भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १२६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १२६
मरणासन्न (मृत्यु के पूर्व) प्राणी के कर्तव्य तथा ध्यान के चतुर्विध भेद

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! गृहस्थ व्यक्ति को अपने अन्त समय में क्या करना चाहिये । कृपा कर इस विधि को आप बतायें । मुझे यह सुनने की बहुत ही अभिलाषा है ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! जब मनुष्य को यह ज्ञात हो जाय कि उसका अन्त समीप आ गया है तो उसे गरुडध्वज भगवान् विष्णु का स्मरण करना चाहिये । स्नान करके पवित्र हो शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण कर अनेक प्रकार के पुष्पादि उपचारों से नारायण की पूजा एवं स्तोत्र द्वारा उनकी स्तुति करे । om, ॐअपनी शक्ति के अनुसार गाय, भूमि, सुवर्ण, वस्त्र आदि का दान करे और बन्धु, पुत्र, मित्र, स्त्री, क्षेत्र, धन, धान्य तथा पशु आदि से चित्त को हटाकर ममत्व का परित्याग कर दे । मित्र, शत्रु, उदासीन अपने और पराये लोगों के उपकार और अपकार के विषय में विचार न करे अर्थात् शान्त हो जाय । प्रयत्नपूर्वक सभी शुभ एवं अशुभ कर्मों का परित्याग कर इन श्लोक का स्मरण करे — ‘मैंने समस्त भोगों एवं मित्रों का परित्याग कर दिया, भोजन भी छोड़ दिया तथा अनुलेपन, माला, आभूषण, गीत, दान, आसन, हवन आदि क्रियाएँ, पदार्थ, नित्य-नैमित्तिक और काम्य सभी क्रियाओं का उत्सर्जन कर दिया है । श्राद्धधर्म का भी मैने परित्याग कर दिया है, आश्रमधर्म और वर्णधर्म भी मैंने छोड़ दिये हैं । जबतक मेरे हाथ-पैर चल रहे हैं, तबतक मैं स्वयं अपना कार्य कर लूंगा, मुझसे सभी निर्भय रहें, कोई भी पाप कर्म न करे । आकाश, जल, पृथ्वी, विवर, बिल, पर्वत, पत्थरों के मध्य, धान्यादि फसलों, वस्त्र, शयन तथा आसनों आदि में जो कोई प्राणी अवस्थित हैं, वे मुझसे निर्भय होकर सुखी रहें । जगद्गुरु भगवान् विष्णु के अतिरिक्त मेरा कोई बन्धु नहीं । मेरे नीचे-ऊपर, दाहिने-बाँयें, मस्तक, हृदय, बाहुओं, नेत्रों तथा कानों में मित्र-रूप में भगवान् विष्णु ही विराज रहे हैं ।’

इस प्रकार सब कुछ छोड़कर सर्वेश भगवान् अच्युत को हृदय में धारण कर निरन्तर वासुदेव के नाम का कीर्तन करता रहे और जब मृत्यु अति समीप आ जाय, तब दक्षिणाग्र कुशा बिछाकर पूर्व अथवा उत्तर की ओर सिर कर शयन करे तथा जगत्पति भगवान् विष्णु का इस प्रकार चिन्तन करे —

“विष्णुं जिष्णुं हृषीकेशं केशवं मधुसूदनम् ।
नारायणं नरं शौरिं वासुदेवं जनार्दनम् ॥
वाराहं यज्ञपुरुषं पुण्डरीकाक्षमच्युतम् ।
वामनं श्रीधरं कृष्णं नृसिंहमपराजितम् ॥
पद्मनाभमजं श्रीशं दामोदरमधोक्षजम् ।
सर्वेश्वरेश्वरं शुद्धमनन्तं विश्वरूपिणम् ॥
चक्रिणं गदिनं शान्तं शङ्खिनं गरुडध्वजम् ।
किरीटकौस्तुभधरं प्रणमाम्यहमव्ययम् ॥
अहमस्मि जगन्नाथ मयि वासं कुरु द्रुतम् ।
आवयोरन्तरं मास्तु समीराकाशयोरिव ॥
अयं विष्णुरयं शौरिरयं कृष्णः पुरो मम ।
नीलोत्पलदलश्यामः पद्मपत्रायतेक्षणः ॥
एष पश्यतु मामीशः पश्याम्यहमयोक्षजम् ।
इत्थं जपेदेकमनाः स्मरन् सर्वेश्वरं हरिम् ॥
(उत्तरपर्व १२६ । १९–२५)
‘भगवान् विष्णु, विष्णु, हृषीकेश, केशव, मधुसूदन, नारायण, नर, शौरि, वासुदेव, जनार्दन, वाराह, यज्ञपुरुष, पुण्डरीकाक्ष, अच्युत, वामन, श्रीधर, कृष्ण, नृसिंह, अपराजित, पद्मनाभ, अज, श्रीश, दामोदर, अधोक्षज, सर्वेश्वरेश्वर, शुद्ध, अनन्त, विश्वरूपी, चक्र, गदी, शान्त, शंखी, गरुडध्वज, किरीटकौस्तुभधर तथा अव्यय परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूँ । जगन्नाथ ! मैं आपका ही हूँ, आप शीघ्र मुझमें निवास करें । वायु एवं आकाश की तरह मुझमें और आपमें कोई अन्तर न रहे । मैं नीलकमल के समान श्यामवर्ण, कमलनयन भगवान् विष्णु अथवा शौरि अथवा भगवान् श्रीकृष्ण आपको अपने सामने देख रहा हूँ, आप भी मुझे देखें ।’

इन मन्त्रों को पढ़कर भगवान् विष्णु को प्रणाम करे और उनका दर्शन करे तथा ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस मन्त्र को निरन्तर जप करता रहे । जो व्यक्ति प्रसन्नमुख, शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किये हुए, केयूर, कटक, कुण्डल, श्रीवत्स, पीताम्बर आदि से विभूषित, नवीन मेघ के समान श्यामस्वरूप भगवान् विष्णु का ध्यान कर प्राणों का परित्याग करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो भगवान् अच्युत में लीन हो जाता है ।

राजा युधिष्ठिर ने पुनः पूछा —
भगवन् ! अन्त समय की जो यह विधि आपने बतायी, वह स्वस्थचित्त रहने पर ही सम्भव है, परंतु अन्त समय में तरुण और नीरोगी पुरुषों की भी चित्त-वृत्ति मोह-ग्रस्त हो जाती है, वृद्ध और रोगियों की तो बात ही क्या है । अतिवृद्ध और रोगग्रस्त व्यक्ति के लिये कुशा के आसन पर ध्यान करना तो असम्भव ही है । इसलिये प्रभो ! दूसरा भी कोई सुगम उपाय बताने का कष्ट करें, जिससे साधन निष्फल न हो ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! यदि और कुछ करना सम्भव न हो तो सबसे सरल उपाय यह है कि चारों तरफ से चित्तवृत्ति हटाकर गोविन्द का स्मरण करते हुए प्राण का त्याग करना चाहिये, क्योंकि व्यक्ति जिस-जिस भाव का स्मरण कर प्राण त्यागता है, उसे वही भाव प्राप्त होता है । अतः सब प्रकार से निवृत्त होकर निरन्तर वासुदेव का चिन्तन करना चाहिये ।

राजन् ! अब आप भगवान् के चिन्तन-ध्यान के स्वरूपों को सुनें, जिन्हें महर्षि मार्कण्डेयजी ने मुझसे कहा था — राज्य, उपभोग, शयन, भोजन, वाहन, मणि, स्त्री, गन्ध, माल्य, वस्त्र, आभूषण आदि में यदि अत्यन्त मोह रहता है तो यह रागजनित ‘आद्य’ ध्यान है । यदि जलाने, मारने, तड़पाने, किसी के ऊपर प्रहार करने की द्वेषपूर्ण वृत्ति हो और दया न आये तो इसे ही क्रोधजनित ‘रौद्र’ ध्यान कहा गया है । वेदार्थ के चिन्तन, इन्द्रियों के उपशमन, मोक्ष की चिन्ता, प्राणियों के कल्याण की भावना आदि ही धर्मपूर्ण सात्त्विक (‘धर्म्य’) ध्यान है । समस्त इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों से निवृत्त हो जाना, हृदय में इष्ट-अनिष्ट किसी की भी चिन्ता नहीं करना और आत्मस्थिर होकर एकमात्र परमेश्वर का चिन्तन करना, परमात्मनिष्ठ हो जाना — यह ‘गुप्त’-ध्यान का स्वरूप है । ‘आद्य’ ध्यान से तिर्यक्-योनि तथा अधोगति की प्राप्ति होती है, ‘रौद्र’ ध्यान से नरक प्राप्त होता है । ‘धर्म्य (सात्त्विक) ध्यान से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और शुक्ल-ध्यान से मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिये ऐसा प्रयत्न करना चाहिये जिससे कल्याणकारी ‘शुक्ल’ ध्यान में ही मन-चित्त सदा लगा रहे ।
(अध्याय १२६)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.