March 9, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 94 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) चौरानबेवाँ अध्याय सखियों द्वारा श्रीकृष्ण की निन्दा एवं प्रशंसा और उद्धव का मूर्च्छित हुई राधा को सान्त्वना प्रदान करना श्रीनारायण कहते हैं — मुने ! राधिकाको मूर्च्छित देखकर उद्धव को महान् विस्मय और भय प्राप्त हुआ। वे राधा की सच्ची भक्ति और अपने को कहने मात्र का भक्त जानकर तथा भाग्यवती सती राधा की ओर देखकर सारे जगत् को तुच्छ समझने लगे। तदनन्तर मृतक तुल्य पड़ी हुई राधा को होश में लाते हुए उनसे बोले । उद्धव ने कहा — कल्याणि ! होश में आ जाओ। जगन्मातः। तुम्हें नमस्कार है। तुम्हीं पूर्वजन्मकृत समस्त कर्म हो। अब तुम्हें श्रीकृष्ण के दर्शन प्राप्त होंगे। तुम्हारे दर्शन से विश्व पवित्र हो गया और तुम्हारी चरणरज से पृथ्वी पावन हो गयी । तुम्हारा मुख परम पवित्र है और ( तुम्हारे स्पर्श से) गोपिकाएँ पुण्यवती हो गयीं। लोग गीत तथा मङ्गल-स्तोत्रों द्वारा तुम्हारा ही गान करते हैं । वेद तथा सनकादि महर्षि तुम्हारी उत्तम कीर्ति का- जो किये हुए पापों को नष्ट करने वाली, पुण्यमयी, तीर्थपूजास्वरूपा, निर्मल, हरिभक्तिप्रदायिनी, कल्याणकारिणी और सम्पूर्ण विघ्नों का विनाश करने वाली है – सदा बखान करते हैं । तुम्हीं राधा हो; तुम्हीं श्रीकृष्ण हो। तुम्हीं पुरुष हो; तुम्हीं परा प्रकृति हो । पुराणों तथा श्रुतियों में कहीं भी राधा और माधव में भिन्नता नहीं पायी जाती । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तदनन्तर राधिका को मूर्च्छित देखकर उन उद्धव को पीछे करके और स्वयं राधा के आगे खड़ी हो माधवी गोपी बोली । माधवी ने कहा — कल्याणि ! श्रीकृष्ण तो चोर हैं, उनका कौन-सा उत्तम रूप और वेष है ? उनके सुख और वैभव ही क्या हैं? कोई अनुपम गौरव भी तो नहीं है ? उनका कौन-सा पराक्रम, ऐश्वर्य अथवा दुर्लङ्घ्य शौर्य है ? उनमें कौन-सी सिद्धता एवं प्रसिद्धि है ? तुम्हारे सदृश उनमें कौन-सा उत्तम गुण है ? वे यहाँ कहीं से आ गये और पुन: कहीं चले गये । वे गोपवेषधारी बालक ही तो हैं न? कोई राजपुत्र अथवा विशिष्ट पुरुष थोड़े ही हैं। फिर तुम व्यर्थ उन नन्दनन्दन गोपाल की चिन्ता में क्यों पड़ी हो ? अरे! यत्नपूर्वक तुम अपने आत्मा की रक्षा करो; क्योंकि आत्मा से बढ़कर प्रिय दूसरा कुछ नहीं है । तदनन्तर मालती ने श्रीकृष्ण की निन्दा करते हुए अन्त में राधा से कहा — मूढ़े ! तुम व्यर्थ किसकी चिन्ता में पड़ी हो ? यह अत्यन्त दारुण शोक छोड़ दो और यत्नपूर्वक अपनी रक्षा करो; क्योंकि अपने आत्मा से बढ़कर प्रिय दूसरा कुछ भी नहीं है । इस पर पद्मावती ने, फिर चन्द्रमुखी ने श्रीराधा के कृष्ण प्रेम की प्रशंसा करते हुए कहा — देखो, मेरी सखी ने आहार का त्याग कर दिया है; अतः केवल साँस चलने से ये जीवित प्रतीत होती हैं। इसलिये अब तुम अपने मुख से श्रीकृष्ण की प्रशंसा करो; क्योंकि श्रीकृष्ण के नाम-स्मरण से, उनकी गुणगाथा के श्रवण से और उनके शुभ समाचार के सुनने से इनमें सहसा चेतना लौट आती है । तदनन्तर शशिकला ने कहा — माधवि ! ब्रह्मा आदि देवता तथा चारों वेद जिनके ध्यान में मग्न रहते हैं, जिनके देवताओं द्वारा अभीप्सित चरणकमल का संत लोग सदा ध्यान करते हैं; पद्मा, सरस्वती, दुर्गा, अनन्त, सिद्धेन्द्र, मुनीन्द्र, मनुगण और महेश्वर भी जिन्हें नहीं जान पाते; उन परमात्मा श्रीकृष्ण को तुम क्या जानती हो ? जो सर्वात्मा हैं, उनका कैसा रूप ? और जो निर्गुण हैं, उनके कैसे गुण? सत्यस्वरूप भगवान् के जिस सत्य स्वरूप का वर्णन किया गया है, जो सुखदायक, आह्लादजनक, रमणीय, भक्तानुग्रह- मूर्ति, लीलाधाम और मङ्गलोंका आश्रय स्थान है, जिसकी लावण्यता करोड़ों कामदेवों से बढ़कर है, जिस जनमनोहर रूप से बढ़कर अनिर्वचनीय कोई भी रूप नहीं है; उसी मनोहर रूप को श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के समय धारण करते हैं । मन्दाकिनी का मीठा जल जिनके मधुर पादपद्मों का धोवन है, जिसे परात्पर सर्वेश्वर शंकर भक्तिपूर्वक अपने सिर पर धारण करते हैं, विरक्त होकर सदा उन तीर्थकीर्ति श्रीकृष्ण का कीर्तन करते रहते हैं तथा आहार, भूषण और वस्त्र का परित्याग करके दिगम्बर हो भक्ति के आवेश में क्षणभर में नाचने लगते हैं और क्षणभर में गाने लगते हैं । ब्रह्मा, शेष, सनत्कुमार और योगवेत्ता सिद्धों के समुदाय उनके परम निर्मल शुभ्र ब्रह्मज्योतिः स्वरूप का ध्यान करके तपस्या एवं सेवा द्वारा जीवन-यापन करते हैं; उन श्रीकृष्ण की महिमा कौन जान सकता है ? फिर सुशीला ने श्रीकृष्ण की प्रशंसा करते हुए कहा — सखि ! ब्रह्मा, जो वेदों के उत्पादक एवं ईश्वर हैं; जिन श्रीकृष्ण की स्तोत्र द्वारा स्तुति करते हैं, यह माधवी उन्हीं सत्य नित्य परमेश्वर की निन्दा कर रही है; अतः यह सभा अपावन हो गयी और गोपियों का जीवन तो व्यर्थ ही हो गया । इन गोपियों में केवल राधा ही पुण्यवती हैं; क्योंकि ये रात-दिन उन श्रीकृष्ण का ध्यान करती रहती हैं; जिनके नामस्मरण मात्र से करोड़ों जन्मों में एकत्र किये हुए पाप का भय और शोक पूर्णतया नष्ट हो जाता है। इसमें तनिक भी संशय नहीं है । तदनन्तर रत्नमाला और पारिजाता श्रीकृष्ण की महिमा बखानती हुई बोलीं — प्रिये ! ब्रह्मा ने जिस विश्वब्रह्माण्ड की रचना की है, वह महाविष्णु के रोमकूप में अणु के सदृश स्थित है; क्योंकि उन विष्णु के शरीर में जितने रोएँ हैं, उतने ही विश्व उनमें वर्तमान हैं और वे महाविष्णु इन परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश हैं । तब भला, श्रीकृष्ण के यश, शौर्य और अनुपम महिमा का क्या बखान किया जा सकता है ? अथवा यह गोपकन्या माधवी उसे क्या जान सकती है ? इस पर माधवी ने अपने कथन का तात्पर्य समझाया। उनके उस वचन को सुनकर उद्धव के सारे शरीर में रोमाञ्च हो आया। वे भक्तिविह्वल हो रुदन करते हुए मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। तत्पश्चात् परमेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान करके वे अपने को तुच्छ मानने लगे और भक्तिपूर्वक उस गोपी से बोले । उद्धव ने कहा — सातों द्वीपों में मनोहर जम्बूद्वीप धन्य एवं प्रशंसनीय है। उसमें श्रेष्ठ भारतवर्ष – जो पुण्य और मङ्गलों का दाता है — गोपियों के चरणकमलों की रज से पावन और परम निर्मल होकर और भी धन्यवाद का पात्र हो गया है। इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपिकाएँ सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं; क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्रीराधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती रहती हैं । इन्हीं राधिका के चरणकमलों की रज को प्राप्त करने के लिये ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था। ये पराशक्ति राधा गोलोक में निवास करने वाली और श्रीकृष्ण की प्राणप्रिया हैं । जो-जो श्रीकृष्ण के भक्त हैं, वे राधा भी भक्त हैं । ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की सोलहवीं कला की भी समानता नहीं कर सकते । श्रीकृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप से तो योगिराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियाँ ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमार को कुछ- कुछ ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं । इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया । यहाँ गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। अब मैं मथुरा नहीं जाऊँगा और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूँगा; क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है, वैसी भक्ति दूसरों को नहीं नसीब हुई। तदनन्तर कलावती और तुलसी के द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा कही जाने के बाद कालिका ने कहा — बुद्धिमान् उद्धव ! बाल, युवा और वृद्ध- तीनों प्रकार के मनुष्य तथा जो देवता आदि और सिद्धगण हैं; वे सभी उन परमेश्वर श्रीकृष्ण को जानते हैं। इस समय इन मूर्च्छित हुई राधा को जगाना ही युक्त है; अतः इसके लिये जो प्रधान युक्ति हो उसके द्वारा इन्हें चैतन्य करो । तब उद्धव बोले — कल्याणि ! चेत करो । जगन्मातः ! मेरी ओर ध्यान दो। मैं कृष्णभक्त के किंकर का भी किंकर उद्धव हूँ। माँ! मुझपर कृपा करो। मैं पुनः मथुरा जाऊँगा; क्योंकि मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ; बल्कि कठपुतली की भाँति पराधीन हूँ तथा जैसे बैल सदा हलवाहे के वश में रहता है; उसी तरह मैं श्रीकृष्ण के अधीन हूँ । (अध्याय ९४ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे राधोद्धवसंवाद चतुर्नवतितमोऽध्यायः ॥ ९४ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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