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भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १३०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १३०
दीपदान की महिमा-प्रसंग में जातिस्मरा रानी ललिता का आख्यान

महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! वह कौन-सा व्रत, तप, नियम अथवा दान है, जिसके करने से इस लोक में अत्यन्त तेजोमय शरीर की प्राप्ति होती है । इसे आप बतायें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले —
महाराज ! किसी समय पिंगल नाम के एक तपस्वी मथुरा में आकर प्रवास कर रहे थे । उन तपस्वी से देवी जाम्बवती ने भी यही प्रश्न किया था, उस विषय को आप सुने — पिंगलमुनि ने कहा था — ‘देवि ! संक्रान्ति, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, वैधृति, व्यतिपातयोग, उत्तरायण, दक्षिणायन, विषुव, एकादशी, शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी, तिथिक्षय, सप्तमी तथा अष्टमी —om, ॐ इन पुण्य दिनों में स्नान कर, व्रतपरायण स्त्री अथवा पुरुष को अपने आँगन के मध्य घृत-कुम्भ और जलता हुआ दीपक भूमिदेव को दान देना चाहिये । इससे प्रदीप्त एवं ओजस्वी शरीर प्राप्त होता है ।

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — मधुसूदन ! भूमि के देवता कौन हैं ? मेरे इस संशय को दूर करें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! पूर्वकाल में सत्ययुग के आदि में त्रिशंकु नाम का एक (सूर्यवंशी) राजा था, जो सशरीर स्वर्ग को जाना चाहता था । पर ऋषि वसिष्ठ ने उसे चाण्डाल बना दिया, इससे त्रिशंकु बहुत दुःखी हुआ और उसने विश्वामित्रजी से समस्त वृत्तान्त कहा । इससे क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने दूसरी सृष्टि की रचना प्रारम्भ कर दी । उस सृष्टि में सभी देवताओं के साथ-साथ त्रिशंकु के लिये दूसरा स्वर्ग बनाना प्रारम्भ कर दिया और वाटक (सिंघाड़ा), नारियल, कोद्रव, कूष्माण्ड, ऊँट, भेड़ आदि का निर्माण किया और नये सप्तर्षि तथा देवताओं की प्रतिमा का भी निर्माण कर दिया । उस समय इन्द्र ने आकर इनकी प्रार्थना की और विश्वामित्रजी से सृष्टि रोकने का अनुरोध किया तथा दीपदान करने की सम्मति दी । जो प्रतिमाएँ इन्होंने बनायी थीं, उनमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि सभी देवताओं का वास हुआ और वे ही इस संसार के प्राणियों का कल्याण करने के लिये मर्त्यलोक में प्रतिमाओं में मूर्तिमान् रूप में स्थित हुए और नैवेद्यादि को प्रहण करते हैं तथा अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर वरदान देते हैं, वे ही भूमिदेव कहलाते हैं ।

राजन् ! इसीलिये उनके सम्मुख दीपदान करना चाहिये । भगवान् सूर्य के लिये प्रदत्त दीप की रक्तवस्त्र से निर्मित वर्तिका ‘पूर्णवर्ति’ कहलाती है । इसी प्रकार शिव के लिये निर्मित श्वेत वस्त्र की वर्तिका ‘ईश्वरवर्ति’, विष्णु के लिये निर्मित पीत वस्त्र की वर्तिका ‘भोगवर्ति’, गौरी के लिये निर्मित कुसुम रंग के वस्त्र से निर्मित वर्तिका ‘सौभाग्यवर्ति’, दुर्गा के लिये लाख के रंग के समान रंगवाले वस्त्र से निर्मित वर्तिका ‘पूर्णवर्तिका’ कहलाती है । ऐसे ही ब्रह्मा के लिये प्रदत्त वर्णिका ‘पद्मवर्ति’, नाग के लिये प्रदत्त वर्तिका ‘नागवर्ति’ तथा ग्रहों लिये प्रदत्त वर्तिका ‘ग्रहवर्ति’ कहलाती है । इन देवताओं के लिये ऐसे ही वर्तिकायुक्त दीपक का दान करना चाहिये । पहले देवता का पूजन करने के बाद बड़े पात्र में घी भरकर दीपदान करना चाहिये । इस विधि से जो दीपदान करता है, वह सुन्दर तेजस्वी विमान में बैठकर स्वर्ग में जाता है और वहाँ प्रलयपर्यन्त निवास करता है । जिस प्रकार दीप प्रकाशित होता है, उसी प्रकार दीपदान करनेवाला व्यक्ति भी प्रकाशित होता है । दीप के शिखा की भाँति उसकी भी ऊर्ध्वगति होती है । दीपक घृत या तेल के जलाने चाहिये, वसा, मज्जा आदि तरल-द्रव्य-युक्त के नहीं । जलते हुए दीप को बुझाना नहीं चाहिये, न ही उस स्थान से हटाना चाहिये । दीप बुझा देनेवाला काना होता है और दीप को चुरानेवाला अंधा होता है । दीपक बुझाना निन्दनीय कर्म है ।

राजन् ! आप दीपदान के माहात्म्य में एक आख्यान सुनें — विदर्भ देश में चित्ररथ नाम का एक राजा रहता था । उस राजा के अनेक पुत्र थे और एक कन्या थी, जिसका नाम था ललिता । वह सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से सम्पन्न अत्यन्त सुन्दर थी । राजा चित्ररथ ने धर्म का अनुसरण करनेवाले महाराज काशिराज चारुधर्मा के साथ ललिता का विवाह किया । चारुधर्मा की यह प्रधान रानी हुई । वह विष्णु-मन्दिर में सहस्रों प्रज्वलित दीपक प्रतिदिन जलाया करती थी । विशेषरूप से आश्विन-कार्तिक में बड़े समारोहपूर्वक दीपदान करती थी । वह चौराहों, गलियों, मन्दिरों, पीपल के वृक्ष के पास, गोशाला, पर्वतशिखर, नदीतटों तथा कुऑ पर प्रतिदिन दीप-दान करती थी । एक बार उसकी सपत्नियों ने उससे पूछा— ‘ललिते ! तुम दीपदान का फल हमें भी बताओ । तुम्हारी भक्ति देवताओं के पूजन आदि में न होक्न दीपदान में इतनी अधिक क्यों है ?’ यह सुनकर ललिता ने कहा — ‘सखियो ! तुमलोगों से मुझे कोई शिकायत नहीं है, न ही ईर्ष्या, इसलिये मैं तुमलोगों से दीपदान का फल कह रही हूँ । ब्रह्माजी ने मनुष्यों के उद्धार के लिये साक्षात् पार्वतीजी को मद्रदेश में श्रेष्ठ देविका नदी के रूप में पृथ्वी पर अवतरित किया, वह पापों का नाश करनेवाली है, उसमें एक बार भी स्नान करने से मनुष्य शिवजी का गण हो जाता है । उस नदी में जहाँ भगवान् विष्णु ने नृसिंहरूप से स्वयं स्नान किया था, उस स्थान को नृसिंहतीर्थ कहते हैं । नृसिंहतीर्थ में स्नान करनेमात्र से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं ।

सौवीर नाम के एक राजा थे, जिसके पुरोहित थे मैत्रेय । राजा ने देविका के तट पर एक विष्णुमन्दिर बनवाया । उस मन्दिर में मैत्रेयजी प्रतिदिन पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन और दीपदान किया करते थे । वे एक दिन कार्तिक की पूर्णिमा को यहाँ दीपदान का बहुत बड़ा उत्सव मना रहे थे । रात्रि के समय सभी लोगों को नींद आ गयी । उस मन्दिर में अपने पूर्वजन्म में मूषिकारूप में रहनेवाली मुझे दीपक की घृतवर्ति को खाने की इच्छा हुई । उसी क्षण मुझे बिल्ली की आवाज सुनायी दी । मैंने भयभीत होकर दीपक की बत्ती छोड़ दी और छिप गयी, वह दीपक बुझने नहीं पाया । मन्दिर में पूर्ववत् प्रकाश हो गया । कुछ काल बाद मेरी मृत्यु हो गयी, पुनः मैं विदर्भ देश में चित्ररथ राजा की राजकन्या हुई और काशिराज चारुधर्मा की मैं पटरानी हुई । सखियो ! कार्तिक मास में विष्णुमन्दिर में दीपदान का ऐसा सुन्दर फल होता है । चूँकि मैं मूषिका थी, मेरा दीपदान का कोई संकल्प नहीं था, फिर भी मुझसे अनायास जो मन्दिर में भयवश दीप प्रज्वलित हुआ अथवा मैं दीप को नष्ट न कर सकी, उस समय बिना परिज्ञान के मुझसे जो दीपदान का पुण्यकर्म हुआ था, उसी पुण्य-कर्म के फलस्वरूप आज मैं श्रेष्ठ महारानी पद पर स्थित हूँ और मुझे अपने पूर्वजन्म का ज्ञान है । इसी कारण मैं आज भी निरन्तर दीपदान करती रहती हूँ । मैं दीपदान के फल को भलीभाँति जानती हूँ, इसलिये नित्य देवालय में दीप जलाती हूँ ।’ ललिता का यह कथन सुनकर सभी सहेलियाँ भी दीपदान करने लगीं और बहुत समय तक राज्य-सुख भोगकर सभी अपने पति के साथ विष्णुलोक को चली गयीं । इस प्रकार जो भी पुरुष अथवा स्त्री दीप-दान करते हैं, ये उत्तम तेज प्राप्तकर विष्णुलोक को प्राप्त करते हैं ।
(अध्याय १३०)

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