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भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ११७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ११७
भद्रा का चरित्र एवं उसके व्रत की विधि

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! लोक में भद्रा विष्टि नाम से प्रसिद्ध है, वह कैसी है, कौन है, वह किसकी पुत्री है, उसका पूजन किस विधि से किया जाता हैं ? कृपया आप बताने का कष्ट करें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! भद्रा भगवान् सूर्यनारायण की कन्या है । यह भगवान् सूर्य की पत्नी छाया से उत्पन्न है और शनैश्वर की सगी बहिन है । om, ॐवह काले वर्ण, लम्बे केश, बड़े-बड़े दाँत और बहुत ही भयंकर रूपवाली है । जन्मते ही वह संसार का ग्रास करने के लिये दौड़ी, यज्ञों में विघ्न-बाधा पहुँचाने लगी और उत्सवों तथा मङ्गल-यात्रा आदि में उपद्रव करने लगी और पूरे जगत् को पीड़ा पहुँचाने लगी । उसके उच्छ्रङ्खल स्वभाव को देखकर भगवान् सूर्य अत्यन्त चिन्तित हो उठे और उन्होंने शीघ्र ही उसका विवाह करने का विचार किया । जब जिस-जिस भी देवता, असुर, किन्नर आदि से सूर्यनारायण ने विवाह का प्रस्ताव रखा, तब उस भयंकर कन्या से कोई भी विवाह करने को तैयार न हुआ । दुःखित हो सूर्यनारायण ने अपनी कन्या के विवाह के लिये मण्डप बनवाया, पर उसने मण्डप-तोरण आदि सबको उखाड़कर फेंक दिया और सभी लोगों को कष्ट देने लगी । सूर्यनारायण ने सोचा कि इस दुष्टा, कुरूपा, स्वेच्छाचारिणी कन्या का विवाह किसके साथ किया जाय । इसी समय प्रजा के दुःख को देखकर ब्रह्माजी ने भी सूर्य के पास आकर उनकी कन्या द्वारा किये गये दुष्कर्म को बतलाया । यह सुनकर सूर्यनारायण ने कहा — ‘ब्रह्मन् ! आप ही तो इस संसार के कर्ता तथा भर्ता है, फिर आप मुझसे ऐसा क्यों कह रहे हैं । जो भी आप उचित समझे वही करें ।’ सूर्यनारायण का ऐसा वचन सुनकर ब्रह्माजी ने विष्टि को बुलाकर कहा — ‘भद्रे ! बव, बालव, कौलव आदि करणों के अन्त में तुम निवास करो और जो व्यक्ति यात्रा, प्रवेश, माङ्गल्य कृत्य, खेती, व्यापार, उद्योग आदि कार्य तुम्हारे समय में करे, उन्हीं में तुम विघ्न करो । तीन दिन तक किसी प्रकार की बाधा न डालो । चौथे दिन के आधे भाग में देवता और असुर तुम्हारी पूजा करेंगे । जो तुम्हारा आदर न करें उनका कार्य तुम ध्वस्त कर देना ।’ इस प्रकार विष्टि को उपदेश देकर ब्रह्माजी अपने धाम को चले गये, इधर विष्टि भी देवता, दैत्य, मनुष्य सब प्राणियों को कष्ट देती हुई घूमने लगी । महाराज ! इस तरह से भद्रा की उत्पत्ति हुई और वह अति दुष्ट प्रकृति की है, इसलिये माङ्गलिक कार्यों में उसका अवश्य त्याग करना चाहिये ।

भद्रा पाँच घड़ी मुख में, दो घड़ी कण्ठ में, ग्यारह घड़ी हृदय में, चार घड़ी नाभि में, पाँच घड़ी कटि में और तीन घड़ी पुच्छ में स्थित रहती है । जब भद्रा मुख में रहती है तब कार्य का नाश होता है, कण्ठ में धन का नाश, हृदय में प्राण का नाश, नाभि में कलह, कटि में अर्थभ्रंश होता है पर पुच्छ में निश्चितरूप से विजय एवं कार्य-सिद्धि हो जाती है ।

मुखे तु घटिकाः पञ्च द्वे कण्ठे तु सदा स्थिते ।
हृदि चैकादश प्रोक्ताश्चतस्रो नाभिमण्डले ॥
कटयां पश्चैव विज्ञेयास्तिस्रः पुच्छे जयावहाः ।
मुखे कार्यविनाशाय ग्रीवायां धननाशिनी ॥
हृदि प्राणहरा ज्ञेया नाभ्यां तु कलहावहा ।
कट्यामर्थपरिभ्रंशो विष्टिपुच्छे ध्रुवो जयः ॥
(उत्तरपर्व ११७ । २३-२५)

“धन्या दधिमुखी भद्रा महामारी खरानना ।
कालरात्रिर्महारुद्रा विष्टिश्च कुलपुत्रिका ॥
भैरवी च महाकाली असुराणां क्षयंकरी ।
द्वादशैव तु नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् ॥
न च व्याधिर्भवेत् तस्य रोगी रोगात्प्रमुच्यते ।
ग्रहाः सर्वेऽनुकूलाः स्युर्न च विघ्नादि जायते ॥”
(उत्तरपर्व ११७ । २७-३०)

भद्रा के बारह नाम है (१) धन्या, (२) दधिमुखी, (३) भद्रा, (४) महामारी, (५) खरानना, (६) कालरात्रि, (७) महारुद्रा, (८) विष्टि, (९) कुलपुत्रिका, (१०) भैरवी, (११) महाकाली तथा (१२) असुरक्षयकरी । इन बारह नामों का प्रातःकाल उठकर जो स्मरण करता है, उसे किसी भी व्याधि का भय नहीं होता । रोगी रोग से मुक्त हो जाता है और सभी ग्रह अनुकूल हो जाते हैं । उसके कार्यों में कोई विघ्न नहीं होता । युद्ध में तथा राजकुल में यह विजय प्राप्त करता है जो विधिपूर्वक नित्य विष्टि का पूजन करता है, निःसंदेह उसके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । अब मैं भद्रा के व्रत की विधि बता रहा हूँ —
राजन् ! जिस दिन भद्रा हो उस दिन उपवास करना चाहिये । यदि रात्रि के समय भद्रा हो तो दो दिन तक एकभुक्त व्रत करना चाहिये । एक प्रहर के बाद भद्रा हो तो तीन प्रहर तक उपवास करना चाहिये अथवा एकभुक्त रहना चाहिये । स्त्री अथवा पुरुष व्रत के दिन सुगन्ध आमलक लगाकर सर्वौषधियुक्त जल से स्नान करे अथवा नदी आदि पर जाकर विधिपूर्वक स्नान करे । देवता एवं पितरों का तर्पण तथा पूजन कर कुशा की भद्रा की मूर्ति बनाये और गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से उसकी पूजा करे । भद्रा के बारह नामों से एक सौ आठ बार हवन करने के बाद तिल और पायस ब्राह्मण को भोजन कराकर स्वयं भी मौन होकर तिलमिश्रित कृशरान्न का भोजन करना चाहिये । फिर पूजन के अन्त में इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये —

“छायासूर्यसुते देवि विष्टिरिष्टार्थदायिनि ।
पूजितासि यथाशक्त्या भद्रे भद्रप्रदा भव ॥”
(उत्तरपर्व ११७ । ३९)
‘छाया और सूर्य की पुत्री, देवि ! विष्टि ! तुम अभीष्ट सिद्धि करती हो, मैंने तुम्हारी यथा शक्ति पूजा की है, मेरा कल्याण करने की कृपा करो ।’

इस प्रकार सत्रह भद्रा-व्रत कर अन्त में उद्यापन करे । लोहे की पीठ पर भद्रा की मूर्ति को स्थापित कर काला वस्त्र पहनाकर गन्ध, पुष्प आदि से पूजन कर प्रार्थना करे । लोहा, तैल, तिल, बछडासहित काली गाय, काल कम्बल और यथाशक्ति दक्षिणा के साथ वह मूर्ति ब्राह्मण दान कर देना चाहिये और विसर्जन करना चाहिये । इस विधि से जो भी व्यक्ति भद्राव्रत और व्रत का उद्यापन करता है, उसके किसी भी कार्य में विघ्न नहीं पड़ता । भद्राव्रत करनेवाले व्यक्ति को प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी तथा ग्रह आदि कष्ट नहीं देते । उसका इष्ट से वियोग नहीं होता और अन्त में उसे सूर्यलोक की प्राप्ति होती है ।
(अध्याय ११७) भद्रा के विषय में ज्योतिष-ग्रन्थों में विस्तार से वर्णन मिलता है, विशेषकर मुहूर्त-चिन्त्तामाणि की पीयूषधारा व्याख्या में । पञ्चाङ्गों की यह व्यापक वस्तु है । यह प्रायः प्रत्येक द्वितीया, तृतीय, सप्तमी, अष्टमी और द्वादशी-त्रयोदशी को लगी रहती है। इसका पूरा समय प्रायः २४ घंटे का होता है ।

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