January 12, 2019 | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १३७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १३७ श्रावणपूर्णिमा को रक्षाबन्धन की विधि भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! प्राचीन काल में देवासुर-संग्राम में देवताओं द्वारा दानव पराजित हो गये । दुःखी होकर वे दैत्यराज बलि के साथ गुरु शुक्राचार्यजी के पास गये और अपनी पराजय का वृतान्त बतलाया । इस पर शुक्राचार्य बोले — ‘दैत्यराज ! आपको विषाद नहीं करना चाहिये । दैववश काल की गति से जय-पराजय तो होती ही रहती हैं । इस समय वर्षभर के लिये तुम देवराज इन्द्र के साथ संधि कर लो, क्योंकि इन्द्र-पत्नी शची ने इन्द्र को रक्षा-सूत्र बाँधकर अजेय बना दिया है । उसी के प्रभाव से दानवेन्द्र ! तुम इन्द्र से परास्त हुए हो । एक वर्ष तक प्रतीक्षा करो, उसके बाद तुम्हारा कल्याण होगा । अपने गुरु शुक्राचार्य के वचनों को सुनकर सभी दानव निश्चिन्त हो गये और समय की प्रतीक्षा करने लगे । राजन ! यह रक्षाबन्धन का विलक्षण प्रभाव है, इससे विजय, सुख, पुत्र, आरोग्य और धन प्राप्त होता है । राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन ! किस तिथि में किस विधि से रक्षाबन्धन करना चाहिये । इसे बतायें । भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल उठकर शौच इत्यादि नित्य-क्रिया से निवृत्त होकर श्रुति-स्मृति-विधि से स्नान कर देवताओं और पितरों का निर्मल जल से तर्पण करना चाहिये तथा उपाकर्म-विधि से वेदोक्त ऋषियों का तर्पण भी करना चाहिये । ब्राह्मणवर्ग देवताओं के उद्देश्य से श्राद्ध करें । तदनन्तर अपराह्ण-काल में रक्षापोटलिका इस प्रकार बनाये — कपास अथवा रेशम के वस्त्र में अक्षत, गौर सर्षप, सुवर्ण, सरसों, दूर्वा तथा चन्दन आदि पदार्थ रखकर उसे बाँधकर एक पोटलिका बना ले तथा उसे एक ताम्रपात्र में रख ले और विधिपूर्वक उसको प्रतिष्ठित कर ले । आँगन को गोबर से लीपकर एक चौकोर मण्डल बनाकर उसके ऊपर पीठ स्थापित करे और उसके ऊपर मन्त्री सहित राजा को पुरोहित के साथ बैठना चाहिये । उस समय उपस्थित जन प्रसन्न-चित्त रहें । मंगल-ध्वनी करें । सर्वप्रथम ब्राह्मण तथा सुवासिनी स्त्रियाँ अर्ध्यादि के द्वारा राजा की अर्चना करे । अनन्तर पुरोहित उस प्रतिष्ठित रक्षापोटली को इस मन्त्र का पाठ करते हुए राजा के दाहिने हाथ में बाँधे – “येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: । तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥” (उत्तरपर्व १३७ । २०) ‘जिस (सत्य) वचन द्वारा महाबली राक्षसराज बलि बांधे गये थे, उसी से मैं भी तुम्हें बाँध रहा हूं, रक्षे ! कभी भी चल न होना अर्थात् शिथिल बन्धन न होकर सर्वदा दृढ़ रहना ।’ तत्पश्चात राजा को चाहिये कि सुन्दर वस्त्र, भोजन और दक्षिणा देकर ब्राह्मणों की पुजाकर उन्हें संतुष्ट करे । यह रक्षाबन्धन चारों वर्णों को करना चाहिये । जो व्यक्ति इस विधि से रक्षाबन्धन करता है, वह वर्षभर सुखी रहकर पुत्र-पौत्र और धन से परिपूर्ण हो जाता है । (अध्याय १३७) Related