December 25, 2015 | Leave a comment भक्त श्रीसीहाजी राठौड् हथूंडी / पाली, मारवाड तेरहवीं शताब्दी का समय था । भारत के क्षितिजि पर संकट के बादल मंडरा रहे थे । मुसलमानों कं आतंक से देशवासी पीड़ित थे । भारत छोटे-छोटे हिन्दू राज्यों में बटा हुआ था, जो मुसलमान आक्रमणकारियों का सामना करने में असमर्थ थे । राजस्थान की दशा विशेष रूप से शोचनीय थी । वहाँ के छोटे-छोटे भूपति मुसलमानों. लुटेरो और बदमाशों से प्रजा की रक्षा करने में तो असमर्थ थे ही, वे स्वयं भी उन्हें भांति-भांति से पीड़ा पहुंचाने में कसर नहीं रखते थे । यथेच्छाचारिता और अराजकता का बोलबाला था । हर समय लोगों को धन-सम्पत्ति ही नहीं, अपनी बहू-बेटियों के सतित्व तक लुट जाने का भय रहता था । ऐसे में ( सन् 1268 में) राव सीहाजी का मारवाड़ के हथूंडी (हस्तिकुंडी) ग्राम में जन्म हुआ । दूसरे मत से राव सीहा कन्नौज राज्य के वदायु नगर से राजस्थान आये थे माना है । हथूंडी का प्रसंग राठौड़ राज्य का उदय और विस्तार लेखक मूरसिंह राठौड़ फेफाना ने किया है । वे ही थे वे वीर पुरुष जिन्होंने उस प्रदेश की अराजकता को दूर कर वहाँ सुख-शांति स्थापित करने का महत्तवपूर्ण कार्य किया । वे ही आगे चलकर जोधपुर. बीकानेर, किशनगढ़, कुशलगढ़, झाबुआ, इडरगढ, रतलाम आदि राजस्थान के बहुत से सुसंगठित – और समुचित राज्यों के आदि-पुरुष सिद्ध हुए । वे ही राजस्थान के राजघरानों में भक्ति की परम्परा डालने वाले और राजस्थान की मरुभूमि को भक्तिगंगा की पावन धारा से सरसाने वाले भक्ति-भागीरथ सिद्ध हुए । सोहाजी के पिता थे सेतरामजी, माता सोनगरी जी । सेतरामजी एक बड़े जागीरदार और भगवद्भक्त थे । वे अपनी भक्ति के कारण संतजी कहलाते थे । नाभाजी ने अपने छप्पय में सीहाजी के साथ उनके इसी नाम का उल्लेख किया है। सेतरामजी के इष्ट द्वारकाधीशजी थे । वे एक बार उनके दर्शन करने द्वारका गये । उस समय द्वारकाधीश ने उन्हें वरदान दिया कि उनके एक पुत्र होगा, जो बड़ा पराक्रमी और भक्त होगा । उसी वरदान के फलस्वरूप सीहाजी का जन्म हुआ बचपन से ही उनके वीरत्व के लक्षण प्रकट होने लगे । उन्होने अल्पावस्था में ही एक बार एक सिंह को मार दिया । तभी से उनका नाम सीहा पड़ गया । सीहाजी अपने पिताजी की तरह द्वारकाधीश के बडे भक्त थे । अपनी धर्मपरायणता. भक्ति और शौर्य-वीर्य के कारण वे प्रसिद्ध थे । उनके क्षेत्र के लोग उनका बड़ा आदर करते थे, उन्हें अपना सरदार मानते थे और उनके लिए मर-मिटने के लिये तैयार रहते थे । सीहाजी की दो पत्नियाँ थीं-पार्वती सोलंखिनीजी और चावड़ीजी । पार्वती सोलखिनीजी कोलूमंड के सरदार की पुत्री थीं और बड़ी भक्त थीं । एक बार उनके आग्रह से सीहाजी ने द्वारकाधीश के दर्शन के लिये द्वारका की यात्रा की । द्वारका जाते समय वे मार्ग में पाली (भीनमाल) के एक पालीवाल ब्राह्मण के घर ठहरे । वहाँ के ब्राह्मणों ने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया । एक दिन वहाँ के क्षत्रियों ने भी उन्हे भोजन के लिये आमंत्रित किया । भोजन परोसने के लिये विधवा बालिकाओं को नियुक्त किया । सभी बालिकाओं की विधवा-स्त्रियों की- सी वेशभूषा देख सीहाजी ने क्षत्रियो से पूछा- “यहाँ विधवा बालिकाओं की संख्या अधिक दीखती है । इसका क्या कारण है?” क्षत्रियों ने कहा- “यहाँ मुसलमान आक्रमणकारियों ओर लुटेरे, बदमाशों का आतंक अधिक है । उनका सामना करने में दिन-प्रतिदिन युवक मारे जाते हैं और उनकी पत्नियाँ विधवा हो जाती है । यहाँ का भूपति स्वयं अपनी ही रक्षा नहीं कर पाता तो हमारी क्या करेगा ? इसलिये हम सब संत्रस्त हैं । आपसे प्रार्थना करते हैं कि हमारी रक्षा के लिए कुछ करें । आपको छोड़ और कौन ऐसा पराक्रमी और दयावान पुरुष है, जो हमारी रक्षा कर सके?” क्षत्रियों की बात सुन सीहाजी का हृदय द्रवित हुआ । उन्होंने तत्काल कुछ करने का निश्चय कर लिया । पर कहा- ” अभी तो हम द्वारका की यात्रा पर जा रहे हैं । वहाँ से लौटने पर अवश्य आप लोगों की रक्षा का कुछ उपाय करेंगे ।” द्वारका जाकर सीहाजी वहाँ कुछ दिन रुके रहे । वे नित्य गोमती में स्नान कर द्वारकाधीश के दर्शन करते । एक दिन द्वारकाधीश ने स्वप्न में कहा- “यहाँ से लौटने पर तुम्हारे एक पुत्र होगा । वह बडा प्रतापशाली होगा । उखामण्डल पर शासन करेगा और इसे यवनों से मुक्त करेगा ।” द्वारका से लौटकर सीहाजी ने अपनी शक्ति संगठित की । उन्हें जन समुदाय का विश्वास प्राप्त था । उनके सहयोग से उन्होंने एक सेना खडी की और पाली पर हमला किया । पाली में छोटे-छोटे चौहान सरदारों का राज्य था । उन्हें पराजित कर एक स्वतन्त्र और संगठित राज्य की स्थापना की, जिस पर उन्होंने सं. 1330 तक शासन किया, जब उनके जीवन का अंत हुआ । उनके शासन-काल में प्रजा ने चैन की सांस ली । पाली मुसलमानों और लुटेरों के आतक से प्राय मुक्त रहा । वहाँ सत्य और धर्म की ध्वजा फहराती रही । वहाँ के लोकगीतों में उनका यश इस प्रकार गाया जाता है – भीनमाल लीघी भड़, सीहैं सेल बजाय । दत दीन्हों सत संग्रह्यौ, ओ जस कदे न जाय ।। अर्थात् सीहाजी ने वीरतापूर्वक युद्ध में लड़कर भीनमाल ले लिया । उन्होंने दान देकर और धर्म धारण कर जिस यश का विस्तार किया, वह क्या कभी जाने वाला है ? एक बार पाली पर एक राजा ने चढ़ाई की, जो देवी का बड़ा भक्त था । देवी प्रत्येक युद्ध में उसकी विजय करा दिया करती थी । पर इस युद्ध में उसकी पराजय का कारण उसकी समझ में न आया । वह समझा कि शायद उससे कोई त्रुटि हो गयी. जिससे देवी कुपित हो गयी है । रात्रि में देवी ने कहा- “तुमने सीहाजी पर चढाई कर अच्छा नहीं किया । सीहाजी द्वारकाधीश के अनन्य भक्त हैं द्वारकाधीश हर समय उनकी रक्षा करते हैं । मैं भी उनकी दासी हूँ । उनके भक्त के विरुद्ध मैं तुम्हारी सहायता कैसे कर सकती हूँ ?” सीहाजी की भक्ति अतुलनीय थी । वे पूजा-पाठ-ध्यानादि में ही अपना अधिकांश समय व्यतीत करते थे । भगवान्नाम-कीर्तन से उन्हें बड़ा प्रेम था । वे नित्य संध्या समय अपने क्षेत्र के बच्चों को बटोर कर उनके साथ कीर्तन किया करते । कीर्तन के पश्चात् उन्हें कुछ मिठाई प्रसाद के रूप में दिया करते 1 प्रभु को स्वयं भी सीहाजी का कीर्तन बहुत अच्छा लगता । वे कभी किसी रूप में, कभी किसी रूप में आकर कीर्तन करने वाले बालकों के बीच बैठ जाया करते और उनके साथ स्वयं भी कीर्तन करते । एक दिन वे आये एक वैश्य के पुत्र का वेश बनाकर । दैवयोग से वह वैश्य भी उस दिन कीर्तन में आ बैठा । उसने अपने पुत्र को, जिसे वह अभी घर पर छोड़कर आया था, वहां बैठे देखा । उसे देख उसे आश्चर्य हुआ । वह कई बार घर गया और घर से कीर्तन में आया । प्रति बार अपने पुत्र को दोनो जगह बैठा देखा । उसने यह बात सीहाजी से कही । सीहाजी ने उससे घर से अपने पुत्र को ले आने को कहा । वह घर से पुत्र को लेकर आये उसके पूर्व ही प्रभु अंतर्धान हो गये । सीहाजी की इच्छा थी कि वे क्षत्रियों की तरह युद्धों में लड़ते हुए शरीर त्याग करें । द्वारकाधीश ने उनकी इच्छा पूरी की । सं. 1330 में मुसलमानों की एक बडी फौज ने पाली पर हमला किया । बीठू ग्राम में घमासान युद्ध हुआ । उस युद्ध में ब्राह्मणों और गायों की रक्षा के लिए लडते हुए सीहाजी ने वीरगति प्राप्त की । पार्वतीजी उनके साथ सती हुई । बीठू में सोहाजी की समाधि है, जिसके शिलालेख में लिखा है कि उनकी मृत्यु सं. 1330, कार्तिक बदी 12 को हुई । सीहाजी के तीन पुत्र थे- राव आस्थानजी, जो सीहाजी के पश्चात् राजगद्दी पर बैठे और जिन्होंने सं. 1336 में खेड़का राज्य भी गोहिल राजपूतों से छीन कर अपने अधिकार में कर लिया, सौनजी, जो ईदर के राजा हुए और अज्जजी. जिनका जन्म द्वारकाधीश के आशीर्वाद से हुआ था और जिन्होंने ऊखामंडल (द्वारका क्षेत्र) पर राज कर उसे यवनों से मुक्त क्यिा । अज्जके वंश में ही प्रसिद्ध भक्त सीवाजी हुए । आजकल उनके वंशज ‘बाढ़ेल’ और ‘बाजी’ नाम से जाने जाते है । Related