भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १३३ से १३६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १३३ से १३६
दमनकोत्सव, दोलोत्सव तथा रथयात्रोत्सव आदि का वर्णन

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! इस संसार में बहुत से सुगन्धित पुष्प हैं, परंतु उनको छोड़कर दमनक (दौना) नामक पुष्प देवताओं को क्यों चढ़ाया जाता है तथा दोलोत्सव और रथयात्रोत्सव मनाने की क्या विधि है, इसका वर्णन करने की आप कृपा करें ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा — पार्थ ! मन्दराचल पर्वत पर दमनक नाम का एक श्रेष्ठ तथा अत्यन्त सुगन्धित वृक्ष उत्पन्न हुआ । om, ॐउसके दिव्य गन्ध के प्रभाव से देवाङ्गनाएँ विमुग्ध हो गयीं और ऋषि-मुनि भी जप, तप वेदाध्ययन आदि से च्युत हो गये । इस प्रकार उसके गन्ध से सब लोग उन्मत्त हो गये । सभी शुभ कार्यों एवं मङ्गल-कार्य में विघ्न उपस्थित हो गया । यह देखकर ब्रह्माजी को बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ और वे दमनक से बोले — ‘दमनक ! मैंने तुम्हें संसार (के दोषों) के दमन (शान्त) करने के लिये उत्पन्न किया है, किंतु तुमने सम्पूर्ण संसार को उद्वेलित कर दिया है, तुम्हारा यह काम ठीक नहीं है । सज्जनों का कहना है कि अतिशय सर्वत्र वर्ज्य है । इसलिये ऐसा कर्म करना चाहिये, जिससे लोगों में उद्वेग न पैदा हो । एक अपकार करनेवाला व्यक्ति अधम कहा जाता है, परंतु जो अनेकों का अपकार करने में प्रवृत्त हो गया हो, उसके लिये क्या कहा जाय ? तुमने तो बहुत से लोगों को दुःख दिया है, इसलिये मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि कोई भी व्यक्ति तुम्हारे पुष्प को देवकार्य तथा पितृकार्य में आज से ग्रहण नहीं करेगा ।’ ब्रह्माजी द्वारा दिये गये शाप को सुनकर दमनक ने कहा — ‘महाराज ! मैंने द्वेषवश अथवा क्रोधवश किसी का अपकार नहीं किया है । आपने ही मुझे इतना सुगन्ध दिया है कि उसके प्रभाव से सभी लोग स्वयं उन्मत्त हो जाते हैं । इसमें मेरा क्या दोष है । आपने ही मेरा ऐसा स्वभाव बनाया है । जिसकी जो प्रकृति होती है, उसे वह त्याग नहीं सकता, क्योंकि प्रकृति त्यागने में वह असमर्थ होता है । निरपराध होते हुए भी आपने मुझे शाप दिया है ।’ दमनक की इस तर्कसंगत बात को सुनकर ब्रह्माजी ने कहा — ‘दमनक ! तुम्हारा कथन ठीक है । मैंने तुम्हें शाप दिया है । उसका मुझे हार्दिक दुःख है । उसकी निवृत्ति के लिये मैं तुझे वरदान देता हूँ कि वसन्त-ऋतु में तुम सभी देवताओं के मस्तक पर चढ़ोगे । जो व्यक्ति भक्तिभाव से दमनकपुष्प देवताओं पर चढ़ायेगा, उसे सदा सुख प्राप्त होगा । चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी दमनक-चतुर्दशी के नाम से विख्यात होगी और उस दिन व्रत-नियम के पालन करने से व्रती के सभी पाप नष्ट हो जायेंगे । इतना कहकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये और दमनक भी अपने गन्ध से त्रिभुवन को वासित करता हुआ शिवजी के निवास स्थान मन्दराचल पर रहने लगा । उसी दिन से लोक में दमनक-पूजा प्रसिद्ध हुई ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! अब मैं दोलोत्सव का वर्णन कर रहा हूँ । किसी समय नन्दनवन में दोलोत्सव हुआ । वसन्त ऋतु में देवाङ्गनाएँ और देवता मिलकर दोला-क्रीड़ा करने लगे । नन्दनवन में यह मनोहारी उत्सव देखकर भगवती पार्वतीजी ने शंकरजी से कहा — ‘भगवन् ! इस क्रीड़ा को आप देखें । आप मेरे लिये भी एक दोला बनवाइये, जिस पर मैं आपके साथ बैठकर दोला-क्रीड़ा कर सकूँ ।’ पार्वतीजी के यह कहने पर शिवजी ने देवताओं को अपने पास बुलाकर दोला बनाने को कहा । देवताओं ने शिवजी के कथनानुसार सुन्दर उत्तम इष्टापूर्तमय दो स्तम्भ गाड़कर उस पर सत्यस्वरूप एक लकड़ी का पट रखा और वासुकि नाग की रस्सी बनाकर उसके फणों पर बैठने के लिये रत्नजटित पीठ की रचना की । उस फण के ऊपर अत्यन्त मृदुल कपास और रेशमी वस्त्र बिछाकर दोला की शोभा बढ़ाने के लिये मोतियों के गुच्छों और फूल-मालाओं से उसे सजा दिया । इस प्रकार देवताओं ने अति उत्तम दोला तैयार कर भगवान् शंकर को आदरपूर्वक प्रदान किया । अनन्तर भगवान् चन्द्रभूषण भगवती पार्वती के साथ दोला पर बैठ गये । भगवान् शंकर के पार्षद दोला झुलाने लगे तथा जया और विजया दोनों सखियाँ चँवर डुलाने लगीं । उस समय पार्वतीजी ने बहुत ही मधुर स्वर में गीत गाया, जिससे शिवजी आनन्दमग्न हो गये । गन्धर्व गीत गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं और चारण विविध प्रकार के बाजे बजाने में संलग्न हो गये । परंतु शिवजी के दोला-विहार से सभी पर्वत काँफ्ने लगे, समुद्र में हलचल मच गया, प्रचण्ड पवन चलने लगा, सारा लोक त्रस्त हो गया । इस प्रकार त्रैलोक्य को अति व्याकुल देखकर इन्द्रादि सभी देवगणों ने सभी पापों का नाश करनेवाले शिवजी के पास आकर प्रणाम किया और प्रार्थना कर कहने लगे —’नाथ ! अब आप दोला-लीला से निवृत्त हों, क्योंकि त्रैलोक्य को क्षोभ प्राप्त हो रहा है । इस प्रकार देवताओं की प्रार्थना सुनकर प्रसन्न हो शिवजी ने दोला से उतरकर कहा कि ‘आज से वसन्त ऋतु में जो व्यक्ति इस दोलोत्सव को करेगा तथा नैवेद्य अर्पित कर तद् देवताओं के मूल मन्त्रों से उन्हें दोला पर आरोहण करायेगा, करेगा, आनन्द मनायेगा और स्तुति-पाठ करेगा, वह सभी अभीष्टों को प्राप्त करेगा ।’

भगवान् श्रीकृष्ण पुनः बोले — महाराज ! अब मैं रथयात्रा का वर्णन करता हूँ ।

एक बार चैत्र मास में मलयपर देवताओं से समावृत भगवान् शंकर शान्तभाव से विराजमान थे । इसी समय मृत्युलोक में इधर-उधर घूमते हुए देवर्षि नारद ब्रहालोक से भगवान् शंकर के पास आये । उन्होंने भगवान् को प्रणाम किया और आसन पर बैठ गये । सर्वज्ञ भगवान् शंकर ने देवर्षि नारद से पूछा — ‘मुने ! आपका आगमन कहाँ से हो रहा है ?’ नारद बोले — ‘देवदेव ! मैं मृत्युलोक से आ रहा हूँ । वहाँ कामदेव के मित्र वसन्त ऋतु ने सारा संसार अपने वश में कर लिया है । वहाँ मन्द-मन्द सुगन्धित मलय पवन बहता है । वसन्त ऋतु के सहयोगी–कोकिल, आम्रमञ्जरी आदि सभी उसके कार्य में सहयोग प्रदान कर रहे हैं । नगर-नगर और ग्राम-ग्राम में वसन्त ऋतु यह घोषणा कर रहा है कि इस संसार का ही नहीं, अपितु तीनों लोकों का स्वामी एकमात्र कामदेव है । भगवन् ! उसी के शासन में सभी लोग उन्मत से हो रहे हैं । चैत्र मास का यह विचित्र प्रभाव देखकर मैं आपसे निवेदन करने आया हूँ ।’ नारदजी का वचन सुनकर भगवान् शंकर गन्धर्व, अप्सरा, मुनिगण और सभी देवताओं को साथ लेकर मृत्युलोक में आये और उन्होंने देखा कि जैसा नारदजी ने कहा था, वही स्थिति मृत्युलोक में व्याप्त है । सब लोग उन्मत्त हो गये हैं । आनन्द में मग्न हैं । शिवजी वसन्त की शोभा देख ही रहे थे कि उनके साथ जो देवता आदि आये थे, वे भी आनन्दित हो गाने-बजाने लगे । वसन्त के प्रभाव से देवताओं को भी क्षुब्ध देखकर शंकर ने यह विचार किया कि यह तो बड़ा अनर्थ से रहा है । इसके प्रतीकार का कोई-न-कोई उपाय करना ही चाहिये । जो अनर्थ होता हुआ देखकर भी उसके निवारण का उपाय नहीं करता, वह अवश्य ही विपत्ति में पड़कर दुःख को प्राप्त करता है । अब मुझे इन सबकी उन्माद से रक्षा करनी चाहिये और स्वामिभक्त वसन्त ऋतु का भी सम्मान रखना चाहिये । यह विचारकर शिवजी ने वसन्त ऋतु को अपने पास बुलाकर कहा कि ‘वसन्त ! तुम केवल चैत्र मास में अपना प्रभाव प्रकट करो, चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में सभी जीवों को और विशेष रूप से देवताओं को सुख देनेवाले हो जाओ । अनन्तर देवताओं को स्वस्थचित्त किया और यह भी कहा कि ‘जो व्यक्ति वसन्त ऋतु में रथयात्रोत्सव करेगा, यह इस संसार में दिव्य भोगों को भोगनेवाला तथा नीरोग होगा ।’ इतना कहकर शिवजी सभी देवताओं के साथ अपने लोक को चले गये । वसन्त ऋतु भी शिवजी की आज्ञानुसार वन में विहार करता हुआ अन्तर्धान हो गया । उसी दिन से लोक में रथयात्रोत्सव का प्रचार-प्रसार हुआ । जो देवताओं की रथयात्रा करता है, उसके धन, पशु, पुत्र आदि की वृद्धि होती है और अन्त में वह सद्गति को प्राप्त करता है ।

राजन् ! अब आप विशेष तिथियों का वर्णन सुनें । तृतीया को गौरी, चतुर्थी को गणपति, पञ्चमी को लक्ष्मी अथवा सरस्वती, षष्ठी को स्कन्द, सप्तमी को सूर्य, अष्टमी और चतुर्दशी को शिव, नवमी को चण्डिका, दशमी को वेदव्यास आदि शान्तचित्त ऋषि-महर्षि, एकादशी तथा द्वादशी भगवान् विष्णु, त्रयोदशी को कागदेव और पूर्णिमा को सभी देवताओं का अर्चन-पूजन करना चाहिये । इस प्रकार देवताओं की निर्दिष्ट तिथियों में ही दमनकोत्सव, दोलोत्सव और रथयात्रा आदि उत्सव करने चाहिये । इस प्रकार वसन्त ऋतु में उत्सव करनेवाला व्यक्ति बहुत काल तक स्वर्ग का सुख भोगकर पुनः चक्रवर्ती राजा का पद प्राप्त करता है ।

भगवान् श्रीकृष्ण पुनः बोले — राजन् । जब भगवान् शंकर ने अपने नेत्रों की ज्वाला से कामदेव को भस्म कर डाला था, उस समय कामदेव की पत्नियाँ रति और प्रीति दोनों रो-रोकर विलाप करने लगीं । इस पर पार्वतीजी के हदय में दया उत्पन्न हो गयी और वे शिवजी से प्रार्थना करने लगी — “महाराज ! आप कृपाकर इस कामदेव को जीवनदान दें और शरीर प्रदान कर दें ।’ यह सुनकर प्रसन्न हो शिवजी ने कहा — ‘पार्वती ! यद्यपि अब यह मूर्तिमान रूप में जीवित नहीं हो सकता, परंतु चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को प्रतिवर्ष एक बार यह मन से उत्पन्न होकर जीवित होगा । चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को जो भी कामदेव का पूजन करेगा, वह वर्ष भर सुखी रहेगा । इतना कहकर शिव कैलास पर चले गये । राजन् ! इसकी विधि को सुनें — चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को स्नान कर एक अशोकवृक्ष बनाकर उसके नीचे रति, प्रीति और वसन्तसहित कामदेव की प्रतिमा को सिंदूर और हल्दी से बनाना चाहिये अथवा सुवर्ण की मूर्ति स्थापित करनी चाहिये । मूर्ति ऐसी होनी चाहिये, जिसकी सेवामें विद्याधरियाँ हाथ जोड़े हों, अप्सराएँ जिसके चारों तरफ खड़ी हों, गन्धर्व नृत्य कर रहे हों । इस प्रकार मध्याह्न के समय गन्ध, पुष्प, धूप, अक्षत, ताम्बूल, दीप, अनेक प्रकार के फल, नैवेद्य आदि उपचारों से कामदेव की तथा अपने पति की भी पूजा करे । जो इस प्रकार प्रतिवर्ष कामोत्सव करता है, वह सुभिक्ष, क्षेम, आरोग्य, लक्ष्मी आदि को प्राप्त करता है । विष्णु, ब्रह्मा तथा सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह, कामदेव, वसन्त और गन्धर्व, असुर, राक्षस, सुपर्ण, नाग, पर्वत आदि उसपर प्रसन्न हो जाते हैं । उसको कभी शोक नहीं होता । जो स्त्री वसन्त ऋतु में रति, प्रीति, वसन्त, मलयानिल आदि परिवारसहित कामदेव का भक्तिपूर्वक पूजन करती है, वह सौभाग्य, रूप, पुत्र और सुख को प्राप्त करती है ।

महाराज ! इसी प्रकार ज्येष्ठ मास के प्रतिपद् तिथि से लेकर पूर्णिमा तक भगवती भूतमाता का पूजनोत्सव मनाना चाहिये । अनेक प्रकार के मनोविनोदपूर्ण एवं हास्यपूर्ण गीत, नाटक आदिका आयोजन करना चाहिये । नवमी अथवा एकादशी को दीपक जलाकर अतीव भक्तिपूर्वक भगवती के समीप ले जाने चाहिये ।

इस प्रकार पूर्णिमा तक प्रदोष के समय दीपमहोत्सव करना चाहिये और द्वादशी के दिन भूतमाता का विशेष उत्सव मनाना चाहिये । इस प्रकार अनेक प्रकार के उत्सवों से भूतमाता का पूजन करनेवाले व्यक्ति सपरिवार प्रसन्न रहते हैं और उनके घर में किसी प्रकार का विघ्न उत्पन्न नहीं होता । यह भूतमाता भगवती पार्वती के अंश से समुद्भूत हैं ।
(अध्याय १३३–१३६)

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