भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १२३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १२३
स्नान और तर्पण-विधि

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — राजन् ! स्नान के बिना न तो शरीर ही निर्मल होता है और न भाव की ही शुद्धि होती है, अतः शरीर की शुद्धि के लिये सबसे पहले स्नान करने का विधान है । घर में रखे हुए अथवा तुरंत के निकाले हुए जल से स्नान करना चाहिये । (किसी जलाशय या नदी का स्नान सुलभ हो तो और उत्तम है।) om, ॐमन्त्रवेत्ता विद्वान् पुरुष को मूल मन्त्र के द्वारा तीर्थ की कल्पना कर लेनी चाहिये । ‘ॐ नमो नारायणाय’ — यह मूल मन्त्र है । पहले हाथ में कुश लेकर विधिपूर्वक आचमन करे तथा मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए बाहर-भीतर से पवित्र रहे । फिर चार हाथ का चौकोर मण्डल बनाकर उसमें निम्नाङ्कित मन्त्रों द्वारा भगवती गङ्गा को आवाहन करे —

ॐ विष्णुपादप्रसूतासि वैष्णवी विष्णुदेवता ।
पाहि नस्त्वेनसस्तस्मादाजन्ममरणान्तिकात् ॥
तिस्रः कोट्योऽर्द्धकोटी च तीर्थानां दारब्रवीत् ।
दिवि भुव्यंतरिक्षे च तानि ते सन्ति जाह्नवि ॥
नंदिनीत्येव ते नाम देवेषु नलिनीति च ।
क्षमा पृथ्वी च विहगा विश्वकाया’ शिवा स्मृता ॥
विद्याधरा सुप्रसन्ना तथा लोकप्रसादिनी ।
क्षेम्या तथा जाह्नवी च शान्ता शान्तिप्रदायिनी ॥
(उत्तरपर्व १२३ । ५-८)
‘गङ्गे ! तुम भगवान् श्रीविष्णु के चरणोंसे प्रकट हुई हो, श्रीविष्णु ही तुम्हारे देवता हैं, इसीलिये तुम्हें वैष्णवी कहते हैं। देवि ! तुम जन्म से लेकर मृत्यु तक मेरे द्वारा किये गये समस्त पापों से मेरा त्राण करो । स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें कुल साढ़े तीन करोड़ तीर्थ है, इसे वायुदेवता ने (गिनकर) कहा है । माता जाह्नवि ! वे सब-के-सब तीर्थ तुम्हारे जल में स्थित हैं । देवलोकमें तुम्हारा नाम नन्दिनीं और नलिनी है । इनके अतिरिक्त क्षमा, पृथ्वी, आकाश-गङ्गा, विश्वकाया, शिवा, अमृता, विद्याधरा, सुप्रसन्ना, लोकप्रसादिनी, क्षेप्या, जाह्नवी, शान्ता और शान्तिप्रदायिनी आदि भी तुम्हारे अनेक नाम है ।’

जहाँ स्नान के समय इन पवित्र नामों का कीर्तन होता है, वहाँ त्रिपथगामिनी भगवती गङ्गा उपस्थित हो जाती हैं । सात बार उपर्युक्त नामों का जप करके सम्पुट के आकार में दोनों हाथों को जोड़कर उनमें जल ले । तीन, चार, पाँच या सात बार उसे अपने मस्तक पर डाले, फिर विधिपूर्वक मृत्तिका को अभिमन्त्रित कर अपने अङ्गों में लगाये । अभिमन्त्रित करने का मन्त्र इस प्रकार है —

“अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ।
मृत्तिके हर में सर्वं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ॥
उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना ।
नमस्ते सर्वलोकानामसुधारिणि सुते ॥”
(उत्तरपर्व १२३ । १२-१३)

‘वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं । भगवान् श्रीविष्णु ने भी वामनरूप से तुम्हें एक पैर से नापा था । मृत्तिके ! मैंने जो बुरे कर्म किये हों, उन सबको दूर कर दो । देवि ! भगवान् श्रीविष्णु ने सैकड़ों भुजाओं वाले वराह का रूप धारण करके तुम्हें जल से बाहर निकाला था । तुम सम्पूर्ण लोक के समस्त प्राणियों में प्राण संचार करनेवाली हो । सुव्रते ! तुम्हें मेरा नमस्कार है ।’

इस प्रकार मृत्तिका लगाकर पुनः स्नान करे । फिर विधिवत् आचमन करके उठे और शुद्ध सफेद धोती एवं चद्दर धारण कर त्रिलोकी को तृप्त करने के लिये तर्पण करे । सबसे पहले ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और प्रजापति का तर्पण करे । तत्पश्चात् —

“देवा यक्षास्तथा नागा गन्धर्वाप्सरां गणाः ॥
कूराः सर्वाः सुपर्णाश्च तरवो विहगाः जम्भकादयः (तरक्षा विहगाः खगाः)।
विद्याधरा जलधारास्तथैवाकाशगामिनः ।
निराधाराश्च ये जीवाः पापकर्मरताश्च ये ॥
तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ।”
(उत्तरपर्व १२३ । १५-१७)

‘देवता, यक्ष, नाग, गन्धर्व, श्रेष्ठ अप्सराओं, क्रूर सर्प, गरुड पक्षी, वृक्ष, जम्भक आदि असुर, क्द्यिाधर, मेघ, आकाशचारी जीव, निराधार जीव, पापी जीव तथा धर्मपरायण जीवों को तृप्त करने के लिये मैं जल देता हूँ

—यह कहकर उन सबको जलाञ्जलि दे । देवताओं का तर्पण करते समय यज्ञोपवीत को बायें कंधे पर डाले रहे, तत्पश्चात् उसे गले में माला की भाँति कर ले और मनुष्यों, ऋषियों तथा ऋषिपुत्रों का भक्तिपूर्वक तर्पण करे —

“सनकः सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः ॥
कपिलश्चासुरिश्चैव वोढुः पञ्चशिखस्तथा ।
सर्वे ते तृप्तिमायान्तु मद्दतेनाम्बुना सदा ।”
(उत्तरपर्व १२३ । १८-१९)
‘सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पञ्चशिख — ये सभी मेरे लिये जल से सदा तृप्त हों ।’

ऐसी भावना करके जल दे । इसी प्रकार मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ, भृगु, नारद तथा सम्पूर्ण देवर्षियों एवं ब्रह्मर्मियों का अक्षतसहित जल के द्वारा तर्पण करे । इसके बाद यज्ञोपवीत को दायें कंधे पर रखकर बायें घुटने को पृथ्वी पर टेककर बैठे, फिर अग्निष्वात्त, बर्हिषद्, हविष्मान्, ऊष्मप, सुकाली, भौम, सोमप तथा आज्यप — संज्ञक पितरों का तिल और चन्दनयुक्त जल से भक्तिपूर्वक तर्पण करे । इसी प्रकार हाथों में कुश लेकर पवित्र भाव से परलोकवासी पिता, पितामह आदि और मातामह आदि का नाम-गोत्र का उच्चारण करते हुए तर्पण करे । इस क्रम से विधि और भक्ति के साथ सबका तर्पण करके निम्नाङ्कित मन्त्र का उच्चारण करे —

“येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवाः ।
ते तृप्तिमखिला यान्तु यश्चास्मत्तोऽभिवाञ्छति ॥”
(उत्तरपर्व १२३ । २५)

‘जो लोग मेरे बान्धव न हों, जो मेरे बान्धव हों तथा जो दूसरे किस जन्म में मेरे बान्धव रहे हो, वे सब मेरे दिये हुए जल से तृप्त हो । उनके सिवा और भी जो कोई प्राणी मुझसे जल की अभिलाषा रखते हों, वे भी तृप्ति-लाभ करें ।’ (ऐसा कहकर उनके उद्देश्यसे जल गिराये ।)

तत्पश्चात् विधिपूर्वक आचमन कर अपने आगे पुष्प और अक्षतों से कमल की आकृति बनाये । फिर यत्नपूर्वक सूर्यदेव के नामों का उच्चारण करते हुए अक्षत, पुष्प और रक्तचन्दनमिश्रित जल से अर्घ्य दे । अर्घ्य-दान का मन्त्र इस प्रकार है —

“नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते विष्णुसखाय वै ॥
सहस्ररश्मये नित्यं नमस्ते सर्वतेजसे ।
नमस्ते सर्ववपुषे नमस्ते सर्वशक्तये ॥
जगत्स्वामिन् नमस्तेऽस्तु दिव्यचन्दनभूषित ।
पद्मनाभ नमस्तेऽस्तु कुण्डलाङ्गदधारिणे ॥
नमस्ते सर्वलोकेश सर्वासुरनमस्कृत ।
सुकृतं दुष्कृतं चैव सम्यग्जानासि सर्वदा ॥
सत्यदेव नमस्तेऽस्तु सर्वदेव नमोऽस्तु ते ।
दिवाकर नमस्तेऽस्तु प्रभाकर नमोऽस्तु ते ॥”
(उत्तरपर्व १२३ । २७-३१)

‘हे भगवान् सूर्य ! आप विश्वरूप और भगवान् विष्णु के सखा हैं, इन दोनों रूपों में आपको नमस्कार है । आप सहस्रों किरणों से सुशोभित और सबके तेज़रूप हैं, आपको सदा नमस्कार है । सर्वशक्तिमान् भगवन् ! सर्वरूपधारी आप परमेश्वर को बार-बार नमस्कार है । दिव्य चन्दन से भूषित और संसार के स्वामी भगवन् ! आपको नमस्कार है । कुण्डल और अङ्गद आदि आभूषण धारण करनेवाले पद्मनाभ ! आपको नमस्कार है । भगवन् ! आप सम्पूर्ण लोकों के ईश और सभी देवों के द्वारा वन्दित हैं, आपको मेरा प्रणाम है । आप सदा सब पाप-पुण्य को भलीभाँति जानते हैं । सत्यदेव ! आपको नमस्कार है । सर्वदेव ! आपको नमस्कार है । दिवाकर ! आपको नमस्कार है । प्रभाकर ! आपको नमस्कार है ।’

इस प्रकार सूर्यदेव को नमस्कार कर तीन बार प्रदक्षिणा करे । फिर द्विज, गौ और सुवर्ण का स्पर्श कर अपने घर जाय और वहाँ भगवान् की प्रतिमा का पूजन करे ।
(अध्याय १२३)

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