भगवती मंगल-चण्डिका
‘चण्डी’ शब्द का प्रयोग ‘दक्षा’ (चतुरा) के अर्थ में होता है और ‘मंगल’ शब्द कल्याण का वाचक है। जो मंगल-कल्याण करने में दक्ष हो, वही “मंगल-चण्डिका” कही जाती है। ‘दुर्गा’ के अर्थ में भी चण्डी शब्द का प्रयोग होता है और मंगल शब्द भूमि-पुत्र मंगल के अर्थ में भी आता है। अतः जो मंगल की अभीष्ट देवी है, उन देवी को ‘मंगल-चण्डिका’ कहा गया है।
मनुवंश में ‘मंगल’ नामक राजा थे। सप्त-द्वीपवती पृथ्वी उनके शासन में थी। उन्होंने इन देवी को अभीष्ट देवता मानकर पूजा की थी। इसलिए भी ये ‘मंगल-चण्डी’ नाम से विख्यात हुई। जो मूलप्रकृति भगवती जगदीश्वरी ‘दुर्गा’ कहलाती हैं, उन्हीं का यह रुपान्तर है। ये देवी कृपा की मूर्ति धारण करके सबके सामने प्रत्यक्ष हुई हैं। स्त्रियों की ये इष्टदेवी हैं।
durga
मंगल-चण्डिका-स्तोत्रम्
मन्त्रः- “ॐ ह्रीं श्रीम क्लीं सर्व-पूज्ये देवि मंगल-चण्डिके। ऐं क्रू फट् स्वाहा।।” (२१ अक्षर)
(देवीभागवत, नवम स्कन्ध, अध्याय ४७ के अनुसार मन्त्र इस प्रकार हैः- “ॐ ह्रीं श्रीम क्लीं सर्व-पूज्ये देवि मंगल-चण्डिके। हूं हूं फट् स्वाहा।।”)
ध्यानः-
देवीं षोड्शवष यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम्। सर्वरुपगुणाढ्यां च कोमलांगीं मनोहराम् ।।१
श्वेतचम्पकवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् । वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ।।२
बिभ्रतीं कवरीभारं मल्लिकामाल्यभूषितम् । विम्बोष्ठीं सुदतीं शुद्धां शरत्पद्मनिभाननाम् ।।३
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सुनीलोत्पललोचनाम् । जगद्धात्रीं च दात्रीं च सर्वेभ्यः सर्वसम्पदाम् ।।४
संसारसागरे घोरे पोतरुपां वरां भजे।।५
देव्याश्च द्यानमित्येवं स्तवनं श्रूयतां मुने । प्रयतः संकटग्रस्तो येन तुष्टाव शंकरः ।।
सुस्थिर यौवना भगवती मंगल-चण्डिका सदा सोलह वर्ष की ही जान पड़ती है। ये सम्पूर्ण रुप-गुण से सम्पन्न, कोमलांगी एवं मनोहारिणी हैं। श्वेत चम्पा के समान इनका गौरवर्ण तथा करोड़ों चन्द्रमाओं के तुल्य इनकी मनोहर कान्ति है। ये अग्नि-शुद्ध दिव्य वस्त्र धारण किये रत्नमय आभूषणों से विभूषित है। मल्लिका पुष्पों से समलंकृत केशपाश धारण करती हैं। बिम्बसदृश लाल ओठ, सुन्दर दन्त-पंक्ति तथा शरत्काल के प्रफुल्ल कमल की भाँति शोभायमान मुखवाली मंगल-चण्डिका के प्रसन्न वदनारविन्द पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही है। इनके दोनों नेत्र सुन्दर खिले हुए नीलकमल के समान मनोहर जान पड़ते हैं। सबको सम्पूर्ण सम्पदा प्रदान करने वाली ये जगदम्बा घोर संसार-सागर से उबारने में जहाज का काम करती हैं। मैं सदा इनका भजन करता हूँ।

।।शंकर उवाच।।
रक्ष रक्ष जगन्मातर्देवि मंगलचण्डिके । हारिके विपदां राशेर्हर्ष-मंगल-कारिके ।।
हर्ष-मंगल-दक्षे च हर्ष-मंगल-चण्डिके । शुभे मंगल-दक्षे च शुभ-मंगल-चण्डिके ।।
मंगले मंगलार्हे च सर्व-मंगल-मंगले । सतां मंगलदे देवि सर्वेषां मंगलालये ।।
पूज्या मंगलवारे च मंगलाभीष्ट-दैवते । पूज्ये मंगल-भूपस्य मनुवंशस्य संततम् ।।
मंगलाधिष्ठातृदेवि मंगलानां च मंगले । संसार-मंगलाधारे मोक्ष-मंगल-दायिनी ।।
सारे च मंगलाधारे पारे च सर्वकर्मणाम् । प्रतिमंगलवारे च पूज्ये च मंगलप्रदे ।।
स्तोत्रेणानेन शम्भुश्च स्तुत्वा मंगलचण्डिकाम् । प्रतिमंगलवारे च पूजां कृत्वा गतः शिवः ।।
देव्याश्च मंगल-स्तोत्रं यं श्रृणोति समाहितः । तन्मंगलं भवेच्छश्वन्न भवेत् तदमंगलम् ।।
(ब्रह-वैवर्त्त-पुराण । प्रकृतिखण्ड । ४४ । २०-३६)
महादेवजी ने कहाः- ‘जगन्माता भगवती मंगल-चण्डिके ! तुम सम्पूर्ण विपत्तियों का विध्वंस करने वाली हो एवं हर्ष तथा मंगल प्रदान करने को सदा प्रस्तुत रहती हो। मेरी रक्षा करो, रक्षा करो। खुले हाथ हर्ष और मंगल देनेवाली हर्ष-मंगल-चण्डिके ! तुम शुभा, मंगलदक्षा, शुभमंगल-चण्डिका, मंगला, मंगलार्हा तथा सर्व-मंगल-मंगला कहलाती हो। देवि ! साधु-पुरुषों को मंगल प्रदान करना तुम्हारा स्वाभाविक गुण है। तुम सबके लिये मंगल का आश्रय हो। देवि ! तुम मंगलग्रह की इष्ट-देवी हो। मंगलवार के दिन तुम्हारी पूजा होनी चाहिए। मनुवंश में उत्पन्न राजा मंगल की पूजनीया देवी हो। मंगलाधिष्ठात्री देवि ! तुम मंगलों के लिए भी मंगल हो। जगत् के समस्त मंगल तुम पर आश्रित हैं। तुम सबको मोक्षमय मंगल प्रदान करती हो। मंगलवार के दिन सुपूजित होने पर मंगलमय सुख प्रदान करने वाली देवि ! तुम संसार की सारभूता मंगलधारा तथा समस्त कर्मों से परे हो।’
इस स्तोत्र से स्तुति करके भगवान् शंकर ने देवी मंगल-चण्डिका की उपासना की। वे प्रति मंगलवार के दिन उनका पूजन करके चले जाते हैं। यों ये भगवती सर्वमंगला सर्वप्रथम भगवान् शंकर से पूजित हुई। उनके दूसरे उपासक मंगल ग्रह हैं। तीसरी बार राजा मंगल ने तथा चौथी बार मंगलवार के दिन कुछ सुन्दर स्त्रियों ने इन देवी की पूजा की। पाँचवीं बार मंगल कामना रखने वाले बहुसंख्यक मनुष्यों ने मंगलचण्डिका का पूजन किया। फिर तो विश्वेश शंकर से सुपूजित ये देवी प्रत्येक विश्व में सदा पूजित होने लगी। मुने ! इसके बाद देवता, मुनि, मनु और मानव – सभी सर्वत्र इन परमेश्वरी की पूजा करने लगे।
जो पुरुष मन को एकाग्र करके भगवती मंगल-चण्डिका के इस मंगलमय स्तोत्र का श्रवण करता है, उसे सदा मंगल प्राप्त होता है। अमंगल उसके पास नहीं आ सकता। उसके पुत्र और पौत्रों में वृद्धि होती है तथा उसे प्रतिदिन मंगल ही दृष्टिगोचर होता है।

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