ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 97
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
सत्तानबेवाँ अध्याय
राधा का उद्धव को बिदा करना, बिदा होते समय उद्धव द्वारा राधा-महत्त्व – वर्णन तथा उद्धव के यशोदा के पास चले जाने पर राधा का मूर्च्छित होना

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! उद्धव को जाने के लिये उद्यत देखकर श्रीहरि की प्रिया महासती राधिका गोपियों सहित तुरंत ही संत्रस्त एवं समुद्विग्न हो उठीं। उनका हृदय दुःख से भर आया। तब उन्होंने शीघ्र ही आसन से उठकर उद्धव के मस्तक पर हाथ रखा और उन्हें शुभाशीर्वाद दिया । फिर कोमल दूर्वाङ्कुर, अक्षत, श्वेत धान्य, पुष्प, मङ्गल-द्रव्य, लाजा, फल, पत्ता तथा दधि लाने की आज्ञा दी। तत्पश्चात् गन्ध, सिन्दूर, कस्तूरी और चन्दन से युक्त तथा फल -पल्लव से सुशोभित जलपूर्ण कलश, दर्पण, पुष्पमाला, जलता हुआ दीपक, लाल चन्दन, पति-पुत्रवती साध्वी स्त्री, सुवर्ण और चाँदी के दर्शन कराये । तदनन्तर दुःखी हृदय वाली महासाध्वी राधिका नेत्रों में आँसू भरकर चरणों में पड़े हुए उद्धव से हितकारक, सत्य, गोपनीय, मङ्गल – वचन बोलीं ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

राधिका ने कहा — वत्स ! तुम्हारा मार्ग मङ्गलमय हो; तुम्हें सदा कल्याणकी प्राप्ति होती रहे; ; तुम श्रीहरिसे ज्ञान – लाभ करो और श्रीकृष्णके परम प्रिय हो जाओ। श्रीकृष्णकी भक्ति और उनकी दासता सभी वरदानोंमें उत्तम वरदान है; क्योंकि हरिभक्ति (सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सारूप्य और एकत्व – इन) पाँच प्रकारकी मुक्तियोंसे भी श्रेष्ठ एवं महत्त्वपूर्ण है तथा श्रीहरिकी दासता ब्रह्मत्व, देवत्व, इन्द्रत्व, अमरत्व, अमृत और सिद्धिलाभसे भी बढ़कर परम दुर्लभ है। अनेक जन्मोंकी तपस्याके फलस्वरूप भारतवर्षमें जन्म लेकर यदि हरिभक्तिकी प्राप्ति हो जाय तो उसका वह जन्म परम दुर्लभ है। कर्मका क्षय करनेवाले उस व्यक्तिका तथा उसके सहस्रों पितरों, माता, मातामहों, सैकड़ों पूर्वजों, सहोदर भाई, बान्धव, पत्नी, गुरुजन, शिष्य और भृत्यका भी जीवन निश्चय ही सफल हो जाता है ।

कृष्णभक्तिः कृष्णदास्यं दलेषु च वरं वरम् ।
श्रेष्ठा पञ्चविधा मुक्तेर्हरिभक्तिर्गरीयसी ॥ ८ ॥
ब्रह्मत्वादपि देवत्वादिन्द्रत्वादमरादपि ।
अमृतात्सिद्धिलाभाच्च हरिदास्यं सुदुर्लभम् ॥ ९ ॥
अनेकनन्मतपसा संभूय भारते द्विजः ।
हरिभक्तिं यदि लभेत्तस्य जन्म सुदुर्लभम् ॥ १० ॥
सफलं जीवनं तस्य कुर्वतः कर्मणः क्षयम् ।
पितॄणां च सहस्राणि स्वस्य मातुश्च निश्चितम् ॥ ११ ॥
मातामहानां पुंसां च शतानां सोदरस्य च ।
बान्धवस्यापि पत्न्याश्च गुरूणां शिष्यभृत्ययोः ॥ १२ ॥

वत्स ! जो कर्म श्रीकृष्ण को समर्पण कर दिया जाय; वही उत्तम कर्म है। जिस कर्म से श्रीकृष्ण को संतुष्ट किया जा सके; वही कर्म शुद्ध एवं शोभन है । संकल्प को सिद्ध करने वाला जो कर्म प्रीति एवं विधिपूर्वक किया जाता है; वही मङ्गलकारक, धन्य और परिणाम में सुखदायक होता है। श्रीकृष्ण के उद्देश्य से किया हुआ व्रत, उपवास, तपस्या, सत्यभाषण, भक्ति तथा पूजन, केवल उनकी दासता-प्राप्ति का कारण होता है । समस्त पृथ्वी का दान, भूमि की प्रदक्षिणा, समस्त तीर्थों में स्नान, समस्त व्रत, तप, समस्त यज्ञों का अनुष्ठान, सम्पूर्ण दानों का फल, समस्त वेद-वेदाङ्गों का पठन-पाठन, भयभीत का रक्षण, परम दुर्लभ ज्ञान-दान, अतिथियों का पूजन, शरणागत की रक्षा, सम्पूर्ण देवताओं का अर्चन – वन्दन, मनोजय, पुरश्चरणपूर्वक ब्राह्मणों और देवताओं को भोजन देना, गुरु की शुश्रूषा करना, माता-पिता की भक्ति और उनका पालन-पोषण — ये सभी श्रीकृष्ण की दासता की सोलहवीं कला की भी समता नहीं कर सकते।

इसलिये उद्धव ! तुम यत्नपूर्वक उन परात्पर श्रीकृष्ण का भजन करो। वे निर्गुण, इच्छारहित, परमात्मा, ईश्वर, अविनाशी, सत्य, परब्रह्म, प्रकृति से परे, परमेश्वर, परिपूर्णतम, शुद्ध, भक्तानुग्रहमूर्ति, कर्मियों के कर्मों के साक्षी, निर्लिप्स, ज्योतिःस्वरूप, कारणों के भी परम कारण, सर्वस्वरूप, सर्वेश्वर, सम्पूर्ण सम्पत्तियों के दाता, शुभदायक, अपने भक्तों को भक्ति, दास्य और अपनी सम्पत्ति प्रदान करनेवाले हैं; अतः अशुभकारक मात्सर्य तथा ज्ञाति-बुद्धि को छोड़कर आनन्दपूर्वक उन परमानन्दस्वरूप नन्दनन्दन का भजन करो। वेद की कौथुम – शाखा में उनका सहस्रनाम नन्दनन्दन नाम से वर्णित है ।

नारद ! यह सब सुनकर उद्धव परम विस्मित हुए और उस सम्पूर्ण ज्ञान को पाकर ज्ञान से परिपूर्ण हो गये । तत्पश्चात् उन्होंने अपने वस्त्र को गले में लपेट लिया और दण्ड की भाँति भूतल पर लेटकर मस्तक के बालों से राधिका के चरण का स्पर्श करते हुए वे बारंबार उन्हें प्रणाम करने लगे। उस समय भक्ति के कारण उनके सारे शरीर में रोमाञ्च हो आया था और नेत्रों में आँसू छलक आये थे । वे प्रेमवश तथा राधा के वियोगजन्य शोक से व्यथित होकर उच्चस्वर से रुदन करने लगे। तब उद्धव के प्रति प्रेम होने के कारण राधा और गोपियाँ भी रोने लगीं। फिर उन्होंने उद्धव का गला पकड़कर बैठाया; परंतु उद्धव की चेतना लुप्त हो गयी थी; अतः वे जँभाई लेते हुए मूर्च्छित हो गये। उनकी यह दशा देखकर राधिका ने शीघ्र ही उन कृष्णगतप्राण उद्धव को उठाकर बैठाया और उनके मुखकमल पर जल के छींटे देकर उन्हें चैतन्य कराया।

नारद ! तत्पश्चात् उन्होंने ‘वत्स ! चिरञ्जीव’ – यों शुभाशीर्वाद दिया। तब उद्धव होश में आकर उस उत्तम सभा के मध्य रोती हुई गोपियों के सामने राधा से परमार्थप्रद वचन बोले ।

उद्धव ने कहा — परम दुर्लभ जम्बूद्वीप सभी द्वीपों में धन्य और प्रशंसनीय है; क्योंकि उसमें श्रेष्ठ भारतवर्ष है, जिसकी सभी लोग कामना करते हैं । अहो ! उस भारतवर्ष में वृन्दावन नामक पुण्यवन है; जो श्रीराधा के चरणकमल के स्पर्श से गिरी हुई रज से पावन है और जिसके लिये देवगण भी लालायित रहते हैं । तीर्थपावनी राधा के चरणकमल की रज से पावन हुई वहाँ की भूमि तीनों लोकों में धन्य, मान्य, श्रेष्ठ और पूजनीय मानी जाती है । पूर्वकाल में ब्रह्मा ने गोलोक में राधिका और श्रीकृष्ण के दर्शन की लालसा से पुष्करक्षेत्र में वेदोक्त विधि के अनुसार भक्तिपूर्वक साठ हजार दिव्य वर्षों तक तप किया; परंतु उस समय स्वप्न में भी उन्हें गोलोक में राधिका और श्रीकृष्ण के दर्शन नहीं प्राप्त हुए । तदनन्तर उन्हें लीलापूर्वक सत्यरूपा आकाशवाणी सुनायी पड़ी, जो इस प्रकार थी — ‘ब्रह्मन् ! वाराहकल्प के आने पर भारतवर्ष में पुण्य वृन्दावन के मध्य जब परम रमणीय रासोत्सव प्रारम्भ होगा, तब वहीं रासमण्डल में देवताओं के बीच बैठे हुए तुम्हें राधिका और श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे; इसमें संदेह नहीं है ।’

उस आकाशवाणी को सुनकर ब्रह्मा तपस्या से विरत हो अपने लोक को लौट गये । समय आने पर उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शन प्राप्त हुए, जिससे उनका हृदय प्रसन्न और चिरकालीन मनोरथ परिपूर्ण हो गया। अतः इन गोपों और गोपिकाओं का जन्म एवं जीवन सफल हो गया; क्योंकि ये नित्य श्रीराधा के चरणकमल को — जो ब्रह्मा आदि देवताओं के लिये दुर्लभ है – देखती रहती हैं। योगीन्द्र, मुनीन्द्र, सिद्धेन्द्र तथा वैष्णव संत सती राधिका की – जो मानिनी, पुण्यमयी, तीर्थों को पावन बनाने वाली स्वतः शुद्ध और अत्यन्त दुर्लभ हैं – नित्य निरन्तर सेवा करते रहते हैं । जिससे उनको राधा का वह चरणकमल सुलभ हो जाता है, जिसका मिलना ब्रह्मा आदि देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन है। सर्वेश्वरेश्वर परमात्मा श्रीकृष्ण ने जिनके चरणकमलों के नखों को महावर से सुशोभित किया था; गोलोक में स्थित शतशृङ्ग पर्वत पर रासमण्डल में स्वयं श्रीकृष्ण ने सुदुर्लभ स्तोत्रराज द्वारा जिनकी पूजा की थी तथा जिनके चरणकमलों में कोमल दूर्वाङ्कुर, अक्षत, गन्ध और चन्दन निवेदित करके पारिजात – पुष्पों की पुष्पाञ्जलि समर्पित की थी; जो छत्तीस सखियों की स्वामिनी और तीस हजार करोड़ गोपियों की अधीश्वरी हैं; जिनका राधिका नाम है, जो श्रीकृष्ण की प्राणप्रिया और देवताओं की भी पूजनीया हैं; उन सर्वश्रेष्ठ राधिका से जो पापी द्वेष करते हैं अथवा उनकी निन्दा और हँसी उड़ाते हैं, उन्हें सौ ब्रह्महत्या का पाप लगता है; इसमें तनिक भी संशय नहीं है। उस पाप के फलस्वरूप वे तप्त तैल, महाभयंकर अन्धकार, कीट और पीड़ा – यन्त्रों से युक्त कुम्भीपाक और रौरव नरक में अपनी सात पीढ़ियों के साथ चौदह इन्द्रों की आयुपर्यन्त यातना भोगते हैं। तत्पश्चात् लोकजन्मानुसार वे एक जन्म में उस पाप के कारण एक सहस्र दिव्य वर्षों तक विष्ठा के कीट होकर उत्पन्न होते हैं। इसके बाद उतने ही वर्षों तक कुलटाओं की योनि के रक्त और मल को खाने वाले योनि – कीट तथा मवाद चाटने वाले मलकीट होते हैं।

यों कहकर जब उद्धव रोने लगे और जाने के लिये उद्यत हुए, तब उनसे श्रीकृष्ण के वियोग से कातर हुई राधिका आँसू बहाती हुई पुनः बोलीं ।

श्रीराधिकाजी ने कहा — वत्स ! अब तुम मथुरापुरी को जाओ और यह सब माधव को बतलाओ । बेटा! मैं जिस प्रकार गोविन्द के शीघ्र दर्शन कर सकूँ, तुम्हें प्रयत्नपूर्वक वैसा ही करना चाहिये। अच्छा अब जाओ, मेरा जन्म तो मिथ्या दुराशा से निष्फल ही बीत गया; क्योंकि आशा ही परम दुःख है और निराशा परम सुख है ।

तत्पश्चात् गोविन्द का ध्यान करके राधिका जीवन्मुक्त हो गयीं । तदनन्तर राधिका पुनः वहाँ ढाह मारकर रोने लगीं। तब रोती हुई राधा को प्रणाम करके उद्धव यशोदा के भवन की ओर चले गये । नारद! उद्धव के चले जाने पर राधा मूर्च्छित हो गयीं। उनकी चेतना लुप्त हो गयी और वे निरन्तर ध्यान में तत्पर हो गयीं । मुने! तब श्रेष्ठ गोपियों ने कमल-सदृश नेत्रों में आँसू भरकर राधिका को गीली भूमि पर बिछे हुए जलयुक्त कमलदल की शय्या पर लिटाया; परंतु राधा के गात्रस्पर्शमात्र से ही वह शय्या भस्म हो गयी। तब सखियों ने विरह – ताप से संतप्त हुई राधा को पुनः एक ऐसे कोमल स्थान पर सुलाया, जिस पर मुलायम चद्दर बिछी हुई थी और चन्दनमिश्रित जल का छिड़काव किया गया था; परंतु वह सुगन्धित चन्दनयुक्त जल भी सहसा सूख गया। उस समय उद्धव के बिना राधा को एक निमेष सौ युग के समान प्रतीत होने लगा।

वे कहने लगीं — ‘ हा उद्भव ! हा उद्धव ! तुम जल्दी जाकर श्रीहरि को मेरी दशा बतलाओ और जो मेरे प्राणेश्वर हैं उन श्रीहरि को शीघ्र यहाँ ले आओ।’

तब संताप के कारण जिनकी चेतना नष्ट हो गयी थी; उन राधा को ऐसे दीन वचन कहते देखकर सभी गोपियाँ उन्हें अपनी छाती से लगाकर रुदन करने लगीं; फिर राधा को होश में लाकर उन्हें ढाढ़स बँधाने लगीं।   (अध्याय ९७ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद राधोद्धवसंवाद सप्तनवतितमोऽध्यायः ॥ ९७ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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