September 6, 2015 | Leave a comment भगवान् नृसिंह को नमस्कार तप्तस्वर्णसवर्णघूर्णदतिरूक्षाक्षं सटाकेसर- प्रोत्कम्पप्रनिकुम्बिताम्बरमहो जीयात्तवेदं वपुः | व्यात्तव्याप्तमहादरीसखमुखं खड्गोग्रवल्गन्महा- जिह्वानिर्गमदृश्यमानसुमहादंष्ट्रायुगोड्डामरम् || उत्सर्पद्वलिभङ्गभीषणहनुं ह्वस्वस्थवीयस्तर- ग्रीवं पीवरदोश्शतोद्गतनखक्रूरांशुदूरोल्बणम् | व्योमोल्लङ्घिघनाघनोपमघनप्रध्वाननिर्द्धावित- स्पर्द्धालुप्रकरं नमामि भवतस्तन्नारसिंहं वपुः || अहो ! जिसके तपे हुए स्वर्ण के समान पीले तथा अत्यन्त रुखे नेत्र चंचल हो रहे थे और सटाके बाल ऊपर उठे हुए हिल रहे थे, जिनसे गगनतल आच्छादित हो रहा था, जिसका मुख खुली हुई एक विस्तृत महती गुफा-सदृश था, जिसकी खड्ग के समान तीखी महान् जिह्वा मुख के बाहर लपलपा रही थी और जो दृश्यमान दो महान् दाढ़ों से अत्यन्त भीषण लग रहा था, आपके उस दिव्य विग्रह की जय हो । अट्टहास करते तथा जँभाई लेते समय ऊपर उठनेवाली वलिभंगिमा से जिसके जबड़े बड़े भयंकर लग रहे थे, जिसकी गरदन नाटी तथा मोटी थी, जिसके सैंकड़ों मोटे-मोटे हाथ थे, जिसके नखों की क्रूर किरणों से वह अतिशय भयावना लग रहा था, जो आकाश को लाँघनेवाले सजल जलधर के गर्जन-सदृश अत्यन्त भयानक गर्जना से शत्रुसमूहों को खदेड़ देनेवाला था, आपके उस नृसिंह-शरीर को मैं नमस्कार करता हूँ । (श्रीनायणीयम्) Related