January 13, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १४५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १४५ नक्षत्रार्चन-विधि (रोगावलि-चक्र) भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — राजन् ! एक बार कौशिक मुनि अग्निहोत्र करने के बाद सुखपूर्वक बैठे हुए थे । उसी समय महर्षि गर्ग ने उनसे पूछा — ‘ब्रह्मन् ! बंदीगृह में निरुद्ध हो अथवा विषम परिस्थितियों में अवरुद्ध, दस्यु, शत्रु अथवा हिंस्र पशुओं से घिरा हो तथा व्याधियों से पीड़ित तो ऐसे व्यक्ति की कैसे मुक्ति हो सकती है । इसे आप मुझे बतलायें ।’ कौशिक मुनि बोले — गर्भाधान के समय, जन्म-नक्षत्र में, मृत्यु-सम्बन्धी ज्ञान होने पर जिसको रोग-व्याधि उत्पन्न हो जाती है, उसे कष्ट तो होता ही है, उसकी मृत्यु भी सम्भाव्य है । यदि कृत्तिका नक्षत्र में कोई व्याधि होती है तो वह पीड़ा नौ रात तक बनी रहती है । रोहिणी में तीन रात तक, मृगशिरा में पाँच रात तक और यदि आर्द्रा में रोग उत्पन्न हो तो वह व्याधि प्राण-वियोगिनी हो जाती है । पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र में सात रात, आश्लेषा में नौ रात, मघा में बीस दिन, पूर्वाफाल्गुनी में दो मास, उत्तराफाल्गुनी में तीन पक्ष (४५ दिन), हस्त में स्वल्पकालिक पीड़ा, चित्रा में आधे मास, स्वाती में दो मास, विशाखा में बीस दिन, अनुराधा में दस दिन, ज्येष्ठा में आधे मास और मूल में मृत्यु हो जाती है । पूर्वाषाढ़ा में पंद्रह दिन, उत्तराषाढ़ा में बीस दिन, श्रवण में दो मास, धनिष्ठा में आधा मास, शतभिषा में दस दिन, पूर्वाभाद्रपद में नौ दिन, उत्तराभाद्रपद में पंद्रह दिन, रेवती में दस दिन तथा अश्विनी में एक दिन-रात कष्ट होता है । मुने ! कुछ विशिष्ट नक्षत्रों में व्याधि उत्पन्न होनेपर मनुष्य के प्राणतक भी चले जाते हैं, इसमें संदेह नहीं । इसकी विशेष जानकारी के लिये ज्योतिषियों से भी परामर्श करना चाहिये । रोग के प्रारम्भिक नक्षत्र का ज्ञान हो जाने पर उस नक्षत्र के अधिदेवता के निमित्त निर्दिष्ट द्रव्यों द्वारा हवन करने से रोग-व्याधि की शान्ति हो जाती है । व्याधि नक्षत्र के किस चरण में उत्पन्न हुई है, इसका ठीक पता लगाकर आपत्तिजनक स्थितियों में व्याधि से मुक्ति के लिये उस नक्षत्र के स्वामी के मन्त्रों से अभीष्ट समिधा द्वारा हवन करना चाहिये । अश्विनी नक्षत्र में क्षीरी (दूधवाले–वट, पीपल, खिरनी आदि) वृक्षों की समिधा से अश्विनीकुमारों के मन्त्रों से हवन करना चाहिये । भरणी में ‘यमदैवत यमाय स्वाहा० ‘ इस मन्त्र से घी, मधु और तिल से हवन करना चाहिये । इसी प्रकार कृत्तिका में भी अग्नि के मन्त्रों से हवन करना चाहिये । रोहिणी में प्रजापति मन्त्र से, मृगशिरा में घी से, पुनर्वसु में दितिदेवी के लिये दूध और घी-मिश्रित आहुति प्रदान करनी चाहिये । पुष्य में बृहस्पति के मन्त्रों से घी और दूध द्वारा, आश्लेषा के देवता सर्प हैं, अतः बड़ के दूध और घी से मिश्रित आहुति देनी चाहिये । इसी प्रकार स्वाती, मूल आदि सभी नक्षत्रों में घी-मिश्रित आहुति देनी चाहिये । मुने ! ब्रह्माजी ने यह बतलाया है कि विधिपूर्वक गायत्री-मन्त्र द्वारा भी प्रायः एक सहस्र (१,०००) घृत की आहुतियाँ देने पर सम्पूर्ण ज्वरों एवं व्याधियों का सद्यः उपशमन हो सकता है । क्योंकि गायत्री का अर्थ ही है कि गान, हवन, पूजन द्वारा त्राण करनेवाली । (अध्याय १४५) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe