भक्त गोस्वामी रघुनाथदास

श्रीरघुनाथदास का जन्म आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्वबंगाल में तीस बीघा के पास पहले एक सप्‍तग्राम नामक महासमृद्धि शाली प्रसिद्ध नगर था। इस नगर में हिरण्‍यदास और गोवर्धनदास- ये दो प्रसिद्ध धनी महाजन रहते थे। दोनों भाई-भाई ही थे। ये लोग गौड़ के तत्‍कालीन अधिपति सैयद हुसैनशाह का ठेके पर लगान वसूल किया करते थे और ऐसा करने में बारह लाख रुपया सरकारी लगान भर देने के बाद आठ लाख रुपया इनके पास बच जाता था। आठ लाख वार्षिक आय कम नहीं होती और वह भी उन दिनों ! खैर, कहने का मतलब यह कि ऐसे सम्‍पन्न घर में रघुनाथदास का जन्‍म हुआ था। हिरण्‍यदास सन्‍तानहीन थे और गोवर्धनदास के भी रघुनाथदास को छोड़कर और कोई सन्‍तान न थी। इस तरह दोनों भाइयों की आशा के स्‍थल एकमात्र यही थे। खायें तो थोड़ा, पीयें तो थोड़ा और उड़ायें तो थोड़ा- इस तरह बड़े लाड़-दुलार के साथ बालक रघुनाथदास का लालन-पालन हुआ। अच्‍छे-से-अच्‍छे विद्वान पढ़ाने को रखे गये।

इनके कुलपुरोहित थे श्रीबलराम आचार्य और रघुनाथदास ने उन्हीं से विद्या पढ़ी थी । एक समय श्रीचैतन्य महाप्रभु के अनन्यभक्त श्रीहरिदास बलरामजी के घर आकर ठहरे थे । रघुनाथदास उस समय वहीं थे । श्रीहरिदासजी के मुख से वहाँ उन्होंने पहले-पहले श्रीचैतन्यमहाप्रभु की महिमा सुनी और श्रीहरिदास को कीर्तन करते हुए प्रेममग्न देखा, तभी से इनके मन में भगवान् की ओर लगन लग गयी । इन्हें संसार के भोग बुरे मालूम होने लगे और भगवान् के विशुद्ध प्रेममार्ग में पहुँचने के लिये इनके मन में महाप्रभु चैतन्य के दर्शन की प्रबल लालसा जाग उठी ।

रघुनाथदास अब युवावस्था को प्राप्त हो गये । अतुल ऐश्वर्य के एकमात्र उत्तराधिकारी थे ये, पर जिनके सामने भगवत्कृपा से भोगों का असली स्वरूप प्रकट हो जाता है, जो भोगों की विषमता को जान लेते हैं और भगवान् के मधुरतम अनन्त सौन्दर्य-माधुर्य की कल्पना जिनके मन में परम विश्वास के साथ जम जाती है, उन्हें ये भोग-बहुल घर-द्वार कैसे अच्छे लग सकते हैं ? उनका मन कैसे इनमें रम सकता है । भगवान् ने गीता में कहा है —

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः
  (२ । २२)

‘इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होनेवाले ये जो भोग हैं, वस्तुत: दु:ख की उत्पत्ति के स्थान और आदि-अन्तवाले हैं, अतएव अर्जुन ! बुद्धिमान् पुरुष इनमें रमण नहीं करता ।’

रघुनाथदास के मन में भोगों की परिणाम-दु:खमयता तथा असारता का प्रत्यक्ष हो रहा था, इससे उनका जीवन सर्वथा विरक्त-सा रहने लगा । विषयी की दृष्टि में जो आनन्द की वस्तु है, वही विषय-विरागी की दृष्टि में भयानक और त्याज्य होती है । यही दशा श्रीरघुनाथदास की थी । पिता गोवर्धनदास ने पुत्र की ऐसी मनोदशा देखकर एक अत्यन्त सुन्दरी रूप-लावण्यमयी कन्या के साथ उनका विवाह कर दिया । शील-संकोचवश तथा अन्यमनस्क रघुनाथ ने विरोध नहीं किया ।

कुछ समय बाद रघुनाथको पता लगा कि महाप्रभु श्रीचैतन्य शान्तिपुर में श्रीअद्वैताचार्य के घर पधारे हुए हैं । यह सुनते ही रघुनाथदास शान्तिपुर गये । गोवर्धनदास ने पुत्र की देख-रेख तथा उसे वापस लौटा लाने के लिये विश्वासी पुरुषों को साथ भेजा । रघुनाथदास महाप्रभु के चरणों में उपस्थित हुए । महाप्रभु ने उनसे बातचीत की । अभी वैराग्य में कुछ कचाई मालूम दी, इसलिये बड़े स्नेह से महाप्रभु ने रघुनाथ से कहा —

यों मत पागल बनो, चित्त स्थिर कर जाओ घर ।
क्रम-क्रम से ही तरता है मानव भवसागर ॥
उचित नहीं करना मर्कट-वैराग्य दिखाकर ।
अनासक्त हो, भोगो युक्त विषय तुम जाकर ॥
भीतर से निष्ठा करो, बाहर जग व्यवहार ।
तुरत तुम्हारा करेंगे, कृष्ण चरम उद्धार ॥

‘भैया! यों पागलपन मत करो, मन स्थिर करके घर जाओ, मनुष्य क्रम-क्रम से ही योग्यता प्राप्त करके भवसागर से पार हुआ करता है । लोगों को दिखाकर मर्कट-वैराग्य नहीं करना चाहिये । अभी तुम घर लौटकर भोगों की आसक्ति छोड़कर उचित भोगों का भोग करो । अन्दर भगवान् में निष्ठा रखो, बाहर से यथायोग्य जगत् का व्यवहार करो, श्रीकृष्ण तुम्हारा शीघ्र ही उद्धार करेंगे ।’

रघुनाथ घर लौट आये और महाप्रभु के आज्ञानुसार अनासक्त होकर जगत् का कार्य करते हुए अपने को योग्य बनाने लगे । कुछ वर्षों बाद पानीहाटी में श्रीनित्यानन्द प्रभु का उत्सव चल रहा था । रघुनाथ ने पानीहाटी आकर उनके दर्शन किये और श्रीचैतन्य-चरणों की प्राप्ति के लिये उनका आशीर्वाद प्राप्त किया ।

रघुनाथ फिर घर लौट आये, पर उनके मन में व्याकुलता बढ़ती गयी । वे नीलाचल (पुरी) जाकर महाप्रभु के चरण प्राप्त करने के लिये अत्यन्त आतुर हो उठे । हृदय में भयानक व्याकुलता और आँखों से निरन्तर बहती हुई सलिलधारा — यही उनका जीवन बन गया । भगवान् जिसको अपने पास बुलाना चाहते हैं, उसके जीवन में स्वाभाविक ही यह स्थिति आ जाती है । वह फिर सहन नहीं कर सकता — क्षणभर का विलम्ब । अनन्य और तीव्रतम लालसा उसको केवल भगवान् की ओर खींच ले जाती है । उसे अपने-आप पथ प्राप्त हो जाता है ।

पिता ने रघुनाथ का सारा भार सौंप दिया था श्रीयदुनन्दन आचार्य को । अतः रघुनाथदास एक दिन रात्रि के समय अपने आचार्यजी के पास गये और उनसे महाप्रभु के पास जाने की आज्ञा माँगी । गुरुदेव ने पता नहीं क्यों, यन्त्रचालित कठपुतली की भाँति कह दिया — “हाँ, जा सकते हो ।’ बस, फिर क्या था, रघुनाथ उसी क्षण चल दिये । अतुल ऐश्वर्य, अप्सरा के समान रूपवती पत्नी, जन्मदाता पिता कोई भी उनको नहीं रोक सके ।

पीछे से लोग आकर कहीं रास्ते में पकड़ न लें, इसलिये रघुनाथदास सीधा रास्ता छोड़कर गुप्त मार्ग से चले । कहीं घना बीहड़ जंगल, कहीं काँटे-कंकड़ से भरी पगडण्डी, कहीं भयानक सिंह-बाघों की गर्जना, न खाना न पीना, अनजान रास्ता—किसी का कुछ भी ध्यान नहीं है । चले जा रहे हैं नींद-भूख भूलकर । लगातार बारह दिन बीहड़ पथ से पैदल चलकर रघुनाथदास नीलाचल पहुँचे और वहाँ श्रीकाशी मिश्र के घर जाकर महाप्रभु के चरण-दर्शन कर सके । महाप्रभु वहाँ भावुक मण्डली से घिरे थे । महाप्रभु के श्रीचरणों में लकुटी की तरह पड़कर भावाविष्ट रघुनाथ ने कहा — ‘प्रभो ! मैं श्रीकृष्ण को नहीं जानता, इतना ही जानता हूँ कि आपकी कृपा ने ही मुझे जाल से निकाला है ।’ महाप्रभु के दर्शन का आनन्दरस उमड़कर रघुनाथ के नेत्रों से पवित्र अश्रुधारा के रूप में बह चला । उनका शरीर अचेतन होकर प्रभु के चरणों में गिर पड़ा । महाप्रभु के परिकर श्रीकृष्णनाम-कीर्तन करने लगे, तब कुछ देर बाद रघुनाथदास को चेत हो आया ।

महाप्रभु ने उन्हें उठाकर जोरों से हृदय से चिपटा लिया और श्रीस्वरूप गोस्वामीजी से कहा — ‘स्वरूप ! मैं रघुनाथ को तुम्हारे हाथों में सौंप रहा हूँ ।’ रघुनाथ की वैराग्यमूर्ति देखकर महाप्रभु बड़े प्रसन्न हुए, उन्होंने कहा — ‘भजन का असली आनन्द संयम और वैराग्य के द्वारा ही प्राप्त होता है और संयमी तथा सच्चे विरक्त भक्तों को ही श्रीकृष्ण की प्राप्ति होती है —

इत उत जो धावत फिरै रसना-रस बस होय ।
पावे नहिं श्रीकृष्ण कौं सिस्नोदर-पर सोय ॥

तदनन्तर श्रीचैतन्य महाप्रभु ने श्रीरघुनाथदास को पाँच उपदेश दिये —
(१) (भगवच्चर्चा के सिवा) लोकचर्चा, ग्राम्य-कथा न कभी सुनना और न कभी करना ।
(२) बढ़िया चीजें न खाना और बढ़िया कपड़े न पहनना ।
(३) स्वयं मानरहित होकर सबको मान देना ।
(४) सदा श्रीकृष्णनाम का जप करना । और
(५) मानस-व्रज में श्रीराधाकृष्ण की सेवा करना ।

कभी सुनो मत लोकवार्ता कभी करो मत जान असार ।
कभी न बढ़िया खाओ बढ़िया पहनो, तजो साज-श्रृंगार ॥
स्वयं अमानी मानद होकर कृष्णनाम-जप-गान करो ।
मानस व्रज में लाल-लाड़िली का नित पूजन-ध्यान करो ॥

पाँचों ही उपदेश प्रत्येक सच्चे भक्ति-साधक के लिये आदर्श हैं । नहीं तो मनुष्य परनिन्दा-परापवाद, खाने-पहनने के पदार्थों की आसक्ति, प्राणी-पदार्थ-परिस्थिति के अभिमान, व्यर्थ वार्तालाप तथा असार दु:खमय जगत् के चिन्तन में लगकर भक्तिसाधना से सर्वथा गिर जाता है ।

उधर रघुनाथदास के पिता गोवर्द्धनदास को जब पता लगा, तब उन्होंने कुछ धन तथा आदमी नीलाचल भेज दिये । रघुनाथ की इच्छा हुई महाप्रभु को महीने में दो बार बुलाकर भोजन कराया जाय । इस उद्देश्य से वे पिता के भेजे हुए धन में से कुछ लेकर उसे महाप्रभु की सेवामें लगाने लगे । परंतु कुछ ही समय में रघुनाथ इस बात को जान गये कि महाप्रभु उनके संकोच से सेवा स्वीकार करते हैं; परंतु उनके मन में इससे प्रसन्नता नहीं है — तब उन्होंने विचार किया कि ‘ठीक ही तो है, अन्न से ही मन बनता है । विषयी अन्न से मन मलिन होता है और मलिन मन से श्रीकृष्ण का स्मरण नहीं होता ।

विषयी-जन के अन्न से होता चित्त मलीन ।
मलिन चित्त रहता सदा कृष्ण-स्मृति से हीन ॥

इसी क्षण से रघुनाथदास ने महाप्रभु को बुलाकर जिमाना छोड़ दिया और स्वयं भी उस अर्थ से सर्वथा अलग हो गये । शरीर-निर्वाह के लिये वे मन्दिर के द्वार पर बैठकर नाम-कीर्तन करते और भीख में जो मिल जाता, उसीसे काम चलाते । पर वहाँ भी बड़े आदमी का लड़का समझकर लोग कुछ बढ़िया चीज देने लगे, तब इन्होंने सोचा कि ‘मन्दिर के सिंहद्वार पर बैठकर भिक्षा करना तो वेश्या का आचार है ।’ इसे भी छोड़ दिया ।

फिर अयाचक-वृत्ति से कुछ दिन माधुकरी भिक्षा की । तदनन्तर इसका भी त्याग कर दिया । अब वे मन्दिर के आँगन में बिखरे हुए भात के दानों को बटोरकर उन्हें धोकर उन्हीं से पेट भरने लगे । महाप्रभु को रघुनाथदास की इस वृत्ति से बड़ा ही अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ । वे एक दिन अचानक पहुँचे और रघुनाथ के हाथ से इस महाप्रसाद को छीनकर बोले — ‘रघु ! तुम जो यह देवदुर्लभ अन्न प्रतिदिन पा रहे हो, इसके सम्बन्ध में तो कभी कुछ नहीं कहा, न मुझे कभी कुछ इसका हिस्सा ही दिया ।’ महाप्रभु की यह लीला देखकर रघुनाथ व्याकुल होकर रोने लगे — ‘अहा, मेरे समान अभागे के उद्धार के लिये ही महाप्रभु ने ये दाने खाये हैं ।’

इस प्रकार सोलह वर्ष तीव्र भक्ति-साधना करने के बाद श्रीमहाप्रभु के अन्तर्धान के बाद श्रीरघुनाथदास वृन्दावन में ‘राधाकुण्ड’ पर आ गये । यहाँ उनके जीवन का कार्यक्रम था —

अन्न-जल का त्याग करके ये नियमित दो-चार घूँट मट्ठा लेते । एक हजार दण्डवत् करते, लाख नाम का जप करते, प्रतिदिन दो हजार वैष्णवों को प्रणाम करते । दिन-रात श्रीराधा-माधव की मानस-पूजा करते, एक प्रहर रोज महाप्रभु का चरित्रगान करते, प्रातः-मध्याह्न-सायं तीनों काल श्रीराधाकुण्ड में पवित्र स्नान करते, व्रजवासी वैष्णवों का आलिंगन करते । इस प्रकार साढ़े सात पहर रसमयी प्रेमाभक्ति की साधना में बिताते । केवल चार घड़ी सोते, सो भी किसी-किसी दिन नहीं । इस प्रकार वैष्णव-चूड़ामणि गोस्वामी श्रीरघुनाथदास ने महान् आदर्श दैन्यपूर्ण, तपोनिष्ठ, संयम-नियमपूर्ण, भक्ति-प्रेमप्लावित जीवन बिताकर श्रीराधामाधव का अनन्य प्रेम प्राप्त किया ।

करके त्याग अन्न-जल पूरा लेते थोड़ा मट्ठा माप ।
एक सहस्र दण्डवत करते, करते लक्ष नाम का जाप ॥
प्रतिदिन करते दो सहस्र वैष्णव जन को अति नम्र प्रणाम ।
करते मानस-सेवन राधामाधव का दिनरात ललाम ॥
एक पहर करते प्रतिदिन श्रीमहाप्रभु का मधु लीला-गान ।
तीनों संध्या करते राधाकुण्ड-सलिल में पावन-स्नान ॥
व्रजवासी वैष्णव को करते सदा समुद आलिंगन दान ।
साढ़े सात पहर करते यों भक्ति-प्रेम-साधन रसखान ॥
चार घड़ी सोना केवल, पर उसमें भी होता व्यवधान ।
श्रीरघुनाथदास गोस्वामी वैष्णवाग्र आदर्श महान ॥

रघुनाथदास को संस्‍कृत-भाषा का ज्ञान भी बहुत अच्‍छा था । वृन्दावन में रहते समय इन्‍होंने संस्‍कृत में कई ग्रन्‍थ भी बनाये थे । ‘श्री चैतन्य चरितामृत’ के लेखक श्री कृष्णदास कविराज के ये दीक्षागुरु थे । अपने ग्रन्‍थ के लिये बहुत कुछ मसाला उन्‍हें इन्‍हीं महापुरुष से प्राप्‍त हुआ था । रघुनाथदास पचासी वर्ष तक पूर्ण वैराग्‍यमय जीवन बिताकर भगवद्भजन करते हुए अन्‍त में भगवच्‍चरणों में जा विराजे ।

 

 

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