भक्त अल्लूदासजी (कविया)
भक्तकवि अल्लूदास कविया-शाखा के चारण थे । इनका जन्म वि. स. १५६० में हेमराज कविया के घर मारवाड के सिणली ग्राम में हुआ था । अल्लूदास की परमात्म-भक्ति और काव्य से प्रभावित होकर आमेर-नरेश पृथ्वीराज कछवाह के पुत्र रूपसिंह ने इन्हें कुचामन के समीप जसराणा नामक ग्राम प्रदान किया था । इसके बाद ये जसराणा में ही रहने लगे ।vadicjagat
अल्लूदास ने यद्यपि किसी प्रबन्ध-काव्य का प्रणयन नहीं किया परन्तु इनके लिखे भक्तिगीत और षट्‌पदियाँ इन्हें उच्चकोटि का कवि सिद्ध करने में सक्षम है । जन-जीवन में सिद्ध-अल्लूदास के सम्बन्ध में अनेक चमत्कारिक कथाएँ प्रचलित हैं । कहा जाता है कि बलख के सुलतान ने वैरागी बनकर राज-वैभव का परित्याग कर दिया था । वे घूमते-घामते हिन्दुस्तान आए । इस घटना के सम्बन्ध में यह दोहा प्रसिद्ध है-
सोलह सहस सहेलियाँ, तुरी अठारह लक्ख ।
तेरे कारण साँवरा छोड़ा सहर बलक्ख ।।

बलख के सन्यासी सुलतान की भेंट अल्लूदास कविया से हुई थी । इनके द्वारा प्रणीत गीतों और निसाणियों में इस घटना का संकेत मिलता है । सुलतान के गुरु ने उनके गले में मिट्टी की कच्ची हँडिया बाँधकर कहा था कि जिस दिन आत्मज्ञान की गर्मी से हँडिया पक जाएगी, तुम पूर्ण योगी बन जाओगे । गले में हँडिया रखने के कारण सुलतान ‘हाँडी भड़ंग’ के नाम से प्रसिद्ध हुए । शेखावाटी के प्रसिद्ध जीणमाता के पहाडों में ‘हाँडी-भड़ंग’ की गुफा विद्यमान है । वहां रहने वाले योगी के पास उपलब्ध हस्तलिखित ग्रंथों में भी ‘हाँड़ी भड़ं‌ग’ को सिद्ध महात्मा बतलाया गया है ।
अल्लूदास के सम्बन्ध में अनेक भक्त कवियों ने उद्गार व्यक्त किए हैं । प्रसिद्ध भक्त कवि नाभादास ने ‘भक्तमाल’ में अल्लूदास और उनके पूर्वज कोल्ह का विवरण देते हुए इन्हें चौरासी रूपकों की रचनाओं में निष्णात चारण भक्त कवि बताया है-
चौमुख चौरा चंड जगत ईश्वर गुन जाने ।
कारमानंद और कोल्ह अलू अक्षर परवाने ।।
माथे मथुरा मध्य साधु जीवानन्द सीवा ।
उदा नारायणदास नाम मांडन तन ग्रीवा ।।
चौरासी रूपक चतुर चवत बानी जूजुवा ।
चरन सरन चारन भगत हरि गायक एता हुआ ।।

बीकानेर के कवि भैरवदान ने ‘राजवंश-प्रकास’ में इनकी योग-साधना तथा हरि-भक्ति के सम्बन्ध में लिखा है-
अलू कविया हुव जोग निधान । लख्यो घट्चक्रन को जिन ज्ञान ।
किये तित जोग के आठहूँ अंग । कियो हरि ते हिय हेत अभंग ।।

अल्लूदास की भक्ति-सम्बन्धी रचनाएँ डिंगल-काव्य में बेजोड़ मानी जाती हैं । अपरिमित ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और गहनानुभूति के रस में सने इनके कवित्त पाठकों के हृदय पर स्थायी प्रभाव डालते हैं । पौराणिक आख्यानों और नवीन प्रतीकों के प्रभावोत्पादक सम्मिश्रण ने अल्लूदास के भक्ति-भाव-पूर्ण कवित्तों को जन-जन का कण्ठहार बना दिया है ।
भगवान श्रीकृष्ण के अलौकिक कृत्यों तथा उनकी भक्ति की महिमा का बखान इन्होंने बडी ही ओजपूर्ण भाषा में किया है । एक उदाहरण देखिए –
गोप नार चित हरण प्रेम लच्छणा समप्पण ।
कुंज बिहारी करण रास बृन्दावन रच्चण ।।
गोवरधन उधरण ग्राह मारण गज तारण ।
जरासिंध सिसपाल भिड़े भू-भार उतारण ।।
जमलोक दरस्सण परहरण भो भग्गो जीवण मरण ।
ओ मंत्र भलो निस दिन अलू सिमर नाथ असरण सरण ।।

इनकी मान्यता है कि जप, तप, अष्टांग योग-साधना, तीर्थ और व्रत करने वाले – भक्ति से अधिक श्रेष्ठ वह व्यक्ति है जिसके मुख से कुंजबिहारी कृष्ण का नाम निरन्तर निकलता रहता है –
औ हिज जप और तप्प ओ हिज सन्यास स जांणौ ।
अनल और हिज अष्टांग जोग मारण औ जाणौ ।।
औ तीरथ औ तप्प, व्रत औ हीज बिचारै ।
कुंज बिहारी किसण्र चरण पंकज चीतारै ।।
इम करै सुभव दुस्तर तरै, एकोतर कुल उद्धरै ।
उर कंठ जीह हूँता अलू बिसन नाम मत बीसरै ।।

अल्लूदास का निधन वि॰ सं॰ १६१९ के पश्चात् हुआ था । इन्होंने मारवाड़-नरेश गालदेव के कार्तिक सुदि द्वितीया वि॰ सं॰ १६१९ में देहावसान पर शोक-गीत लिखे थे । उनसे इनका दीर्घायु होना सिद्ध होता है 1
जसराणा में, भक्त अल्लूदास की समाधि बनी हुई है, जहाँ इनकी पाँवडियों की पूजा की जाती है । इसी प्रकार कुचामन में पहाड़ी दुर्ग में सुरक्षित सिद्ध अल्लूदास का लोहे का चिमटा और धूनी, उनके उच्चकोटि के साधक होने की परिचायक है ।
कवि अल्लूदास की रची श्रीकृष्ण और श्रीराम की षट्‌पदियाँ राजस्थानी जन-जीवन में बहुत प्रसिद्ध हैं । आज भी राजस्थान मे भक्त लोग आराधना के समय अल्लूदास की रचनाओं का पाठ करते है । डिंगल के कवि प्रभुदान मिश्रण ने हरिनाम-महिमा का दिग्दर्शन कराने वाले कवियों में अल्लूदास के महत्व को स्वीकार करते हुए लिखा है –
हरि सुमरण रै हेत, वीण तंबरु बजाई ।
हरि सुमरण रै हेत, कन्ह कहै कवित्त कताई ।।
हरि सुमरण रै हेत, गीत करमाणंद गाया ।
हरि सुमरण रै हेत, सहस कवि जोति समाया ।।
हरि भगति रै हेत ईसर, अलु, विसन चरण गाई बॉनियाँ ।
जिण खाल माँहिं पायौ जलम पढि रै हरि प्रभुदानियाँ ।।

उत्तम कोटि के कवि होने के साथ-साथ ये श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त भी थे । उस भक्ति का ही परिणाम था कि ये बडे-बडे राजाओं की भी परवाह नहीं करते थे । एक बार ईडर प्रदेश के राजा वीरमदेव ने इन्हें पूर्णिमा की सन्ध्या को लाख पसाव (एक लाख रूपए वार्षिक आमदनी वाली जायदाद) देना चाहा, लेकिन अल्लूजी ने इस दान को यह कहकर लेने से इन्कार कर दिया कि संध्या के समय वे दान नहीं लेंगे । ईडर-नरेश के अधिक आग्रह करने पर इन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि संध्या समय एक ही नहीं दो लाख पसाव दें तो भी स्वीकार्य नहीं होंगे । ऐसे स्वाभिमानी थे अल्लूजी । अन्ततः इन्हीं अल्लूजी ने ईडर-नरेश वीरमदेव की रक्षा की । यह सब अल्लूजी की भक्ति का ही चमत्कार था । कृष्ण-भक्ति से सम्बद्ध इनके स्फुट कवित्त (छप्पय) उपलब्ध होते हैं । कवित्तों की भाषा डिंगल (राजस्थानी) है –
सोही वाण सुवाण भजै हरिनाम निरन्तर ।
सोही माँण सुमाँण भरै भलपण हुँत जाठर ।।
सोही लाज सुलाज, त्रिया पर मेलय तज्जै ।
सोही सूर सामंत, भिड़ै आराण जहँ भज्जै ।।
दिल धरम सोही पालै दया न्याव सोही पच्छि न करै ।
हरिनाम जीह जपतौ रहे सो सपूत कुल ऊघरै ।।

इनका रचनाकाल सं॰ 1820 के लगभग माना जा सकता है । इनका रचा हुआ कोई भी ग्रन्थ लिखा ही न हो, फिर भी इनके कुछ फुटकर छप्पय एवं गीत मिलते हैं । छप्पयों की सख्या १७० है ।
‘भक्तमाल’ में नाभादासजी ने भी इनका उल्लेख किया है । इनकी भक्ति-भावनास्वरूपव्यंजक एक पद यहाँ प्रस्तुत है –
जेथ नदी जळ बहळ, तेथ थळ विलळ उलट्टै ।
तिमिर घोर अंधार तेथ रवकरण प्रकट्टै ।।
राव करीजे रंक, रंक सिर छत्र धरीजै ।
‘अलू’ तास बिसवास आस कीजै सुमरीजै ।।
चख लिए अंध पंगुर चलण मुनि सिद्धायत वयण ।
तो करत कहा न हुवै नारायण पंकज नयण ।।

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