March 9, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 92 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) बानबेवाँ अध्याय उद्धव का गोकुल में सत्कार तथा उनका वृन्दावन आदि सभी वनों की शोभा देखते हुए राधिका के पास पहुँचना और राधास्तोत्र द्वारा उनका स्तवन करना श्रीनारायण कहते हैं — नारद! श्रीकृष्णकी प्रेरणासे उद्धव हर्षपूर्वक गणेश्वरको प्रणाम करके नारायण, शम्भु, दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वतीका स्मरण करते हुए मन-ही-मन गङ्गा और उस दिशाके स्वामी महेश्वर का ध्यान करके मङ्गल- सूचक शकुनों को देखते हुए आगे बढ़े। उन्हें मार्ग में दुन्दुभि और घण्टा का शब्द, शङ्खध्वनि, हरिनाम संकीर्तन और मङ्गल ध्वनि सुनायी पड़ी। इस प्रकार वे मार्ग पति-पुत्रवती साध्वी नारी, प्रज्वलित दीप, माला, दर्पण, जलसे परिपूर्ण घट, दही, लावा, फल, दुर्वाङ्कुर, सफेद धान, चाँदी, सोना, मधु, ब्राह्मणों का समूह, कृष्णसार मृग, साँड़, घी, गजराज, नरेश्वर, श्वेत रंग का घोड़ा, पताका, नेवला, नीलकण्ठ, श्वेत पुष्प और चन्दन आदि कल्याणमय वस्तुओं को देखते हुए वृन्दावन नामक वन में जा पहुँचे। वहाँ उन्हें सामने ही भाण्डीर-वट नामक वृक्ष दीख पड़ा; जिसका रंग लाल था तथा जो अविनाशी, कोमल, पुण्यदाता और अभीष्ट तीर्थ है। उसके बाद लाल रंग के गहनों से सजे हुए सुन्दर वेषधारी बालकों को देखा। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय वे बाल-कृष्ण का नाम ले-लेकर शोकवश रो रहे थे। उन्हें आश्वासन देकर उद्धव आनन्दपूर्वक नगर में प्रवेश करके कुछ दूर आगे गये । तब उन्हें वह नन्दभवन दिखायी दिया, जिसे विश्वकर्मा ने बनाया था। उसका निर्माण मणियों और रत्नों से हुआ था। उसमें मोती, माणिक्य और हीरे जड़े हुए थे। वह अमूल्य रत्नों के बने हुए मनोरम कलशों से सुशोभित था । नाना प्रकार की चित्रकारी दरवाजे की शोभा बढ़ा रही थी । उसे देखकर उद्धव हर्षपूर्वक उसके भीतर प्रविष्ट हुए और उसके आँगन में पहुँचकर तुरंत ही रथ से उतरकर भूतल पर खड़े हो गये । उन्हें देखकर यशोदा और रोहिणी ने तुरंत ही उनका कुशल- समाचार पूछा और आनन्दमग्न हो उन्हें आसन, जल, गौ और मधुपर्क निवेदित किया । तदनन्तर वे पूछने लगीं — ‘उद्धव ! नन्दजी कहाँ हैं ? तथा बलराम और श्रीकृष्ण कहाँ हैं ? वह सब वृत्तान्त ठीक- ठीक बतलाओ ।’ तब उद्धव ने क्रमशः कहना आरम्भ किया — ‘यशोदे ! सुनो, वे सब सर्वथा सकुशल हैं; नन्दजी आनन्दपूर्वक हैं । वे श्रीकृष्ण और बलराम के साथ कुछ विलम्ब से आयेंगे; क्योंकि वहाँ श्रीकृष्ण के उपनयन संस्कार तक ठहरेंगे। मैं विधिपूर्वक तुम लोगों का कुशल- समाचार जानकर मथुरा लौट जाऊँगा।’ इस मङ्गल- समाचार को सुनकर यशोदा और रोहिणी आनन्दविभोर हो गयीं; उन्होंने ब्राह्मण को बुलाकर रत्न, सुवर्ण और उत्तम वस्त्र प्रदान किया । तत्पश्चात् उद्धव को अमृतोपम मिष्टान्न भोजन कराया तथा उन्हें उत्तम मणि, रत्न और हीरे भेंट में दिये । फिर नाना प्रकार के माङ्गलिक बाजे बजवाये, मङ्गल- कार्य कराया, ब्राह्मणों को जिमाया और वेदपाठ करवाया। फिर परमानन्दपूर्वक नाना प्रकार के उपहार, नैवेद्य, पुष्प, धूप, दीप, चन्दन, वस्त्र, ताम्बूल, मधु, गो-दुग्ध, दधि और घृत आदि सामग्रियों से ब्राह्मण द्वारा सर्वव्यापी भगवान् शंकर का पूजन सम्पन्न किया। मुने! तदनन्तर षोडशोपचार की सामग्रियों और अनेक प्रकार की बलि से श्रीवृन्दावन की अधिष्ठात्री देवी की पूजा की और श्रीकृष्ण के कल्याण के लिये तुरंत ही ब्राह्मणों को सौ सूधी भैंसें, एक हजार बकरियाँ, पंद्रह हजार शुद्ध भेंड़, सौ मोहरें तथा सौ गायें दक्षिणा में दीं। फिर बारंबार आदरसहित उद्धव का सेवा-सत्कार किया । तत्पश्चात् उद्धव यशोदा, रोहिणी, ग्वालबालों, वृद्धों और सभी गोपियों को भलीभाँति आश्वासन देकर रासमण्डल देखने के लिये गये । वहाँ उन्होंने रमणीय रासमण्डल को देखा, जो चन्द्रमण्डल के समान गोलाकार और सैकड़ों केले के खंभों से सुशोभित था । तदनन्तर रासमण्डल की शोभा, असंख्य गोपी तथा श्रीकृष्ण ही आ गये — इस अनुमान से असंख्य गोपों को प्रतीक्षा करते देखा । फिर यमुना की प्रदक्षिणा करके उद्धव ने चन्दन, चम्पक, यूथिका, केतकी, माधवी, मौलसिरी, अशोक, काञ्चन, कर्णिका आदि वनों की प्रदक्षिणा की। फिर आनन्दपूर्ण मन से नागेश्वर, लवङ्ग, शाल, ताल, हिंताल, पनस, रसाल, मन्दार आदि काननों को देखते हुए रमणीय कुञ्जवन के दर्शन करके अत्यन्त मधुर रमणीय मधुकानन में प्रवेश किया । पुनः बदरीवन में जाने के बाद कदलीवन में जाकर अति निभृत स्थान में श्रीराधिका के आश्रम के दर्शन किये । वहाँ की दिव्य विलक्षण शोभा को देखने के बाद वे अन्तिम द्वार पर पहुँचे । सखियों ने उनका स्वागत करके उन्हें राधा के पास पहुँचा दिया । उद्धव ने आश्चर्यचकित कर देने वाली राधा को सामने देखा । वे चन्द्रकला के समान सुन्दरी थीं, उनके नेत्र पूर्णतया खिले हुए कमल के सदृश थे, उन्होंने भूषणों का त्याग कर दिया था, केवल कानों में सुवर्ण के रंग-बिरंगे कुण्डल झलमला रहे थे, अत्यन्त क्लेश के कारण उनका मुख लाल हो गया था, वे शोक से मूर्च्छित हो भूमि पर पड़ी हुई रो रही थीं, उनकी चेष्टाएँ शान्त थीं, उन्होंने आहार का त्याग कर दिया था, उनके अधर और कण्ठ सूख गये थे, केवल कुछ- कुछ साँस चल रही थी। उन्हें इस अवस्था में देखकर भक्त उद्धव के सर्वाङ्ग में रोमाञ्च हो आया । वे भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करते हुए बोले । ॥ उद्धवकृत श्रीराधा स्तोत्रम् ॥ ॥ उद्धव उवाच ॥ वन्दे राधापदाम्भोजं ब्रह्मादिसुरविन्दतम् । यत्कीर्तिः कीर्तनेनैव पुनाति भुवनत्रयम् ॥ ६४ ॥ नमो गोकुलवासिन्यै राधिकायै नमो नमः । शतशृङ्गनिवासिन्यै चन्द्रावत्यै नमो नमः ॥ ६५ ॥ तुलसीवनवासिन्य वृन्दारण्यै नमो नमः । रासमण्डलवासिन्यै रासेश्वर्यै नमो नमः ॥ ६६ ॥ विरजातीरवासिन्यै वृन्दायै च नमो नमः । वृन्दावनविलासिन्यै कृष्णायै च नमो नमः ॥ ६७ ॥ नमः कृष्णप्रियायै च शान्तायै च नमो नमः । कृष्णवक्षःस्थितायै च तत्पियायै नमो नमः ॥ ६८ ॥ नमो वैकुण्ठवासिन्यै महालक्ष्म्यै नमो नमः । विद्याधिष्ठातृदेव्यै च सरस्वत्यै नमो नमः ॥ ६९ ॥ सर्वैश्वर्याधिदेव्यै च कमलायै नमो नमः । पद्मनाभप्रियायै च पद्मायै च नमो नमः ॥ ७० ॥ महाविष्णोश्च मात्रे च पराद्यायै नमो नमः । नमः सिन्धुसुतायै च मर्त्यलक्ष्मयै नमो नमः ॥ ७१ ॥ नारायणप्रियायै च नारायण्यै नमो नमः । नमोऽस्तु विष्णुमायायै वैष्णव्यै च नमो नमः ॥ ७२ ॥ महामायास्वरूपायै संपदायै नमो नमः । नमः कल्याणरूपिण्यै शुभायै च नमो नमः ॥ ७३ ॥ मात्रे चतुर्णा वेदानां सावित्र्यै च नमो नमः । नमोऽस्तु बुद्धिरूपायै ज्ञानदायै नमो नमः ॥ ७४ ॥ नमो दुर्गविनाशिन्यै दुर्गादेव्यै नमो नमः । तेजःसु सर्वदेवानां पुरा कृतयुगे मुदा ॥ ७५ ॥ अधिष्टानकृतायै च प्रकृत्यै च नमो नमः । नमस्त्रिपुरहारिण्यै त्रिपुरायै नमो नमः ॥ ७६ ॥ सुन्दरीषु च रम्यायै निर्गुणायै नमो नमः । ममो निद्रास्वरूपायै निर्गुणायै नमो नमः ॥ ७७ ॥ नमो दक्षसुतायै च नमः सत्यै नमो नमः । नमः शैलसुतायै च पार्वत्यै च नमो नमः ॥ ७८ ॥ नमो नमस्तपस्विन्यै ह्यु मायै च नमो नमः । निराहारस्वरूपायै ह्यपर्णायै नमो नमः ॥ ७९ ॥ गौरीलौकविलासिन्यै नमो गौर्यै नमो नमः । नमः कैलासवासिन्यै माहेश्वर्यैः नमो नमः ॥ ८० ॥ निद्रायै च दयायै च श्रद्धायै च नमो नमः । नमो धृत्यै क्षमार्यै च लज्जायै च नमो नमः ॥ ८१ ॥ तृष्णायै क्षुत्स्वरूपायै स्थितिकर्त्र्यै नमो नमः । नमः संहाररूपिण्यै महामार्यै नमो नमः ॥ ८२ ॥ भयायैं चाभयायैं च मुक्तिदायै नमो नमः । नमः स्वधायैं स्वाहायै शान्तयै कान्त्यै नमो नमः ॥ ८३ ॥ नमस्तुष्ट्यैं च पुष्ट्यै च दयायै च नमो नमः । नमो निद्रास्वरूपायै श्रद्धायै च नमो नमः ॥ ८४ ॥ क्षुत्पिपासास्वरूपायै लज्जायैं च नमो नमः । नमो धृत्यैं क्षमायैं च चेतनायैं नमो नमः ॥ ८५ ॥ सर्वशक्तिस्वरूपिण्यै सर्वमात्रे नमो नमः । अग्नौ दाहस्वरूपायै भद्रायै च नमो नमः ॥ ८६ ॥ शोभायै पूर्णचन्द्रे च शरत्पद्म नमो नमः । नास्ति भेदो यथा देवि दुग्धधावल्ययोःसदा ॥ ८७ ॥ यथैव गन्धभूम्योश्च यथैव जलशैत्ययौः । यथैव शब्दन्भसोर्ज्योतिः सूर्यकयोर्यथा ॥ ८८ ॥ लोके वेदे पुराणे च राधामाधवयोस्तथा । चेतनं कुरु कल्याणि देहि मामुत्तरं सति ॥ ८९ ॥ इत्युक्त्वा चोद्धवस्तत्र प्रणनाम पुनः पुनः । इत्युद्ववकृतं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिपूर्वकम् ॥ ९० ॥ इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते हरिमन्दिरम् । न भवेद्बन्धुविच्छेदो रोगः शोकः सुदारुणः ॥ ९१ ॥ प्रोषिता स्त्री लभेत्कान्तं भार्याभेदी लभेत्प्रियाम् । अपुत्रो लभते पुत्रान्निर्धनो लभते धनम् ॥ ९२ ॥ निर्भूमिर्लभते भूमिं प्रजाहीनो लभेत्प्रजाम् । रोगाद्विमुच्यते रोगी बद्धी मुच्यते बन्धनात् ॥ ९३ ॥ भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येताऽऽपन्नआपदः । अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः ॥ ९४ ॥ उद्भव ने कहा — मैं श्रीराधा के उन चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जो ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा वन्दित हैं तथा जिनकी कीर्ति के कीर्तन से ही तीनों भुवन पवित्र हो जाते हैं। गोकुल में वास करने वाली राधिका को बारंबार नमस्कार । शतशृङ्ग पर निवास करने वाली चन्द्रवती को नमस्कार-नमस्कार । तुलसीवन तथा वृन्दावन में बसने वाली को नमस्कार-नमस्कार। रासमण्डलवासिनी रासेश्वरी को नमस्कार-नमस्कार । विरजा तट पर वास करने वाली वृन्दा को नमस्कार-नमस्कार । वृन्दावनविलासिनी कृष्णा को नमस्कार-नमस्कार। कृष्णप्रिया को नमस्कार । शान्ता को पुनः-पुनः नमस्कार । कृष्ण के वक्षःस्थल पर स्थित रहने वाली कृष्णप्रिया को नमस्कार – नमस्कार । वैकुण्ठवासिनी को नमस्कार । महालक्ष्मी को पुनः- पुनः नमस्कार । विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को नमस्कार – नमस्कार । सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की अधिदेवी कमला को नमस्कार – नमस्कार । पद्मनाभ की प्रियतमा पद्मा को बारंबार प्रणाम । जो महाविष्णु की माता और पराद्या हैं; उन्हें पुनः-पुनः नमस्कार । सिन्धुसुता को नमस्कार । मर्त्यलक्ष्मी को नमस्कार – नमस्कार । नारायण की प्रिया नारायणी को बारंबार नमस्कार । विष्णुमाया को मेरा नमस्कार प्राप्त हो । वैष्णवी को नमस्कार – नमस्कार । महामायास्वरूपा सम्पदा को पुनः-पुनः नमस्कार । कल्याणरूपिणी को नमस्कार । शुभा को बारंबार नमस्कार । चारों वेदों की माता और सावित्री को पुनः – पुनः नमस्कार। दुर्गविनाशिनी दुर्गादेवी को बारंबार नमस्कार। पहले सत्ययुग में जो सम्पूर्ण देवताओं के तेजों में अधिष्ठित थीं; उन देवी को तथा प्रकृति को नमस्कार – नमस्कार । त्रिपुरहारिणी को नमस्कार । त्रिपुरा को पुनः पुनः नमस्कार । सुन्दरियों में परम सुन्दरी निर्गुणा को नमस्कार – नमस्कार । निद्रास्वरूपा को नमस्कार और निर्गुणा को बारंबार नमस्कार । दक्षसुता को नमस्कार और सत्या को पुनः – पुनः नमस्कार । शैलसुता को नमस्कार और पार्वती को बार-बार नमस्कार । तपस्विनी को नमस्कार – नमस्कार और उमा को बारंबार नमस्कार । निराहारस्वरूपा अपर्णा को पुनः- पुनः नमस्कार । गौरीलोक में विलास करने वाली गौरी को बारंबार नमस्कार । कैलासवासिनी को नमस्कार और माहेश्वरी को नमस्कार – नमस्कार । निद्रा, दया और श्रद्धा को पुनः पुनः नमस्कार । धृति, क्षमा और लज्जा को बारंबार नमस्कार । तृष्णा, क्षुत्स्वरूपा और स्थितिकर्त्री को नमस्कार – नमस्कार । संहाररूपिणी को नमस्कार और महामारी को पुनः- पुनः नमस्कार । भया, अभया और मुक्तिदा को नमस्कार – नमस्कार । स्वधा, स्वाहा, शान्ति और कान्ति को बारंबार नमस्कार । तुष्टि, पुष्टि और दया को पुनः – पुनः नमस्कार । निद्रास्वरूपा को नमस्कार – नमस्कार। श्रद्धा को बार-बार नमस्कार । क्षुत्पिपासास्वरूपा और लज्जा को बारंबार नमस्कार । धृति, चेतना और क्षमा को बारंबार नमस्कार । जो सबकी माता तथा सर्वशक्तिस्वरूपा हैं; उन्हें नमस्कार – नमस्कार । अग्नि में दाहिका – शक्ति के रूप में विद्यमान रहने वाली देवी और भद्रा को पुनः पुनः नमस्कार । जो पूर्णिमा के चन्द्रमा में और शरत्कालीन कमल में शोभारूप से वर्तमान रहती हैं; उन शोभा को नमस्कार – नमस्कार। देवि ! जैसे दूध और उसकी धवलता में, गन्ध और भूमि में, जल और शीतलता में, शब्द और आकाश में तथा सूर्य और प्रकाश में कभी भेद नहीं है, वैसे ही लोक, वेद और पुराण में-कहीं भी राधा और माधव में भेद नहीं है; अतः कल्याणि ! चेत करो । सति ! मुझे उत्तर दो । यों कहकर उद्धव वहाँ उनके चरणों में पुनः पुनः प्रणिपात करने लगे। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस उद्धवकृत स्तोत्र का पाठ करता है; वह इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वैकुण्ठ जाता है । उसे बन्धुवियोग तथा अत्यन्त भयंकर रोग और शोक नहीं होते। जिस स्त्री का पति परदेश गया होता है, वह अपने पति से मिल जाती है और भार्यावियोगी अपनी पत्नी को पा जाता है । पुत्रहीन को पुत्र मिल जाते हैं, निर्धन को धन प्राप्त हो जाता है, भूमिहीन को भूमि की प्राप्ति हो जाती है, प्रजाहीन प्रजा को पा लेता है, रोगी रोग से विमुक्त हो जाता है, बँधा हुआ बन्धन से छूट जाता है, भयभीत मनुष्य भय से मुक्त हो जाता है, आपत्तिग्रस्त आपद् से छुटकारा पा जाता है और अस्पष्ट कीर्ति वाला उत्तम यशस्वी तथा मूर्ख पण्डित हो जाता है । (अध्याय ९२) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद राधास्तोत्रं नाम द्विनवतितमोऽध्यायः ॥ ९२ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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