March 8, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 86 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) छियासीवाँ अध्याय केदार-कन्या के वृत्तान्त का वर्णन नन्दजी ने पूछा — प्रभो ! आपने स्त्रियों के प्रसङ्ग से केदार-कन्या का प्रस्ताव करके कर्मविपाक का वर्णन किया। अब विस्तारपूर्वक केदार-कन्या का चरित्र बतलाइये । वह केदार-कन्या कौन थी ? भूपाल केदार कौन थे ? किसके वंश में उनका जन्म हुआ था ? यह विवरण सहित मुझे बतलाने की कृपा कीजिये । श्रीभगवान् ने कहा — नन्दजी ! सृष्टि के आदि में ब्रह्मा के पुत्र स्वायम्भुव मनु हुए। उनकी स्त्री का नाम शतरूपा था, जो स्त्रियों में धन्या और माननीया थी । उन दोनों के प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम के दो पुत्र हुए। उत्तानपाद के पुत्र महायशस्वी ध्रुव हुए। ध्रुव के पुत्र नन्दसावर्णि और नन्दसावर्णि के पुत्र केदार हुए। स्वयं श्रीमान् केदार विष्णु-भक्त तथा सातों द्वीपों के अधिपति थे। उनकी रक्षा के लिये वे प्रतिदिन राजदरबार में सुन्दर रूप-रंग वाली, सीधी, नौजवान गायें, जिनके सींगों में सोना मढ़ा गया था, ब्राह्मणों को दान करते थे । प्रात:काल से लेकर सायंकाल तक ब्राह्मणों को भोजन कराते थे; दुःखियों और भिक्षुकों को यथोचित धन देते थे और स्वयं राजा विष्णु-भक्तिपरायण हो इन्द्रियों को काबू करके फल-मूल का आहार करते हुए सब कुछ मुझे समर्पित करके रात-दिन मेरा जप करते थे। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तदनन्तर लक्ष्मी अपनी कला से कामिनियों में श्रेष्ठ कमलनयनी कन्या के रूप में उनके यज्ञकुण्ड से प्रकट हुईं। उनके शरीर पर अग्नि में तपाकर शुद्ध किया हुआ वस्त्र था और वे रत्नों के आभूषणों से विभूषित थीं। उन्होंने राजा से यों कहा — ‘महाराज ! मैं आपकी कन्या हूँ।’ तब राजा ने भक्तिपूर्वक उसकी भली-भाँति पूजा की और उसे अपनी पत्नी को समर्पित करके वे चुपचाप खड़े हो गये । तदनन्तर वह कन्या हर्षपूर्वक विनती करके और माता-पिता की आज्ञा ले तपस्या करने के लिये यमुना-तट पर स्थित रमणीय पुण्यवन को चली गयी। वह वृन्दा का तपोवन था; इसीलिये उसे ‘वृन्दावन’ कहते हैं । वहाँ तपस्या करके उसने वरों में श्रेष्ठ मुझको वर रूप से वरण किया। तब ब्रह्मा ने उसे वरदान दिया कि ‘कुछ काल के पश्चात् तू कृष्ण को प्राप्त करेगी’। फिर ब्रह्माजी ने उसकी परीक्षा के लिये धर्म को एक परम सुन्दर तरुण ब्राह्मण के रूप में उसके पास भेजा । वहाँ जाकर धर्म ने कहा — मनोहरे ! तुम किसकी कन्या हो ? तुम्हारा क्या नाम है ? यहाँ एकान्त में तुम क्या कर रही हो? यह मुझे बतलाओ । सुन्दरि ! तुम क्या चाहती हो और किसलिये यह तपस्या कर रही हो? तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो, वह वरदान माँगो । वृन्दा बोली — विप्रवर! मैं केदारराज की कन्या हूँ, मेरा नाम वृन्दा है । मैं इस वृन्दावन में वास करती हुई एकान्त में तपस्या कर रही हूँ और श्रीहरि को अपना पति बनाने की चिन्ता में हूँ । अतः ब्राह्मण ! यदि तुम्हारे में ऐसा वरदान देने की शक्ति हो तो मेरा अभीष्ट वर मुझे प्रदान करो; अन्यथा यदि तुम असमर्थ हो तो अपने रास्ते जाओ। तुम्हें यह सब पूछने से क्या लाभ? धर्म ने कहा — वृन्दे ! जो इच्छारहित, तर्कणा करने के अयोग्य, ऐश्वर्यशाली, निर्गुण, निराकार और भक्तानुग्रहमूर्ति हैं; उन परमात्मा को पति बनाने के लिये लक्ष्मी और सरस्वती के अतिरिक्त दूसरी कौन स्त्री समर्थ हो सकती है ? वैकुण्ठशायी चतुर्भुज भगवान् की ये ही दो भार्याएँ हैं । गोलोक में भी जो द्विभुज, वंशी बजाने वाले, किशोर गोप- वेषधारी, परिपूर्णतम श्रीकृष्ण हैं; उनकी पत्नी स्वयं परात्परा महालक्ष्मी राधा हैं । वे परमब्रह्म-स्वरूपिणी राधा उन श्यामसुन्दर की, जो परम आत्मबल से सम्पन्न, ऐश्वर्यशाली, शमपरायण और परम सौन्दर्यशाली हैं, जिनका सुन्दर शरीर करोड़ों कामदेवों के सौन्दर्य की निन्दा करने वाला, अमूल्य रत्नाभरणों से विभूषित, सत्यस्वरूप और अविनाशी है तथा जो रमणीय पीताम्बर धारण करने वाले और सम्पूर्ण सम्पत्तियों के दाता हैं; सदा सेवा करती रहती हैं। वे श्रीकृष्ण द्विभुज और चतुर्भुज – रूप से दो रूपों में विभक्त हैं। वे स्वयं चतुर्भुज- रूप से वैकुण्ठ में और द्विभुज – रूप से गोलोक में वास करते हैं । पचीस हजार युग बीतने के बाद इन्द्र का पतन होता है, ऐसे चौदह इन्द्रों का शासनकाल लोकों के विधाता ब्रह्मा का एक दिन होता है, उतनी ही बड़ी उनकी रात्रि होती है । ऐसे तीस दिन का एक मास और बारह मास का एक वर्ष होता है। ऐसे सौ वर्ष तक ब्रह्मा की आयु समझनी चाहिये। उन ब्रह्मा की आयुसमाप्ति, जिनका एक निमेष होता है, सनक आदि महर्षि जिनकी जीवनपर्यन्त सेवा करते रहते हैं, परंतु करोड़ों-करोड़ों कल्पों में भी जो विभु साध्य नहीं होते । सहस्रमुखधारी शेषनाग अरबों-खरबों कल्पों तक जिनकी भक्तिपूर्वक रात-दिन सेवा तथा नाम- जप करते रहते हैं; परंतु वे परात्पर, दुराराध्य, हितकारी भगवान् साध्य नहीं होते। जो ब्रह्मा वेदों के उत्पादक, विधाता, फलदाता और सम्पूर्ण सम्पत्तियों के दाता हैं; वे प्रत्येक जन्म में उन ब्रह्मस्वरूप अविनाशी सनातनदेव का सदा अपने चारों मुखों द्वारा स्तवन करते रहते हैं; परंतु वेदों द्वारा अनिर्वचनीय, काल के काल तथा अन्तक के अन्तक उन भगवान् को सिद्ध नहीं कर पाते । वृन्दे ! जो अपनी कला से रुद्ररूप धारण करके जगत् का संहार करते हैं, पाँचों मुखों से उनकी स्तुति करते हैं, जिनसे बढ़कर भगवान् को दूसरा कोई प्रिय नहीं है; उनके द्वारा जब भगवान् साध्य नहीं होते, तब दूसरे की क्या बात है ? वृन्दे ! जो सर्वशक्तिस्वरूपा, दुर्गतिनाशिनी, परमब्रह्म- स्वरूपिणी, ईश्वरी, मूलप्रकृति, नारायणी, विष्णुमाया, वैष्णवी और सनातनी हैं, जिनकी माया से भ्रमणशील जगत् सदा चक्कर काटता रहता है, वे दुर्गा भी जिन देव की भक्तिपूर्वक रात-दिन स्तुति करती रहती हैं। गजानन गणेश और छः मुख वाले स्वामी-कार्तिक भी भक्ति सहित यथा-शक्ति जिनका स्तवन करते हैं। जिनकी सर्वप्रथम पूजा होती है, जो सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी और ज्ञानियों के गुरु के गुरु हैं, जिन गणेश से बढ़कर सिद्धेन्द्र, देवेन्द्र, योगीन्द्र और ज्ञानियों के गुरुओं में कोई विद्वान् नहीं है, जो गणों के स्वामी और देवताओं के अधिपति हैं; वे भगवान् गणेश जिनका ध्यान करते हैं। परमेश्वरी सरस्वती जिनका स्तवन करने में असमर्थ हैं। लक्ष्मी रात-दिन जिनके चरणकमल की सेवा करती हैं। जिनके कटाक्ष से सारा जगत् परिपूर्णतम एवं कल्याणमय है। जिनके भय से वायु चलती है; जिनके भय से सूर्य तपते हैं, इन्द्र वर्षा करते हैं, अग्नि जलाती है और मृत्यु प्राणियों में विचरण करती है। जिनकी सेवा करने से पृथ्वी सबकी आधार -स्वरूपा तथा धन की भण्डार हो गयी है । सुन्दरि ! जिनसे भयभीत होकर समुद्र और पर्वत निश्चलरूप से अपनी-अपनी मर्यादा में स्थित रहते हैं। जिनके चरणकमल की सेवा से गङ्गादेवी तीर्थों की साररूपा, पवित्र, मुक्तिदायिनी और लोकों को पावन करने वाली हो गयी हैं। जिनके स्मरण और सेवन से तुलसीदेवी पवित्र हो गयी हैं तथा नवग्रह और दिक्पाल जिनके प्रताप से डरते रहते हैं। सारे ब्रह्माण्डों में जो-जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा अन्यान्य सुरेश्वर, शेष आदि तथा मुनिगण हैं; उनमें से कुछ परमात्मा श्रीकृष्ण के कला-स्वरूप, कुछ अंशरूप और कुछ कलांश रूप हैं । कल्याणि ! तुम उन्हीं परमेश्वर को, जो प्रकृति से परे हैं, अपना पति बनाना चाहती हो, परंतु वे गोलोक में केवल राधिका द्वारा साध्य हैं; दूसरा कोई कभी भी उन्हें सिद्ध नहीं कर सकता । इतना कहकर छद्मवेषधारी धर्म ने उसकी परीक्षा के लिये प्रचुर भोगसुख का प्रलोभन दिया और अपने को ही पतिरूप में स्वीकार करने का अनुरोध किया । फिर धर्म उसकी ओर बढ़े। व्रजेश ! उनका विचार केवल उसके सतीत्व को जानना था। उनकी यह चेष्टा देखकर उस राजकन्या के मुख और नेत्र क्रोध से वक्र हो गये। तब वह हितकारक, सत्य, योगयुक्त, यशस्कर एवं धर्मार्थ वचन बोली । श्रीवृन्दा ने कहा — महाभाग ! धैर्य धारण कीजिये । आप तो जातियों में श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं । ब्राह्मणों का स्वभाव तपोमूलक, सत्यपरक, वेदव्रती और धैर्यशाली होता है । परायी स्त्रियों के प्रति आकर्षित होना तो अधर्मियों का स्वभाव है। विप्रवर! अधर्म से ही दुष्ट को अमङ्गल का दर्शन होता है। तत्पश्चात् वह शत्रु पर विजय-लाभ करता है और फिर समूल नष्ट हो जाता है। जो बलपूर्वक पतिव्रताओं के साथ व्यभिचार करता है, वह मातृगामी कहलाता है और उसे तुरंत ही सौ ब्रह्महत्या का पाप लगता है — यह निश्चित है। जब तक सूर्य-चन्द्रमा की स्थिति है, तब तक वह कुम्भीपाक में यातना भोगता है। यमदूत उसके मस्तक पर लोहे के डंडे से प्रहार करते हैं; वह खौलते हुए तेल में जलाया जाता है; परंतु उसकी सूक्ष्मदेह से प्राण विलग नहीं होते। यह क्षणिक सुख चिरकालिक दुःख का दाता और सर्वविनाश का कारण है । इसीलिये धर्मात्मा पुरुष अगम्या के गमनजन्य दुःख की इच्छा नहीं करते; अतः ज्ञानदुर्बल ब्राह्मण! आपका कल्याण हो, मुझे क्षमा कीजिये और अपने रास्ते जाइये। जैसे दीपक की लौ देखकर पतिङ्गा निश्चय ही उस पर टूट पड़ता है; लोभी मीन और मृग काँटे के अग्रभाग में मिष्टान्न को देखकर उसे निगलना चाहता है; भूखा मनुष्य विष-मिश्रित भोजन को खा जाता है और दुष्ट मुख पर छलछलाते हुए दूध वाले दूषित विषकुम्भ को ग्रहण कर लेता है; उसी तरह लम्पट पुरुष परायी स्त्रियों के मनोहर मुखकमल को, जो विनाश का कारण है, देखकर मोहवश भ्रान्त हो जाता है। स्त्रियों का सुन्दर मुख, दोनों नितम्ब तथा स्तन काम-वासना के आधार, नाश के कारण और अधर्म के स्थान हैं। जो लार और मूत्र से संयुक्त है, जिसमें से दुर्गन्ध निकलती है, जो पाप तथा यमदण्ड का कारण है, स्त्रियों का वह मूत्रस्थान (योनि) नरककुण्ड के सदृश है । ब्राह्मण ! एकान्त देखकर जो तुम मेरी धर्षणा करना चाहते हो तो यहीं समस्त देवता, लोकपाल, कर्मों के शासक तथा साक्षी जाज्वल्यमान धर्म, स्वयं श्रीहरि द्वारा नियुक्त दण्डकर्ता यमराज, स्वयं धर्मात्मा श्रीकृष्ण, ज्ञानरूपी महेश्वर, दुर्गा, बुद्धि, मन, ब्रह्मा, इन्द्रियाँ तथा देवगण उपस्थित हैं। ये सम्पूर्ण प्राणियों में उनके कर्मों के साक्षी रूप से वर्तमान रहते हैं; अतः अज्ञानी ब्राह्मण! कौन-सा स्थान गुप्त है और कौन-सा रहस्यमय ? विप्र ! तुम्हारा कल्याण हो । मुझे क्षमा कर दो और जाओ । मैं तुम्हें भस्म कर डालने में समर्थ हूँ; परंतु ब्राह्मण अवध्य होते हैं । अतः वत्स ! तुम सुखपूर्वक यहाँ से चले जाओ। द्विज ! तपस्या करते हुए मुझे एक सौ आठ युग बीत गये। अब न तो मेरे पिता का गोत्र ही रह गया है और न मेरे माता-पिता ही हैं। सबके अन्तरात्मास्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण मेरी रक्षा करते हैं । श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित धर्म नित्य मेरी रक्षा में तत्पर है। सूर्य, चन्द्रमा, पवन, अग्नि, ब्रह्मा, शम्भु, भगवती दुर्गा — ये सभी सदा मेरी देखभाल करते हैं। जिन्होंने हंसों को श्वेत, शुकों को हरा और मयूरों को रंग-बिरंगा बनाया है; वे ही मेरी रक्षा करेंगे । सभी देवता अनाथों, बालकों तथा वृद्धों की सर्वदा रक्षा करते हैं, अतः नारी समझकर धर्म मेरा परित्याग करके नहीं जा सकते। इसके बाद श्रीवृन्दा ने पतिव्रत धर्म की महिमा और दुराचार की निन्दा करके कोपप्रकाशपूर्वक शाप दे दिया — ‘ दुराचार! तुम्हारा नाश हो जाय । पापिष्ठ ! तुम नष्ट हो जाओ।’ इतना कहकर जब पुनः शाप देने को उद्यत हुई तब स्वयं सूर्य ने उसे यत्न करके रोक दिया। इसी बीच वहाँ ब्रह्मा, शिव, सूर्य और इन्द्र आदि देवता आ पहुँचे । सबने उससे क्षमा माँगी और ‘धर्म तुम्हारी परीक्षा के लिये आया था। उसमें तनिक भी पापबुद्धि नहीं थी । धर्म के नाश से जगत् के सनातनधर्म- रूप जीवन का नाश हो जायगा’ यह कहकर धर्म को जीवनदान देने की प्रार्थना की। तब वृन्दा ने कहा — देव! मैं नहीं जानती थी कि ये ब्राह्मणवेषधारी धर्म हैं और मेरी परीक्षा करने के लिये आये हैं । इसी कारण मैंने क्रोधवश इनका नाश किया है। अब आप लोगों की कृपा से मैं अवश्य धर्म को जीवन-दान दूँगी । व्रजेश्वर ! यों कहकर वह वृन्दा पुनः बोली — ‘यदि मेरी तपस्या सत्य हो तथा मेरा विष्णुपूजन सत्य हो तो उस पुण्य के प्रभाव से ये विप्रवर यहाँ शीघ्र ही दुःखरहित हो जायँ । यदि मुझमें सत्य वर्तमान हो और मेरा व्रत सत्य तथा तप शुद्ध हो तो उस पुण्य तथा सत्य के प्रभाव से ये ब्राह्मण कष्ट-रहित हो जायँ । यदि नित्यमूर्ति सर्वात्मा नारायण तथा ज्ञानात्मक शिव सत्य हैं तो ये द्विजवर संतापरहित हो जायँ । यदि ब्रह्म सत्य हो, सभी देवता और परमा प्रकृति सत्य हों, यज्ञ सत्य हो और तप सत्य हो तो इन ब्राह्मणका कष्ट दूर हो जाय । ‘ इतना कहकर सती वृन्दा ने धर्म को अपनी गोद में कर लिया और उन कलारूप को देखकर वह कृपापरवश हो रुदन करने लगी। इसी बीच धर्म की भार्या मूर्ति, जो शोक से व्याकुल थी, सिर के बल विष्णु के चरण पर गिर पड़ी और यों बोली । मूर्ति कहा — हे नाथ! आप तो करुणासागर हैं। दीनबन्धो ! मुझ पर कृपा कीजिये । कृपामूर्ति जगन्नाथ! मेरे पतिदेव को शीघ्र जीवित कर दीजिये; क्योंकि जो नारी पति से हीन हो जाती है, वह इस भवसागर में पापिनी समझी जाती है । उसकी दशा नेत्रहीन मुख और प्राणरहित शरीर के समान हो जाती है। माता-पिता, भाई- बन्धु और पुत्र तो परिमित सुख देने वाले होते हैं, सर्वस्व प्रदान करने वाला तो सामर्थ्यशाली पति ही होता है । इतना कहकर मूर्ति देवी वहाँ खड़ी हो गयीं और विलाप करने लगीं । तब भगवान् जो सर्वात्मा एवं प्रकृतिसे परे हैं; वृन्दा से बोले । श्रीभगवान् ने कहा — सुन्दरि ! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है। वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ। वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी। सुमुखि ! गोलोक में आने के पश्चात् वाराहकल्प में तुम राधा की छायाभूता वृषभानु की कन्या होओगी । उस समय मेरे कलांश से उत्पन्न हुए रायाण गोप तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे। फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे प्राप्त करोगी। जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी। तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी । विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही ग्रहण करेंगे; परंतु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’ – ऐसा समझेंगे। उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरणकमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी गोद में रहती हैं और उनकी छाया रायाण की भार्या होती है। इस प्रकार भगवान् विष्णु के वचन को सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्णरूप से उठकर खड़े हो गये । उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौन्दर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था । तब उन श्रीमान् ने परात्पर परमेश्वर को प्रणाम किया । पुनः वृन्दा ने कहा — देवगण मेरे वचन को, जिसका उल्लङ्घन करना कठिन है, सावधानतया श्रवण करें। मेरा वाक्य मिथ्या नहीं हो सकता । मैंने क्रोधावेश में जो तीन बार ‘क्षयो भव’, ‘तुम्हारा नाश हो जाय ‘ – ऐसा वचन कहा है और पुनः कहने के लिये उद्यत होने पर सूर्य ने मना कर दिया था, उसका फल यों होगा — यह धर्म सत्ययुग में जैसे पहले परिपूर्ण था, उसी तरह इस समय भी रहेगा; परंतु त्रेता में इसके तीन पैर, द्वापर में दो पैर और कलियुग के प्रथमांश में एक पैर रह जायगा । कलियुग के शेष भाग में यह कला का षोडशांशमात्र रह जायगा । सत्ययुग आने पर यह पुनः परिपूर्ण हो जायगा। मेरे मुख से तीन बार ‘क्षय’ शब्द निकला है; इसलिये उसी क्रम से क्षय भी होगा । मन में पुनः कहने का विचार करने पर सूर्य ने रोक दिया था; इसी कारण यह धर्म कलियुग की समाप्ति में कलामय ही रह जायगा । नन्दजी ! इसी बीच देवताओं ने वेगपूर्वक गोलोक से आये हुए एक अत्यन्त सुन्दर एवं शुभ रथ को देखा। उस रथ का निर्माण अमूल्य रत्नों द्वारा हुआ था। उसमें हीरे के हार लटक रहे थे और वह मणि, माणिक्य, मुक्ता, वस्त्र, श्वेत चँवर, भूषण और सुन्दर रत्नजटित दर्पणों से विभूषित था। उस रथ को देखकर वृन्दा ने हरि, शंकर, ब्रह्मा तथा समस्त देवताओं को नमस्कार किया और फिर उस पर सवार हो वह गोलोक को चली गयी। तत्पश्चात् सभी देवता अपने-अपने स्थान को गये। अब तुम्हारी पुनः क्या सुनने की इच्छा है ? (अध्याय ८६ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवन्नन्दसंवाद षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related