भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १३९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १३९
इन्द्रध्वजोत्सव के प्रसंग में उपरिचर वसुका वृत्तान्त

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — महाराज ! पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम के समय ब्रह्मा आदि देवताओं ने ‘इन्द्र को जय प्राप्त हो’, इसलिये ध्वज-यष्टि का निर्माण किया । ध्वजयष्टि को देवताओं, सिद्ध-विद्याधर तथा नाग आदि ने मेरु पर्वत पर स्थापित कर सभी उपचारों — पुष्प, धूप तथा दीपादि से उसकी पूजा की और अनेक प्रकार के आभूषण, छत्र, घण्टा, किंकिणी आदि से उसे अलंकृत किया । om, ॐउस ध्वजयष्टि को देखकर दैत्य त्रस्त हो गये और युद्ध में देवताओं ने उन्हें पराजित कर स्वर्ग का राज्य प्राप्त कर लिया । दैत्य पाताल लोक को चले गये । उसी दिन से देवता उस इन्द्रयष्टि का पूजन और उत्सव करने लगे ।

एक समय अपने महान् पुण्य-प्रताप के कारण राजा उपरिचर वसु स्वर्ग में आये । उनका देवताओं ने बहुत सम्मान किया । उनसे प्रसन्न होकर इन्द्र ने वह ध्वज उन्हें दिया और वर देते हुए कहा कि पृथ्वी में इस ध्वज की आप पूजा करें, इससे आपके राज्य के सभी दोष दूर हो जायेंगे और जो भी राजा वर्षा-ऋतु (भाद्रपद शुक्ल द्वादशी) श्रवण नक्षत्र में इसका पूजन करेगा, उसके राज्य में क्षेम और सुभिक्ष बना रहेगा, किसी प्रकार का उपद्रव नहीं होगा, प्रजाएँ प्रसन्न एवं नीरोग होंगी, सर्वत्र धार्मिक यज्ञ होंगे । राज्य में प्रचुर धन-सम्पत्ति होगी । इन्द्र का यह वचन सुनकर राजा उपरिचर वसु इन्द्रध्वज को लेकर अपने नगर में चले आये और प्रतिवर्ष इन्द्रध्वज की पूजा कर उत्सव मनाने लगे । इस ध्वजयष्टि को भी प्रत्यक्ष देवी माना गया है ।

अब मैं इन्द्रध्वज के उत्सव की विधि बता रहा हूँ । बीस हाथ लम्बे, सुपुष्ट, उत्तम काष्ठ की एक यष्टि बनाकर उसे सुन्दर रंग-बिरंगे वस्त्रों से सुसज्जित करे । उसमें तेरह आभूषण लगवाये । पहला आभूषण पिटक चौकोर होता है, इसे ‘लोकपाल पिटक’ कहते हैं, दूसरा आभूषण लाल रंग का वृत्ताकार होता है, इसी प्रकार अन्य देवसम्बन्धी पिटकों का निर्माण कर तथा यष्टि में बाँधकर कुशा, पुष्पमाला, घण्टा, चामर आदि से समन्वित उस ध्वज को स्थापित करे । अनन्तर हवन कराकर गुड से युक्त मिष्टान्न और पायस ब्राह्मणों को भोजन कराये । भोजनोपरान्त उन्हें दक्षिणा दे । उस ध्वज को धीरे से खड़ाकर स्थापित कर दे । नौ दिन या सात दिन तक उत्सव मनाना चाहिये । अनेक प्रकार के नृत्य, गायन, वादन कराते हुए मल्लयुद्ध आदि उत्सव भी कराने चाहिये । वस्त्राभूषण तथा स्वादिष्ट भोजनादि से सभी लोगों को संतुष्ट कर सम्मानित करना चाहिये । रात्रि को जागरण कर ध्वज की भलीभाँति रक्षा करनी चाहिये ।

इन्द्रध्वज का पूजन, अर्चन तथा उत्सवादि कार्य सम्पन्न करना चाहिये । यदि एक वर्ष करने के बाद दूसरे वर्ष किसी व्यवधान के कारण पूजनादि कार्य न हो सके तो पुनः बारह वर्ष बाद ही करना चाहिये । ध्वज के अङ्ग-भङ्ग होने पर अनेक प्रकार के उपद्रव प्रारम्भ हो जाते हैं । यदि ध्वज पर कौआ बैठ जाय तो दुर्भिक्ष पड़ता है, उलूक बैठे तो राजा की मृत्यु हो जाती हैं । कपोत बैठे तो प्रजा का विनाश होता है । इसलिये सावधान होकर उसकी रक्षा करनी चाहिये और भक्तिपूर्वक इन्द्रध्वज का उत्थापन कर पूजन करना चाहिये । यदि प्रमादवश ध्वज़ गिर पड़े या टूट जाय तो सोने अथवा चाँदी का ध्वज बनाकर उसका उत्थापन और अर्चनकर शान्तिक-पौष्टिक आदि कर्म सम्पन्न कराये । ब्राह्मण को भोजन आदि से संतुष्ट करना चाहिये । इस विधि से जो राजा इन्द्रध्वज की यात्रा एवं पूजा करता है, उसके राज्य में यथेष्ट वृष्टि होती है । मृत्यु और अनेक प्रकार के ईति-भीति आदि दुर्योगों, कष्टों का भय नहीं रहता तथा राजा शत्रुओं को पराजित कर चिर काल तक राज्य सुख भोगकर अन्त समय में इन्द्रलोक को प्राप्त कर लेता है ।
(अध्याय १३९)

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