January 12, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १३२ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १३२ फाल्गुन-पूर्णिमोत्सव महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! फाल्गुन की पूर्णिमा को ग्राम-ग्राम तथा नगर-नगर में उत्सव क्यों मनाया जाता है और गाँवों एवं नगरों में होली क्यों जलायी जाती है ? क्या कारण हैं कि बालक उस दिन घर-घर अनाप-शनाप शोर मचाते हैं ? अडाडा किसे कहते हैं, उसे शीतोष्णा क्यों कहा जाता हैं तथा किस देवता का पूजन किया जाता है । आप कृपाकर यह बताने का कष्ट करें । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — पार्थ ! सत्ययुग में रघु नाम के एक शूरवीर प्रियवादी सर्वगुणसम्पन्न दानी राजा थे । उन्होंने समस्त पृथ्वी को जीतकर सभी राजाओं को अपने वश में करके पुत्र की भाँति प्रजा का लालन-पालन किया । उनके राज्य में कभी दुर्भिक्ष नहीं हुआ और न किसी की अकाल मृत्यु हुई । अधर्म में किसी की रुचि नहीं थी । पर एक दिन नगर के लोग राजद्वार पर सहसा एकत्र होकर ‘त्राहि’, ‘त्राहि’ पुकारने लगे । राजा ने इस तरह भयभीत लोगों से कारण पूछा । उन लोगों ने कहा कि महाराज ! ढोंढा नाम की एक राक्षसी प्रतिदिन हमारे बालकों को कष्ट देती हैं और उसपर किसी मन्त्र-तन्त्र, ओषधि आदि का प्रभाव भी नहीं पड़ता, उसका किसी भी प्रकार निवारण नहीं हो पा रहा है । नगरवासियों का यह वचन सुनकर विस्मित राजा ने राज्यपुरोहित महर्षि वसिष्ठ मुनि से उस राक्षसी के विषय में पूछा । तब उन्होंने राजा से कहा — ‘राजन् ! माली नाम का एक दैत्य है, उसी की एक पुत्री है, जिसका नाम है ढोंढा । उसने बहुत समय तक उग्र तपस्या करके शिवजी को प्रसन्न किया । उन्होंने उससे वरदान मांगने को कहा ।’ इसपर ढोंढ़ा ने यह वरदान माँगा कि ‘प्रभो ! देवता, दैत्य, मनुष्य आदि मुझे न मार सके तथा अस्त्र-शस्त्र आदि से भी मेरा वध न हो, साथ ही दिन में, रात्रि में, शीतकाल, उष्णकाल तथा वर्षाकाल में, भीतर अथवा बाहर कहीं भी मुझे किसीसे भय न हो ।’ इस पर भगवान् शंकर ने ‘तथास्तु’ कहकर यह भी कहा कि ‘तुम्हें उन्मत्त बालकों से भय होगा । इस प्रकार वर देकर भगवान् शिव अपने धाम को चले गये । वही ढोंढा नामक कामरूपिणी राक्षसी नित्य बालक को और प्रजा को पीड़ा देती है । ‘अडाडा’ मन्त्र का उच्चारण करने पर वह ढोंढा शान्त हो जाती है । इसलिये उसको ‘अडाडा’ भी कहते हैं । यही उस राक्षसी ढोंढा का चरित्र है । अब मैं उससे पीछा छुड़ाने का उपाय बता रहा हूँ । राजन् ! आज फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को सभी लोगों को निडर होकर क्रीडा करनी चाहिये और नाचना, गाना तथा हँसना चाहिये । बालक लकड़ियों के बने हुए तलवार लेकर वीर सैनिकों की भाँति हर्ष से युद्ध के लिये उत्सुक हो दौड़ते हुए निकल पड़े और आनन्द मनायें । सूखी लकड़ी, उपले, सूखी पत्तियाँ आदि अधिक-से-अधिक एक स्थान पर इकट्ठा कर उस ढेर में रक्षोघ्न मन्त्रों से अग्नि लगाकर उसमें हवन कर हँसकर ताली बजाना चाहिये । उस जलते हुए ढेर की तीन बार परिक्रमा कर बच्चे, बूढ़े सभी आनन्ददायक विनोदपूर्ण वार्तालाप करें और प्रसन्न रहें । इस प्रकार रक्षामन्त्रों से, हवन करने से, कोलाहल करने से तथा बालक द्वारा तलवार के प्रहार के भय से उस दुष्ट राक्षसी का निवारण हो जाता है । वसिष्ठजी का यह वचन सुनकर राजा रघु ने सम्पूर्ण राज्य में लोगों से इसी प्रकार उत्सव करने को कहा और स्वयं भी उसमें सहयोग किया, जिससे वह राक्षसी विनष्ट हो गयी । उसी दिन से इस लोक में ढोंढा का उत्सव प्रसिद्ध हुआ और अडाडा की परम्परा चली । ब्राह्मण द्वारा सभी दुष्टों और सभी रोगों को शान्त करनेवाला वसोर्धारा-होम इस दिन किया जाता है, इसलिये इसको होलिका भी कहा जाता है । सब तिथियों का सार एवं परम आनन्द देनेवाली यह फाल्गुन की पूर्णिमा तिथि है । इस दिन रात्रि को बालकों की विशेषरूप से रक्षा करनी चाहिये । गोबर से लिपे-पुते घर के आँगन में बहुत से खङ्गहस्त बालक बुलाने चाहिये और घर में रक्षित बालक को काष्ठ-निर्मित खड्ग से स्पर्श कराना चाहिये । हँसना, गाना, बजाना, नाचना आदि करके उत्सव के बाद गुड़ और बढ़िया पकवान देकर बालकों को विसर्जित करना चाहिये । इस विधि से ढोंढा का दोष अवश्य शान्त हो जाता है । महाराज युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! दूसरे दिन चैत्र मास से वसन्त ऋतु का आगमन होता है, उस दिन क्या करना चाहिये ? भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — महाराज ! होली के दूसरे दिन प्रतिपदा में प्रातःकाल उठकर आवश्यक नित्यक्रिया से निवृत्त हो पितरों और देवताओं के लिये तर्पण-पूजन करना चाहिये और सभी दोषों की शान्ति के लिये होलिका की विभूति की वन्दना कर उसे अपने शरीर में लगाना चाहिये । घर के आँगन को गोबर से लीपकर उसमें एक चौकोर मण्डल बनाये और उसे रंगीन अक्षतों से अलंकृत करे । उस पर एक पीठ रखे । पीठ पर सुवर्णसहित पल्लवों से समन्वित कलश स्थापित करे । उसी पीठ पर श्वेत चन्दन भी स्थापित करना चाहिये । सौभाग्यवती स्त्री को सुन्दर वस्त्र, आभूषण पहनकर दही, दूध, अक्षत, गन्ध, पुष्प, वसोर्धारा आदि से उस श्रीखण्ड की पूजा करनी चाहिये । फिर आम्रमंजरी सहित उस चन्दन का प्राशन करना चाहिये । इससे आयु की वृद्धि, आरोग्य की प्राप्ति तथा समस्त कामनाएँ सफल होती हैं । भोजन के समय पहले दिन का पकवान थोड़ा-सा खाकर इच्छानुसार भोजन करना चाहिये । इस विधि से जो फाल्गुनोत्सव मनाता है, उसके सभी मनोरथ अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं । आधि-व्याधि सभी का विनाश हो जाता है और वह पुत्र, पौत्र, धन-धान्य से पूर्ण हो जाता है । यह परम पवित्र, विजयदायिनी पूर्णिमा सब विघ्नों को दूर करनेवाली है तथा सब तिथियों में उत्तम है । (अध्याय १३२) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe