भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १४६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १४६
अपराधशतशमन-व्रत

महर्षि वसिष्ठजी ने राजा इक्ष्वाकु से कहा — राजन् ! अब आपको एक व्रत बतला रहा हूँ, जिससे महाफल की प्राप्ति होती है और सैकड़ों दोष-पापों का शमन हो जाता है ।

राजा इक्ष्वाकु ने पूछा — ब्रह्मन् ! मुख्यरूप से सौ अपराध या दोष-पाप कौन-कौन हैं और वह व्रत कौन-सा है, जिसके अनुष्ठानमात्र से उनकी शान्ति हो जाती है । om, ॐइस व्रत में किस देवता की पूजा होती है और किस समय यह व्रत किया जाता है, आप बतलाने की कृपा करें ।

महर्षि वसिष्ठ बोले — महाबाहो ! अपराध-शत-शमन-व्रत को सुनो, जिसका अनुष्ठान करने मात्र से मनुष्य को सभी प्रकार की कामनाएँ और मुक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं । कृत-अकृत सभी गुरुतर पाप रुई की राशि के समान जलकर भस्म हो जाते हैं । राजन् ! अब आप इन अपराधों के नाम और लक्षण को सुनें — अनाश्रमिव – चारों आश्रमों से बाहर रहकर स्वच्छन्द नास्तिकवृत्ति अपनाना, अनग्निता — अग्निहोत्र, हवन आदि सभी कार्यों का परित्याग, व्रतहीनता — कोई भी सत्य, ब्रह्मचर्य और एकादशी आदि व्रतों का पालन न करना, अदातृत्व — कभी भी कुछ भी अन्न, धन या आशीर्वाद आदि न देना, अशौच, निर्दयता, लोभ, क्षमाशून्यता, जनपीड़ा, प्रपञ्च में पड़ना, अमङ्गल, व्रतभङ्ग, नास्तिकता, वेदनिन्दा, कठोरता, असत्यता, हिंसा, चोरी, इन्द्रिय-परायणता, मन को वश में न रखना, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, शठता, धूर्तता, कटुभाषण, प्रमाद, स्त्री, पुत्र, माता आदि का पालन न करना, अपूज्य की पूजा करना, श्राद्ध का त्याग, जप न करना, बलिवैश्वदेव तथा पञ्चयज्ञ का त्याग, संध्या, तर्पण, हवन आदि नित्यकर्मों का परित्याग, अग्नि का बुझाना, ऋतुकाल के बिना ही स्त्री-सम्पर्क, पर्व आदि में स्त्रीसहवास, चुगली, दूसरे की स्त्री के साथ गमन, वेश्यागामिता, अपात्र को दान देना, अल्पदान, अन्त्यजसङ्ग, माता-पिता की सेवा न करना, सबसे झगड़ा करना, पुराण और स्मृतियों का अनादर करना, अभक्ष्य-भक्षण, स्वामि-द्रोह, बिना विचारे कार्य करना, कृषि-कार्य करना, भार्यासंग्रह, मन पर विजय न प्राप्त करना, विद्या की विस्मृति, शास्त्र का त्याग करना, ऋण लेकर वापस न करना, चित्रकर्म करना, सदा कामनाओं का दास होना, भार्या, पुत्र एवं कन्या आदि का विक्रय करना, पशुमैथुन, ईंधनार्थ वृक्ष काटना, बिलों में पानी आदि डालना, तड़ागादि के जल को दूषित करना, विद्या का विक्रय, स्ववृत्ति का परित्याग, याचना, कुमित्रता, स्त्री-वध, गो-वध, मित्र-वध, भ्रूण-हत्या, पौरोहित्य, दूसरे का अन्न और शूद्र के अन्न को ग्रहण करना, शूद्र का अग्निकर्म सम्पन्न करना, विधिविहीन कर्म का निष्पादन, कुपुत्रता, विद्वान् होने पर याचना करना, वाचालता, प्रतिग्रह लेना, श्रौत-संस्कारहीनता, आर्त व्यक्ति का दुःख दूर न करना, ब्रह्महत्या, सुरापान, स्वर्णचोरी, गुरुपत्नीगमन तथा पातकियों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना — ये अपराध हैं । अन्य तत्त्ववेत्ताओं ने भी विविध प्रकार के अपराधों को कहा है ।

अनघ ! भगवान् सत्येश की पूजा करने से तत्क्षण सभी प्रकार के अपराध नष्ट हो जाते हैं । मुनष्यों द्वारा व्रत और पूजन करने से भगवान् स्वयं उसके वश में हो जाते हैं । ये जगत्पति भगवान् विष्णु लक्ष्मी के साथ सत्यरूपी ध्वज के ऊपर स्थित रहते हैं । इनके पूर्व में वामदेव, दक्षिण में नृसिंह भगवान्, पश्चिम में भगवान् कपिल, उत्तर में वराह तथा ऊर्ध्व में अच्युत स्थित रहते हैं । इन्हें ही ब्रह्मपञ्चक जानना चाहिये । ये ही सत्येश हैं. इन्हीं की सदैव पूजा करनी चाहिये । ये सत्येश भगवान् पद्य, कौमोदकी गदा, पाञ्चजन्य शंख तथा सुदर्शन चक्र धारण किये रहते हैं । उनके चरणकमल के अग्रभाग से पवित्र गङ्गा का प्रादुर्भाव हुआ है । इनकी आठ शक्तियाँ हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं — जया, विजया, जयन्ती, पापनाशिनी, उन्मीलनी, वंजुली, त्रिस्पृशा और विवर्धना । वे भगवान् हरि शुक्लाम्बरधारी, सौम्य, प्रसन्नमुख, सभी आभरणों से युक्त, शोभायमान और भुक्ति-मुक्तिप्रदाता हैं ।

राजन् ! उनकी जिस विधि से प्रयत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये, उसे आप सुनें । मार्गशीर्ष आदि बारह मासों में द्वादशी, अमावास्या अथवा अष्टमी के दिन शुक्ल या कृष्ण पक्ष का विचार किये बिना शुद्ध होकर उपवासपूर्वक व्रत करना चाहिये । शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षों में जनार्दन की पूजा करने का संकल्प लेना चाहिये । इस प्रकार नियम ग्रहण करके दन्तधावनपूर्वक तडाग, पुष्कर अथवा घर पर ही स्नाकर नित्य-नैमित्तिक कर्म करने चाहिये । एक पल सुवर्ण के मान से लक्ष्मीसहित सत्येश की प्रतिमा बनवाये जो अष्टशक्तियों से समन्वित पद्मासन पर स्थित हो । दुग्ध से पूरित कुम्भ पर स्थित सुवर्ण-पद्म के ऊपर उस प्रतिमा को स्थापित करे । उस पद्य की कर्णिकाओं पर देवाधिदेव की आठ शक्तियों की पूजा करे । अनन्तर भगवान् सत्येश (विष्णु) और सत्या (लक्ष्मी) की विधिवत् विविध पाद्यादि उपचारों से पूजा करे । अनन्तर इस प्रकार प्रार्थना करे —

“कृष्ण कृष्ण प्रभो राम राम कृष्ण विभो हरे ।
त्राहि मां सर्वदुःखेभ्यो रमया सह माधव ॥
पूजा चेयं मया दत्ता पितामह जगद्गुरो ।
गृहाण जगदीशान नारायण नमोऽस्तु ते ॥”
(उत्तरपर्व १४६ । ४८-४९)

अनन्तर अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मण को दान देकर व्रत का समापन करना चाहिये । इस व्रत को दोनों पक्षों में करे और वर्ष पूरा होने पर उद्यापन करे । ब्राह्मण से प्रार्थना करे कि हे ब्राह्मण देवता ! मेरे सभी पाप दूर हो जायँ । ब्राह्मण कहें — ‘आपके सभी पाप एवं दुःख दूर हो जायँ ।’ तदनन्तर ब्राह्मण को वह मूर्ति समर्पित कर समापन करना चाहिये ।

राजन् ! ब्रह्माजी ने कहा है कि इस व्रत को करने से अनन्त फल की प्राप्ति होती है । जो फल सभी वेदों के अध्ययन से और सभी तीर्थों में भ्रमण करने से प्राप्त होता है, उससे कोटिगुना फल इस व्रत के आचरण से होता है और व्रती को इस लोक में धन, धान्य, पुत्र, पौत्र, मित्र तथा सुख की प्राप्ति होती है । व्रत को करनेवाले व्यक्ति को विद्या और आरोग्य की भी प्राप्ति होती है तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसमें कोई संदेह नहीं है । जो इसको पढ़ता अथवा सुनता है, उसके भी सभी पाप दूर हो जाते हैं ।
(अध्याय १४६)

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