर अधिकार कर लेने वाला शूद्र चाण्डालता को प्राप्त हो जाता है। विप्र के धन का अपहरण करने वाला शूद्र असंख्य जन्मोंतक गीध, सौ जन्मों तक सूअर और फिर सौ जन्मों तक हिंसक पशुओं की योनि में जन्म लेता है । जो शूद्र ब्राह्मणी तथा अपनी माता के साथ व्यभिचार करता है; वह पापी जब तक सौ ब्रह्मा नहीं बीत जाते, तब तक कुम्भीपाक में कष्ट भोगता है । वहाँ वह खौलते हुए तैल में डुबाया जाता है, रात-दिन उसे साँप काटते रहते हैं; इस प्रकार यम यातना से दुःखी होकर वह चीत्कार करता रहता है। तत्पश्चात् वह पापी सात जन्मों तक चाण्डाल- योनि में, सात जन्मों तक सर्प-योनि में और सात जन्मों तक जल-जन्तुओं की योनि में उत्पन्न होता है । फिर वह असंख्य जन्मों तक विष्ठा का कीड़ा तथा सात जन्मों तक कुलटा स्त्रियों की योनि का कीट होता है । पुनः वह पापी सात जन्मों तक गौओं के घाव का कीड़ा होता है। इस प्रकार उसे अनेक योनि में भ्रमण करते ही बीतता है; परंतु मनुष्य की योनि नहीं मिलती। अब संन्यासियों का जो धर्म है, वह मेरे मुख से श्रवण करो। मनुष्य दण्ड-ग्रहण मात्र से नारायणस्वरूप हो जाता है। जो संन्यासी मेरा ध्यान करता है; वह अपने पूर्वकर्मों को जलाकर वर्तमान-जन्म के कर्मों का उच्छेद कर डालता है और अन्त में उसे मेरे लोक की प्राप्ति होती है । व्रजराज ! जैसे वैष्णव के चरणस्पर्श से तीर्थ तत्काल पवित्र हो जाते हैं; वैसे ही संन्यासी के पादस्पर्श से पृथ्वी तुरंत पावन हो जाती है। मनुष्य संन्यासी का स्पर्श करने से पापरहित हो जाता है । संन्यासी को भोजन कराकर अश्वमेधयज्ञ का फल तथा अकस्मात् संन्यासी को देखकर उसे नमस्कार करके राजसूय- यज्ञ का फल पाता है। संन्यासी, यति और ब्रह्मचारी — इन सबके दर्शन-स्पर्श का फल एक-सा होता है । संन्यासी को चाहिये कि वह भूख से व्याकुल होने पर सायंकाल गृहस्थों के घर जाय और वहाँ गृहस्थ उसे सदन्न अथवा कदन्न जो कुछ भी दे; उसका परित्याग न करे। न तो मिष्टान्न की याचना करे, न क्रोध करे और न धन ग्रहण करे । एक वस्त्र धारण करे, इच्छारहित हो जाय, जाड़ा-गरमी में एक-सा रहे और लोभ-मोह का परित्याग कर दे। इस प्रकार वहाँ एक रात ठहरकर प्रातः काल दूसरे स्थान को चला जाय । जो संन्यासी सवारी पर चढ़ता है, गृहस्थ का धन ग्रहण करता है और घर बनाकर स्वयं गृहस्थ हो जाता है; वह अपने रमणीय धर्म से पतित हो जाता है। जो संन्यासी खेती और व्यापार करके कुकर्म करता है, उसका आचरण भ्रष्ट हो जाता है और वह अपने धर्म से गिर जाता है । यदि वह स्वधर्मी अपना शुभ अथवा अशुभ कर्म करता है तो धर्म – बहिष्कृत अथवा उपहास का पात्र होता है। जो ब्राह्मणी विधवा हो जाय – उसे सदा कामनारहित, दिन के अन्त में एक बार भोजन करने वाली और सदा हविष्यान्नपरायण होना चाहिये । उसे दिव्य माङ्गलिक वस्त्र नहीं धारण करना चाहिये; बल्कि सुगन्धित द्रव्य, सुवासित तेल, माला, चन्दन और चूड़ी-सिन्दूर-आभूषण का त्याग करके मलिन वस्त्र पहनना चाहिये । नित्य नारायण का स्मरण तथा नित्य नारायण की सेवा करनी चाहिये । वह अनन्य भक्तिपूर्वक नारायण के नामों का कीर्तन करती है और सदा धर्मानुसार पर-पुरुष को पुत्र के समान देखती है । व्रजेश्वर ! वह न तो मिष्टान्न का भोजन करती है और न भोग-विलास की वस्तुओं का संग्रह करती है । उसे पवित्र रहकर एकादशी, कृष्ण-जन्माष्टमी, श्रीरामनवमी, शिवरात्रि, भाद्रपदमास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी, नरक चतुर्दशी तथा चन्द्रमा और सूर्य के ग्रहण के समय भोजन नहीं करना चाहिये । वह भ्रष्ट पदार्थों का परित्याग करके उसके अतिरिक्त उत्तम पदार्थों को खाती है। श्रुतियों में सुना गया है कि विधवा स्त्री, यति, ब्रह्मचारी और संन्यासियों के लिये पान मदिरा के समान है। इन सभी लोगों को रक्तवर्ण का शाक, मसूर, जँभीरी नीबू, पान और गोल लौकी का परित्याग कर देना चाहिये। विधवा नारी पलङ्ग पर सोने से पति को (स्वर्गसे) नीचे गिरा देती है और सवारी पर चढ़कर वह स्वयं नरकगामिनी होती है। उसे बाल और शरीर का परिवर्तित शृङ्गार नहीं करना चाहिये । जटारूप में हुई केश-वेणी को तीर्थ में गये बिना कटाना नहीं चाहिये और न शरीर में तेल लगाना चाहिये । वह दर्पण, पर-पुरुष का मुख, यात्रा, नृत्य, महोत्सव, नाच-गान और सुन्दर वेषधारी रूपवान् पुरुष को नहीं देखती। उसे सामवेद में निरूपण किये गये सत्पुरुषों का धर्म श्रवण करना चाहिये । अब मैं आपसे परमोत्कृष्ट परमार्थ का वर्णन करता हूँ, सुनो। सदा अध्यापन, अध्ययन, शिष्यों का परिपालन, गुरुजनों की सेवा, नित्य देवता और ब्राह्मण का पूजन, सिद्धान्तशास्त्र में निपुणता का उत्पादन, अपने-आप में संतोष, सर्वथा शुद्ध व्याख्यान, निरन्तर ग्रन्थ का अभ्यास, व्यवस्था के सुधार के लिये वेदसम्मत विचार, स्वयं शास्त्रानुसार आचरण, देवकार्य और नित्यकर्मों में निपुणता, वेदानुसार अभीष्ट आचार-व्यवहार, वेदोक्त पदार्थों का भोजन और पवित्र आचरण करना चाहिये । व्रजेश्वर ! अब पतिव्रताओं का जो धर्म है, उसे श्रवण करो। पतिव्रता को चाहिये कि नित्य पति के प्रति उत्सुकता रखकर उनका चरणोदक पान करे; सदा भक्तिभावपूर्वक उनकी आज्ञा लेकर भोजन करे । प्रयत्नपूर्वक व्रत, तपस्या और देवार्चन का परित्याग करके चरण- सेवा, स्तुति और सब प्रकार से पति की संतुष्टि करे। सती को पति की आज्ञा बिना वैरभाव से कोई कर्म नहीं करना चाहिये । सती अपने पति को सदा नारायण से बढ़कर समझती है । व्रजनाथ ! उत्तम व्रतपरायणा सती पर-पुरुष के मुख, सुन्दर-वेषधारी सौन्दर्यशाली पुरुष, यात्रा, महोत्सव, नाच, नाचने वाले, गवैया और पर-पुरुष की क्रीड़ा की ओर कभी दृष्टि नहीं डालती। जो आहार पतियों को प्रिय होता है, वही सदा पतिव्रताओं को भी मान्य होता है । पतिव्रता क्षणभर भी पति से वियुक्त नहीं होती। वह पति से उत्तर-प्रत्युत्तर नहीं करती । ताड़ना मिलने पर भी उसका स्वभाव शुद्ध ही बना रहता है; वह क्रोध के वशीभूत नहीं होती । पतिव्रता को चाहिये कि पति के भूखे होने पर उसे भोजन कराये; भोजन के लिये उत्तम उत्तम पदार्थ और पीने के लिये शुद्ध जल दे; नींद से माते हुए पति को न जगावे और उसे काम करने के लिये आज्ञा न दे। सती को पति के साथ पुत्रों से भी सौगुना अधिक प्रेम करना चाहिये; क्योंकि कुलाङ्गना के लिये पति ही बन्धु, आश्रय, भरण-पोषण करने वाला और देवता है । वह सुन्दरी अमृत के समान शुभकारक अपने पति को देखकर बड़े यत्न से भक्तिभावपूर्वक मुस्कराते हुए उसकी ओर निहारती है। सती नारी अपनी एक हजार पीढ़ियों का उद्धार कर देती है । पतिव्रताओं के पति समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं; क्योंकि सतियों के पातिव्रत्य के तेज से उनका कर्मभोग समाप्त हो जाता है। इस प्रकार वे कर्म रहित होकर अपनी पतिव्रता पत्नी के साथ श्रीहरि के भवन में आनन्द प्राप्त करते हैं । व्रजेश ! पृथ्वी पर जितने तीर्थ हैं, वे सभी सती के चरणों में निवास करते हैं । सम्पूर्ण देवताओं और मुनियों का तेज सतियों में वर्तमान रहता है । तपस्वियों की सारी तपस्या तथा व्रतोपवास से व्रतियों को एवं दान देने से दाताओं को जो फल प्राप्त होता है; वह सारा का सारा सदा पतिव्रताओं में विद्यमान रहता है । स्वयं नारायण, शम्भु, लोकों के विधाता ब्रह्मा, सारे देवता और मुनि भी सदा पतिव्रताओं से डरते रहते हैं । सतियों की चरण-धूलि के स्पर्श से पृथ्वी तत्काल ही पावन हो जाती है । पतिव्रता को नमस्कार करके मनुष्य पाप से छूट जाता है । पतिव्रता अपने तेज से क्षणभर में ही त्रिलोकी को भस्मसात् कर डालने में समर्थ है; क्योंकि वह सदा महान् पुण्य से सम्पन्न रहती है। सतियों के पति और पुत्र साधु एवं निःशङ्क हो जाते हैं; क्योंकि उन्हें देवताओं तथा यमराज से भी कुछ भय नहीं रह जाता। सौ जन्मों तक पुण्य संग्रह करने वाले पुण्यवानों के घर में पतिव्रता जन्म लेती है । पतिव्रता के पैदा होने से उसकी माता पावन हो जाती है तथा पिता जीवन्मुक्त हो जाते हैं । सती स्त्री प्रातः काल उठकर रात्रि में पहने हुए वस्त्र को छोड़कर पति को नमस्कार करके हर्षपूर्वक स्तवन करती है । तत्पश्चात् गृहकार्य सम्पन्न करके नहाकर धुली हुई साड़ी और कंचुकी धारण करती है । फिर श्वेत पुष्प लेकर भक्तिपूर्वक पति का पूजन करती है। पवित्र निर्मल जल से स्नान कराकर उसे धौत वस्त्र देकर वह हर्षपूर्वक पति का पाद-प्रक्षालन करती है। फिर आसन पर बिठाकर, ललाट में चन्दन का तिलक लगाकर, सर्वाङ्ग में (इत्र आदि का) अनुलेप करके गले में माला पहनाकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक अमृतोपम भोग-पदार्थों द्वारा भक्ति-भाव सहित भली-भाँति पूजन और स्तवन करके हर्ष के साथ पति के चरणों में नमस्कार करती है। ‘ॐ नमः कान्ताय शान्ताय सर्वदेवाश्रयाय स्वाहा’ – इसी मन्त्र से पुष्प, चन्दन, पाद्य, अर्घ्य, धूप, दीप, वस्त्र, उत्तम नैवेद्य, शुद्ध सुगन्धित जल और सुवासित ताम्बूल समर्पित करके स्तोत्र पाठ करना चाहिये । जो-जो कर्म किया जाय, सभी में इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये । ॐ नमः कान्ताय भर्त्रे च शिरश्चन्द्रस्वरूपिणे ॥ १३६ ॥ नमः शान्ताय दान्ताय सर्वदेवाश्रयाय च । नमो ब्रह्मस्वरूपाय सतीप्राणपराय च ॥ १३७ ॥ नमस्याय च पूज्याय हृदाधाराय ते नमः । पञ्चप्राणाधिदेवाय चक्षुषस्तारकाय च ॥ १३८ ॥ ज्ञानाधाराय पत्नीनां परमानन्दरूपिणे । पतिर्ब्रह्मा पतिर्विष्णुः पतिरेव महेश्वरः ॥ १३९ ॥ पतिश्च निर्गुणाधारो ब्रह्मरूप नमोऽस्तु ते । क्षमस्व भगवन् दोषं ज्ञानाज्ञानकृतं च यत् ॥ १४० ॥ पत्नीबन्धो दयासिन्धो दासीदोषं क्षमस्व मे । इदं स्तोत्रं महापुण्यं सृष्ट्यादौ पद्मया कृतम् ॥ १४१ ॥ सरस्वत्या च धरया गङ्गया च पुरा व्रज । सावित्र्या च कृतं पूर्वं ब्रह्मणे चापि नित्यशः ॥ १४२ ॥ पार्वत्या च कृतं भक्त्या कैलासे शंकराय च । मुनीनां च सुराणां च पत्नीभिश्च कृतं पुरा ॥ १४३ ॥ पतिव्रतानां सर्वासां स्तोत्रमेतच्छुभावहम् । इदं स्तोत्रं महापुण्यं या श्रृणोति पतिव्रता ॥ १४४ ॥ नरोऽन्यो वाऽपि नारी वा लभते सर्ववाञ्छितम् । अपुत्रो लभते पुत्रं निर्धनो लभते धनम् ॥ १४५ ॥ रौगी च मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् । पतिव्रता च स्तुत्वा च तीर्थस्नानफलं लभेत् ॥ १४६ ॥ फलं च सर्वं तपसां व्रतानां च व्रजेश्वर । ॐ चन्द्रशेखरस्वरूप प्रियतम पति को नमस्कार है। आप शान्त, उदार और सम्पूर्ण देवताओं के आश्रय हैं; आपको प्रणाम है। सती के प्राणाधार एवं ब्रह्मस्वरूप आपको अभिवादन है। आप नमस्कार के योग्य, पूजनीय, हृदय के आधार, पञ्च प्राणों के अधिदेवता, आँख की पुतली, ज्ञानाधार और पत्नियों के लिये परमानन्दस्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। पति ही ब्रह्मा, पति ही विष्णु, पति ही महेश्वर और पति ही निर्गुणाधार ब्रह्मरूप हैं; आपको मेरा प्रणाम स्वीकार हो । भगवन्! मुझसे जान में अथवा अनजान में जो कुछ दोष घटित हुआ है; उसे क्षमा कर दीजिये । पत्नीबन्धो ! आप तो दया के सागर हैं; अतः मुझ दासी का अपराध क्षमा कर दें । व्रजेश्वर ! पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में लक्ष्मी, सरस्वती, पृथ्वी और गङ्गा ने इस महान् पुण्यमय स्तोत्र का पाठ किया था । पूर्वकाल में सावित्री ने भी नित्यशः इस स्तोत्र द्वारा ब्रह्मा का स्तवन किया था। कैलास पर पार्वती ने भक्तिपूर्वक शंकर के लिये इस स्तोत्र का पाठ किया था। प्राचीनकाल में मुनिपत्नियों तथा देवाङ्गनाओं ने भी इसके द्वारा स्तुति की थी । अतः सभी पतिव्रताओं के लिये यह स्तोत्र शुभदायक है । जो पतिव्रता अथवा अन्य पुरुष या नारी इस महान् पुण्यदायक स्तोत्र को सुनती है; उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं । पुत्रहीन को पुत्र प्राप्त हो जाता है, निर्धन को धन मिल जाता है, रोगी रोग से मुक्त हो जाता है और बँधा हुआ बन्धन से छूट जाता है । व्रजेश्वर ! पतिव्रता इसके द्वारा स्तवन करके तीर्थस्नान का फल तथा सम्पूर्ण तपस्याओं और व्रतों का फल पाती है । इस प्रकार स्तुति-नमस्कार करके पति की आज्ञा से वह भोजन करती है। व्रजराज ! इस प्रकार मैंने पतिव्रता के धर्म का वर्णन कर दिया, अब गृहस्थों का धर्म सुनिये । (अध्याय ८३ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवन्नन्दसंवाद त्र्यशीतितमोऽध्यायः ॥ ८३ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related