ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 85
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
पचासीवाँ अध्याय
चारों वर्णों के भक्ष्याभक्ष्य का निरूपण तथा कर्म-विपाक का वर्णन

नन्दजी ने कहा — महाभाग ! अब चारों वर्णों के भक्ष्याभक्ष्य का तथा समस्त प्राणियों के कर्मविपाक का वर्णन कीजिये ।

श्रीभगवान् बोले — तात ! मैं चारों वर्णों के वेदोक्त भक्ष्याभक्ष्य का यथोचित रूप से वर्णन करता हूँ, उसे सावधान होकर श्रवण करो। मनु का उसमें कथन है कि लोहे के बर्तन में जलपान, रखा हुआ गौ का दूध-दही-घी, पकाया हुआ अन्न भ्रष्ट्रादिक (भुना हुआ पदार्थ), मधु, गुड़, नारियलका जल, फल, मूल आदि सभी पदार्थ अभक्ष्य हो जाते हैं। जला हुआ अन्न तथा गरमाया हुआ बदरीफल या खट्टी काँजी को भी अभक्ष्य कहा गया है। काँसे के बर्तन में नारियल का जल और ताम्रपात्र में स्थित मधु तथा घृत के अतिरिक्त सभी गव्य पदार्थ (दूध-दही आदि ) मदिरा-तुल्य हो जाते हैं । ताम्रपात्र में दूध पीना, जूठा रखना, घी का भोजन करना और नमक सहित दूध खाना तुरंत ही अभक्ष्य के समान पापकारक हो जाता है। मधु मिला हुआ घी, तेल और गुड़ अभक्ष्य है तथा शास्त्र के मतानुसार गुड़-मिश्रित अदरक भी अभक्ष्य है।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

विद्वान् पुरुष को चाहिये कि पीने से अवशिष्ट जल, माघमास में मूली और शय्या पर बैठकर जप आदि का सदा परित्याग कर दे । उत्तम बुद्धि-सम्पन्न पुरुष को दिन में दो बार तथा दोनों संध्याओं में और रात्रि के पिछले पहर में भोजन नहीं करना चाहिये। पीने का जल, खीर, चूर्ण, घी, नमक, स्वस्तिक के आकार की मिठाई, गुड़, दूध, मट्ठा तथा मधु ये एक हाथ से दूसरे हाथ पर ग्रहण करने से तत्काल ही अभक्ष्य हो जाते हैं। श्रुति की सम्मति से चाँदी के पात्र में रखा हुआ कपूर अभक्ष्य हो जाता है। यदि परोसने वाला व्यक्ति भोजन करने वाले को छू दे तो वह अन्न अभक्ष्य हो जाता है – यह सभी को सम्मत है । ब्राह्मणों को भैंस का दूध, दही, घी, स्वस्तिक और माखन नहीं खाना चाहिये। रविवार को अदरक सभी के लिये अभक्ष्य है । ब्राह्मणों के लिये बासी अन्न, जल और दूध निषिद्ध है। असंस्कृत नमक और तेल अभक्ष्य है; परंतु अग्नि द्वारा संस्कृत पवित्र व्यञ्जन सभी के खाने योग्य है । एक हाथ से धारण किया हुआ, गँदला, कृमियुक्त और अपवित्र जल अपेय होता है यह सर्वसम्मत है । श्रीहरि को निवेदित किये बिना कोई भी पदार्थ ब्राह्मणों, यतियों, ब्रह्मचारियों, विशेष करके वैष्णवों को नहीं खाना चाहिये।

तात ! जिस किसी वस्तु में अथवा मधु, दूध, दही, घी और गुड़ में यदि चींटियाँ पड़ गयी हों तो उसे कभी नहीं खाना चाहिये। ऐसा श्रुति में सुना गया है। पका हुआ शुद्ध फल, जिसे पक्षी ने काट दिया हो अथवा उसमें कीड़े पड़ गये हों तथा कौवे द्वारा उच्छिष्ट किया हुआ पदार्थ सभी के लिये अभक्ष्य होता है। घी अथवा तेल में पकाया हआ मिष्टान्न तथा पीठक, यदि उसे शूद्र ने बनाकर तैयार किया हो तो वह शूद्रों के ही खाने योग्य होता है, ब्राह्मणों के लिये नहीं। जो अपवित्र हैं, उन सबके अन्न-जल का परित्याग कर देना चाहिये । अशौचान्त के दूसरे दिन सब शुद्ध हो जाता है, इसमें संशय नहीं है । व्रजेश्वर ! इस प्रकार मैंने अपनी जानकारी के अनुसार भक्ष्याभक्ष्य का वर्णन कर दिया।

पिताजी ! श्रुति के मतानुसार कर्मों का विपाक बड़ा दुष्कर होता है । इस विषय में क्रमश: चारों वेदों में चार प्रकार के मत बतलाये गये हैं; उनका सारभूत रहस्य मैं कह रहा हूँ, सुनिये। चाहे अरबों कल्प बीत जायँ तो भी भोग किये बिना कर्म का क्षय नहीं होता; अतः अपने द्वारा किया हुआ शुभ-अशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पड़ता है 1 । तीर्थों और देवताओं के सहयोग से मनुष्यों की भी कुछ सहायता हो जाती है; परंतु तात ! जो मुझसे विमुख है, उसे निश्चय ही उसके द्वारा किये गये प्रायश्चित्त उसी प्रकार पवित्र नहीं कर सकते, जैसे नदियाँ मदिरा के घड़े को पावन नहीं कर सकतीं। न तो उत्तम कर्म से दुष्कर्म का नाश होता है और न दुष्कर्म करने से सुकर्म ही नष्ट होता है । यहाँ तक कि यज्ञ, तप, व्रत, उपवास, तीर्थस्नान, दान, जप, नियम, पृथ्वी की परिक्रमा, पुराण-श्रवण, पुण्योपदेश, गुरु और देवता की पूजा, स्वधर्माचरण, अतिथि सत्कार, ब्राह्मणों का पूजन एवं विशेषतया उन्हें भोजन कराने से भी दुष्कर्म का विनाश नहीं होता । ब्राह्मण को जो दिया जाता है, वह पूर्णरूप से प्राप्त होता है; क्योंकि ब्राह्मण क्षेत्ररूप है और वह दान बीज के समान है ।

तात ! मनुष्य एक कर्म द्वारा स्वर्ग को प्राप्त कर लेता है; परंतु मोक्ष कर्म से नहीं मिलता। वह तो मेरी सेवा से सुलभ होता है। पुण्यकर्म करने से स्वर्ग, दुष्कर्म करने से नरक तथा कुत्सित कर्म करने से व्याधि और नीच योनि में जन्म प्राप्त होता है, तत्पश्चात् वह पवित्र होता है । जो इच्छानुसार छोटे-बड़े पाप करने वाला तथा गोहत्यारा है, वह गौ के शरीर में जितने रोएँ होते हैं उतने वर्षों तक दन्दशूक नामक नरक में निवास करता है । वहाँ वह सर्प के डसने के कारण विष की ज्वाला से तृषित एवं पीड़ित होता है तथा आहार न मिलने से उसका पेट सट जाता है। तत्पश्चात् उस कुण्ड से निकलकर गौ के शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षों तक वह गौ की योनि में उत्पन्न होता है । तदनन्तर एक लाख वर्ष तक वह कोढ़ी और चाण्डाल होता है, इसके बाद मनुष्य होता है । उस समय वह कर्मानुसार कुष्ठरोगयुक्त ब्राह्मण होता है। तब एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराकर वह नीरोग तथा पवित्र हो जाता है । गो-हत्या करने वाला निश्चय ही उतने वर्षों तक गौ होता है, जितने उस गौ के शरीर में रोएँ होते हैं। ब्रह्मघाती उनसे भी चौगुने वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा होता है, तदनन्तर उससे चौगुने वर्षों तक म्लेच्छ होता है । तत्पश्चात् उनसे चौगुने वर्षों तक अंधा होकर ब्राह्मण के घर में जन्म लेता है । वहाँ चार लाख विप्रों को भोजन कराने से वह उस महान् पातक से मुक्त होकर पवित्र नेत्रयुक्त और यशस्वी हो जाता है।

चारों वर्णों में जो स्त्री की हत्या करने वाला है, उसे वेद में महापातकी कहा गया है। वह उस स्त्री के शरीर में जितने रोएँ होते हैं उतने वर्षों तक कालसूत्र नरक में वास करता है । वहाँ उसे कीड़े काटते रहते हैं, आहार नहीं मिलता और नरक यातना भोगनी पड़ती है । तदनन्तर वह पापी उतने ही वर्षों तक जगत् में जन्म लेता है । वहाँ वह कर्मानुसार पापपरायण तथा राजयक्ष्मा से ग्रस्त रहता है । फिर सौ वर्षों तक एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने से शुद्ध होकर वह विद्वान् एवं तपः परायण विप्र होता है । उस जन्म में वह भी कुछ बचे-खुचे पापों को भोगता है तथा सोना दान करने से शुद्ध हो जाता है । भ्रूण-हत्या करने वाला महापापी शुनीमुख नामक नरक में जाता है। वहाँ वह सौ वर्षों तक सूक्ष्म शस्त्र द्वारा पीड़ित किया जाता है । फिर उसे निश्चय ही सौ वर्षों तक घोड़े की योनि में जन्म लेना पड़ता है। इसके बाद वह पापी अपने कर्म के फलस्वरूप दाद के रोग से युक्त वैश्य होता है और पचास वर्षों तक वह कष्ट भोगकर पुनः स्वर्णदान से शुद्ध होता है। इसके बाद अपने कुल में उत्पन्न होने पर भी वह नीरोग होता है और फिर पवित्र ब्राह्मण होकर जन्म लेता है ।

युद्ध के बिना क्षत्रिय को मारने वाला ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय तप्तशूल नरक में जाता है। वहाँ उसे एक हजार वर्ष तक तपाये हुए लोहे से काढ़े की भाँति पकाया जाता है और वह आर्तनाद करता है । तदनन्तर वह सौ वर्षों तक मदमत्त गजराज होता है। इसके बाद सौ वर्षों तक रक्तदोष-युक्त शूद्र होता है । वहाँ वह हाथी दान करने से रोग-मुक्त होकर फिर ब्राह्मण के घर में जन्म लेता है। वैश्य और शूद्र की हत्या करने वाला वैश्य तथा वैश्य की हिंसा करने वाला शूद्र – ये निश्चय ही समान पाप के भागी होते हैं। इन्हें सौ वर्षों तक कृमिकुण्ड नामक नरक में वास करना पड़ता है । वहाँ कीड़ों के काटने से वह महान् दुःखी होता है । इसके बाद वह कृमिरोग से युक्त होकर सौ वर्षों तक किरात होता है । व्रजेश्वर ! तदनन्तर वह पचास वर्षों तक मन्दाग्नियुक्त, दुर्बल, कृशोदर, गरीब ब्राह्मण होता है । फिर तीर्थ में घोड़े का दान करने से उसकी मुक्ति हो जाती है ।

तात ! चारों वर्णों में किसी भी वर्ण का मनुष्य जो पीपल का वृक्ष काटता है, वह ब्रह्महत्या के चौथाई पाप का भागी होता है और उसे निश्चय ही असिपत्र नामक नरक में जाना पड़ता है। झूठी गवाही देने वाले, कृतघ्न, अतिकृतघ्न, विश्वासघाती, मित्रघाती और ब्राह्मणों का धन हरण करनेवाला — ये महापापी कहलाते हैं । इन्हें हजारों वर्षों तक कुम्भीपाक में रहना पड़ता है । वहाँ वे रात-दिन खौलते हुए तेल से संतप्त किये जाते हैं, उन्हें व्याधियाँ घेरे रहती हैं और सर्पाकार जन्तु काटता रहता है। तदनन्तर वह पापी हजार करोड़ जन्मों तक गीध, सौ जन्मों तक सूअर और सौ जन्मों तक हिंसक पशु होने के बाद रोगग्रस्त शूद्र होता है। उस जन्म में वह मन्दाग्नि तथा ज्वर से पीड़ित रहता है तथा सौ पल सोना दान करके अवश्य ही शुद्ध हो जाता है। चारों वर्णों में जो मनुष्य वस्त्र चुराने वाला, गव्य ( दूध-दही-घी) – की चोरी करने वाला, चाँदी और मुक्ता का अपहरण करने वाला तथा शूद्र के धन को लूट लेने वाला होता है; वह सौ वर्षों तक मूत्रकुण्ड का भोग करके पुनः हजार वर्षों तक बगुले की योनि में उत्पन्न होता है – यह ध्रुव है । व्रजराज ! तदनन्तर वह सौ वर्षों तक शूद्र जाति में जन्म लेता है । वहाँ वह पापी कुष्ठरोग से युक्त होता है और उसके घाव से मवाद निकलती रहती है। तत्पश्चात् थोड़ा-बहुत कोढ़ से युक्त होकर ब्राह्मण होता है और छः पल सोना दान करने से पवित्र होकर रोगमुक्त हो जाता है।

जो खजाना लूटने वाला, फल चुराने वाला तथा खेल-ही-खेल में धन का अपहरण करने वाला है, वह भूतल पर यक्ष होता है । फिर सौ वर्षों तक नीलकण्ठ पक्षी होता है । तत्पश्चात् भारत-भूमि पर काले रंग वाला शूद्र होता है । फिर जन्म-जन्मान्तर के बाद अधिक अङ्गों वाला ब्राह्मण होता है । वहाँ ब्राह्मणों को भोजन कराने से पुनः ब्राह्मण होकर मुक्त हो जाता है। पके हुए पदार्थों की चोरी करने वाला निश्चय ही पशुयोनि में उत्पन्न होता है । वहाँ वह सात जन्मों तक जिसका अण्डकोश गन्धयुक्त होता है तथा जिसे कस्तूरी नाम से पुकारा जाता है; वह कस्तूरी मृग होकर पुनः एक जन्म तक गन्धक होता है । फिर गलित-कुष्ठ वाला शूद्र होता है । तत्पश्चात् अवशिष्ट रोग से युक्त दुर्बल ब्राह्मण होता है, वहाँ वह छः पल सोना दान करने से नि:संदेह मुक्त हो जाता है । धान्य की चोरी करने वाला सात जन्मों तक दुःखी और कृपण होता है । वह सौ वर्षों तक विष्ठा के कुण्ड में यातना भोगकर उस भय से मुक्त होता है । स्वर्ण का अपहरण करने वाला मानव कोढ़ी और पतित होता है तथा स्वर्ण-दान ग्रहण करने वाला विष्ठा के कुण्ड में जाता है । वहाँ सौ वर्षों तक रात-दिन विष्ठा खाने के बाद व्याध होता है, फिर रक्तविकार-युक्त शूद्र होता है । उस जन्म में पाप का उपभोग करके वह पुनः अवशिष्ट रोगयुक्त ब्राह्मण होता है और स्वर्ण दान करने से मुक्त हो जाता है ।

अगम्या स्त्री के साथ गमन करने वाला पापी असंख्यों वर्षों तक पूर्वोक्त रौरव तथा महाभयंकर कुम्भीपाक में जाता है। इसके बाद हजार वर्षों तक वह कुलटा स्त्रियों की योनि का कीड़ा और लाख वर्षों तक विष्ठा का कीट होता है। उससे पशुयोनि में और पशुयोनि से क्षुद्र जन्तुओं में जन्म लेता है । तत्पश्चात् म्लेच्छ और फिर नीच शूद्र होता है । इसके बाद वह व्याधिग्रस्त ब्राह्मण होता है और पुनः ब्राह्मण होकर क्रमशः तीर्थों में भ्रमण करने से शुद्ध हो जाता है; परंतु पाप के कारण उसका वंश नहीं चलता । फिर एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराकर वह पवित्र हो जाता है और पुत्र प्राप्त कर लेता है । क्रोधी मनुष्य सात जन्मों तक गदहा होता है और जो मानव झगड़ालू होता है, उसे सात जन्मों तक कौआ होना पड़ता है। लोहे की चोरी करने वाला संतानहीन, मषी चुरानेवाला कोकिल, अञ्जन का चोर शुक और मिठाई चुराने वाला कीड़ा होता है । तात ! ब्राह्मण और गुरु से द्वेष करने वाला सिर का कीट-जूँ होता है । पुंश्चली स्त्री का भोग करके पुरुष रौरव नरक में जाता है और फिर सौ वर्षों तक निरर्थक कीट होता है तथा वह कुलटा रौरव की यातना भोगकर सात जन्मों तक क्रमशः विधवा, वन्ध्या, अस्पृश्या, जातिहीना और नकटी होती है।

लाल पदार्थ की चोरी करने वाला रक्तदोष से युक्त होता है । आचारहीन मनुष्य यवन, हिंसक, लँगड़ा, दीक्षाहीन वखर, कुदृष्टि डालने वाला काना, अहंकारी कर्णहीन, वेद की निन्दा करने वाला बहरा, बात काटने वाला गूँगा, हिंसक केशहीन, मिथ्यावादी दाढ़ीरहित, दुष्ट वचन बोलने वाला दन्तहीन, सत्य को छिपानेवाला जिह्वाहीन, दुष्ट अंगुलिरहित तथा ग्रन्थ की चोरी करने वाला मूर्ख एवं रोगी होता है। घोड़े का दान लेने वाला तथा घोड़ा चुराने वाला लालामूत्र नामक नरक जाता है । वहाँ सौ वर्षों तक रहकर फिर घोड़े की योनि में उत्पन्न होता है । हाथी का दान लेने वाला तथा हाथी – चोर एक हजार वर्षों तक विष्ठा के कुण्ड में रहकर फिर हाथी होता है। तत्पश्चात् शूद्र के घर जन्म लेता है । छाग का प्रतिग्रही और चोर मनुष्य सौ वर्षों तक पूयकुण्ड में वास करके फिर चाण्डाल होता है । तत्पश्चात् एक वर्ष तक छाग की योनि में पैदा होता है । वहाँ शत्रु के शस्त्र द्वारा काटे जाने से मुक्त होकर ब्राह्मण होता है। जो दान की हुई वस्तु का अपहरण करता है तथा वाग्दान करके पुनः उस बात को पलट देता है; वह म्लेच्छ योनि में जन्म लेता है और वहाँ कष्ट भोगकर नरक में जाता है । व्रजेश ! जो (दूसरे को न देकर) अकेले ही मिठाइयाँ गप कर जाता है, वह निश्चय ही कालसूत्र नरक में जाता है । वहाँ सौ वर्षों तक यातना भोगकर फिर हजार वर्षों की आयु वाला प्रेत होता है। इसके बाद वह एक जन्म तक मक्खी, एक जन्म में चींटी, एक जन्म में भ्रमर, एक जन्म में मधुमक्खी, एक जन्म में बरै, एक जन्म में डाँस, एक जन्म में मच्छर, एक जन्म में दुर्गन्धयुक्त कीट और एक जन्म में खटमल होने के बाद दुर्बुद्धि एवं रोगग्रस्त शूद्र होता है । फिर उससे मुक्त होकर ब्राह्मण हो जाता है।

तेल की चोरी करने वाला तेली तीन जन्मों तक सिर का कीट – जूँ होता है। जो दुष्ट क्षेत्र की सीमा – मेड़ को नष्ट करने वाला, भूमिचोर, हिंसक तथा दान की हुई भूमि को वापस ले लेने वाला है, वह अवश्यमेव कालसूत्र नरक में जाता है । वहाँ भूख-प्यास से पीड़ित होकर साठ हजार वर्षों तक कष्ट भोगता है । तत्पश्चात् विष्ठा का कीड़ा होकर उत्पन्न होता है। इसके बाद एक जन्म में असत् शूद्र होता है और उसके बाद शुद्ध हो जाता है। इसलिये विद्वान्‌ को चाहिये कि वह यह सब जानकर यत्नपूर्वक इनसे सावधान रहे। लाल वस्त्र को चुराने वाला एक जन्म में लाल रंग का कीड़ा होता है । फिर एक जन्म में शूद्र होता है; इसके बाद शुद्ध होकर ब्राह्मण हो जाता है। जो ब्राह्मण तीनों काल की संध्याओं से हीन है तथा जो मनुष्य प्रातःकाल, संध्या – समय और दिन में सोता है, यज्ञोपवीत की चोरी करता है, अशुद्ध संध्या करता है और वेद-वेदाङ्ग का निन्दक है; उसके लिये स्वर्ग का मार्ग निरुद्ध हो जाता है अर्थात् वह नरकगामी होता है और तीन जन्मों तक पतित है । जो शूद्र होकर ब्राह्मणी के साथ व्यभिचार करता है; वह निश्चय ही कुम्भीपाक में जाता है । वहाँ कष्ट झेलता हुआ तीन लाख वर्षों तक यातना भोगता है । वह रात-दिन भयंकर खौलते हुए तेल में जलता रहता है। तत्पश्चात् वह पापी कुलटा नारियों की योनि का कीड़ा होता है । वहाँ साठ हजार वर्षों तक उस योनि का मल ही उसका आहार होता है । फिर क्रमशः एक लाख जन्मों तक वह चाण्डाल होता है। फिर एक जन्म में घावयुक्त कोढ़ वाला शूद्र होता है । इसके बाद शुद्ध होकर व्याधियुक्त ब्राह्मण होता है; फिर तीर्थों में भ्रमण करने से शुद्ध हो जाता है। जो मानव देवता की उचित पूजा न करके उन्हें अपवित्र नैवेद्य समर्पित करता है, वह असत् शूद्र होता है ।

व्रजेश्वर ! जो मिट्टी, भस्म और गोबर के पिण्डों से अथवा बालुका से शिवलिङ्ग का निर्माण करके एक बार भी उसका पूजन करता है, वह कल्पपर्यन्त स्वर्ग में निवास करता है । तत्पश्चात् वह भूमि का स्वामी एवं महाविद्वान् ब्राह्मण होता है। सौ लिङ्गों का पूजन करने से मनुष्य भारतवर्ष में राजा होता है। एक हजार लिङ्ग-पूजन से उसे निश्चित फल की प्राप्ति होती है । वह चिरकाल तक स्वर्ग में निवास करके अन्त में भारतभूमि पर राजेन्द्र होता है। दस हजार लिङ्ग-पूजन से राजाधिराज और एक लाख लिङ्ग-पूजन से चक्रवर्ती सम्राट् हो जाता है। अत्यन्त भक्तिपूर्वक पूजन करने से उसका अतिरिक्त फल मिलता है | तीर्थस्नान, दान, ब्रह्मभोज, नारायणार्चन आदि कर्म से वह ब्राह्मणवंश में पैदा होता है, फिर अतिरिक्त तपस्या के प्रभाव से वह ब्राह्मण विद्वान् तथा जितेन्द्रिय वैष्णव हो जाता है । फिर अनेक जन्मों के पुण्यफल से वह भारतभूमि पर जन्म लेता है। उसके चरण-स्पर्श से ही वसुन्धरा तत्काल पवित्र हो जाती है। ऐसे जीवन्मुक्त वैष्णव तीर्थों को तीर्थत्व प्रदान करते हैं और अपने हजारों पूर्वजों को पावन बना देते हैं । ऐसा श्रुति में सुना गया है । जो अत्यन्त क्रूर, दुराचारी तथा देव-ब्राह्मण का द्वेषी होता है; वह हजार वर्षों तक जहरीला साँप होता है ।

व्रजनाथ ! जो नारी कुलटा स्त्रियोंके लम्पटोंकी दूती होती है; वह सौ वर्षों तक कालसूत्र नरक में रहकर फिर छिपकली होती है । एक जन्म तक छिपकली होने के बाद तीन जन्मों तक हरिण, एक जन्म में भैंसा, एक जन्म में भालू, एक जन्म में गैंडा और तीन जन्मों तक सियार की योनि में उत्पन्न होती है । जो दूसरे के तड़ाग का तथा भलीभाँति बोयी हुई दूसरे की खेती का दान करता है, वह मगर की जाति में उत्पन्न होकर तीन जन्मों तक कछुआ होता है। एकादशी-व्रत को न रखने वाला ब्राह्मण पतित हो जाता है। फिर अपने आहार से दूना भोजन दान करके वह उस पाप से मुक्त होता है। जो अधम मानव मेरे जन्मदिन – भाद्रपदमास की कृष्णाष्टमी को भोजन करता है, उसे नि:संदेह त्रिलोकी में होने वाले सभी पापों को भोगना पड़ता है । इस प्रकार सभी नरकों का भोग करने के पश्चात् वह चाण्डाल होता है। इसी तरह शिवरात्रि और श्रीरामनवमी के दिन भी समझना चाहिये । जो शक्तिहीन होने के कारण उपवास करने में असमर्थ हो, उसे हविष्यान्न का भोजन करना चाहिये और मेरा पुण्य महोत्सव सम्पन्न करके ब्राह्मणों को भी भोजन कराना चाहिये। इससे वह पापमुक्त होकर शुद्ध हो जाता है। इसके लिये यत्नपूर्वक मेरे नामों का संकीर्तन करना चाहिये । जो देव -मूर्तियों की चोरी करता है, वह सात जन्मों तक अंधा, दरिद्र, रोगग्रस्त, बहरा और कुबड़ा होता है । जो नराधम ब्राह्मण और देव-प्रतिमा को देखकर उन्हें नमस्कार नहीं करता; वह जबत क जीता है तब तक अपवित्र यवन होता है ।

जो ब्राह्मण को आया हुआ देखकर उठकर स्वागत नहीं करता; वह निश्चित रूप से महापापी होता है । जो शिव का द्वेषी तथा देव-प्रतिमा पर चढ़े हुए द्रव्य से जीविका-निर्वाह करने वाला है, वह सात जन्म तक मुर्गा होता है। जो अज्ञानी पितरों और देवताओं के वेदोक्त पूजन का विनाश करता है, वह पापी रौरव नरक में जाता है। वहाँ एक हजार वर्ष तक यातना भोगने के पश्चात् तीन जन्मों तक तीर्थकाक होता है । फिर तीन जन्मों तक किसी तीर्थ में सियार की योनि में उत्पन्न होकर मुर्दे की लाश खाता है । व्रजेश्वर ! वही पापी तीन जन्मों तक तीर्थों में शव की रक्षा तथा कर्मानुसार मुर्दों की कफनखसोटी करता है। जो मूर्ख नित्य दम्भपूर्वक देवता की पूजा करके भक्तिपूर्वक गुरु का पूजन नहीं करता और न उन्हें अन्न प्रदान करता है; वह पापी देवता के शाप से दुःखी, देवल (देव-प्रतिमा पर चढ़े हुए द्रव्य से जीविका चलाने वाला) और भयंकर देवद्रोही होता है; उसे पूजा का फल नहीं मिलता ।

व्रजेश्वर! (हाथ से) दीप को बुझाने वाला सात जन्मों तक जुगुनू होता है । जो इष्टदेव को निवेदन किये बिना ही खाता है तथा मछली का अत्यन्त लोभी है; वह मछरंगा पक्षी होता है तथा सात जन्मों तक बिलाव की योनि में जन्म धारण करता है। बोरा चुराने वाला कबूतर, माला हरण करने वाला आकाशचारी पक्षी, धान्य की चोरी करने वाला गौरैया और मांसचोर हाथी होता है । विद्वानों के कवित्व पर प्रहार करने वाला सात जन्म तक मेढक होता है । जो झूठे ही अपने को विद्वान् कहकर गाँव की पुरोहिती करता है; वह सात जन्मों तक नेवला, एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक
गिरगिट होता है । फिर एक जन्म में बरैं होने के बाद वृक्ष की चींटी होता है । तत्पश्चात् क्रमशः शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण होता है। चारों वर्णों में कन्या बेचने वाला मानव तामिस्र नरक में जाता है और वहाँ तब तक निवास करता है, जब तक सूर्य-चन्द्रमा की स्थिति रहती है। इसके बाद वह मांस बेचने वाला व्याध होता है। तत्पश्चात् पूर्वजन्म में जो जैसा होता है, उसी के अनुसार उसे व्याधि आ घेरती है। मेरे नाम को बेचनेवाले ब्राह्मण की मुक्ति नहीं होती – यह ध्रुव है । मृत्युलोक में जिसके स्मरण में मेरा नाम आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गौ की योनि में उत्पन्न होता है । इसके बाद बकरा, फिर मेढ़ा और सात जन्मों तक भैंसा होता है । जो मानव महान् षड्यन्त्री, कुटिल और धर्महीन होता है; वह एक जन्म में तेली होकर फिर कुम्हार होता है। जो झूठा कलंक लगाने वाला और देवता एवं ब्राह्मणका निन्दक होता है, वह एक जन्म में सोनार होकर सात जन्मों तक धोबी होता है ।

जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कुत्सित आचरण वाले तथा पवित्रता से रहित होते हैं, उन्हें दस हजार वर्षों तक म्लेच्छयोनि में जन्म लेना पड़ता है। जो पुरुष कामभाव से स्त्रियों की कटि, स्तन और मुख की ओर निहारता है, वह दूसरे जन्म में दृष्टिहीन और नपुंसक होता है। जो ब्राह्मण ज्ञानहीन होते हुए आभिचारिक कर्म करने वाला तथा हिंसक होता है; वह इस प्रकार दस हजार वर्षों तक अन्धतामिस्र नरक में वास करता है। तत्पश्चात् कर्म के भोग के अनुसार वह ब्राह्मण शूद्र होता है । जो शास्त्रज्ञ ज्योतिषी लोभवश झूठ बोलता है; वह सात जन्मों तक वानरों का सरदार होता है – यह ध्रुव है । तत्पश्चात् वह धर्महीन पापी अनेक जन्मों की तपस्या के फलस्वरूप भारतवर्ष में उत्तम बुद्धिसम्पन्न परम धर्मात्मा ब्राह्मण होता है ।

अपने धर्म में तत्पर रहने वाला ब्राह्मण अग्नि से भी बढ़कर पवित्र और अत्यन्त तेजस्वी होता है, उससे देवगण सदा डरते रहते हैं। जैसे नदियों में गङ्गा, तीर्थों में पुष्कर, पुरियों में काशी, ज्ञानियों में शंकर, शास्त्रों में वेद, वृक्षों में पीपल, तपस्याओं में मेरी पूजा तथा व्रतों में उपवास सर्वश्रेष्ठ है; उसी तरह समस्त जातियों में ब्राह्मण श्रेष्ठ होता है । समस्त पुण्य, तीर्थ और व्रत ब्राह्मण के चरणों में निवास करते हैं। ब्राह्मण की चरणरज शुद्ध तथा पाप और रोग का विनाश करने वाली होती है। उनका शुभाशीर्वाद सारे कल्याणों का कारण होता है ।

तात ! इस प्रकार मैंने अपनी जानकारी तथा शास्त्रज्ञान के अनुसार आपसे कर्मविपाक का वर्णन कर दिया। अब जो अवशिष्ट है, उसे श्रवण करो। इस कर्मविपाक को सुनकर उस वाचक को सोना, चाँदी, वस्त्र और पान देना चाहिये । मनुष्य को चाहिये कि मेरी प्रसन्नता के लिये उस ब्राह्मण को तुरंत सौ स्वर्णमुद्राएँ बहुत-सी गायें, चाँदी, वस्त्र और ताम्बूल दक्षिणारूप में समर्पित करे । (अध्याय ८५ )

1. नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ ३६ ॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवन्नन्दसंo-पञ्चाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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