ब्रह्म-गीता
।।चौपाई।।
सर्वात्मा रुप जो जाना। है सोई ब्रह्म-देव कर ध्याना।।
बाहर भीतर पूरण देखै। सोइ आवाहन तासु विशेषै।।
सर्वाधार जानिवो जोई। ब्रह्म-देव हित आसन सोई।।
स्वच्छ जानिबो अर्ध अनूपा। जानै शुद्ध आचमन-रुपा।।
निर्मल जानब सोइ अस्नाना। चिश्वात्मा वसन परिधाना।।
है निर्गन्ध सुगन्ध सुहाई। निर्वासना सुमन सुख-दाई।।
निर्गुण जानब धूप समीपा। स्वयं प्रकाश-मान सोइ दीपा।।
तृप्त सदा नैवेद्य प्रमाना। गुनि निःसौख्य चढ़ावै पाना।।
जानि अनन्त प्रदक्षिण सोई। है अद्वैत सो अस्तुति होई।।
भीतर-बाहर पूरण जाना। इहै विसर्जन जानु सुजाना।।
इहै सदा सुधि राखै जोई। ब्रह्म-देव नित पूजत सोई।।
।।दोहा।।
देह-बुद्धि से दास हौं, जीव-बुद्धि से अंस।
आत्म-बुद्धि से एक हौं, यह मम मत निःशंस।।
ऊँच-नीच बड़ छोट तन, जाति जीव अभिमान।
सर्व भेद भ्रम-मात्र तजि, ब्रह्म-देव सत जान।।
सर्व अहं की सर्वत्वं, यह तुरिया अहंकार।
शान्त शुद्ध हँ त्वं रहित, तुरियातीत विचार।।
तेहि मा थित ह्वै कै सदा, बिचरहु जीवन्मुक्त।
अस कहि अन्त-रहित भए, ब्रह्म-शक्ति संयुक्त।।

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