भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १२४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १२४
रुद्र-स्नान की विधि

महाराज युधिष्ठिर ने कहा — भगवन् ! अब आप सभी दोष को शान्त करनेवाले रुद्र-स्नान के विधान का वर्णन करें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! इस सम्बन्ध में महर्षि अगस्त्य के पूछने पर देवसेनापति भगवान् स्कन्द ने जो बताया था, उसे आप सुनें ।
om, ॐ
जो मृतवत्सा (जिसके लड़के अल्प अवस्था में मर जाते हों), वन्ध्या, दुर्भगा, संतानहीन या केवल कन्या जनती हो, उस स्त्री को चाहिये कि वह रुद्र-स्नान करे । अष्टमी, चतुर्दशी अथवा रविवार के दिन नदी के तट पर या महानदियों के संगम में, शिवालय में, गोष्ठ में अथवा अपने घर में सुयोग्य ब्राह्मण द्वारा स्नानविधि का परिज्ञान कर स्नान करे । वह गोबर द्वारा उपलिप्त स्थान में एक उत्तम मण्डप बनाकर उसके मध्य में अष्टदल कमल बनाये । उसके मध्य में कर्णिका के ऊपर भगवान् महादेव की, उनके वाम तथा दक्षिण भाग में क्रमशः पार्वती एवं विनायक की और कमल के अष्टदलों में इन्द्रादि दिक्पालों की स्थापना करे । तदनन्तर गन्धादि उपचारों से उनकी पूजा करे । मण्डप के चारों कोणों में कलश स्थापित करे । चारों दिशाओं में भूत-बलि भी दे । मण्डप के अग्निकोण में कुण्ड बनाकर नमक, सर्षप, घी और मधु से ‘मा नस्तोके तनये (यजु० १६ । १६) इत्यादि वैदिक मन्त्र से हवन करे ।

आचार्य, ब्रह्मा एवं ऋत्विजों के साथ जापक का भी वरण करे । एकादश रुद्रपाठ भी कराये । इस प्रकार दूसरे मण्डप का निर्माण कर उस व्रतकत्रीं स्त्री को मण्डप में बैठाकर रुद्रपूजक आचार्य उसे स्नान करायें । अर्क-पत्र के दोने में जल लेकर रुद्रैकादशिनी का पाठ कर उस अभिमन्त्रित जल से स्त्री का अभिषेक करे । अनन्तर सप्तमृत्तिकामिश्रित जल, रुद्र-कलश के जल एवं इन्द्रादि दिक्पालों के पूजित कलशों के अभिमन्त्रित जल से उसे स्नान कराये । इस प्रकार रुद्र-स्नान-विधि पूर्ण हो जानेपर स्वर्णमयी धेनु, प्रत्यक्ष धेनु तथा अन्य सामग्री आचार्य को दान करे और ब्राह्मणों को भोजन कराकर वस्त्र, दक्षिणा देकर क्षमा-याचना करे । जो स्त्री इस विधि स्नान करती है, वह सौभाग्य-सुख प्राप्त करती हैं और पुत्रवती होती है । उसके शरीर में रहनेवाले सभी दोष ब्राह्मणों की आज्ञा से, रुद्र-स्नान करने से दूर हो जाते हैं । पुत्र, लक्ष्मी तथा सुख की इच्छा करनेवाली नारी को यह व्रत अवश्य करना चाहिये, इससे वह जीवितवत्सा हो जाती हैं ।
(अध्याय १२४)

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